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सोमवार, 5 अगस्त 2013

मूल अधिकार।







                      भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी विरूद्व भरत कुमार और अन्य ए0आई0आर0 1998 एस.सी.184 में ‘‘ बन्द‘‘ 3 को असंवैधानिक माना गया है जवकि हड़ताल से भेद करके कहा गया हे कि ‘ बंद‘ से जबरदस्ती नागरिकों कर काम रोक कर मूल अधिकारांे कर उल्ल्घंन किया जाता है।
                                            प्रगति वर्गीज विरूद्व सिरील जार्ज वर्गीज के मामले में भारतीय तलाक अधिनियम 1869 की धारा 10 को धर्म के आधार पर विभेद के कारण अबैध घोषित कियागया है क्योकि पति को केवल जार कर्म और पत्नि को कूररता जारकर्म और परित्याग तलाक के लिये साबित करना पड़ता था ।

                  भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 118 को अवसंबैधानिक माना गया है । पेज नं.105
 
                                                                  रेवाधी विरूद्व भारत संघ ए0आई0आर01988 एस.सी. 835 के मामले में जारकर्म को लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं माना गया है ।
                                           रनधीर सिंह विरूद्व भारत संघ पेज नं.103 समान कार्य के लिये समान वेतन । दैनिक मजदूर के लिये भी लागू किया गया है ।




                                 एम.सी.मेहता तामिल नाडू केस-113                                                                बेगार से तातपर्य ऐसे काम या सेवाओं से है जिसे किसी से बल पूर्वक बलातश्रम बिना परिश्रमिक दिया जाताहै सभी बलपूर्वक लिये जाने वाले कार्यको भी बेगर माना गया है इससे मानव की प्रतिष्ठा और गरिमा पर आधात पहुंचता है ।
                                                       किसी व्यक्ति को अपनी इच्छा के विरूद्व या दबाब सेकार्य करना पड़ता है तो भले ही उसे परिश्रमिक मिला है वह बलातश्रम माना जावेगा ।बलातश्रम में शारीरिक दबाब विधिक दवाव के साथ ही साथ आर्थिक कठिनाईयों से उत्पन्न दबाब भी शामिल है । जहां उसे कम परिश्रमिक मे काम करना पड़ता है । बिना केदियों को परिश्रमिक दिये काम करना बलातश्रम ,गांव के मुखिया के घर बिना मजदूरी के काम करना बेगार है ।



                                             संबिधान में यदि कोई अधिकार किसी मूल अधिकार के प्रयोग के लिये आवश्यक है तो वे अधिकार भी मूल अधिकार माना जावेगा पहले उसका उल्लेख संबिधान के किसी अनुच्छेद में मूल  अधिकार रूप में न किया हो

                              न्यायालय द्वारा एकांत्ता का अधिकार मूल्य अधिकार माना है । कोई व्यक्ति किसी के व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप नहीं कर सकता यह पूर्ण अधिकार नहीं है 

 ,                                    व्यस्क बालक बालिका को स्वेच्छा से अंतरजाति विवाह का अधिकार मूल अधिकार है

 विदेश भ्रमण का अधिकार जीवकोपारर्जन,सड़क पर व्यापार करना मूल  अधिकार


लोकहित संबंधी वाद में दिशा-निर्देशः-
मान0 उच्चतम न्यायालय द्वारा जन हित याचिका व्यक्तिगत बात को स्वीकार नहीं किया जायेगा।

 जनहित याचिका के रूप मेंः-
01. उपेक्षित बच्चों
02. श्रम मामलों बंधुओ मजदूरी
03. श्रमिकों के लिये न्यूनतम मजदूरी का भुगतान न हो श्रम कानून का उल्लंघन व्यक्तिगत मामलों को छोड़कर आकस्मिक शोषण श्रम कानूनों में।
04. जेल में उत्पीड़न एवं मामले जो अधिनियम-32 में जिनका निपटारा हो जाये उन्हें नहीं लिया जायेगा।
05. पुलिस प्रताड़ना के मामले, पुलिस हिरासत में मृत्यु।
06. महिला उत्पीड़न संबंधी विशेष मामले।
07. ग्रामीण का उत्पीड़न प्रताड़ना एस.सी.एस.टी. आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के मामले।
08. पर्यावरण प्रदुषण के संबंधित मामले।
09. खाद्य अपमिश्रण विरासत और संस्कृति के रख-रखाव वन और वन्य जीवन संबंधी सार्वजनिक महत्व के मामले।
10. दंगा पीडि़तों संबंधी याचिका पारिवारिक पेंशन संबंधिी याचिका। 
 
                                 सर्वप्रथम जनहित याचिका मान0 मुख्य न्यायाधीश द्वारा मनोनीत एक न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत की जायेगी उसके द्वारा जाॅच के उपरांत यदि सार्वजनिक हित का मामला होने पर ही उसकी सुनवाई की जायेगी।