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बुधवार, 27 नवंबर 2013

धारा 315 दण्ड प्रक्रिया संहिता अभियुक्त सक्षम साक्षी

अभियुक्त के सक्षम साक्षी होने के विषय में धारा 315 दण्ड प्रक्रिया संहिता ?    

        भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20  (3) में यह उपबंधित किया गया है, कि किसी भी व्यक्ति को जिस पर कोई अपराध लगाया गया है, स्वयं अपने विस्द्ध साक्ष्य देने के लिये बाध्य नहीं किया जायेगा। यह मूल अधिकार इस सिद्धांत पर आधारित है, कि प्रत्येक व्यक्ति तब तक निर्दाेष माना जाएगा, जब तक उसे अपराधी सिद्ध न कर दिया जाए। अपराधी के अपराध सिद्ध करने का भार अभियोजक पर होता है। अभियुक्त को अपनी इच्छा के विरूद्ध कोई स्वीकृति या बयान देने की आवश्यकता नहीं होती है। 

        इसी सिद्धांत को आधार मानते हुए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा- 315 (1) में उपबंधित किया गया है, कि कोई व्यक्ति, जो किसी अपराध के लिए किसी दण्ड न्यायालय के समक्ष अभियुक्त है, प्रतिरक्षा के लिए सक्षम साक्षी होगा और अपने विरूद्ध या उसी विचारण में उसके साथ आरोपित किसी व्यक्ति के विरूद्ध लगाए गए आरोपों को नासाबित करने के लिए शपथ पर साक्ष्य दे सकता है:-
    परन्तु -
(क) वह स्वयं अपनी लिखित प्रार्थना के बिना साक्षी के रूप में न बुलाया जाएगा,
(ख) उसका स्वयं साक्ष्य न देना पक्षकारों में से किसी के द्वारा या न्यायालय
    द्वारा किसी टीका-टिप्पणी का विषय न बनाया जाएगा और न उसे उसके, या उसी विचारण में उसके साथ आरोपित किसी व्यक्ति के विरूद्ध कोई उपधारणा ही की जाएगी।
    (2) कोई व्यक्ति जिसके विरूद्ध किसी दंड न्यायालय में धारा 98, या धारा        107, या धारा 108, या धारा 109, या धारा 110 के अधीन या अध्याय 9        के अधीन या अध्याय 10 के भाग ख, भाग ग या भाग घ के अधीन       कार्यवाही संस्थित की जाती, ऐसी कार्यवाही में अपने आपको साक्षी         के रूप में पेश कर सकता है:
    परन्तु धारा 108, धारा 109 या धारा 110 के अधीन कार्यवाही में ऐसे व्यक्ति
द्वारा साक्ष्य न देना पक्षकारों में से किसी के द्वारा या न्यायालय के द्वारा किसी टीका-टिप्पणी का विषय नहीं बनाया जाएगा और न उसे उसके या किसी अन्य व्यक्ति के विरूद्ध जिसके विरूद्ध उसी जाॅंच में ऐसे व्यक्ति के साथ कार्यवाही की गई है, कोई  उपधारणा ही की जाएगी।
        भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20-3- में दिये गये मूल अधिकार के समकक्ष धारा-315 दं0प्र0सं0 है। इसका संरक्षण तब मिलेगा जब निम्नलिखितें शर्तें पूरी होगी:-

    1-    व्यक्ति पर अपराध करने का आरोप लगाया गया हो।
    2-    उसे अपने विरूद्ध गवाही देने के लिये बाध्य किया गया हो।
    3-    उसे अपने विरूद्ध गवाही देने के लिये बाध्य किया जाये।

        यह संरक्षण केवल आपराधिक मामले में अपराध के अभियुक्त को प्राप्त है,  सिविल कार्यवाही में लागू नहीं होता है।

        एम.पी. शर्मा बनाम सतीशचंद्र ए.आई.आर. 1954 सुप्रीम कोर्ट 300 एवं वीरा इब्राहिम महाराष्ट््र राज्य ए.आई.आर. 1976 एस.सी. 1167 में अभिनिर्धारित किया गया है, कि यदि किसी व्यक्ति के विरूद्ध एफ.आई.आर. दर्ज की गई है, तो भी उसे अपने विरूद्ध साक्ष्य देने के लिये बाध्य नहीं किया जायेगा। गवाह बनने के लिये वाक्यांश की व्याख्या करते हुए माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है, कि ऐसी साक्ष्य प्रस्तुत करना या न्यायालय में किसी विलेख को प्रस्तुत करना जो विवादास्पद विषय पर प्रकाश डालता हो। इसमें अभियुक्त के ऐसे बयान शामिल नहीं है जो उसके व्यक्तिगत ज्ञान पर आधारित है। 

        माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा स्टेट आफ बाम्बे बनाम काथूकाली ए.आई.आर.-1961 सुप्रीम कोर्ट 1808 और परसादी बनाम उत्तरप्रदेश ए.आई.आर. 1973 सुप्रीम कोर्ट 210 में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-27 को वैध घोषित किया है। 

        माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है, कि यदि कोई अभियुक्त से स्वेच्छया से साक्ष्य देता है तो वह वर्जित नहीं है किन्तु उस पर यदि शारीरिक, मानसिक दबाव डाला जाता है तो इस प्रकार का साक्ष्य दबावपूर्ण साक्ष्य माना जाएगा इसलिए नंदनी सतपती बनाम पी.एल. धनी ए.आई.आर. 1978 सुप्रीम कोर्ट 1025 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि दं0प्र0सं0 की धारा-161 (2) में अभियुक्त से पूछताछ के दौरान ही उसे अपने लिये साक्ष्य देने बाध्य नहीं किया जा सकता। 

        दं0प्र0सं0 संहिता की धारा-315 यह नियम प्रतिपादित करती है, कि अभियुक्त व्यक्ति प्रतिरक्षा (कममिदबम) के लिए सक्षम साक्षी होता है और किसी अन्य साक्षी तरह वह अभियोजन द्वारा अपने विरूद्ध लगाए गए आरोपों को नासाबित करने के लिए शपथ पर साक्ष्य देने का हकदार होता है। 

        यह धारा यह भी उपबन्ध करती है कि साक्षी के रूप में उसकी परीक्षा न किए जाने से न्यायालय इससे कोई प्रतिकूल निष्कर्ष नहीं निकाल सकता। परन्तु यदि अभियुक्त अपनी परीक्षा प्रतिरक्षा के साक्षी के रूप में स्वेच्छा से करता है तो अभियोजन उसकी आगे की परीक्षा करने का हकदार होगा और ऐसा साक्ष्य सह-अभियुक्त के विरूद्ध उपयोग किया जा सकता है। 

        धारा-315 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत आरोपी से सक्षम साक्षी के रूप में प्रस्तुत होने संबंधी प्रक्रिया:-

        1-     यह कि आरोपी न्यायालय के समक्ष लिखित आवेदन प्रस्तुत              करेगा।
        2-    यह कि आरोपी को न्यायालय द्वारा साक्ष्य लेने के पूर्व शपथ                दिलाई जाएगी।
        3-     यह कि अभियोजन उसकी प्रतिपरीक्षा करेगा और प्रतिपरीक्षण             में  उसके विरूद्ध आए तथ्यों को प्रस्तुत कर सकेगा।
        4-    यह कि आरोपी इस सम्पूर्ण साक्ष्य के बाद उसके विरूद्ध                 साबित तथ्य साक्ष्य में ग्राह्य होगे। 

        अभियुक्त को शपथ दिलाने या प्रतिज्ञान कराने के विरूद्ध सृजित शपथ अधिनियम, 1969 की धारा 4(2) के अधीन वर्जन केवल दांडिक विचारण पर ही लागू होता है। शब्द ‘‘दांडिक कार्यवाही’’ की परिधि का विस्तार पुनरीक्षणों या अपीलों में दिए गए अन्तरिम आवेदन-पत्रों के समर्थन में शपथ-पत्रों के दाखिल किए जाने पर विस्तारित नहीं किया जा सकता। 

        माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा मोहम्मद शरीफ बनामा स्टेट  आफ झारखण्ड 2006 क्रिमनल लाॅ जनरल 4498 झारखण्ड, काशीराम बनाम स्टेट आफ एम.पी. ए.आई.आर. 2001 सुप्रीम कोर्ट 2902 में  अभिनिर्धारित किया गया है, कि यदि अभियुक्त व्यक्ति साक्षी कक्ष में नहीं आता है तो इससे विपरीत आशय का निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए। यह प्राथमिक आपराधिक विधिशास्त्र है कि किसी अभियुक्त को साक्षी बनने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। इसी प्रकार यह प्रतिरक्षा हेतु समुचित अवसर प्रदान किया गया परन्तु प्रतिरक्षा प्रस्तुत नहीं की जाती है तो प्रतिरक्षा का अधिकार आरोपी का समाप्त किया जा सकता है इसे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के विपरित नहीं माना जा सकता है।

        यदि अभियुक्त साक्षी बन कर पेश हुआ और उसे उस दस्तावेज को पेश करने से नहीं रोका जाना चाहिए जिसपर वह भरोसा करके आया है। उसे इस आधार पर ऐसा करने से नहीं रोका जाना चाहिए कि उसने ऐसा साक्ष्य अभिलेखन के पूर्व नहीं किया था।  ऐसी  स्थिति में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा- गजेन्द्रसिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ राजस्थान 1998 भाग-8 एस.एस.सी.-612 में अभिनिर्धारित किया है, कि उसे साक्ष्य-सम्बंधी दस्तावेज़ पेश करने की अनुमति दे देनी चाहिए।  

        विधि का यह सर्वमान्य सिद्धांत है, कि अभियोजन को अपना मामला साबित करना चाहिए और आपराधिक मामलों में सबूत का भार अभियोजन पर आरोपित किया गया है।

             भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-103 में विशिष्ट तथ्य के सबूत का भार उस व्यक्ति पर होता है जो न्यायालय से यह चाहता है, कि उसके अस्तित्व में विश्वास करें। जब तक कि किसी विधि द्वारा यह उपबंधित न हो कि उस तथ्य के सबूत का भार किसी विशिष्ट व्यक्ति पर होगा। ऐसे मामलों में आरोपी अभियोजन साक्षियों को प्रतिपरीक्षण में सुझाव देकर बचाव में दस्तावेज पेश कर और स्वयं उपस्थित होकर विशिष्ट तथ्य को साबित कर सकता है किन्तु उसे बाध्य नहीं किया जा सकता।


        भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-105 में अभिनिर्धारित है, कि यह साबित करने का भार कि अभियुक्त का मामला अपवादों के अंतर्गत आता है, उस व्यक्ति पर है और न्यायालय ऐसी परिस्थितियों के अभाव की उपधारणा करेगा। ऐसे मामलों में आरोपी स्वयं को प्रस्तुत कर तथ्य साबित कर सकता है, परन्तु उसे इसके लिये बाध्य नहीं किया जा सकता। 


        भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-106 इस बात का अपवाद है, कि अभियोजन को अपना मामला संदेह के परे साबित करना चाहिए। 

                       धारा-106 भा0सा0अधि0 के अनुसार जबकि कोई तथ्य विशेषतः किसी व्यक्ति के ज्ञान में है, तब उस तथ्य को साबित करने का भार उस पर है। जबकि कोई व्यक्ति किसी कार्य को उस आशय से भिन्न किसी आशय से करता है जिसे उस कार्य का स्वरूप और परिस्थितियाॅ इंगित करती है तब उस आशय को साबित करने का भार उस व्यक्ति पर है।

        इस प्रकार यह धारा-101 भा.सा.अधि. का अपवाद है। आरोपी को जब कोई विशेष ज्ञान किसी वस्तु अथवा तथ्य के संबंध में है तो उसे साबित करने का भार उस पर है।


        इसी प्रकार जब अभियुक्त के कब्जे में कोई वस्तु प्रतिबंधित पाई जाती है तो विशेष ज्ञान के द्वारा यह स्पष्ट कर सकता है, कि वह वस्तु उसके पास किस प्रकार आई। उसके नहीं बताने पर उसे अवैध रूप से प्राप्त मानकर उसे संदेह का लाभ नहीं दिया जा सकता। जहा पर आरोपी को विशेष ज्ञान और जानकारी साबित करना है वहा पर वह खुद को प्रस्तुत करके उसे स्पष्ट कर सकता है। यदि उसके द्वारा अभियोजन साक्षियों को बचाव में सुझाव अथवा दस्तावेज और स्पष्टीकरण नहीं दिया जाता है, तो उसके विरूद्ध उपधारणा की जा सकती है।

        इस प्रकार धारा-315 दं0प्र0सं0 इस मूल अधिकार पर आधारित है, कि किसी भी व्यक्ति को अपने विरूद्ध साक्ष्य देने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता और अभियोजन को अपना मामला संदेह के परे खुद साबित करना चाहिए। इसके लिये आरोपी को अपने विरूद्ध साक्ष्य देने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता है।

        अपने विरूद्ध हस्तलिपि के मिलान हेतु नमूना देने, रक्त सेम्पल देना, नार्का टेस्ट देना, मेमोरेण्डम कथन देना, तलाशी पंचनामा देना, हस्ताक्षर करना आदि भौतिक एवं रासायनिक परीक्षण अपने विरूद्ध साक्ष्य देने की श्रेणी में नहीं आते हैं क्योंकि ये वस्तुए केवल तुलना के उद्देश्य से ली जाती है।
               
                           
       

बुधवार, 20 नवंबर 2013

मृत्यु के मामले में मुआवजा निर्धारण

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha
श्रीमती सरला वर्मा एवं अन्य बनाम दिल्ली परिवहन निगम एवं अन्य, 2009 (2) दुर्घटना और मुआवजा प्रकाशिका 161 (सु.को.) में प्रतिपादित मुख्य सिद्धांत

1.        मृत्यु के मामले में मुआवजा निर्धारण के लिये-जहां मृतक विवाहित , है मृतक के व्यक्तिगत एवं जीवन यापन व्ययों के प्रति कटौती का निम्न सिद्धांत परिवार में आश्रितों की संख्या के आधार पर निर्धारित किया गया है:-

क्रमंाक     परिवार में आश्रितों की संख्या    व्यक्तिगत एवं जीवन
                            यापन व्ययों के प्रति कटौती

1        2 से 3                    1/3 (एक तिहाई)
2.        4 से 6                    1/4 (एक चैथाई)
3.        6 से अधिक                1/5 (एक पांचवा)

2.        यदि मृतक अविवाहित है तो व्यक्तिगत एवं जीवन यापन की कटौती 50 प्रतिशत की जाएगी, अविवाहित मृतक की केवल माता ही आश्रित मानी जाएगी, पिता-भाई‘-बहिन नहीं अपवादिक परिस्थितियों में माने जाएंगे।

3.        मृत्यु के मामले में प्रयोज्य गुणांक के संबध्ंा में मृतक की आयु के आधार पर निम्नलिखित गुणांक  अभिनिर्धारित किया गया है:-

क्रमांक        मृतक की आयु                 प्रयुक्त गुणांक
1.        15 वर्ष तक                        20
2.         15 से 20 वर्ष                        19
3.        21 से 25 वर्ष                        18
4.        26 से 30 वर्ष                        17
5.        31 से 30 वर्ष                        16
6.        36 से 40 वर्ष                        15
7.        41 से 45 वर्ष                        14
8.        46 से 50 वर्ष                        12
9.        51 से 55 वर्ष                        10
10.        56 से 60 वर्ष                        8
11.        61 से 65 वर्ष                        6
12.        65 से अधिक                         5

4.        मृत्यु के मामले में संपदा क्षति हेतु 5,000/-रूपये, अंत्येष्टि व्ययों हेतु 5,000/-रूपये और सहजीवन की क्षति हेतु 10,000/-रूपये दिये जायेंगे जो केवल मृतक की उत्तरजीवी विधवा को दिये जाएंगे। मृतक के विधिक उत्तराधिकारीगण को कारित पीड़ा, व्यथा, कठिनाई के लिये कोई राशि नहीं दी जाएगी।  (सहजीवन की क्षति केवल विधवा को ही दिलाई जाएगी) ।
5.        मृत्यु के पश्चात् हुए वेतन संसोधन को विचारण में ग्रहण नहीं किया जा सकेगा।
6.        मृत्यु के मामले में अंत्येष्ठि व्यय, मृत शरीर के परिवहन के व्यय, मृत्यु के पूर्व मृतक के चिकित्सीय उपचार को भी प्रदान किया जाएगा।
7मोटर व्हीकल एक्ट की धारा 163 (क) के अधीन किए गए दावों तथा धारा 166 के अधीन किए गए दावों के लिए दायित्व तथा मुआवजे की मात्रा के निर्धारण के सिद्धांत भिन्न-भिन्न (अलग-अलग) हैं ।
8.        मृत्यु के मामले में मृतक की आयु मृतक की आय, आश्रितों की संख्या तीन बातें प्रमाणित की जानी चाहिए।
9.        आश्रितता की क्षति के निर्धारण हेतु आय क निर्धारण होना चाहिए फिर उसमें मृतक के व्यक्तिगत जीवन यापन की कटौती की जानी चाहिए उसके बाद मृतक की आयु के संबंध में गुणांक कर उचित मुआवजा राशि निकाला जाना चाहिए।






























युक्तियुक्त संदेह

                            युक्तियुक्त संदेह    
        विधि का यह सामान्य सिद्धांत है, कि किसी भी निर्दाेष को सजा न हो इसलिए यदि संदेह उत्पन्न होता है, तो संदेह का लाभ आरोपी को दिया जाना चाहिए। लेकिन संदेह किसी कल्पना, अटकलों और अंदाज के आधार पर आधारित न होकर मजबूर आधारांे पर आधारित होना चाहिए।

        युक्तियुक्त संदेह साधारण तौर पर संदेह की वह श्रेणी है जो किसी न्यायसंगत और युक्तियुक्त व्यक्ति को कोई निष्कर्ष निकालने की अनुमति देगी। संदेह का औचित्य अन्वेषण किये जाने वाले अपराध की प्रकृति के अनुकूल होना चाहिए। संदेह का लाभ देने के नियम को लागू करने की अत्यधिक लगन ऐसी काल्पनिक शंकाओं अथवा चिरकालिक सन्देहों को प्रोत्साहन न दें, जिनके द्वारा सामाजिक प्रतिरक्षा का विनाश हो जाए। न्याय को इस अभिवाक् पर निष्फल नहीं किया जा सकता है, कि किसी निर्दोष को दंड देने की बनिस्बत सैकड़ो दोषी व्यक्तियों को बचकर निकलने देना अधिक अच्छा है। दोषी को बचकर निकलने देना विधि के अनुसार न्याय करना नहीं है।

        दाण्डिक विधि विनश्चिायक सबूत की अपेक्षा नहीं करती। वह केवल युक्तियुक्त संदेह से परे सबूत की अपेक्षा करती है।  माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा उ.प्र. राज्य बनाम रांझा राम आदि (1986) 4 एस.सी.सी. 99} के.गोपाल रेड्डी बनाम आंध्रप्रदेश राज्य, 1979 उम.नि.प. 893 मंे अभिनिर्धारित किया है, कि   युक्तियुक्त सन्देह से किसी भी समय किसी विवाद के बारे में हम में से किसी के दिमाग से उत्पन्न होने वाला कोई तुच्छ, हवाई या सारहीन सन्देह अभिप्रेत नहीं है, इससे ऐसा सन्देह अभिप्रेत नहीं है, जो दोषसिद्धि में हिचकिचाहट की भावना से उत्पन्न हुआ है। इससे युक्तियुक्तता पर आधारित वास्तविक संदेह अभिपे्रत है।

        माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा खमकरण और अन्य बनाम उ.प्र. राज्य, ए.आई.आर. 1974 एस.सी. 1567 एवं इन्दरसिंह व अन्य बनाम दिल्ली प्रशासन, 1979-1 उम.नि.प. 1443 में अभिनिर्धारित किया है, कि केवल सम्भाव्यताएॅ या क्षीण सम्भाव्यताएॅ या मात्र सन्देह, जो युक्तियुक्त नहीं है। न्याय के प्रशासन को खतरे में डाले बिना, उस दशा में अभियुक्त व्यक्ति की दोषमुक्ति का आधार नहीं बन सकते, जब अन्यथा उचित रूप से विश्वसनीय परिसाक्ष्य है। 

    माननीय उच्चतम न्यायालय का स्पष्ट अभिमत है    कि ‘‘यह आवश्यक है, कि सभी दाण्डिक मामलों में युक्तियुक्त सन्देह से परे सबूत दिया जाना चाहिए, यह आवश्यक नहीं कि यह परिपूर्ण हो। यदि कोई मामला पूर्ण रूप से साबित कर दिया गया है तो यह दलील दी जाती है, कि यह कृत्रिम है। यदि किसी मामले में कुछ दोष रह गये हैं, जो मानव के त्रुटि उन्मुख होने के कारण अनिवार्य हैं तो यह दलील दी जाती है कि यह बहुत अपूर्ण है। यह आश्चर्य     होता है कि क्या किसी निर्दाेष व्यक्ति को सजा दिलाने से बचाने के लिये अत्यधिक तर्क, अतिसंवेदिता में बहुत से दोषी व्यक्तियों को     निर्दयता से छूट दे दी जाए। युक्तियुक्त सन्देह से परे सबूत मार्गदर्शन है न कि कोई जादू टोना।‘‘ 


            अब्दुलगानी बनाम म.प्र. राज्य ए.आई.आर. 1974 एस.सी. 753 में अभिनिर्धारित किया गया है, कि  न्यायालय में साक्ष्य देते समय कभी-कभी कोई साक्षी भ्रमित हो जाता है। कोई साक्षी पूर्णतः सत्यवादी होने के बावजूद न्यायालय के वातावरण और बीधने वाली प्रति-परीक्षण से आतंकित हो सकता है। ऐसी असंगतियों को जो मामले की जड़ तक नहीं पहुंचती और मामले की मूल विशेषताओं को नष्ट नहीं करती। असम्यक महत्व नहीं दिया जा सकता। 

        माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा उप्र. राज्य बनाम अनिल सिंह, 1989-1 उम.नि.प. 977 के मामले में न्यायालयों की साक्ष्य में फर्क होने की दशा में सारे मामले को झूंठा मानकर अस्वीकार करते हुए सुगम मार्ग अपनाने की भत्र्सना की है। न्यायालय का कर्तव्य यह है, कि वह वास्तविक सच्चाई का पता लगावे। न्यायाधीश मात्र इसलिए दाण्डिक विचारण में पीठासन नहीं होता है, कि वह यह सुनिश्चित करें कि किसी निर्दाेष व्यक्ति को दंडित न किया जाए। न्यायाधीश इसलिए भी पीठासीन होता है-जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई दोषी व्यक्ति दंडित होने से न बच जाए। दोनों ही महत्वपूर्ण कर्तव्य हैं, जिनका न्यायाधीशांें को पालन करना होता है। 

    कालीराम बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य ए.आई.आर.1973    में अभिनिर्धारित किया गया है, कि यदि अभियुक्त के दोष के बारे में कोई युक्तियुक्त संदेह उत्पन्न हो जाए तो उसके लाभ से अभियुक्त को वंचित नहीं किया जा सकता है। यदि न्यायालय अभियुक्त को संदेह का लाभ न दें, तो यह न्यायोचित न होगा, लेकिन दोषमुक्ति से विधि और व्यवस्था की स्थिति पर प्रभाव पड़ सकता है या इससे समाज के ऐसे सदस्यों में एक प्रतिकूल प्रतिक्रिया हो सकती है, जो यह विश्वास करते हैं, कि अभियुक्त दोषी है। अभियुक्त के दोष पर इस तथ्य की दृष्टि से विचार नहीं किया जाना चाहिए कि बहुसंख्यक व्यक्ति यह विश्वास करते हैं, कि वह दोषी  है,  अपितु  इस दृष्टि से कि क्या उसका दोष अभिलेख पर लाई गई साक्ष्य द्वारा सिद्ध कर दिया गया है। वास्तव में अभ्ज्ञियुक्त के रूप में दोषारोपित व्यक्ति के दोष का निर्णय करने के लिये न्यायालयों के पास शायद ही और कोई मापदंड या सामग्री है।
       
        कभी-कभी लोकहित और अभियुक्त के हित के विरोध का उल्लेख किया जाता है। यह निःसंदेह सही है, कि गलत दोष-मुक्ति अवांछनीय है और इससे न्याय पद्धति में आम जनता का विश्वास शिथिल पड़ सकता है। तथापि निर्दोष व्यक्ति की गलत दोषसिद्धि इससे कहीं अधिक बुरी है। निर्दोष व्यक्ति की दोषसिद्धि के परिणाम कहीं अधिक गंभीर होते हैं और इसकी प्रतिक्रियाएॅ अवश्यंभावी  रूप से सभ्य समाज में अनुभव की जा सकती है।

        आरोपी/अभियुक्त के विरूद्ध कितना भी प्रबल संदेह हो और न्यायाधीश का कितना भी प्रबल नैतिक विश्वास एवं निश्चय हों, परन्तु जब तक वैध साक्ष्य तथा अभिलेख की विषय वस्तु के आधार पर युक्तियुक्त शंका के परे दोषारोप सिद्ध नहीं होता है, तब तक उसे दण्डित नहीं किया जा सकता है। समग्र रूप से अभियोजन कथा सत्य हो सकती है, परन्तु ‘‘हो सकती है‘‘ और ‘‘होना चाहिए‘‘ के मध्य एक लंबी दूरी है और आरोपी को वैध विश्वसनीय एवं अकाट्य साक्ष्य के माध्यम से इस दूरी को पार करना अनिवार्य है। 


        शिवाजी साहब राय व अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 1973 एस.सी. 2622, बर्की जोसफ बनाम केरल राज्य, ए.आई.आर. 1993 एस.सी. 1892 पैरा-1, 2, आशीष बाथम बनाम म.प्र. राज्य, 2003 (1) एम.पी.एच.टी. 1 एस.सी. वाले मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह ठहराया है, कि निश्चय ही यह एक प्राथमिक सिद्धांत है, कि इससे पहले कि न्यायालय अभियुक्त को दोषसिद्ध कर सके, अभियुक्त दोषी ‘‘होना चाहिए‘‘ न कि केवल ‘‘दोषी हो सकता है‘‘। ‘‘हो सकता है तथा ‘‘होना चाहिए‘‘ के बीच वास्तविक अन्तर बहुत लम्बा है जो अस्पष्ट अटकलों को निश्चित निष्कर्षाें से अलग करता है।

        हमें इस बात से अनभिज्ञ नहीं होना चाहिए कि किसी दाण्डिक विचारण में सबूत की कोटि उससे अधिक कड़ी होती है जितनी सिविल कार्यवाहियों में अपेक्षित होती है। किसी दाण्डिक विचारण में मामले के तथ्य और परिस्थितियाॅ चाहे कितनी ही पेचीदा क्यांे न हो, फिर भी अभियुक्त के विरूद्ध लगाये गये आरोपों को सभी युक्तियुक्त सन्देहों से परे साबित किया जाना चाहिए और सबूत की अपेक्षा को कल्पनाओं और अनुमानों के आधार पर नहीं छोड़ा जा सकता है। हालांकि न्यायालय की अंतश्चेतना की इस संबंध में तुष्टि हो जानी चाहिए कि अभियुक्त को ऐसी स्थिति में दोषी अभिनिर्धारित नहीं किया गया है।

                      जब अभिकथित अपराधों के संबंध में अभियुक्त के निर्दोष होने के बाबत् युक्तियुक्त संदेह है, फिर भी यह ध्यान में रखना चाहिए कि किसी दाण्डिक विचारण में सबूत के लिये कोई पूर्ण स्तरमान नहीं है और यह प्रश्न कि क्या अभियुक्त के विरूद्ध लगाये गये आरोप किसी युक्तियुक्त संदेह से परे साबित हो गये हैं। प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर तथा उस मामले में प्रस्तुत की गई साक्ष्य की श्रेणी ओर अभिलेख पर रखी गई सामाग्री पर निर्भर करता है।
        गुरूवचन सिंह बनाम सतपाल सिंह व अन्य, ए0आई0आर0 1990 एस0सी0 209 वाले मामले मंे यह उपदर्शित किया है, कि न्यायालय की अंतश्चेतना को किसी नियम द्वारा आबद्ध नहीं किया जा सकता, बल्कि वह स्वयं किसी निर्णय को देने में सत्यता और बुद्धिमता का प्रयोग करते हुए यह कार्य करती है। 


        अंत में यह निष्कर्ष निकलता है, कि न्याय दर्शन भारतीय दर्शन की धुरी है। इसमें न केवल आर्य विचारधारा प्रभावित हुई, बल्कि जैन, बौद्ध एवं समस्त उपनिषदीय चिंतन का स्वरूप भी निश्चित हुआ। संसार में सत्य केवल साधारण कथन से मान्य नहीं होता है। उसे तर्क आधारित होना पड़ता है। केवल तर्कांे से भी कुछ विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। तर्क तो खोपड़ी की खुजलाहट मात्र है, जो बुद्धि के चातुर्य से प्रकट होता है। तर्क से हम दिन को रात व रात को दिन सिद्ध कर सकते हैं। हर तर्क को अपने पक्ष में प्रमाण लाना पड़ता है। शुद्ध ज्ञान तर्कशील प्रमाणों का विवेचन विश्लेषण है। अतः युक्तियुक्त संदेह को कल्पना, अटकलों और संभावनाओं पर न तौलते हुए मजबूत आधार सबूत, निश्चयात्मक तथ्यों के आधार पर तौलना चाहिए।






मंगलवार, 19 नवंबर 2013

धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत ‘‘मृत्यु समीक्षा‘‘ एवं धारा-176 (1-ए) दं0प्र0सं0

धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत ‘‘मृत्यु समीक्षा‘‘ एवं धारा-176 (1-ए) दं0प्र0सं0  जांच 

                             भारतीय संविधान में प्रत्येक व्यक्ति को प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है, इसलिए कि व्यक्ति के साथ न्याय हो। अतः मृत्यु समीक्षा के अलावा न्यायिक मजिस्टेªट द्वारा भी जांच के प्रावधान धारा-176 (1-ए) के अंतर्गत दं0प्र0सं0 में जोड़े गये हैं। जिसका मुख्य उद्देश्य यह है कि:-

1- किसी भी व्यक्ति की स्वतंत्रता या नागरिक अधिकार अन्यायपूर्ण तरीके से न छीनें जाये।

2- कोई भी व्यक्ति जिसकी स्वतंत्रता छीन ली गई है अभिरक्षा में रहे व्यक्तियों की निर्दयता और उपेक्षा का शिकार न बनने पाये।

3- किसी भी मृत व्यक्ति की जो जमीन में गाड़ दिया गया है पहचान हो सके और मृत्यु के कारणों का पता चल सके।

4- यदि मृत्यु या मामले पर संदेह हो, तो मामला न्यायिक मृत्यु समीक्षा में सुलझना चाहिए न कि पुलिस मृत्यु समीक्षा से।

5- यह कि, पुलिस अभिरक्षा के दौरान मृत्यु या बलात्कार होने पर पीडि़त व्यक्ति को न्याय प्राप्त हो सके और दोषी को सजा प्राप्त हो सके।

उपरोक्त मानवीय दृष्टिाकोण को ध्यान में रखते हुए न्यायिक मजिस्टेªट के द्वारा मृत्यु समीक्षा के अधिकार दं0प्र0सं0 मंे दिये गये हैं।

मृत्यु समीक्षा:-समीक्षा का अर्थ है, तथ्य की विधिवत जांच चिकित्सा न्यायशास्त्र में मृत्यु समीक्षा का अर्थ है मृत्यु के उन कारणों की जांच जो प्राकृतिक कारण नहीं लगते। जब भी किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है तो विधि के अंतर्गत यह आवश्यक है, कि जांच की जाए कि मृत्यु प्राकृतिक या अप्राकृतिक किन कारणों से हुई है।

यदि मृत्यु प्राकृतिक कारणों जैसे हृदयधमनी अवरोध, कर्क रोग, फुफ््फुसशोथ आदि से हुई है तो आगे की जांच आवश्यक नहीं है और शव की अंत्येष्ठि क्रिया उसके धार्मिक संस्कारों के अनुसार कर दी जाती है।

यदि मृत्यु अप्राकृतिक कारणों से हुई है तो यह आवश्यक है, कि मृत्यु के कारण की जांच की जाए (मृत्यु समीक्षा) और अपराधी को पकड़कर दंड दिया जाए। ऐसी मृत्यु को अप्राकृतिक या संदेहास्पद मृत्यु कहते हैं और यह जरूरी है, कि उसकी रिपोर्ट अधिकारियों को की जाए ताकि अन्वेषण हो सके।

धारा-176 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत मृत्यु के कारण की मजिस्टेªट द्वारा जांच के प्रावधान दिये गये हैं।

निम्नलिखित परिस्थितियों में मजिस्टेªट मृत्यु की जांच कर सकता है

1- जब किसी व्यक्ति की मृत्यु पुलिस की अभिरक्षा में हुई है।

2- जब मृत्यु उन परिस्थितियों में हुई है जो धारा-174 में पुलिस द्वारा जांच के संबंध में बताई गई है।

धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत निम्नलिखित परिस्थितियों में मृत्यु के कारणों की जांच की आवश्यकता है -

जब (1) किसी व्यक्ति ने आत्महत्या की है, या

(2) किसी व्यक्ति की हत्या की गई है, या

(3) किसी व्यक्ति की मृत्यु-

1. किसी पशु द्वारा, या

2. किसी मशीन द्वारा,

3. किसी दुर्घटना में हुई है, या

(4) किसी व्यक्ति की मृत्यु ऐसी परिस्थितियों में हुई है कि जिससे ऐसा संदेह है, कि उसके साथ किसी ने अपराध किया है।

दण्ड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम 2005 द्वारा-

धारा-176 (1) (क) जोड़ी गई है जिसके अनुसार पुलिस द्वारा की जा रही जांच और विवेचना के अतिरिक्त न्यायिक मजिस्टेªट या महानगरीय मजिस्टेªट जैसा भी मामला हो जिसकी स्थानीय क्षेत्राधिकारिता में अपराध हुआ है, उसके द्वारा जांच की जाएगी। ऐसी जांच निम्नलिखित मामलों में की जाएगी।

1. जहाॅ कोई व्यक्ति या महिला पुलिस अभिरक्षा में है या मजिस्टेªट या न्यायालय द्वारा प्राधिकृत अभिरक्षा में है और इस दौरान.......................................

जहाॅ कोई व्यक्ति मर जाता है,

जहाॅ कोई व्यक्ति गायब हो जाता है,

जहाॅ किसी स्त्री के साथ बलात्कार किया जाना अपेक्षित है,

वहाॅ पर न्यायिक मजिस्टेªट द्वारा जांच की जाएगी।

जांच की प्रक्रिया:-

1. ऐसी जांच करने वाला मजिस्टेªट उसके संबंध में लिए गए साक्ष्य को इसमें इसके पश्चात् विहित किसी प्रकार से मामले की परिस्थितियों के अनुसार अभिलिखत करेगा।

2. जब कभी ऐसे मजिस्टेªट के विचार में यह समीचीन है, कि किसी व्यक्ति के, जो पहले ही गाड़ दिया गया है, मृत शरीर की इसलिए परीक्षा की जाए कि उसकी मृत्यु के कारण का पता चले, तब मजिस्टेªट उस शरीर को निकलवा सकता है और उसकी परीक्षा करा सकता है।

3. जहाॅ कोई जांच इस धारा के अधीन की जानी है, वहाॅ मजिस्टेªट जहाॅ कहीं साध्य है, मृतक के उन नातेदारों को, जिनके नाम और पते ज्ञात हैं, इत्तिला देगा और उन्हें जांच के समय उपस्थित रहने की अनुज्ञा देगा। ‘‘नातेदार‘‘ पद से माता-पिता, संतान, भाई-बहिन और पति या पत्नि अभिप्रेत है।

4. जांच अधिकारी किसी व्यक्ति की मृत्यु के 24 घंटे के भीतर शव को परीक्षित किये जाने की दृष्टि से निकटतम सिविल सर्जन या इसके लिये राज्य शासन द्वारा नियुक्त अन्य सुयोग्य चिकित्सकीय व्यक्ति को अग्रेषित करेगा। यदि ऐसा करना संभव न हो, तो लिखित रूप से ऐसे कारणांे को अभिलिखित किया जावेगा।

धारा-174 दं0प्र0सं0 एवं धारा-176 दं0प्र0सं0 में जांच अंतर

धारा-174 दं0प्र0सं0
   

धारा-176 दं0प्र0सं0

(1) धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत विशेष रूप से नियुक्त मृत्यु समीक्षा करने के लिये सशक्त जिला मजिस्टेªट, उपखंड मजिस्टेªट, कार्यपालिक मजिस्टेªट द्वारा जांच की जाएगी।
   

जबकि धारा-176 दं0प्र0सं0 (1) (क) के अंतर्गत स्थानीय क्षेत्राधिकारिता के न्यायिक मजिस्टेªट या महानगरीय मजिस्टेªट जिसकी स्थानीय क्षेत्राधिकारिता पर अपराध कारित हुआ, उसके द्वारा जांच की जावेगी।

(2) धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत मृत्यु के दृष्यमान कारणांे की जांच की जाती है और केवल उसकी रिपोर्ट तैयार की जाती है।
   

जबकि धारा-176 (1) (क) के अंतर्गत साक्ष्य अभिलिखत करके मामले की संपूर्ण जांच कर ही रिपोर्ट तैयार की जाती है और उसमें दोषी व्यक्ति का उल्लेख भी होता है।

(3) धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत नियुक्त मजिस्टेªट मृत्यु के कारण की बाबत् संदेह होने पर एवं मृत्यु की समीक्षा कर कारणों का उल्लेख कर यह राय देता है, कि मृत्यु अप्राकृतिक मृत्यु है।
   

जबकि धारा-176 (1) (क) के अंतर्गत न्यायिक मजिस्टेªट मामले की जांच करता है। साक्षियों के कथन अभिलिखत कर मृत्यु के कारणों का पता लगाकर उसके रिश्तेदारों से पूछताछ कर, शव परीक्षण कराकर उपर्युक्त जांच प्रतिवेदन देता है,जिसमें किये गये अपराध का उल्लेख, जिन व्यक्तियों ने अपराध किया, उनका उल्लेख, कौन सा अपराध किया, उसका उल्लेख होता है और इस प्रकार का जांच प्रतिवेदन आपराधिक कार्यवाही किये जाने के लिये पर्याप्त आधार होता है।

(4) धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत मौके पर केवल दो अधिक गवाहों को उस समय की वास्तविक स्थिति के दर्शाने हेतु एवं मामले के तथ्यों से परिचित व्यक्तियों को बुलाया जाता है।
   

जबकि धारा-176 (1) (क) के अंतर्गत मृतक के रिश्तेदार की उपस्थिति में भी जांच की जाती है और संबंधित व्यक्तियों की साक्ष्य अभिलिखित की जाती है, उसके बाद प्रतिवेदन प्रस्तुत किया जाता है, जिसमंे संपूर्ण परिस्थितियों का वर्णन रहता है।

(5) धारा-174 दं0प्र0सं0 की मृत्यु समीक्षा रिपोर्ट में साक्षियों का वर्णन नहीं रहता है।
   

जबकि धारा-176 (1) (क) के अंतर्गत की जा रही जांच में साक्षियों के नाम का उल्लेख रहता है।

(6) धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत जिन परिस्थितियों में मृत्यु होना पाया जाता है उसकी जांच की जाती है।
   

जबकि धारा-176 (1) (क) के अंतर्गत किस व्यक्ति ने अपराध किया उसकी जांच की जाती है।

(7) धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत जांच की प्रक्रिया धारा-174 और 175 दं0प्र0सं0 के अनुसार की जाती है।
   

जबकि धारा-176 (1) (क) के अंतर्गत प्रक्रिया निर्धारित नहीं है। इसे जांच अधिकारी स्वयं निर्धारित कर सकता है या जिस अधिकारी ने उसे नियुक्त किया है वह प्रक्रिया को निर्धारित करके दे सकता है।

(8) धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत जांच अधिकारी की शक्तियाॅ सीमित हैं।
   

जबकि धारा-176 (1) (क) के अंतर्गत जांच करने हेतु मजिस्टेªट को ये सब शक्तियाॅ प्राप्त हैं जो उसे किसी अपराध की जांच विचारण के संबंध में प्राप्त हैं।

   

इस प्रकार धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत सीमित जांच की जाती है, जबकि धारा-176 (1) (क) दं0प्र0सं0 के अंतर्गत जांच का क्षेत्र असीमित हैं।