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सोमवार, 5 अगस्त 2013

इन्डेक्श








वन संरचना
वनो के क्षेत्र व उसकी विशेषताए
----------------------------------------------1. सुरक्षा कवच -विस्तार जो मृदा उत्पत्ती करने वाले प्रभावी कारक से प्रभावित होता है
2. भक्षण और उच्च उत्पादका -फैलाव जो पेय जल की उपलब्धता पर निर्भर
वाला हिंसक क्षेत्र करता है
3. सतत् संग्रहन और उत्पादन-रोशनी की उपलब्धता जो फैलाव को नियंत्रित
वाला क्षेत्र करती है ।

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वन, मानवीय बस्तियों की तरह ही महा जीव या वृहद जीव है। प्रायः सभी जीवों में त्रिस्तरीय क्षैतिज फैलाव देखा गया है । इसी दृष्टि से एक प्राकृतिक वन को तीन क्षेत्रों में विभाजित कर सुगमता से अध्ययन किया जा सकता है ।

इन तीन क्षेत्रों में सबसे बाहर वाला क्षेत्र परिधि का हिस्सा होता है। उसको सुरक्षा का क्षेत्र कह सकते हैं । इस क्षेत्र में बडी घनी झाडिया मिलती है जो गौवंश व वन के निवासी हिंसक पशुओ को क्रमशः वन के अंदर, वन के बाहर गमन करने में एक जैवकीय व्यवधान उत्पन्न करती है।

इन घनी झाडियों के साथ कटीली झाडियां व झाड झंकड रहते है जो कि एक जटिल सुरक्षा कवच की परिधि के रूप में रहते है । इन्हीं झाडियों और कटीले पौधो के साथ विषधारी झाडिया पाई जाती है । इन पोैधो की झाडिया अधिकतः वन सतह में ही शाखा देकर उपर की तरफ फैली हुई होती है ।

यह जंगल के बाहर के पशु को चरने में बाधा उत्पन्न करते है । इस क्षेत्र में सामान्यतः तेंदु के झाड, पलास के वृक्ष पाये जाते है। इन वृक्षों की वन सतह के पास में निकलने वाले तने प्रायः मृदा के अंदर गमन कर जाते हैं व जड तंत्र में एक शाखा के रूप में विद्यमान हो जाते हंै ।

तेंदू एक आर्थिक रूप से महत्वपूर्व वृक्ष है । इसकी पुरानी डालो में लगने वाली पत्तीयां अपेक्षाकृत मोटी हो जाती है । इसलिए इस वृक्ष को पत्ता संग्रहन के बाद जमीन के कुछ उपर से काट दिया जाता है । जिसमें की जल्दी ही नई शाखाएं आ जाती है ।

इस प्रकार परिधि क्षेत्र में मानव कटाई छटाई करके निस्तार के लिए आवश्यक जलाउ लकडी प्राप्त कर लेता है । पलास के फूल होली के समय खिलते है व अपनी उपस्थिती से फागुन मांस का एहसास कराते हैं । इसलिए होलिका दहन के लिए इन वृक्षों का इस्तमाल कम होता है और आज वृक्ष यह इस बात के ध्योतक है कि जहां वह बसे है वहां कभी उस क्षेत्र के वन क्षेत्र कि परिधि लूटी होगी ।

इस क्षेत्र में पाये जाने वाले वृक्ष की जडे एक बहुत उपयोगी कार्य करती है । जडो का जाल मृदा को बांध कर रखता है व वर्षा के तेज बहाव के बाद भी भूक्षरण नहीं होता । वहीं गर्मी में मृदा में अपेक्षाकृत कुछ ज्यादा नमी जड तंत्र के कारण रहती है । इसलिए गर्मी में अन्धड चलने के बाद भी भूक्षरण नहीं होता ।

इस प्रकार इस सुरक्षात्मक क्षेत्र में हमने अपने अस्तित्व के लिए दूसरे का सहयोग करना व दूसरे के सहयोग से खुद के अस्तित्व की रक्षा की बडी रोचक प्राकृतिक विधि प्रचलित है ।

आज जंगल समस्या ग्रस्त है । गौवंश के लिए पौष्टिक आहार प्रदाय सुनिश्चित करने के लिए तृणपरिस्थितिकीतंत्र का विकास परिधि के बहार करना चाहिए । इससे एक और जहा चारा और चारागाह का विकास होगा वहीं दूसरी तरफ भूसतह का क्षरण गोबर और गौमूत्र के कारण गति पकडेगा । क्यो कि गौवंश के लिए चारा उपलब्ध है । यह तंत्र शुरू में अस्तित्व ही न हो सकते है पर इनका पूनर्जन्म आसान है क्यो कि जीवन चक्र बडा सरल है ।

इनमें तेजी से उत्पादन करने की क्षमता के कारण सतह आच्छादन की अदभूत क्षमता है । घासो में अदभूत प्रतिरोधक क्षमता है व प्रतिकूल वातावरण में इनमें रूपान्तरण करके यह स्ववृद्धी कर लेते है ।

आज जब सारे वैेश्विकजगत में जैवकीय खेती कि अवधारण प्रचलित हो रही है। निश्चय ही परिधि के बाहर घासं का आवरण ठीक उसी प्रकार किया जाये जैसा कोशिका झिल्ली के बाहर प्रतिरोधी कारको सूचना संग्राहक द्वारा की जाता है ।

काष्ठ जलाउ लकडी, चारा, जडी बूटी की उपलब्ध मांग से बहुत कम है व उपलब्धता व मांग के अंत की कम से कम स्तर में रखने के लिए वन वर्धन सामाजिक वानिकी के अन्तर्गत वृक्षरोपण तथा वृक्षारोपक करके वृक्ष आच्छादित व वन आच्छादित क्षेत्र फल की बढाया जा रहा है ।

अब यदि वन विभाग वनवर्धित क्षेत्रो में परिधि के विकास की योजना बनाकर परिधि के बाहर तृण परिस्यितिक तंत्र का विकास करे तो निश्चय ही प्रबंधित वनबंर्धन पादप जैव विविधका के विकास में एक साथर््ाक पहल होगी।

यह सबसे महत्वपूर्ण तथ्य जो ध्यान देने योग्य है । वह है कि विभिन्न विघटन चक्रो का समायेान इस प्रकार से किया जाए कि सूक्ष्म पोषण तत्व व वृद्धिकारक जैव उत्पाद बंधकारी न हो । इसके अलावा आत्म रक्षा में सक्ष्म वृक्ष जैसे की बबूल,शुभफल को लगाकर पारिवारिक आवश्यकताओ की पूर्ति कराये तभी बढाई जा सकती है ।

वनो के क्षेतिज क्षेत्रीकरण का दूसरा व सबसे गतिशील भषण और उत्पादन की उच्चदर वाला भषण और उच्च उत्पादकता वाला हिंसक व अपेक्षाकृत अधिक रोशनी वाला क्षेत्र होता है । उस क्षेत्र में जैव घनतव अर्थात वृक्ष घनत्व प्रति इकाई क्षेत्रफल बहुत कम होता है ।

इस क्षेत्र में वृक्षो के विशाल पूर्णाछंद-कैनेगी होती है व प्रतिवृक्ष भू सतह प्रभाव बहुत बृहत होता है । इस क्षेत्र में एक ओर जहां शाकाहारी चोपार के झुन्ड घास चरते हुए नजर आएगे वही वनराज इसी क्षेत्र मंे शिकार करके अपना भरण पोषण करते है व दूसरे जानवरो के भरण पोषण करते है व दूसरे जानवरो के भरण पोषण का इन्तजाम करते है ।

इस क्षेत्र में चरने वाली व रेशे वाली घासे अधिकता में पाई जाती है व कान्हा-किसली प्रक्षेत्र में हाथी घांस काफी उची पाई जाती है । जो कि वनराज-शेर, तेंदूआ की आवासीय आवश्यकता को पूरी करती है ।

एकांकी महावृक्ष, जहा सिंह राज अपनी सीमाए बनाए हुए बिल्ली प्रजाति की विभिन्न जातियां इस क्षेत्र की चहल पहल बढाते है । वास्तव में यहां घास का उत्पादन हिरण, चीतल, संाभर, भैसा के लिए एक आदर्श भोज्य पदार्थ उपलब्धता का क्ष्ेात्र है व महावृक्ष की छाया में इन गतिशील चोपाओ की विश्राम स्थली रहती है ।

यह हरित अच्छादन की बाहुलता के कारण भूस्तरीय जैव विविधता अधिक होती है व कम समय के जीवन चक्र वाली वनस्पतियां उगती और खत्म होती है । इसी कारण मनुष्य इस क्षेत्र में अपनी आवश्यकता पूर्ति हेतु भ्रमण करता है । पर्यटको के लिए यह सर्वाधिक उपयुक्त क्षेत्र है । इसी कारण इस क्षेत्र में मानव दखलन्दाजी और बढ गई है ।

वनो का तीसरा और महत्वपूर्ण क्षेत्र केन्द्रक क्षेत्र है । यहा उचे उचे विभिन्न उचाई वाले स्तम्भाकार वृक्षो की बाहुलता है । सभी के अस्तित्व की रक्षा के लिए यहां उध्र्वाधर स्तर होता है जहां वर्ष के विभिन्न काल खण्ड में अलग अलग समय में अलग अलग समष्टि के वृक्षों में फूल लगना और खिलना, फल लगना, पतझड, नई पत्तियों का आना जाना लगा रहता है ।

इस क्षेत्र में वृक्षो के उपर चडकर रहने वाले बिल्ली प्रजाति के जानवर, भालू आदि का आवास रहता है । इस क्षेत्र में प्रति इकाई क्षेत्रफल में जीवो की संख्या सर्वोच्च रहती है । उपरी स्तर को लताओ द्वारा ढक लिया जाता है व बहुत उपयोगी जडी बूटिया यहा विद्यमान रहती है । इस क्षेत्र में निम्न स्तर में व्यक्तियों का गमन ही श्रेष्ठतम रहेगा । इस क्षेत्र में उत्पादन दर कम है पर उत्पादित जैव द्रव्य सर्वाधिक रहता है ।

इस त्रि-क्षेत्रीकरण संरचना को पूर्नस्थापित करना ही वन सर्वधन कर्ताओ के सामने सबसे बडी चुनौती है । आज वन सर्वधन कर्ताओ की एक ऐसी गतिशील कार्य योजना का विकास करना चाहिए जहां पादप जैव विविधता सबसे ज्यादाहो, सतत उत्पाद का कम से कम व्यवस्थापन का पूर्ण दोहन कर ले व चैपाओ को वृक्ष की परिधि के बाहर साल भरके भोजन मिले ।

वन औषधियों का दोहन उनकी उपयुक्त अवस्था में हो व विपरीत परिस्थितियों में पानी की उपलब्धता आसानी से बढाई जा सकती है। बहु समुदाय बहु समष्टि संरक्षण की कार्य योजना बनाने की आज सबसे ज्यादा आवश्यकता है।

शिक्षण पाठयक्रम कुछ इस प्रकार से बने की व्यक्ति प्रकृति को समझने में रूचि ले व हर समय वनो में हो रहे परिवर्तन को कौतूहलपूर्ण ढंग से अवलोकन करे । अपनी जिज्ञासा को शांत करे व नई जिज्ञासाओ को जन्म दे । ऐसी स्थिति जब ही बनेगी जब हम जलवायु के हिसाब से न कि मांग की पूर्ति करने के हिसाब से वृक्षारोपण कार्य योजना विकसित कर वनो का उनकी पूर्नउत्पादन क्षमता के आधार पर विकसित होने को छोड दे ।
प्राकृतिक प्रबंधन और सामाजिक जागरूकता

प्रकृति के प्रति बदलता हुआ समाज व व्यक्तियों का नजरिया एक बहुआयामी गतिशील समस्या है । जिसको प्रभावित करने वाले अनेक अदृश्य कारण व कुछ उपरी सतह से नजर आने वाले कारण है । वास्तविक कारण जनता में राष्ट्रीयता और आत्मगौरव का अभाव है । निश्चय ही स्वतंत्र भारत में जन्मी पीढी ने गुलामी की यातनाए नही झेली पर अब मानसिक गुलामी के कारण वह स्वयं यातनाकर्ता होते जा रहे है ।

हम प्रकृति का शोषण कर उसे अपने समाजिक और आथर््िाक स्तर सुधारने का साधन बनाये हुए है । जिसके कारण प्रकृति का अत्याधिक दोहन हो चुका है । जिसके दुष्परिणाम बार बार हो रही प्राकृतिक आपदाओ के रूप में सामने आ रहे है । इसका हल भारतीय अध्यात्म चिन्तन व जीवन शैली में है । इस संबंध में वृद्धजन कुछ करने की कोशिश करे तो निश्चय ही आशाकी नई सैद्धांतिक किरणो का उदय होगा ।

राष्ट्रीयजागरण और आत्मगौरव, आत्मसम्मान व अपने कर्तव्यो का बोध व निर्वाहन क्षमता का विकास प्राकृतिक प्रबंधको के समक्ष मानसिक सामाजिक सांस्कृतिक आर्थिक चुनौति के रूप में विद्यमान है । इस चुनौति पूर्ण कार्य को संचालित कर युवा पीढी में राष्ट्रीयता की भावना जागृत करने का राष्ट्रीय यज्ञ लगभग एक शताब्दी से चल रहा है पर वह आज भी अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पा रहा है ।

वह कौन से कारण है जिनके कारण हम आज जनता में राष्ट्रीयता की भावना जागृत नहीं कर पाये है । वह एक बहुत बडी चुनौती है । इस चुनौती को सहर्ष स्वीकार करते राष्ट्रीयता जागरण का लक्ष्य बनाना प्राकृतिक प्रबंधको की छठवी पर सबसे महत्वपूर्ण चुनौती है ।

इस चुनौती को हम सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से आम जनता में व्याप्त भ्रांतियों की दूर करके व राजनैतिक व सामाजिक स्तर पर हीनता भावना को दूर करके ही समाप्त किया जा सकता है । क्या वौद्विक जन, उच्च शिक्षा के संस्थान इस चुनौती का समाधान शोध एंवम विकास के माध्यम से कर पाएगे यह अभी सामाजिक विज्ञान के शोध के गर्भ में है ।

विशिष्ट विधि द्वारा घटको का तालिकाकरण करके स्थापित विश्लेषात्मक विधि द्वारा विश्लेषण करने की विधा का विकास इसका अध्ययन कि जा सकता है । यह सर्वमान्य सत्य है कि विविध तंत्र ही स्थाई तंत्र होते है व सतत उत्पादन करते है । इस दृष्टि से इस्टतम उत्पादकता की गणना करना व इष्टतम उत्पादन दर बनाए रखना ही प्राकृतिक प्रबंधको की प्राथमिकता होनी चाहिए ।

इन प्राकृतिक प्रबंधको का विकास इस प्रकार करना है कि मानवीय बस्तीया प्रशासनिकस्थल व शैक्षणिक संस्थान, उत्पादक इकाईया संचालित की जा सके ताकि प्राकृतिक परिस्थितिकी तंत्र अपना कार्य सुचारू रूप से संचालित कर सके
प्राकृतिक प्रबंधको के सामने दूसरी चुनोती है कि पर्यावरण पर न्यूनतम प्रभाव डाल कर विकासात्मक गतिविधियां का संचालन करना है । प्रारंभिक अवस्थाओ में पर्यावरण पर कोई ध्यान ही नहीं दिया गया व अंधाधुंध पादपो और जन्तुओ के आवास स्थल नष्ट कर दिये गए । इसका सबसे ज्यादा प्रभाव प्रकृति कि पुर्नउत्पादन क्षमता व स्वनियंत्रण कार्य विधि पर पडा ।
वहीं दूसरी ओर विकास के नाम पर विकसित किये गए । इन सभी प्रकार के संस्थानो ने यह मान लिया था कि वह जो कुछ भी अपने पर्यावरण मंे फेंकेगे,वहीं उत्सर्जित करेगे, यह भूल या मूर्खतापूर्ण सोच व दूरदृष्टि के अभाव के कारण वैश्विक स्तर पर प्रदूषण की भयावह समस्याए उत्पन्न हुई है।

एक समय पर वैश्विक पटल पर पर्यावरण रोजगार के अवसर व आर्थिक समस्याए इनवालोमेंट एंव इकोनोमी पर प्रमुख रूप से छाई रहीं । इन बात पर ध्यान केन्द्रीत करते निर्याजित विकास जब किया गया तो पर्यावरण उर्जा व शिक्षा प्रमुख समस्याएं बनकर विश्व पटल में उभरी । अन्य समस्याओ का भी इनवायलोयमेंट निराकरण जब खोजे जाने लगे तब वैश्विक राष्ट्रीय व राजकीय स्तर पर पर्यावरणीय चेतना जागृत हुई ।

कई अन्तरराष्ट्रीय गैर शासकीय संस्थाओ पर्यावरणीय चेतना जागृत करने के लिए अभूतपूर्ण सफल आंदोलन संचालित कर विभिन्न सरकारो और गौर सरकारी संगठनो में पर्यावरण के संरक्षण हेतु पर्यावरणीय विधियो व पर्यावरणीय नियमों का विकास किया व पर्यावरणीय चैतना की मशाल आम मजदूर व किसान के हाथ तक पहंुचाई ।

तृतीय और सबसे महत्वपूर्ण समस्या जो प्राकृतिक प्रबंधको के लिए चुनोती बनी हुई है । वह है प्राकृतिक परिस्थितिक संतुलन को पुर्नस्थापित करना व प्राकृतिक तंत्रो की पुर्नउत्पादन क्षमता का विकास करना व स्वनियंत्रण क्रिया विधि को पुर्नस्थापित करना । निश्चय ही यह एक चुनौतीपूर्ण कार्य है । क्यो कि आर्थिक तंत्र अधिकतम उत्पादन के लक्ष्य को केन्द्रीत कर नियोजित किए जाते रहे है ।

आर्थिक व प्राकृतिक तंत्र में इस मौलिक भिन्नता के कारण जो समस्याए विकसित हुई उसी के कारण पर्यावरणीय प्रबंधन कि तमाम परियोजनाए अपेक्षाकृत परिणाम नहीं दे पाई व। प्रदुषण के प्रभाव के कारण अन्य घातक विभादीया समाज को प्रभावित करने लगी । केंसर, हयूकिमिया कूपोषण, दमा, अस्थमा आदि व्याध्यिों का कारण प्रदुषित पर्यावरण स्थापित हुआ । तब विष मारने के लिए दूसरे विष के विकास की अवधारणा पर आधारित औषधी उत्पन्न की विधियों का विकास हुआ । इससे चितिक्सा क्रांति आई व मनुष्य की औसत आयु बढी व भारत जैसे राष्ट्र में नवजात शिशु मृत्यु दर में भी कमी आई ।

इन सबके कारण चितिक्सत का कार्य आजीविका का साधन बनता गया व बडे बडे नियोजित निवेश के माध्यम से अनेक व्यापारिक व कुछ सेवार्थ अस्पताल दूनिया के दृष्य पटल पर अवतरित हुए जिससे हमारा राष्ट्र भी अछूता नहीं रहा । नियोजनकर्ताओ ने उत्पादेा पर ध्यान रखा पर उप उत्पादो का उत्र्षजित कचरे के नियोजित उपयोग पर ज्यादा ध्यान नहीं केन्द्रीत किया जिससे कई समस्याए पैदा हुई ।
सतत बढती हुआ अपशिष्ट या कचरा उत्सर्जन दर प्राकृतिक प्रबंधको के समक्ष एक मानवीय मनोवैज्ञानिक समस्या का स्वरूप धारण कर चुकी है व इस्तेमाल करो और फेको की संस्कृति एक बहुत विकराल चेनौती बन गई है । पर्यटन के विकास के कारण आज प्रायः दुर्लभ से दुर्लभ प्राकृतिक स्थलो में भी इस्तेमाल करते फेके गए अवशिष्ट मिल जाएगे ।

यह अति दुर्भाग्य है कि देश की जीवन रेखा माने जाने वाली मां गंगा का उदगम स्थल उतरांचल व भू जल स्तर संरक्षक स्थल पश्चिमी हिमालय के क्षेत्रो में प्रदुषण का स्तर स्वनियंत्रण के स्तर से काफी उपर बढ गया है । इसका सबसे ज्यादा प्रभाव जल में पूर्व में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीवो के सामिष्ट पूर्ण रूप से बदल गया है । व जल शुद्धीकरण के लिए उपयोगी सूक्ष्मजीवो के समिष्टो का पूर्णतः आभाव हो गया है । जल अपनी प्राकृतिक स्वशुद्धीकरण क्षमता खो चुका है वही दूसरी तरफ बस्तियों से उत्सर्जित प्रदूषको के कारण पूर्ण रूप से प्रदूषित होकर अपनी धार्मिक महत्ता मनोवैज्ञानिक प्रभाव व सामाजिक दायित्व का निर्वाहन करने में असमर्थ हो रही है। वह गंगा और अन्य नदियों को प्रदूषण से मुक्त करना प्राकृतिक प्रबंधको की चतुर्थ समस्या है । पर यह एक राष्ट्रीय समस्या है और इसका पूर्णतः में निदान करना एक बहुत बडी चुनौती बन गया है ।

प्राकृतिक अपदाओ की पूनराावृत्ति प्राकृतिक प्रबंधको के सामने हर बार नई चुनौतीया पेश करती है व शिक्षा व शोधार्थियो के पुरूषार्थ और मर्यादाओ के सामने नई चुनौतियां पेश करती है । विभिन्न कारणो से बारह महिना भूक्षरण, बरसात के समय बिजली गिरना,चटटानो का टूट कर भूसत पर बिखरना, भूकम्प, सुनामी, आदि प्राकृतिक आपदाए हमें सदैव ललकारती है कि अच्छे से ध्यानपूर्वक अध्ययन करो तभी प्रकृति को समझ पाने में समर्थ होगे । यह एक चिन्तनीय विषय है । वह इस तरफ बौद्धिक जनो पर प्राथमिकता के आधार में ध्यान केन्द्रीत कर प्राकृतिक विनाश के कारको और उनकी नियंत्रण करने वाले नियंत्रण कर्ताओ का ज्ञान विविधता में परिपूर्ण प्रकृति के अध्ययन करने हेतु विविधता अध्ययन की विधा महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी । साधारणतः अविलम्ब आर्जितकर भविष्य की त्राषदी की पूरनाकृति की रोकने के उपाय ढूढंने चाहिए। इस प्रकार प्राकृति अपदाएं प्राकृति प्रबंधकी के सामने पाचंवी समस्या के रूप में विद्यमान है ।















प्राकृतिक प्रबंधन के सिद्वांत

प्रकृति में (रिजनेरेशन) स्क्-नियंत्रण (सेल्फ रेग्युलेशन)स्व नियोजन नेचुरल प्लानिंग ईष्टतम दोहन आपटिमभ एक्सीप्लीईटेशन व सतत विकास की अदभुत शक्ति है। यंत्रो से सुसज्जित स्वार्थी लोभी,मक्कार,मानव अंधकार के नशे में महाबली हैं । व शोषित पीडि़त अशिक्षित भूखौ को अपराध का बोध ही नहीं है । इस मानवीय प्रवृति से सबसे ज्यादा उसका परिवेश ओर पर्यावरण प्रभावित है ।
आज नगरों में में गगन चुम्बकीय इमारते जल यंत्रो के जल ग्रहन क्षेत्रों में बन गई है जिसके कारण बरसात में जल मग्नता की समस्या व त्वरित बाढ़ बिकराल रूप ले लेती है । ऐेसी आवासीय ईकाईयों में शीड़न की समस्या 8-9 माह तक सतत बनी रहती है । इन रहवासियों द्वारा गैर जिम्मेदारी पूर्ण तरीके से अपना अपविष्ट फेकने से जल तंत्र सिकुड़ते जाते हैं व स्थल उत्पत्ति निपटने आम बात है ।
वहीं दूसरी और रोजगार के अवसर उपलव्ध होने के कारण व नियोक्ता के द्वारा किसी प्रकार की आवासीय सुविधा मुहैया न कराने के कारण मलीन बस्तियों में अस्त्तिव में आ जाती है । मलीन वस्तियों के रहवासी विकास में अहम भूमिका निभाकर अपना जीवन स्तर सुधारते हैं पर कुछ का नैतिक सामाजिक व आर्थिक पतन इतना हो जाता है कि वह समस्या मूलक बन जाता है । भूले भटके यदि कुछ जन प्रतिनिधि बन लाये जो कभी कभी कानून और व्यवस्था की समस्याऐं खड़ी हो जाती है ।

श्याद आज बढ़ती हुई असुरक्षा की भावना के कारण ऐसे व्यक्तियों की संख्या हर निर्वाचित इकाई में बढ़ती जा रही है जो कि बहुत ही चिन्ताजनक व समस्या मूलक है ।

वही दूसरी और पहाडि़यों, टीलों ,छोटी छोटी घाटियों से महत्वपूर्ण पारिस्थितिक सेवा प्रदता क्षेत्र हैं । इन क्षेत्रों में आवासीय इकाई का विकास सतह अच्छादन विभिन्न स्तरमें विकसित पर्णछिद का अभाव भूक्षरण हवा,पानी के द्वारा तेज बाड़ गिरता भू-गर्भ जल स्तर मृदा सतह व विभिन्न अपविष्ट का फैकना नई समस्याओं को जन्म देता है । दुर्भाग्यवश ऐसी उबड़ खाबड़ पथरीली सतह उबड़ क्षेत्र खराब पहाडि़यों में जहां प्राकृतिक भू-जल संग्राहक क्षेत्र हुआ करते थे वहां स्थल के भू-जल संग्राहक नालिक तंत्र अक्रियाशील हो जाता है । या लगभग मृत प्रायः हो जाता है ।

इस प्रकार प्राकृतिक भू-जल संग्रह प्रभावित होताहै और कभी कभी इसमें जले जैवांस की राखड़ मर जाने के कारण यह समस्या मूलक या अचेतन हो जाती है ।
आज हिसंक चोपाए के मानव भक्षक बनने का विश्लेषण करेगें तो हम पायेगें कि जो सिंह,तेंदूए चीता के प्राकृतिक वास स्थल थे वहां अब उत्पादक इकाईयाॅ शैक्षणिक संस्थाऐं गई हैं । गर्मी में पानी को कोई इन्तजाम नही होता सभी मोसमी जल स्त्रोत सूख जाते हैं । इसका फायदा उठाकर कुछ धूर्त व्यक्ति साकाहारियों का आखेट करते हैं । भोजन उपलव्धता न होने के कारण जव हिशंक पशु अपनी प्राकृतिक प्यास बुझाने वनग्रामो में प्रवेश करते हैं तो पालतु मवेशियो का शिकार करते हैं । धोखे से यदि किसी पशु को मानव रक्त का स्वाद लग जाताहै तो वह मानव भक्षी ही बन जाता है ।

आज जबलपुर क्षेत्र में 30-35 किलो मीटर लम्बे पर्वतीय वन क्षेत्रों में तेंदूआ परिवार का भ्रमण समाचार वालो के लिये कुछ न कुछ नया छापने का मोका प्रदान करता है । वही इनका आवासीय इकाईयों स्कूली परिसरों व उनके आस पास भ्रमण शैक्षणिक संस्थानो में इनका भ्रमण चिन्तनीय हैं ।

आज भारतीय संस्कृति की आत्मा निरंतर अथाह जल श्रोत वाली माॅ गंगा प्रदूषित है व कहीं कही इतनी ज्यादा प्रदूषित है कि जल नहाने के लायक भी नही है तो आचमन या पीने की कल्पनाऐं भी नहीं कर सकते । आखिर इसका कारण विधर व उत्तर प्रदेश में लगी औधोगिक इकाईयाॅ एक अंश मात्र ही हो सकती है ,इसका वास्तविक कारण आम व्यक्ति पर शासको नियंत्रको नियामन के क्षेत्र में कार्य करने वालों को हास्यपद लगेगा पर यही हास्यपद वास्तविक कारण है । आखिर वह क्या है ?
पश्चिमी हिमालय का वह क्षेत्र जहां वरसाती पानी इक्ट्ठा होना था,कुछ अंश रिस रिसकर भू-तल तक पहुचंता था और शेषप्राकृतिक गलियों और नालियों से वह कर भ्ूा-जल स्तर का सर्वघन करता था वहां प्रचूर मात्रा में जड़ी बूटियों जड़-जाल तंत्र के रूप में जैव सम्पदा थी जो अब एक दम खत्म हो गई है । जल संग्रह क्षेत्रों में प्रदूषण के कारण जल शुद्वी करण वाले सूक्ष्म जीवी का पूर्णतः अभाव व आवासीय इस्तमाल के कारण्ण विविध प्रदूषको की उपस्थिति व संख्या सतत् बढ़ गई व सूक्ष्म जीवों केसामिष्ट परिवर्तीत हो गये ।
इस वास्तविक्ता को हम स्वीकार लें तो निश्चिय ही उत्तर प्रदेश और बिहार राज्यों जल ग्रहण क्षंेत्रो में जो उत्तरांचल राज्य में स्थित हैं निवासरत परिवारों कीउततर प्रदेश और बिहार मेंवसाकर स्थाई सरकारी नोकरी देकर पहाड़ी ग्रामो का विकास सतत पर्यवरणीय सेवाओं के रूप में कर सकते हैं । आज राष्टृीय स्तर पर एक बहु विषयक विधा के ज्ञान के आधर पर पारिस्थितिक के मूल सिद्वांतो को अपनाकर निर्णय लेने वाले उच्च शक्ति प्राप्त आयोग की स्थापना करने की है । इस आयोग का संभावित नामांतरण‘‘ राष्टृीय पारिस्थितिक तंत्र सेवाऐं प्रदाता विनायमक आयोग हो ‘‘ क्योकि इसमें अदृष्य दूरगामी प्रभाव के निर्णय दोने हैं तो इसको मध्यस्थता के आधार पर विधि एंव विधायी कार्य निष्पादित करने का पूर्ण अधिकार है । इसका स्वरूप पर विचार सिद्वानततः जब करें जब इसे मान लिया जायेगा ।
आज नर्मदा नदी किनारे वसे ुये याहरो कागिरता हुआ भू-जल स्तर एक अति चिन्तनीय समस्या हो गई है । इसका दूरगामी प्रभाव हमारी समृद्वय प्राकृृतिक जैव समपदा पर निश्चित पड़ेगा । क्या मध्य प्रदेश जैब विविधता वोर्ड पश्चिमी घाट वाले इलाको में बृहद्व वृक्षारोपण कर कार्य करके परिश्चमी घाट की सतह भू-आच्छादन क्षमता व बर्णघ्द्व प्रभाव की असरकारी बनाकर प्राकृतिक भू-संरक्षण राकने के प्रति गंभीर है । समस्या मध्य प्रदेश की है और हर निकलेशा ,कर्नाटक,महाराष्टृ में फेले हुये पश्चिमी घाट की जैव विविधका संरक्षण व संबर्धन से जी हाॅ यही है परिस्थिति शास्त्र पर आधारित प्रबन्धन की व्यूह रचना ।

यह अति आवश्यक है कि हम मानव द्वारा विकसित व प्रकृति द्वारा पोषित ओर विकसित हुआ गतिशील सतत उत्पादक तंत्र की प्रमुख विशेषता समझ लें व प्रमुख विभेदक लक्षणों को समझने की व्यापक समग्रता से कोशिश करें ।

प्राकृतिक तंत्रों से इष्टतम दोहन से ज्यादा दोहन करने की कोशिश करेगें तो वयाधियाॅ उत्पन्न हो जायेगी जबकि मानव द्वारा विकसित मानव निर्मित तंत्र अधिकतम उत्पादन व अधिकतम दोहन के सिद्वांत पर काम करते हैं ।

प्राकृतिक तंत्र एक निश्चित अवधि के बाद कार्य असक्षम प्राकृतिक रूप सेे हो जाती है जवकि मानवो तंत्रो में कार्य असक्ष्मता बहुत ही आर्थिक धनी व मानसिंक पीड़ा की जनक हो जातीहै । प्राकृतिक तंत्र बहुत ही श्रेष्ठतम संचय के आधार पर कार्य करते हैं । जवकि मानवीय तंत्र उर्जा व पदार्थ का दुरूपयोग करके कार्य निष्पादित करते हें जिसमें संचय की प्रवृतिन होकर मूल्य वृद्वि क प्रवृति होती है ।

प्राकृतिक तंत्र विविधता विकास के साथ स्थाई होते जाते है,जवकि विविध मानवीय तंत्र आर्थिक दृष्टि से बहुत मंहगें होते जाते हैं ।

सक्षेप मेंकहेंतो यह माना जा सकता है कि प्राकृतिक तंत्र संचयकर्ता है जवकि मानव निर्मित तंत्रो में पदार्थो और उर्जा के दुरूपयोग केकारण काल खण्ड में आर्थिक दृष्टि से गैर उपयोगी हो जाते हैं ।

इन मौलिक कारणो के कारण ही पर्यावरणीय तंत्रो का प्रबधन मानव निर्मित प्रबंधन के सिद्वांतो के प्रतिपालन करके नहीं हो सकता । समय आ गया है इन गतिविधियों को विराम देकरएक पारिस्थितिक सिद्वांत आधारित प्रबंधन नीति विकसित करने का इस हेतु योजना आयोग (राष्टृीय व राज्यकीय) में एक प्राकृतिक प्रबंधन सलाहकार मंडल कागठन कर पर्यावरणीय प्रबंधन के लिसे आवश्यक सूचना पदाता केन्द्र कीस्थापना करप्राकृतिक प्रबधन में सबसे महत्वपूर्ण पक्ष स्थापित विधिके अनुसार त्वरित गति से विधाई कार्य निरूपादनकर परियोजनाओं को सही समय में लगू करवाना व प्रस्तावित वजट में बृद्वि न हो इस पर ध्यान देना । इस कार्य हेतु निष्पादन संस्थाओ को दीर्घकालीन जिम्मेदारी (90-95)वर्षो तक वहन करने की क्षमता जरूर होना चाहिये । आज बालाधाट जबलपुर मीटर गैज परियोजना के कारण राष्टृ को हो रहे आर्थिक हानी का आकलन किया जाये तो विश्चिय ही बड़े चोकाने वाले परिणाम आयेगे ।

आज आवश्यक्ता यह है कि केन्द्रीय सरकार कावन व पर्यावरण मंत्रालय , मध्य प्रदेश सरकार का राजस्व अमला ,प्रदूषण नियंत्रण मंडल के सदस्य व भारतीय वन प्रबंधन संस्थान के वैज्ञानिक दल दक्षिण मध्य पूर्व रेल्वे नागपुरकेप्रबंधक व दक्षिण मध्य पूर्वी रेल्वे के महा प्रबंधक के साथ बैठकर केन्द्रीय पर्यावरण व वन मंत्रालय की शंकाओ का समाधान करे । संभवतहा तो परियोजना के निरूपादन की जिम्मेदारीपश्चिम मध्य रेल्वे के महाप्रबंधक व जबलपुर मंडल के प्रबंधक को सोंपकर त्वरित गति से परियोजना पूरी करने की दिशा में कदम उठाकर राजनैतिक मजबूरियाॅ अपनी जगह हे पर राष्टृीय हानि अति कष्टप्रद व पीड़ादायी है । राष्टृीयता की भावना करके इस परियोजना को पूरा किया जाए तो निश्चिय ही पूर्वी भारत से दक्षिण भारत के वीच यात्रा समय व यात्रा व्यर्थ में अभूतपूर्व कटोती हो सकती है।

वक्त आ गया है कि महज पर्यावरण विभाग की शंकाओं कासमाधन न होने के कारण परियोजना को और लंबित न किया जाये । आज प्रतिनिधित्व विवशता ,राजनैतिक प्रतिबद्वता व अपने भविष्य से ज्यादा राष्टृीय स्तर पर राष्टृ सर्वोपरी इकाई के सिद्वांतों पर चलकर विकास कार्य को गति देने की जरूरत है।
यह बड़ी विडम्बना है कि समाज में मूल्यों का पतन हुआ है

आलेख

मध्य प्रदेश राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण द्वारा संपादित एंव प्रकाशित मार्गदर्शक पुस्तिका देखकर प्रसन्नता हुई ।

पुस्तिका का आकार लघु किन्तु परिवेश विशद् है । सामान्य नागरिक, विशेषकर विधिक सहायता के इच्छुक नागरिकोंको, अपने दैनिक व्यवहारिक जीवन में जिन कानूनो का ज्ञान होनेकी आवश्यक्ता,अनुभव होती है । कब,कैसे कहां और किस प्रकार की विधिक सहायता प्राप्त कर, पीडि़त व्यक्तिअपने अधिकार काप्रभावी पालन करा सकता है इसका समग्र उल्लेख जन साधारण को सुलभ भाषा में किया गया है । समाज के पिछड़े वर्ग ,अनुसूचित जाति एंव जनजाति ,आर्थिक रूप से विपिन्न और महिलायें- ऐसे वर्ग के सदस्यों के लिये एक पुस्तिका अत्यन्त उपयोगी है ।

सभी लेखों के श्रोत न्यायाधीश अथवा सुविज्ञ अभिभाषक महानुभाव है । अस्तु सामग्री स्वाभाविक रूप से अधिकारिक एंव प्रमाणिक है ।

यह पुस्तिका एक स्तुत्य प्रयास है । विधि सेवा एंव विधि साक्षरता का प्रचार-प्रसार करने में, और विधि स्वयं सेवकों एंव सहायता के इच्छुक व्यक्तियों को निकट लाने मेें, यह पुस्तिका सेतु का कार्य करेगी ।

इस उत्तम एंवउपयोगी प्रयास के लिये बधाई और
न्याया सबके लिए
संदेश

मुझे यह जानकर प्रसन्नता है कि मध्य प्रदेश राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण आम व्यक्ति को सामान्य रूप से काम आने वाले कानूनों की जानकारी उपलव्ध कराने के उद्वेश्य से इस पुस्तक का प्रकाशन कर रहा है ।

यह वास्तव में चिन्ता का विषय है कि असज एक और विभिन्न प्रकार के विवाद जैसे पारिवारिक,सपंति संबंधी, आपराधिक ,भू-राजस्व आदि दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं , दूसरी और आम व्यक्ति को अपने अधिकारों एंव कत्र्वयों की जानकारी का अभाव है । आम व्यक्तिको जागरूक बनाने के लिये राज्य प्राधिकरण का यह कदम प्रासंगिक एंव प्रशंसनीय है ।

मुझे विश्वास है कि इस पुस्तक की सामग्री सभी के लिए उपयोगी होगी एंव अधिक से अधिक व्यक्ति इसका लाभ उठा पायेगें ।

मैं राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण को इस प्रकाशन के लिए बधाई देता हूॅ और पुस्तक के सफल प्रकाशन हेतु अपनी हार्दिक शुभकामनाऐं प्रेषित करता हूॅ ।

इन्डेक्श
1- भारत का संबिधान और पर्यावरण संरक्षण ।
2- व्यस्क मताधिकार ।
3- मध्य प्रदेश सरकार की बालक एंव महिला कन्याण संबंधी
योजनायें ।
4- सबिधान में स्त्री और बच्चों से संबंधित विशेष प्रावधान ।
5- देश में महिलाओं की स्थिति ।
6- घरेलू हिंसा।
7- निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षाका अधिकार अधिनियम ।
8- दुष्कर्म क्रूरताकी जांच केसंबंध में दिशा निर्देश ।
9- विवाह का रजिस्टृेशन ।
10- किशोर न्याय (बालको की देखरेख तथा संरक्षण)अधिनियम
2000 एंव मध्य प्रदेश किशोर न्याय (बालको की देखरेख तथा संरक्षण)नियम 2003 में बालकों के कल्याण संबंधी दिये
गये विशेष प्रावधान ।
11- सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 एक परिचय ।
12- ग्राम न्यायालय ।
13- न्यायिकेत्तर वैकल्पिक उपचार ।
14- मध्यस्थता ।
15- न्याय प्रश्न,भारतीय न्याय च्यवस्था समस्या और समाधान ।
16- बच्चों से संबधित विधि दिशा निर्देश ।
17- महिलाओं से संबंधित विधि और दिशा निर्देश ।
18- सूचना ।
19- क्रांती
20- मानव अधिकार ।
21- भारतीय संबिदा पर्यावरण संरक्षण ।
22- हारित प्राधिकरण ।
23- घ्रृूण हत्या ।

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