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बुधवार, 10 दिसंबर 2014

अग्रक्रय अधिकार


                अग्रक्रय अधिकार

        अग्रक्रय का अधिकार हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 जिसे  आगे अधिनियम से संबोधित किया गया है की धारा 22 में परिभाषित किया गया है जिसके अनुसार संयुक्त हिन्दू परिवार की संपत्ति का बंटवारा होने के पहले यदि उत्तराधिकार में हक व अधिकार प्राप्त होता है और उनमें से कोई एक सदस्य संपत्ति का विक्रय करना चाहता है तो अधिनियम की अनुसूची के वर्ग-1 में विनिर्दिष्ट वारिस अग्रक्रय का दावा कर सकते हैं।

        अग्रक्रय अधिकार लागू किये जाने के लिये आवश्यक शर्ते:-
1. यह कि विवादित संपत्ति संयुक्त हिन्दू परिवार की उत्तराधिकार में प्राप्त संपत्ति होना चाहिये।
2. यह कि अनुसूची एक के वारिसों में कम से कम दो या दो से अधिक वारिस  होना चाहिये।
3. यह कि विवादित संपत्ति का बंटवारा नहीं होना चाहिये।
4. यह कि संपत्ति उत्तराधिकार में प्राप्त होना चाहिये।
5. यह कि संपत्ति उत्तरजीविता के आधार पर अधिनियम की  धारा 6 के अनुसार उत्तरजीवी सहदायिकों को उत्तरजीविता के आधार पर प्राप्त नहीं होना चाहिये।
6. यह कि सहस्वामी के द्वारा अचल संपत्ति में अपना हित हस्तांतरण करने के बाद दूसरा सहस्वामी अग्रक्रय अधिकार के आधार पर क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय में दावा पेश कर सकता है।
7. यह कि जिस न्यायालय की स्थानीय सीमाओं के अन्दर संपत्ति स्थिति होगी उसे वाद और आवेदन क्षेत्राधिकार प्राप्त होगा।
8. यह कि वादकारण संपत्ति की बिक्री के बाद उत्पन्न होता है।
9. यह कि परिसीमा अधिनियम के अनुच्छेद 97 के अनुसार जब खरीददार बिक्रीसुदा संपत्ति पर कब्जा करता है अथवा रजिस्टर्ड विक्रयपत्र का निष्पादन होता है उसके एक साल के अन्दर आवेदन/दावा पेश होना चाहिये।
10. यह कि वर्ग-1 के वारिसों ने निर्वसीयति की संपत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त किया है तभी यह धारा लागू होगी।
11. यह कि संपत्ति का मूल्य निर्धारण करने के लिये सक्षम न्यायालय में आवेदन प्रस्तुत किया जावेगा और न्यायालय संपत्ति का मूल्य निर्धारित करेगा।
12. यह कि जो भी हिस्सेदार सबसे ज्यादा मूल्य देगा वही अग्रक्रय के अधिकार में संपत्ति प्राप्त करेगा।
13. यह कि हिस्सेदार न्यायालय द्वारा निर्धारित मूल्य पर संपत्ति नहीं खरीदता है तो वह आवेदन का खर्च देगा और उत्तराधिकारी संपत्ति बाहरी व्यक्ति को बिक्री करने के लिये स्वतंत्र होगा।
14.  इसी प्रकार व्यापार कारोबार की बिक्री एवं अधिकार हेतु आवेदन व दावा प्रस्तुत किया जावेगा।
15. इस धारा के अधीन आवेदन पर पारित आदेश अपील योग्य नहीं होगा। लेकिन वाद में पारित आदेश अपीलयोग्य होगा।
16. यह कि बिक्री के बाद दावा पेश होगा , अधिनियम की धारा 22(1) के अन्तर्गत आवेदन पेश नहीं होगा।
17. यह कि धारा 164 म0प्र0.भू राजस्व संहिता के संशोधन के बाद अधिनियम की धारा 22 के प्रावधान लागू होंगे। कृपया देखें ए0आई0आर0 1978 सुप्रीम कोर्ट 793(तीन जज का निर्णय) भजया वि0 श्रीमती गोपिका बाई एवं अन्य। उसमें ए0आई0आर0 1974 म0प्र0 पेज 141 फुल बैंच, चरणलाल साहू वि0 नंदकिशोर भट्ट को मान्यता प्रदान की गई है।
एवं अधिनियम की धारा-4 में संशोधन के बाद धारा 22 के प्रावधान कृषि भूमि पर लागू होंगे।

18.    यह कि म0प्र0सीलिंग एक्ट के अन्तर्गत अधिग्रहित भूमि पर अधिनियम के प्रावधान लागू नहीं होंगे।
19.        यह कि धारा 22 के अतिक्रमण में सहउत्तराधिकारी द्वारा किया गया हित का अन्तरण शून्य न होकर अन्य सह उत्तराधिकारियों के विकल्प पर शून्यकरणीय होता है।

सोमवार, 10 नवंबर 2014

न्यायालय में मामले के त्वरित निराकरण के उपाय:-

न्यायालय में मामले के त्वरित निराकरण के उपाय:-

1. यह कि प्रत्येक न्यायाधीश को विशेष एक्ट और क्षेत्र का अलग से प्रशिक्षण देकर प्रशिक्षित किये जाने के बाद उस विषय विशेष से संबंधित एक्ट और कोर्ट की कार्यवाही हेतु नियुक्त किया जाना चाहिये। यह देखा गया है कि न्यायाधीशों को कई विषय के मामले दे दिये जाते हैं जिसमें कुछ में वे पारंगत होते हैं कुछ में नहीं । जिन मामलों में उन्हें विषय विशेष की जानकारी नहीं होती है ऐसे मामले में जानबूझकर लम्बी तारीख देकर लम्बा खींचते हैं और यहाॅ तक कि अपने कार्यकाल में उसका निराकरण नहीं करते हैं। यही कारण है कि भू-अर्जन अधिनियम , लोक न्यास अधिनियम, मध्यस्थता अधिनियम आदि से संबंधित मामले न्यायालयों में लम्बी अवधि से लंबित रहते हैं।

2. यह कि सिविल तथा विवाह सम्बन्धी मामले जिनका निराकरण समझाइश मध्यस्थता सुलह, समझौता से हो सकता है। अर्थात् ऐसे मामले जिनका निराकरण न्यायालय के बाहर हो सकता है ऐसे मामले सबसे पहले मीडिएशन हेतु मध्यस्थता केन्द्र भेजे जाने चाहिये। जहाॅ पर उनका निराकरण न होने के बाद ही ऐसे मामलेां का पंजीयन सिविल न्यायालय में होना चाहिये। इससे पक्षकारों पर अनावश्यक न्याय शुल्क का बोझ नहीं आयेगा और न्यायालय की भी न्याय शुल्क वापिसी की प्रक्रिया बचेगी तथा न्यायालय का बहुत समय बचेगा। और न्यायालय की आंकड़ोें में भी ऐसे प्रकरण पंजीबद्ध होकर लंबित संख्या को ज्यादा नहीं बताएंगे ।

जहाॅ तक मामलों की परिसीमा का प्रश्न है तो ऐसे मामलों में पक्षकारों को परिसीमा अधिनियम की धारा 14 का लाभ प्राप्त होगा और विधिवत् मध्यस्थता कार्यवाही में लगा समय विहित अवधि में जोड़ा नहीं जायेगा। और वाद परिसीमा में माने जाएंगे।

3. यह कि न्यायालय एम0पी0ई0बी0 की बिजली के बिल की वसूली की कोर्ट हो गई है और निगोशिएविल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट के अन्तर्गत वैध अवैध रूप से जारी बिना दिन तारीख के खाली सुरक्षा हेतु रखे चैकों की वसूली की कोर्ट हो गई है। इसके लिये आवश्यक है कि अलग से विशेष प्राधिकरण बनाये जायें और बैंक ऋण वसूली की तरह एम0पी0ई0बी0 के बिजली चोरी राशि की वसूली और जारी चैक की राशि की वसूली उन अधिकरण के माध्यम से कराई जावे।

इसके साथ ही साथ निगोशिएविल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट में यह संशोधन किया जाये कि चैक जारी होने की सूचना चैक जारी करने वाला तुरन्त बैंक को दे जिससे केवल चैक जारी दिनांक के तीन माह के अन्दर ही उसकी वैधता की तारीख रहने तक चैक से राशि की वसूली की जाये। ऐसा हो जाने पर बिना दिन तारीख के चैक सुरक्ष हेतु जमा चैक फर्जी चैक संम्बन्धी मामलों पर रोक लगेगी और केवल वास्तविक मामले ही चैक वसूली के न्यायालय के सामने आएंगे।

4. यह कि ए0डी0आर0, लोक अदालत, विधिक साक्षरता शिविर आदि में सभी न्यायाधीश संलग्न रहते हैं जिसके कारण वह वास्तविक समय न्यायालय कार्य में नहीं दे पाते हैं और न्यायालय कार्य का महत्वपूर्ण समय ए0डी0आर0 में देते हैं जिसके कारण न्यायालयीन कार्य प्रभावित होता है इसके लिये आवश्यक है कि प्रत्येक जिला एवं तहसील में एक एक न्यायाधीश की नियुक्ति ए0डी0आर0 जज के रूप में की जावे और उसके द्वारा ही सम्पूर्ण ए0डी0आर0 का काम किया जावे। इससे न्यायालय और न्यायाधीशगण को महत्वपूर्ण समय बचेगा जो पूरा न्यायालयीन कार्य में काम आयेगा।

5. यह कि प्रत्येक न्यायालय कम्प्यूटरीकृत हो गये हैं और न्यायालय के आंकड़े कम्प्यूटर के माध्यम से प्रत्येक दिन सी0आई0एस0 में पंजीबद्ध होते रहते हैं जिसकी जानकारी जिला मुख्यालय पर रहती है इसके बाद भी प्रत्येक माह कई बार आंकड़े , लंबित मामलों की जानकारी न्यायालय से बुलाई जाती है जिससे न्यायालय व न्यायाधीश का समय जानकारी देने में लगता है जिसके कारण वे न्यायालयीन कार्यवाही नहीं कर पाते हैं। अतः प्रत्येक जिले व तहसील में इस कार्य के लिये एक लिपिक की नियुक्ति की जावे और वह सी0आई0एस0 के माध्यम से प्रत्येक जानकारी ई-मेल के माध्यम से प्रस्तुत कर सकता है। केवल आंकड़ों के कारण ही न्यायालय में एक तारीख को कोई काम नहीं होता है और 01 से 05 तारीख तक बहुत कम मामले केवल मासिक , वार्षिक जानकारी देने के कारण प्रत्येक माह लगाये जाते हैं जिसके कारण न्यायालय का वास्तविक समय न्यायालयीन कार्य में नहीं लग पाता है।

6. यह कि न्यायालय में केस साक्षी और आरोपी की उपस्थिति न होने के कारण लम्बे समय तक लंबित रहते हैं और न्यायालय द्वारा जारी समंस वारण्ट न्यायालय को अदम तामील भी वापस नहीं किये जाते हैं ऐसी स्थिति में पुलिस केसों में समंस वारण्ट जारी करने वाली एजेन्सी सिविल मामलों की तरह संबंधित न्यायालय के न्यायाधीश के अन्तर्गत अधीनस्थ होना चाहिये और उस न्यायालय न्यायाधीश के प्रति उसकी जिम्मेदारी नियत की जानी चाहिये।

इसके लिये पुलिस अधिकारियों को प्रतिनियुक्ति न्यायालय में पुलिस मामलों में आदेशिका जारी किये जाने हेतु नियुक्त किया जाना चाहिये। ऐसी स्थिति में वह न्यायालय के प्रति जिम्मेदार रहेंगे और समंस वारण्ट की तामीली पर्याप्त होगी।

7. यह कि न्यायालय में आदेशिका जारी किये जाने हेतु कम्प्यूटर की नई तकनीक, एस0एम0एस0, ई-मेल, सोसल नेटवार्किंग का सहारा लिया जाना चाहिये और प्रत्येक व्यक्ति के पास उसके नाम से रजिस्टर्ड मोबाइल में उसे सूचना दी जानी चाहिये। आज टेलीफोन बिजली के बिल , बैंक में जमा राशि और उसकी निकासी आदि की जानकारी तत्काल एस0एम0एस0 के माध्यम से उपभोक्ता को दी जा रही है। इस तकनीक का प्रयोग न्यायालय में भी किया जाना चाहिये।

8. यह कि साक्ष्य लेखन के लिये भी नवीनतम तकनीक का उपयोग वीडियो कान्फ्रेसिंग के माध्यम से किया जा सकता है और किसी कारण से यदि विचाराधीन बन्दी जेल से न्यायालय नहीं आ पाते हैं तो साक्षी के उपस्थित हो जाने पर उनकी साक्ष्य अंकित की जा सकती है। पहचान के बिन्दु पर साक्ष्य स्थगन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

9. यह कि न्यायाधीश के साथ ही साथ अधिवक्तागण साक्ष्य लेखक स्टेनोग्राफर आदि स्टाफ को भी बराबर का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये ताकि वे सब मिलकर नई तकनीक के अनुसार काम कर सके और किसी भी बिन्दु पर कोई कमजोर न पड़े क्योंकि किसी एक भी कमजोर पड़ने पर सम्पूर्ण न्यायिक प्रक्रिया प्रभावित होती है और न्याय में विलंब होता है।
10. यह कि आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में प्रत्येक 10 लाख जनसंख्या/केस पर एक न्यायाधीश , 20 हजार जनसंख्या/केस पर एक हाईकोर्ट जज तथा एक हजार जनसंख्या/केस पर एक सुप्रीम कोर्ट जज का अनुपात है जो बहुत कम है इसलिये जनसंख्या के अनुपात में न्यायालय व न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिये।

11. यह कि हमारे देश में विभिन्न उच्च न्यायालय व उच्चतम न्यायालय के एक ही बिन्दु पर कई विरोधाभाषी निर्णय न्याय पत्रिकाओं में देखने को मिलते हैं ऐसी स्थिति में न्याय के लिये निर्मित प्रशिक्षण संस्थाओं को एक ही बिन्दु पर लागू होने वाले पांच न्यायाधीश, तीन न्यायाधीश, दो न्यायाधीश अथवा उनसे बड़ी पीठ के निर्णय जो लागू होने योग्य हैं उससे अवगत कराने चाहिये जिससे न्यायालय का समय बचेगा और विरोधाभासी निर्णयों से न्यायालय न्यायाधीश पक्षकार का समय बचेगा और हमें उचित निर्णय प्राप्त होगा।

बुधवार, 21 मई 2014


 ‘‘विधि और न्याय क्षेत्र में हिन्दी भाषा‘‘

    देश के स्वतंत्रता के 65 वर्ष बाद भी देश के उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों, न्यायिक अधिकरणों में हिन्दी भाषा में पूर्णतः कार्य नहीं होता और संविधान के अनुच्छेद-348 के अनुसार उच्चतम न्यायालय/उच्च न्यायालयों में कामकाज की भाषा अंग्रेजी है। उच्च और उच्चतम न्यायालय ने केवल अंग्रेजी में अपील और  बहस होती है,
     केवल 7 राज्यों-मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार  उत्तराखंड, झारखंड, छत्तीसगढ़ आदि के उच्च न्यायालयों में हिन्दी के प्रयोग की अनुमति है। लेकिन कार्य अंग्रेजी में होता है।
    कुछ हिन्दी भाषी राज्यों में निचले स्तर के न्यायालय में हिन्दी और अन्य हिन्दी भाषी राज्यों को छोड़कर उनकी क्षेत्रीय भाषाओं में कार्य किया जाता है लेकिन अपीलीय न्यायालय की भाषा अंग्रेजी है इसलिए सभी न्यायालयों में क्षेत्रीय भारतीय भाषाओं में कार्य नहीं होगा, तब तक आम जनता को वास्तविक न्याय प्राप्त नहीं होगा।
1.    केन्द्र सरकार की राजभाषा हिन्दी है, फिर भी अंग्रेजी को 1963 में पारित राजभाषा अधिनियम में सरकारी कार्यो/प्रयोजनों के लिये 26 जनवरी, 1965 के बाद भी पहले की तरह प्रयोग किए जाते रहने की छूट दी गई है, जो उचित नहीं है। अतः अंग्रेजी के प्रयोग पर रोक लगाकर केन्द्र में हिन्दी और राज्यों में राज्य की राजभाषाओं में कार्य करने हेतु कठोर कदम उठायें जायें।
2.    इसी प्रकार देश के अन्य सभी राज्यों की राजभाषाएं, उनके     उच्च न्यायालयों के कामकाज की भाषा बनाई जाएॅ।
3.    संसदीय राजभाषा समिति र्की  सिफारिश के अनुसार, उच्चतम न्यायालय में अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी में कार्य करने की भी अनुमति दी जाए।
4.    उच्चतम एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को हिन्दी और संबंधित राज्य की राजभाषा में निर्णय लिखने/कार्य करने हेतु उत्प्रेरित किया जाए।
5.    देश के सभी राज्यों की न्यायिक सेवा-शिक्षा तथा विधि संबंधी अन्य परीक्षाओं का माध्यम, अंग्रेजी के अलावा, हिन्दी और प्रादेशिक भाषाएं बनाई जाएॅ तथा अंग्रेजी के अनिवार्य प्रश्न-पत्र को हटाया जाए, या इसके विकल्प में उतने ही अंक का भारतीय भाषा का प्रश्न-पत्र रखा जाए।
6.    राष्ट्रीय विधि संस्थानों तथा विश्वविद्यालयों में एल.एल.बी. के तीन वर्षीय और 5 वर्षीय पाठ्यक्रमों, में दाखिला हेतु ली जाने वाली प्रवेश-परीक्षा का माध्यम, हिन्दी और भारतीय भाषाएॅ हो।
7.    देश के सभी राज्यों में एल.एल.बी. और एल.एल.एम. की पढ़ाई का माध्यम, हिन्दी और भारतीय भाषाएॅं हों।
8.    विधि संबंधी सभी पुस्तकें हिन्दी और भारतीय भाषाओं में यथाशीघ्र उपलब्ध कराई जाएॅ।
9.    सभी न्यायालयों से प्रशासनिक कार्य हिन्दी में किया जाए।
10.    हिन्दी और हिन्दीतर प्रदेशों की विधान सभाओं में विधायन/कानून बनाने का कार्य मूलतः राज्यों की राजभाषाओं में हो। राज्य की राजभाषा में पारित कानूनों/अधिनियमों के अनुवाद, बाद में हिन्दी और अंग्रेजी में किए जाएॅं।
11.    जिला न्यायालयों/अधीनस्थ न्यायालयों का समस्त कामकाज राज्यों की राजभाषाओं में ही हो।
12.    उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों, जिला स्तर के अधीनस्थ न्यायालयों, केन्द्रीय प्रशासनिक अधिकरण (कैट), न्यायिक अधिकरणों, आयकर अपीलीय अधिकरणों, ऋण वसूली अधिकरणों की भाषा, अंग्रेजी के अलावा, अनिवार्य रूप से हिन्दी और राज्य की राजभाषाएं भी हो।
13.    हिन्दी को अनुवाद की भाषा बनाने से रोका जाए और विधि तथा अन्य क्षेत्रों में मूलतः कार्य हिन्दी और राज्य की राजभाषा में हो।
14.    हिन्दी तथा हिन्दीतर भाषी प्रदेशों के सभी न्यायालयों, न्यायिक अधिकरणों आदि में हिन्दी के कम्प्यूटरों में हिन्दी टाईपिस्टों, हिन्दी आशुलिपिकों आदि की समुचित व्यवस्था हो।
15.    हर राज्य में एक राजभाषा कार्यान्वयन समिति गठित की जाए।

















































शनिवार, 17 मई 2014

जन्म तिथि में सुधार

                        जन्म तिथि में सुधार
    जन्म तिथि में सुधार की सहायता के लिये सिविल अधिकारिता अपवर्जित नहीं होगी। माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा (ईश्वर सिंह बनाम नेशनल फर्टिलाईजर्स एवं अन्य, ए.आई.आर. 1991 एस.सी. 1546) के मामले में अभिनिर्धारित किया है कि सी.पी.सी. की धारा 9 की अधिकारिता के भीतर जन्म तिथि सुधार के मामले आते हैं वह सिविल न्यायालय में पोषणीय होते हैं। वास्तव में उस प्रकार की सुधार की मांग करना विभिन्न प्रयोजनों के लिये हो सकेगा और औद्योगिक विववाद अधिनियम के तहत उपलब्ध अनुतोष के दावा करने के प्रश्न तक आवश्यक रूप से सीमित होने की कोई आवश्यकता नहीं है।

    न्यायालय के अनूुसार वाद की पोषणीयता का विनिश्चय कार्यवाहियों को संस्थित करने के संदर्भ में किया जाना चाहए और चूंकि उस दिनांक जब वाद दाखिल किया गया था, और औद्यौगिक विवाद अधिनियम की धारा 2 -क द्वारा आवरित कोई भी दशाएं प्रकट नहीं हुई है तो याचिकाकर्ता अनुतोष के लिए औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत फोरम के पास नहीं जा सकता और उक्त स्थिति में सिविल वाद औद्यौगिक विवाद अधिनियम की धारा 2-क के द्वारा अपवर्जित नहीं होगा।

    न्यायालय द्वारा यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि यदि वाद के अनुतोषों के लिये वाद उस फोरम में पोषणीय है जहां पर दाखिल किया गया तो फोरम वादी के लिये इसके दरवाजे बंद करने की स्वतंत्रता नहीं रखता। मामले के इस रूप में जहां तक जन्म तिथि से संबंधित अभिलेखों में सुधार की सहायता का संबंध है तो सिविल न्यायालय को अनुतोष प्रदान करने की अधिकारिता है।
   
    न्यायालय ने यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि जहां कर्मचारी यहां तक कि सुधारी गयी जन्म तिथि के आधार पर सेवा निवृत्त स्थिति उस समय तक सिविल वाद उसके हित में विनिश्चत करने में आया तो पारिणामिक अनुतोष सिविल न्यायालय द्वारा प्रदान नहीं किये जा सकते।

    शीर्ष न्यायालय ने द प्रीमियर आॅटो मोबाईल लिमिटेड बनाम कमलाकर शांताराम वाईके एवं अन्य, ए.आई.आर. 1975 एस.सी. 2238 के मामले में भी निम्न लिखित रीति में औद्योगिक विवाद के संबंध में सिविल न्यायालय की अधिकारिता को लागू सिद्धांत प्रतिपादित कियेः-

    (1)    यदि विवाद, औद्योगिक विवाद नहीं है, न यह अधिनियम के तहत किसी अन्य अधिकार के प्रवर्तन से संबंधित है तो केवल सिविल न्यायालय में उपचार उपलब्ध है।

    (2)    यदि विवाद, सामान्य या काॅमन लाॅ के अधीन किसी अधिकार या दायित्व से उत्पन्न औद्वद्योगिक विवाद है और इस अधिनियम के तहत नहीं तो सिविल न्यायालय की अधिकारिता, अनुतोष जो किसी विशिष्ट अनुतोष में मंजूर किए जाने के लिए सक्षम हो के लिए उसके उपचार का चुनाव करने के लिए संबंधित वादी के निर्वाचन पर इसको छोड़ते हुए वैकल्पिक होती है।

    (3)    यदि औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत सृजित अधिकार या बाध्यता के प्रवर्तन से संबंधित है तो वादी को उपलब्ध एकमात्र उपचार का न्याय निर्णयन इस अधिनियम के तहत् किया जाता है।

    (4)    यदि अधिकार जो प्रवर्तित किया जाना इप्सित है वह इस अधिनियम के तहत् सृजित अधिकार है जैसे अध्याय 5-क तो इसके प्रवर्तन के लिए उपचार या तो धारा 33-ग है या औद्योगिक विवाद उठाना, यथा स्थिति हो है।
    5-    न्यायालय के मार्गदर्शक सिद्धांत है जिसके आधार पर सिविल न्यायालय को यह विनिश्चय करना होता है कि क्या कोई विवाद औद्योगिक विवाद की परिभाषा के अधीन आवरित है वाद औद्योगिक अधिनियम की धारा 2-ए या 2(क) के उपबंधों के अधीन अपवर्जित होगा या नहीं होगा।

    6-    वाद दाखिल करने के दिनांक और उक्त दिनांक को कर्मचारी की स्थिति पर भी विचारण किया जाना चाहिए। यदि अभिलेखों को देखने के बाद यह प्रकट हो कि उस बिंदु पर विनिश्चय केवल सभी संबंधित पक्षकारों को सुनवाई का सम्यक् अवसर प्रदान करने के पश्चात् किया जाना चाहिए।

    7-    प्रथम दृष्टया प्रकरण विनिश्चत करने के लिए मामले को व्यवह्त करते समय मात्र संयोगिक रूप से कहना, अपील न्यायालय उपर्युक्त रीति में नहीं कह सकती कि इसके पास वाद ग्रहण करने की कोई अधिकारिता नहीं है। यह आदेश इसके लिए कोई कारण प्रदत्त किये बिना एक पंक्ति में पारित एक सतही आदेश है और वह मान्य नहीं ठहराया जा सकता।

    8-    यह व्यवस्थापित विधि है कि कारण, प्रश्न में विवाद का निर्णय करने वाले मस्तिष्क और विनिश्चय या निकाले निष्कर्ष के मध्य जीवंत संबंध है। कारण प्रदत्त करनेकी विफलता न्याय करने से इंकार करना समझा जाता है।  अलेक्जेंडर मशीनरी हुडली लिमिटेड बनाम फैक्ट्री, 1974 एल.सी.आर. 120 जिसको रिजनल मैनेजर, यू.पी.एस.आर.टी.सी. इटावा एवं अन्य बनाम होतीलाल, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 1462, देखों पैरा 10 के मामले में निर्दिष्ट किया गया है।
   
    9- सेवा के अंतिम प्रक्रम पर क्या जन्म दिनांक संशोधित करने की प्रार्थना स्वीकार किए जाने योग्य है, यह बिंदु विचारणीय था। इस संबंध में नकारात्मक मत निम्नलिखित न्याय दृष्टांतों में दिया गया।

    1-1994(6) सु.को.के. 302
    2-2003(6) सु.को.के. 483
    3-2006 ए.आई.आर.एस.सी.डब्ल्यू.3697
    4-(सुरेंद्र सिंह बनाम स्टेट आॅफ एम.पी., 2007(1) म.प्र. लाॅ.ज. 296     म.प्र.)


    5-    सचिव एवं आयुक्त, गृह विभाग बनाम आर.क्यूरूबक्रम, ए.     आई. आर. 1993 एस.सी. 2647,
    6-    उड़ीसा राज्य एवं अन्य बनाम श्री आर.पटनायक, 1997(2)     एल.एल.जे. 206,
    7-    जी.एम.भारतकोकिंग कोल लिमिटेड पं.बं. बनाम शिव कुमार     दुष्ट, ए.आई.आर. 2001 एल.सी. 72,
     8-    उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य बनाम श्रीमती गुलायची,     (2003)6 एस.सी.सी. 483,
    9-    पंजाब राज्य एवं अन्य बनाम एस.सी.चह्ढ़ा, (2004) 3 एस.    सी.सी. 394 गिरीश नाथ बनाम भारत का संघ एवं अन्य,     2005(1)एम.पी.एल.जे.233


       

//शिक्षा अधिकार कानून संवैधानिक //

//शिक्षा अधिकार कानून संवैधानिक //        

        प्रधान न्यायाधीश श्री आर.एम. लोढा की अध्यक्षता वाली पंाच सदस्यीय संविधान पीठ जिसमें मान्नीय न्यायमूर्ति ए.के. पटनायक, मान्नीय न्यायमूर्ति एस.जे. मुखोपाध्याय, मान्नीय न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और मान्नीय न्यायमृर्ति एस.एम.आई. कलीमुल्ला शामिल थे उसनें शिक्षा का अधिकार (आरटीआई) कानून की संवैधानिक बताया है
        संविधान पीठ के समक्ष यह मसला कनार्टक सरकार के 1994 के दो आदेेशों के कारण पहंुचा था, इन आदेशों में कक्षा एक से चार तक मातृभाषा या क्षेत्रीय भाष में शिक्षा प्रदान करना अनिवार्य किया गया था । सरकार के इन आदेशों की वैधानिकता को चुनौती दी गई थी ।
         सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार किया है कि तमाम विशेषज्ञ इस पर एकमत हैं कि प्राथमिक स्कूलों में बच्चे तभी बेहतर ढंग से विद्या प्राप्त कर सकते हैं अगर पढाई का माध्यम मातृभाषा हो । लेकिन उसने कर्नाटक सरकार के 1994 के उस आदेश को असंवैधानिक ठहरा दिया, जिसमंे राज्य के प्रायमरी स्कूलों में कन्नड में शिक्षा देने की बात कही गई थी ।
1-    संविधान पीठ के अनुसार यह सहायता प्राप्त या गैर सहायता अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू नहीं होगा ।
2-    इस कानून के तहत सभी स्कूलों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए 25 फीसदी सीटें आरक्षित करने का प्रावधान है ।
3-    अनुच्छेद 21(क) संविधान के बुनियादी ढांचे को प्रभावित नहीं करता है ।
4-    सरकारी प्राथमिक शिक्षा देने के लिए भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए मातृभाषा अनिवार्य नहीं कर सकती है । 
5-    सरकार को भाषाई अल्पसंख्यकों को प्राथमिक शिक्षा देने के लिए अनिवार्य रूप से क्षेत्रीय भाषा लागू करने के लिए बाध्य करने का अधिकार नहीं है ।
6-    संविधान में कहीं उल्ल्ेख नहीं है कि मातृभाषा वही है, जिसमें बच्चा अपने को सहज पाता हो ।
7-  कोर्ट ने मौलिक अधिकारों से संबंधित संविधान के अनुच्छेदों (भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) 29(अल्पसंख्यकों के हितों का संरक्षण) और 30 (संस्थाए स्थापित करने के अल्पसंख्यकों के अधिकारों ) के अंतर्गत भी भारत में मातृभाषा में शिक्षा नहीं दी जा सकती।
8-    कोर्ट ने अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रावधान की जो व्याख्या की जिसके अनुसार भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत बच्चे की अपनी पसंद की भाषा में शिक्षा पाने की स्वतंत्रता भी शामिल है ।
9-    बच्चे या उसकी तरफ से उसके अभिभावक को शिक्षा का माध्यम चुनने की आजादी है ।







अफसरों के खिलाफ बिना मंजूरी चार्जशीट

           अफसरों के खिलाफ बिना मंजूरी चार्जशीट

     सीबीआई का गठन पहले 1941 में स्पेशल पुलिस एस्टेब्लशमेंट एक्ट के नाम से हुआ था उसके बाद सीबीआई 1946 के दिल्ली पुलिस एक्ट के तहत काम करती है । सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के सिंगल डायरेक्टिव को खारिज  किया तो वर्ष 2003 में सेन्टल विजिलेंस एक्ट के माध्यम से पुलिस एक्ट में धारा 6-ए जोडी गई ।
              जिसे सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने ऐसे नौकरशाहों की जांच के लिए सरकार की अनुमति लेने संबंधी कानूनी प्रावधान को अमान्य और असंवैधानिक बताया है । साथ ही कहा कि सीबीआई आपराधिक मामलों में अफसरों के खिलाफ बिना मंजूरी चार्जशीट फाईल कर सकती है ।  अब  सीबीआई को भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे किसी भी वरिष्ठ नौकरशाह के खिलाफ बिना सरकार की अनुमति लिए कार्यवाही करने का अधिकार दे दिया ।
                इस संबंध में पहली याचिका सुब्रहाण्यम स्वामी ने 1997में दायल की थी और बाद में 2004 में गैर-सरकारी संगठन सेन्टर फार पब्लिक इंटरेस्ट लिटीगेशंस ने याचिका दायर की थी ।
        सीबीआई अदालतों में 6894 मामले जनवरी 2013 तक अनुमति न मिलने के कारण लंबित थे, जिसमें 950 मामले राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के थे, 23 मामले 20 वर्ष पुराने और 166 मामले दस वर्ष पुराने हैं । फरवरी 2014 तक सीबीआई को 2071 शिकायतें मिली, जिसमें से 2055 का निराकरण हुआ । 28 मामले चार माह से लंबित थे । 53 अधिकारियों के खिलाफ अभियोजन स्वीकृति के लिए केन्द्रीय सतर्कता आयोग से अनुमति मांगी गई ।
        प्रधान न्यायाधीश श्री आर.एम. लोढा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ ने दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टेबिलशमेंट एक्ट की धारा 6-ए के प्रावधान पर यह व्यवस्था दी ।
             अदालत ने अपने फैसले में कहा -
        1. भ्रष्टचार देश का दुश्मन है, भ्रष्टचारियों को अलग-अलग         वर्गों मंे बांटना सही नहीं है । यह भ्रष्टचार के खिलाफ बने         कानून की भी अवहेलना है ।
        2. भ्रष्ट अधिकारी चाहे वे बडे ओहदे पर हों या निचले             पायदान पर, सब एक जैसा अपराध करते हैं । कानून को         भी उनसे एक जैसा सलूक करना चाहिए ।

        3. डीएसपीईए की धारा 6ए के तहत भ्रष्ट अधिकारियों के         खिलाफ कार्यवाही से पहले मंजूरी लेना जांच में बांधा             पहंुचाने जैसा ही है ।

        4. धारा 6-ए संविधान के अनुच्छेद 14 के प्रावधानों के             खिलाफ भी है । अनुच्छेद 14 के मुताबिक कानून के सामने         सब बराबर हैं ।
        5. आपराधिक न्याय व्यवस्था में अपराध की जांच निष्पक्ष             और कानून के अनुसार होनी चाहिए । यह भी देखना             जरूरी है कि हितबद्ध प्रभावशाली लोग जांच को प्रभावित             कर अपराधी को बचाने में सफल नहीं हो पाऐं । ऐसा होना         अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार के खिलाफ है         इसलिए अनुच्छेद 14 के पैमाने पर दिल्ली पुलिस एक्ट             की धारा 6 ए फेल हो जाती है ।
        6. स्वामी और टेलकाॅम वाचडाॅग जैसे अनेक याचिकाओं में         बताए गए तथ्य स्पष्ट कर रहे हैं कि धारा 6-ए के तहत             किया गया भेद खतरनाक तो है ही पीसी एक्ट 1988 के             उददेश्य के भी उलट है ।

        7. दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 155-156 के तहत पुलिस         स्टेशन के इन्चार्ज को जांच का अधिकार दिया गया है, वह         जांच कर सकता है लेकिन धारा 6 ए के कारण सी.बी.आई.         नहीं कर सकती ।
        8. विनीत नारायण के मामले में सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह         चुका है कि एक अपराध के लिए दोषी सभी लोगों के साथ         कानून के अनुसार एक जैसा व्यवहार किया जाना                 चाहिए, यह धारा 6-ए के संबंध में लागू है ।

   
       
       


       
   


















   









                                                        

शुक्रवार, 2 मई 2014

/विधि का शासन और न्याय प्रदान करने में आने वाली कठिनाईयां//

//विधि का शासन और न्याय प्रदान करने में आने वाली कठिनाईयां//
        विधि द्वारा स्थापित न्यायालयों को विधिक प्रक्रिया के अनुसार न्यायालय में विधि का शासन लागू किए जाने में अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है, जिसके कारण न्याय प्रशासन प्रभावित होता हैं । उपरोक्त कठिनायां निम्नलिखित हैंः-
        1. न्यायालय में कार्य की अधिकता ।
        2. न्यायालय में सभी गवाहों को खर्च नहीं दिया जाता है             क्योंकि वह कम होने के कारण जल्दी समाप्त हो जाता है ।
        3. निःशुल्क विधिक सहायता अयोग्य, अप्रशिक्षित, पैनल लायर             के माध्यम से दी जाती है ।
        4. सरकारी अधिवक्ता राजनैतिक प्रभाव से बनाए जाते हैं             इसलिए एक ही दिन में 15-20 प्रकरणों में कार्यवाही किए             जाने हेतु सक्षम नहीं होते हैं ।
        5. न्यायालय के पास प्रतिकर अदायगी हेतु खुद का कोई             फण्ड नहीं है, इसलिए प्रार्थी को इलाज हेतु पर्याप्त राशि             प्रदान नहीं की जा सकती है ।
        6. न्यायालय में फाईलों की संख्या अत्यधिक है, जिसके                 कारण न्यायाधीश निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार कार्यवाही नहंी             कर पाते हैं ।
        7. न्यायालय और न्यायाधीश राजनीति, मीडिया, प्रमोशन के             लालच में डर दबाव के कारण काम करते हैं ।
        8. बाल न्यायालय भी औपचारिकतापूर्ण एक दिन लगाया                 जाता     है, उसमें विशेषज्ञ की नियुक्ति नहीं होती है ।
        9. ग्राम न्यायालय भी केवल एक दिन लगाए जाते हैं और             ग्राम न्यायालय के अनुरूप ग्रामों में जाकर न्यायाधीश                 सुविधाओं के अभाव के कारण न्याय प्रदान नहीं करते हैं ।
        10. शासकीय गवाहों को सुरक्षा प्रदान नहंी की जाती है,             जिसके कारण वे डर दबाव के कारण अभियोजन का पक्ष             समर्थन नहीं करते हैं, जिसके कारण दोषी व्यक्ति न्यायालय             में छूट जाते हैं ।
        11.न्यायालय और न्यायाधीश पर डर दबाव बनाए जाने के             लिए झंूठे आरोप और शिकायतें की जाती हैं, जिसके कारण             न्यायाधीश स्वतंत्रतापूर्वक कार्य नहीं कर पाते हैं ।








भारत में विधि का शासन

 भारत में विधि का शासन

        एडवर्ड काॅक के द्वारा प्रतिपादित विधि के शासन को प्रोफेसर डायसी ने विस्तृत व्याख्या कर अर्थ स्पष्ट किया और प्रायः दुनिया के सभी देशों मंे उनके अभिमत को स्वीकार कर अपने संविधान का अभिन्न अंग बनाया है।

        विधि के शासन में सभी व्यक्ति विधि के समक्ष समान है और सभी का संरक्षण विधि बिना किसी भेदभाव के करती है लेकिन इसमें  वर्ग विभेद को विधि के विपरीत नहीं माना गया है और एक वर्ग विशेष और व्यक्ति के लिए भिन्न कानून और व्यवस्था की जा सकती है, जिसे युक्तियुक्त वर्गीकरण कहा जाता है । 

        विधि के शासन के अंतर्गत राज्य का प्रत्येक अधिकारी अपने आप को विधि के अधीन समझेगा और कानून का पालन करेगा । इसमें राज्य के तीनों अंग कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका तीनों कानून के अनुसार कार्यवाही किए जाने के लिए बाध्य है ।


        विधि के शासन के अंतर्गत व्यक्ति संबंधी सभी स्वतंत्रताऐं इसमें शामिल मानी गई है और इसे संविधान का महत्वपूर्ण अंग माना गया है । विधि के शासन के अंतर्गत राज्य कर्मचारियों के द्वारा संवैधानिक सीमाओं के अंदर अपनी कार्यपालक शक्तियों का प्रयोग किया जाएगा । यदि उनकेे द्वारा अपनी शक्तियों का प्रयोग नहीं किया जाता है या सीमा से अधिक किया जाता है तो जनता उनके आचरण को चुनौती दे सकती है और न्यायालय उनके आचरण में सुधार करेगें ।


        विधि के शासन के अंतर्गत सरकारी अधिकारियों को मनमाना विवेकाधिकार प्राप्त नहीं होंता है, किसी भी व्यक्ति के पास विवेकाधिकार की असीमित शक्तियां नहीं होती हैं। सभी व्यक्तियों को विवेकाधिकार का प्रयोग विधि के अनुसार दी गई शक्तियों के अंतर्गत करना होता है । 


        विधि के शासन के अंतर्गत सभी विधि के उल्लंघन करने वाले को दण्डित किया जाता है । सभी व्यक्तियों पर देश का संपूर्ण कानून लागू बराबरी से लागू होता है, कोई भी व्यक्ति विधि के उपर नहीं माना जाता है, किसी भी सरकारी अधिकारी-कर्मचारी, नेता को विशेष छूट नहीं होती है  ।    

     इस संबंध में 1959 में दिल्ली में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कमीशन आॅफ ज्यूरिस में भारत के संबंध में विधि के शासन को लागू किए जाने के लिए कमेटीयां बनाई गई थीं, जो निम्नलिखित हैं:-


        (1) व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा विधि का शासन
        (2) राज्य के संबंध में विधि का शासन
        (3) आपराधिक प्रशासन के संबंध में विधि का शासन
        (4) सुनवाई तथा परीक्षण  के संबध्ंा में विधि का शासन        
       
(1) व्यक्तिगत स्वतंत्रता और विधि का शासन लागू करने के संबंध में निम्नलिखित घोषणाऐं की गई हैंः-


1. राज्य पक्षपातपूर्ण विधि नहीं बनाएगा,
2.राज्य धार्मिक विश्वास पर हस्तक्षेप नहीं करेंगे,
3. राज्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर प्रतिबंध नहीं लगाऐंगे ।


(2) राज्य के संबंध में विधि का शासन लागू करने के संबध्ंा में निम्नलिखित घोषणाऐं की गई हैंः- 

1.राज्य द्वारा प्रभावशाली सरकार दी जाएगी,
2.राज्य सरकार विधि के अनुसार चलेगी,
3. राज्य सरकार व्यक्ति की सुरक्ष देगी,
4. राज्य द्वारा बुराईयों का अंत किया जाएगा ।


(3) आपराधिक प्रशासन के संबंध में विधि का शासन लागू किए जाने के संबंध में निम्नलिखित घोषणाऐं की गई हैंः-

1.बिना विधिक प्रावधानों के गिरफतार नहीं किया जाएगा,
2. आरोप साबित होने पर जांच एजेन्सी व्यक्ति को निर्दोष मानेगी
3. युक्ति को अपने विरूद्ध आरोप में सुनवाई  का पूरा अवसर दिया जाएगा
4. व्यक्ति का परीक्षण विधि अनुसार होगा ।

(4) सुनवाई तथा परीक्षण करने के संबध्ंा में विधि का शासन लागू किए जाने के संबंध में  निम्नलिखित घोषणाऐं की गई हैंः-ः-


1. न्यायालय स्वतंत्र रूप से कार्य करेंगी ।
2. न्यायालय और न्यायाधीश निष्पक्ष और निर्भिक होकर न्याय प्रदान करेंगे ।
3. .विधि का व्यवसाय स्वतंत्र रूप से किया जाएगा ।

        इस प्रकार विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार न्यायालय प्रशासन द्वारा न्याय प्रदान करना ही विधि का शासन है, जिसमें बिना डर, दबाव, पक्षपात के न्याय प्रदान किया जाएगा । इसके अंतर्गत कानून किसी के साथ विभेद नहीं करेगा, सभी पर समान रूप से लागू होंगा और सभी को समान और संपूर्ण संरक्षण प्रदान किया जाएगा ।
       


























 

पूर्व निर्णीत प्रकरणों के संबंध में

  पूर्व निर्णीत प्रकरणों के  संबंध में

    माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय की विशेष खंडपीठ में पाॅच जजो ने 2003 भाग-1 जे0एल0जे0 105 में पूर्व निर्णय के संबंध में सिद्धांत अभिनिर्धारित किये है, जिसमें मान्नीय मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा बलवीर सिंह (पूर्वोक्त) के मामले में पूर्ण न्यायपीठ के विनिश्चय में, जिसमें अभिनिर्धारित किया गया हैं कि यदि उच्चतम न्यायालय की दो समान अधिकारयुक्त न्यायपीठो के दृष्टिकोण में विरोध हो तब उच्च न्यायालय द्वारा उस निणर््ाय का अनुसरण किया जाना होगा जिसमें से प्रतीत हो कि विधि अधिक विस्तृत रूप और अधिक सही और अधिनियम की योजना के अनुरूप अभिकथित हैं, जिसे सही विधि न मानते हुए उसे इस बिंदु पर उलटा गया है । अतः  2001 रा नि 343त्र 2001  (2) एम पी एल जे 644  (पूर्ण न्यायपीठ) द्वारा उलटा गया ।
        इसके बाद ए.आई.आर. 2005 सुप्रीम कोर्ट 752 सेन्ट्र्ल बोर्ड आॅफ द्विवेदी बोरा कमेटी विरूद्ध महाराष्ट्र् राज्य के मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय के पाॅच न्यायाधीशगण के द्वारा पूर्व निर्णय के संबंध में दिशा निर्देश प्रतिपादित किये गये हैं जिसमें निम्नलिखित सिद्धांत अभिनिर्धारित किए हैं।
1-        उच्च न्यायालय के बारे में, एकल न्यायपीठ अन्य एकल न्यायपीठ के विनिश्चय से आबद्ध हैं।
2-         यदि एकल न्यायाधीश अन्य एकल न्यायपीठ के दृष्टिकोण से सहमत नहीं हो तब उन्हें उस मामले को बृहत्तर न्यायपीठ को निर्देशित करना चाहिए।
3-         इसी प्रकार खंड न्यायपीठ, पूर्वतर खंड न्यायपीठ के विनिश्चय से आबद्ध हैं ।
4-         यदि वह पूर्वतर खंड न्यायपीठ के विनिश्चय से सहमत नहीं हो तब उसके द्वारा मामला बृहत्तर न्यायपीठ को निर्देशित किया जाना चाहिए।
5-        समान सामथ्र्य की दो खंड न्यायपीठो के विनिश्चयों में विरोध की दशा में पूर्वतर खंड न्यायपीठ के विनिश्चय का अनुसार किया जाएगा, सिवाय तब जब उसे पश्चात्वर्ती खंड न्यायपीठ द्वारा स्पष्ट किया गया हो , जिस दिशा में पश्चात्वर्ती खंड न्यायपीठ का विनिश्चय बाध्यकर होगा ।
6-        बृहत्तर न्यायपीठ का विनिश्चय, लघुतर न्यायपीठों के लिए बाध्यकर हैं।
7-        उच्चतम न्यायालय के दो विनिश्चयों में विरोध की दशा में, जब न्यायपीठों में न्यायाधीशों की संख्या समान हो तब पूर्वतर न्यायपीठ का विनिश्चय बाध्यकर होता हैं, सिवाय तब जब समान संख्या की पश्चात्वर्ती न्यायपीठ द्वारा स्पष्टीकृत हो, जिस दशा में पश्चात्वर्ती विनिश्चय बाध्यकर होता हैं।
8-         बृहत्तर न्यायपीठ का विनिश्चय लघुतर न्यायपीठों के लिये बाध्यकर होता हैं। अतः पूर्वतर खंड न्यायपीठ का विनिश्चय, जब तब पश्चत्वर्ती खंड न्यायपीठ द्वारा प्रभेदित नहीं हो, उच्च न्यायालयों तथा अधीनस्थ न्यायालयों के लिए बाध्यकर है।
9-         इसी प्रकार, जब खंड न्यायपीठ के विनिश्चय तथा बृहत्तर न्यायपीठ के विनिश्चय विद्यमान हो तब उच्च न्यायालयों तथा अधीनस्थ न्यायालयों पर बृहत्तर न्यायपीठ के विनिश्चय बाध्यकर हैं।
10-        उच्चतम न्यायालय के विभिन्न विनिश्चयों में जो सामान्य सूत्र हैं वह यह हैं कि उस पूर्व निर्णय को अत्यधिक मूल्य दिया जाना होता हैं जो न्यायालय के विनिश्चयों में सामंजस्य तथा सुनिश्चितता के प्रयोजनार्थ न्यायालय द्वारा अनुसरित विनिर्णय के रूप में प्रवर्तित हो गया हैं । जब तक पूर्व निर्णय के रूप में प्रस्तुत किए गए विनिश्चय को न्यायालय द्वारा स्पष्टतः प्रभेदित नहीं किया जा सका हो अथवा वह कुछ ऐसे पूर्व निर्णयों को विचार में लिय बिना,अनवधानता के कारण दिया गया हो जिनसे न्यायालय सहमत हो।
   





       

विधि का शासन और न्यायपालिका की भूमिका


विधि का शासन और न्यायपालिका की भूमिका
           
        विधि के शासन का अर्थ विधि के द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार निष्पक्ष, निडर होकर पक्षपातरहित ढंग से न्याय प्रदान करना विधि का शासन कहलाता है,  न्यायालय को संहिताबद्ध विधि भारतीय दण्ड संहिता सिविल प्रक्रिया संहिता, दण्ड प्रक्रिया संहिता आदि के पालन में कोई बाधा नहीं है ।  जिसमें न्यायालय लिखित विधि के अनुसार कार्य कर विधि का शासन प्रदान करते हंै।
         लेकिन हमारे देश में अनेक जाति, धर्म भाषा के लोग हैं, जिनमें अनेक रूढी प्रथा और रीति-रिवाज विद्धमान है, जो विधि का रूप रखते ंहै, जैसे मुस्लिम विधि संहिताबद नहीं है, लेकिन मुस्लिम धर्म ग्रन्थ शरियत और कुरान के आधार पर कानून पर आधारित है । इसी प्रकार गौड़-भील, आदिवासी आदी जनजातियांें में भी सामाजिक रूढी प्रथा रीतिरिवाज प्रचलित हैं, जिसके अनुसार उनके यहां विवाह, तलाक, दत्तक, उत्तराधिकार की कार्यवाही होती है, जो न्यायालय में प्रमाणित होने पर विधि का रूप रखते हैं ।
        इसलिए जब न्यायालय द्वारा असंहिताबद्ध रूढीगत विधि को लागू किया जाता है तब न्यायालय को यह ध्यान रखना चाहिए कि वह संविधान के द्वारा प्रदत्त मूल और कानूनी अधिकारों का ध्यान रखते हुए विधि के समक्ष समता-समानता-संरक्षण, वर्ग विभेद, लिंगभेद, जातिभेद धर्मभेद को ध्यान में रखते हुए व्यक्तिगत स्वतंत्रता और प्राकृतिक न्याय तथा मानव अधिकार के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए न्याय प्रदान करे, यही विधि का शासन है ।
        व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संबध्ंा में मूल अधिकारों का उल्लंघन होने पर व्यक्ति को मूल अधिकारों के संबध्ंा में संविधान के द्वारा गारंटी प्रदान की गई है और भारत के उच्च और उच्चतम न्यायालय रिट जारी कर उनके अधिकारों को संरक्षण प्रदान करते हैं ।
        न्याय प्रशासन में विधि का शासन लागू करने में वरिष्ठ न्यायालय की महत्वपूर्ण भूमिका है और वे समय-समय पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता, गिरफतारी, संरक्षण आदि के संबंध में दिशा-निर्देश जारी कर न्यायालय, पुलिस प्रशासन आदि से संबंधित संस्थाओं को सचेत करते  रहते है, उनके द्वारा प्रतिपादित दिशा निर्देशों को लागू करना अधीनस्थ न्यायालय और राज्य का कर्तव्य है ।
        न्यायालयों में विधि का शासन प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका राज्य के प्रमुख अंग जिला कलेक्टर, न्यायिक मजिस्ट्रेट, कार्यपालिक मजिस्ट्रेट, पुलिस आदि की रहती है और सर्वप्रथम संज्ञेय अपराध घटित होने पर पुलिस द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करना अनिवार्य है और उसके पश्चात् उसकी जांच कर अभियोग पत्र पेश करना सुरक्षा एजेन्सीयों का काम है और प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकरण के साथ उसकी प्रतिलिपि धारा 157 द.प्र.सं. के अंतर्गत संबंधित न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजने के साथ ही  विधि का शासन और संरक्षण प्रभावशील हो जाता है ।
        आरोपी के गिरफतार होने पर उसे मान्नीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा डी.के.बसु के मामले में दी गई गाईडलाईन के अनुसार पुलिस के द्वारा गिरफतार किया जाता है, उसे गिरफतारी के कारणों की सूचना दी जाती है । उसके सगे-संबंधियों को गिरफतारी की सूचना से अवगत कराया जाता है और उसे पसंद के अधिवक्ता से सलाह लेने की छूट दी जाती है, इसके बाद उसे 24 घण्टे के अंदर न्यायालय के समक्ष पेश किया जाता है । उसके साथ गिरफतारी के दौरान अमानवीय व्यवहार नहीं किया जाता है, हथकड़ी-बेड़ी नहीं लगाई जाती है । उसे मारपीट कर प्रताडि़त नहीं किया जाता है ।
        आरोपी के गिरफतार होने के बाद व्व्यक्ति को जब सर्वप्रथम मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है तो मजिस्ट्रेट की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । वह आरोपी से पूछतांछ करता है, यदि उसके शरीर पर कोई चोट है, तो उसका मेडीकल करवाता है या वह अपना चिकित्सीय परीक्षण कराना चाहता है तो उसका चिकित्सीय परीक्षण कराया जाता है । इसके बाद उसे और अभियेाजन को सुनकर न्यायिक अभिरक्षा अथवा पुलिस अभिरक्षा में विधिक प्रावधानों के अनुसार भेजा जाता है ।
        मजिस्ट्रेट के द्वारा यदि गिरफतारी के दौरान मानव अधिकारों का उल्लंघन पाया जाता है तो उसका परिवाद मानव अधिकार न्यायालय के समक्ष मानवअधिकार अधिनियम की धारा 13 के अंतर्गत प्रस्तुत कर सकता है । निर्धारित समय अवधि  के लिए न्यायिक रिमांड और पुलिस रिमांड दिए जाने के साथ ही साथ जमानत के सबंध में आरोपी को सुना जाता है और उसे विधिक प्रावधानों के अनुसार जमानत प्रदान की जाती है अथवा निरस्त की जाती है  ।
        उसके बाद न्यायालय में चालान पेश होने पर आरोपी को चालान की नकल दी जाती है । यदि प्रार्थी इलाज के लिए सहायता चाहता है तो उसे सरकारी खर्च पर न्यायालय द्वारा इलाज कराने की सुविधा दी जाती है । आरोपी और प्रार्थी दोनों को निःशुल्क विधिक सहायता प्रदान किए जाने का प्रावधान है, ताकि कोई भी व्यक्ति बिना अभिरक्षा के विचारण का सामना न कर सके ।
        उसके बाद आरोप लगाए जाने के साथ ही विचारण प्रारंभ होता है और विचारण भी शीघ्र किए जाने पर ही विधि का शासन प्रभावशील होता है । विधि के शासन के अनुसार शीघ्र विचारण होना चाहिए, विचारण प्रारंभ होने के दौरान साक्ष्य अभिलेखन न्यायालय द्वारा किया जाता है और यह एक महत्वपूर्ण कार्य है, जिसमें न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने वाले साक्षियों की साक्ष्य घटना के संबध्ंा में अभिलिखित की जाती है ।
        न्यायालय में उपस्थित साक्षियांे को आने- जाने का खर्च दिया जाता है । अभियोजन साक्षी बिना डर दबाव के अपनी साक्ष्य प्रस्तुत करें इसलिए उन्हें सुरक्षा प्रदान की जाती है । इसके बाद आरोपी को आरोपी को बचाव का पर्याप्त अवसर दिया जाता है और उसे भी अपनी तरफ से बचाव साक्ष्य पेश करने का अवसर प्राप्त होता है । विचारण के दौरान उसके निर्दोष होने की उपधारणा की जाती है, जब तक कि वह दोषी नहीं ठहराया जाए, उसके निर्दोष होने की उपधारणा की जाती है । दस दोषी छूट जाऐं, परंतु एक निर्दोष को दोषी नहीं ठहराया जाए, इस बात को ध्यान में रखते हुए न्यायिक विचारण किया जाता है ।
        आरोपी के निर्दोष होने की उपधारणा के बाद विचारण प्रारंभ होने के बाद उसे बचाव और प्रतिरक्षा का पर्याप्त अवसर देकर उसके विरूद्ध आई साक्ष्य से अभियुक्त परीक्षण में अवगत कराकर उससे बचाव में साक्ष्य देने का अवसर प्रदान किया जाता है । यदि उसे लिखित में अंतिम तर्क प्रस्तुत किए जाने और उसे खुद की बाध्यता के साथ बचाव में साक्ष्य प्रस्तुत करने के प्रावधानों के साथ साक्ष्य का विश्लेषण कर निणर््ाय पारित किया जाता है ।
         निणर््ाय पारित होने के बाद आरोपी और प्रार्थी दोनों के हितों को ध्यान  में रखते हुए दण्डादेश पारित किया जाता है, जिसमें प्रार्थी को हुए नुकसान के लिए प्रतिकर और खर्च दिलाया जाता हैे । आरोपी को दण्ड इस उददेश्य के साथ दिया जाता है कि अपराध की पुनर्रावृत्ति न हो और उसे देखकर समाज में सुधार हो और अन्य कोई व्यक्ति पुनः इस प्रकार का अपराध करने की न सोचे ।
        विचारण के समय महिला संबंधी अपराधों में मान्नीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा साक्षी के मामले में प्रतिपादित गाईडलाईन का ध्यान रखा जाता है । प्रार्थी का नाम उजागर न हो, इस बात का ध्यान रखते हुए कैमरा ट्रायल की जाती है । विचारण के दौरान सुलह, समझौता, राजीनामा का प्रयास किया जाता है ताकि पक्षकारों में आपसी सामन्जस्य स्थापित हो और उनमें व्याप्त दुश्मनी, वैमनस्यता समाप्त हो ।
        इस प्रकार विधि द्वारा स्थापित न्यायालय विधिक प्रावधानों के अंतर्गत कार्य करते हुए विधि का शासन स्थापित करते हैं ।



















गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

पारिस्थितिक साक्ष्य

                         पारिस्थितिक साक्ष्य

.        न्याय दृष्टांत पडाला वीरा रेड्डी विरूद्ध आंध्र प्रदेश राज्य और अन्य, ए.आई.आर. 1990 एस.सी.79 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहा मामला पारिस्थितिक साक्ष्य पर आधारित होता है वहा ऐसे साक्ष्य को निम्नलिखित कसौटियों को संतुष्ट करना चाहिए:-

(1)    वे परिस्थितिया जिनसे दोषिता का निष्कर्ष निकाले जाने की ईप्सा की गई है, तर्कपूर्ण और दृढ़ता से साबित की जानी चाहिए,

(2)    वे परिस्थितियां निश्चित प्रवृत्ति की होनी चाहिए जिनसे अभियुक्त की दोषिता बिना किसी त्रुटि के इंगित होती हो,

(3)    परिस्थितियों को संचयी रूप से लिए जाने पर उनसे एक श्रृंखला इतनी पूर्ण होनी चाहिए कि इस निष्कर्ष से न बचा जा सके कि समस्त मानवीय संभाव्यता में अपराध अभियुक्त द्वारा कारित किया गया था और किसी अन्य व्यक्ति द्वारा नहीं, और

(4)    दोषसिद्धि को मान्य ठहराने के लिए पारिस्थितिक साक्ष्य पूर्ण होनी चाहिए और अभियुक्त की दोषिसिद्धि से भिन्न कोई अन्य संकल्पना के स्पष्टीकरण के अयोग्य होनी चाहिए और ऐसा साक्ष्य न केवल अभियुक्त की दोषसिद्धि के संगत होनी चाहिए अपितु यह उसकी निर्दोषिता से भी असंगत होनी चाहिए।’’


2.        न्याय दृष्टांत उत्तर प्रदेश राज्य बनाम अशोक कुमार, 1992 क्रि.ला.ज. 1104 के मामले में यह उल्लेख किया गया था कि पारिस्थितिक साक्ष्य का मूल्यांकन करने में गहन सतर्कता बरती जानी चाहिए और यदि अवलंब लिए गए साक्ष्य के आधार पर युक्तियुक्त रूप से दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हों तब अभियुक्त के पक्ष वाला निष्कर्ष स्वीकार किया जाना चाहिए।

 यह भी उल्लेख किया गया था कि अवलंब ली गई परिस्थितिया पूर्णतया साबित हुई पाई जानी चाहिए और इस प्रकार साबित किए गए सभी तथ्यों का संचयी प्रभाव केवल दोषिता की संकल्पना से संगत होना चाहिए।

3.        माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने देवनंदन मिश्र विरूद्ध बिहार राज्य, 1955 ए.आई.आर. 801 के मामले में यह विधिक प्रतिपादन किया है कि जहा अभियुक्त के विरूद्ध अभियोजन द्वारा विभिन्न सूत्र समाधानप्रद रूप से सिद्ध कर दिये गये हैं एवं परिस्थतिथिया अभियुक्त को संभाव्य हमलावर, युक्तियुक्त निष्चितता और समय तथा स्थिति के बाबत् मृतक के सानिध्य में बताती है, अभियुक्त के स्पष्टीकरण की ऐसी अनुपस्थिति या मिथ्या स्पष्टीकरण अतिरिक्त सूत्र के रूप में श्रृंखला को अपने आप पूरा कर देगा। स्पष्टीकरण के अभाव अथवा मिथ्या स्पष्टीकरण को श्रृंखला पूरा करने वाली अतिरिक्त कड़ी के रूप में उस दषा में प्रयुक्त किया जा सकता है, जबकि:-

(1)    अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य से श्रृंखला की विभिन्न कडिया समाधानप्रद रूप से साबित कर दी गयी हों।

(2)    ये परिस्थितिया युक्तियुक्त निष्चितता के साथ अभियुक्त की दोषिता का संकेत देती हों, और

(3)    यह परिस्थितिया समय की स्थिति की दृष्टि से नैकट्य में हो।

4.        इस क्रम में न्याय दृष्टांत शंकरलाल ग्यारसीलाल दीक्षित विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 1981 सु.को. 765 भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है।

 न्याय दृष्टांत महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध सुरेश (2000)1 एस.सी.सी. 471 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि दोषिता-कारक परिस्थिति के विषय में पूछे जाने पर अभियुक्त द्वारा उसका असत्य उत्तर एक ऐसी परिस्थिति को निर्मित करेगा जो परिस्थिति-जन्य श्रृंखला की गुमशुदा कडी के रुप में प्रयुक्त की जा सकेगी।




1  पारिस्थितिक साक्ष्य के मूल्यांकन के संबंध में इस विधिक स्थिति को ध्यान में रखना आवश्यक है कि जहा साक्ष्य पारिस्थितिक स्वरूप की होती है, वहा ऐसी परिस्थितिया, जिनसे दोष संबंधी निष्कर्ष निकाला जाना है, प्रथमतः पूरी तरह से साबित की जानी चाहिये और इस प्रकार से साबित किये गये सभी तथ्यों को केवल अभियुक्त के दोष की उपकल्पना से संगत होना चाहिये। पुनः परिस्थितियों को निश्चयात्मक प्रकृति और प्रवृत्ति का होना चाहिये और उन्हें ऐसा होना चाहिये, जिससे कि दोषिता साबित किये जाने के लिये प्रस्थापित उपकल्पना के सिवाय अन्य प्रत्येक उपकल्पना अपवर्जित हो जाये। अन्य शब्दों में साक्ष्य की ऐसी श्रंखला होनी चाहिये, जो इस सीमा तक पूर्ण हो, कि जिससे अभियुक्त की निर्दोषिता से संगत निष्कर्ष के लिये कोई भी युक्तियुक्त आधार न रह जाये और उसे ऐसा होना चाहिये, जिससे यह दर्शित हो जाये कि सभी मानवीय अधिसंभाव्यनाओं के भीतर अभियुक्त ने वह कार्य अवश्य ही किया होगा,

 संदर्भ:- हनुमंत गोविन्द नारंगढ़कर बनाम म.प्र.राज्य, ए.आई.आर. 1952 एस.सी. 3431,

 चरणसिंह बनाम उत्तरप्रदेश राज्य, ए.आई.आर. 1967(सु.को.) 5201 एवं आशीष बाथम विरूद्ध म.प्र.राज्य 2002(2) जे.एल.जे. 373 (एस.सी.)।







’हेतुक’

                                ’हेतुक’


                                          ’हेतुक’  एक गुह्य मानसिक स्थिति है, जो मनुष्य की उपचेतना  में निवास करती है। इसके द्वारा ही मन कार्य की ओर अग्रसर होता है।

 विधि शास्त्री सामण्ड ने इसे अंतरस्थ आषय की संज्ञा दी है। ’हेतुक’ वह भीतरी प्रेरणा है, जो किसी कार्य के लिये गुप्त रूप से मन को उकसाती है। अंतःपरक होने के कारण ’हेतुक’ को प्रमाणित करना कठिन होता है, क्योंकि उसकी जानकारी केवल अपराधकर्ता को ही होती है।

 विधि का यह सुनिष्चित सिद्धांत है कि जहा हत्या के संबंध में अभियुक्त के विरूद्ध निष्चित, संगत, स्पष्ट एवं विष्वसनीय साक्ष्य उपलब्ध हो, ऐसी परिस्थितियों में हत्या के ’हेतुक’ को प्रमाणित करना महत्वपूर्ण नहीं रह जाता है
, संदर्भ:- अमरजीतसिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, 1995 क्रि.ला.रि.(सु.को.) 495 ।

 जब हत्या का अपराध साक्ष्य से भली-भाति प्रमाणित हो तब ’हेतुक’ प्रमाणित करना अभियोजन के लिये आवष्यक नहीं है, 
संदर्भ:- सुरेन्द्र नारायण उर्फ मुन्ना विरूद्ध उत्तर प्रदेष राज्य, 1197 ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू. 4156 ।


 न्याय दृष्टांत दिल्ली प्रषासन विरूद्ध सुरेन्द्र पाल जैन, उच्चतम न्यायालय निर्णय पत्रिका 1985 दिल्ली-333 में इस क्रम में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि मानव प्रकृति एक अत्यधिक जटिल चीज है। कोई व्यक्ति क्या करता है, यह अनेक बातों पर निर्भर होता है।

 ऐसे मामले भी हो सकते हैं, जहा ’हेतुक’ पता चल जाये किन्तु ऐसे मामले भी हो सकते हैं, जिनमें ’हेतुक’ का कतई पता न चले। ’हेतुक’ के सबूत का अभाव अपने आप में उन निष्कर्षों को अस्वीकार करने के लिये विकल्प प्रदान नहीं करता है, जो अन्यथा तथ्यों और साक्ष्य के समूह से युक्तियुक्त एवं न्यायोचित रूप से निकाले जा सकते हों।






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1.        अभिग्रहित वस्तुओं पर रक्त की मौजूदगी तथा उसकी प्रजाति एवं प्रवर्ग संबंधी साक्ष्य के मूल्य के विषय में विधिक स्थिति की तह तक पहुचने के लिये कतिपय न्याय दृष्टांतों का संदर्भ आवष्यक है।

 जह कंसा बेहरा विरूद्ध उड़ीसा राज्य, ए.आई.आर. 1987 सु.को. 1507 के मामले में अभिग्रहीत वस्तुओं पर पाये गये रक्त समूह का मृतक के रक्त समूह से समरूप पाया जाना एक निर्णायक व निष्चयात्मक दोषिताकारक परिस्थिति माना गया है,


  पूरनसिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, 1989 क्रिमिनल ला रिपोर्टर एस.सी. 12 के मामले में अभियुक्त से अभिग्रहीत वस्तु पर सीरम विज्ञानी द्वारा प्रतिवेदित मानव रक्त की मौजूदगी को, जिसके रक्त समूह का पता नहीं लग सका था, पर्याप्त संपुष्टिकारक साक्ष्य माना गया।



 न्याय दृष्टांत रामस्नेही विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1984 एम.पी.डब्ल्यू.एन. 342 के मामले में अभिग्रहीत वस्तुओं पर केवल रक्त की उपस्थिति, जिसके स्त्रोत का पता नहीं लग सका था, को भी संपुष्टिकारक साक्ष्य माना गया है।


 माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने राजस्थान राज्य विरूद्ध तेजाराम, 1999 (भाग-3) सु.को.केसेस 507 के मामले में यह सुस्पष्ट विधिक प्रतिपादन किया गया है कि यह नहीं कहा जा सकता है कि उन सभी मामलों में जहा रक्त के स्त्रोत का पता नहीं चल सका है, अभिग्रहीत वस्तु पर रक्त की उपस्थ्तिसे प्रकट परिस्थिति को अनुपयोगी मानकर रद्द कर दिया जायेगा।

मृत्युकालिक कथन

                                        मृत्युकालिक कथन

1  न्याय दृष्टांत आंध्रप्रदेष राज्य विरूद्ध गुब्बा सत्यनारायण, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 101 में पीडिता को अस्पताल में भर्ती कराये जाने के समय उसने चिकित्सक को यह बताया था कि वह दुर्घटनावष आग से जल गयी है, चिकित्सक के द्वारा अपने प्रतिवेदन में अंकित की गयी इस टीप को मृत्युकालिक कथन मानते हुये यह ठहराया गया कि ऐसे कथन पर, जो प्रथम उपलब्ध अवसर पर दिया गया है तथा जिसके बारे में ऐसी कोई आंषका नहीं है कि मृतिका उस समय सचेत हालत मे नहीं थी, अविष्वास करने का कोई कारण नहीं है

2     न्याय दृष्टांत रमन कुमार विरूद्ध पंजाब राज्य, 2009 क्रि.ला.ज. 3034 एस.सी. के मामले में भी उपचार शीट में आहत व्यक्ति द्वारा दी गयी इस जानकारी को कि गैस स्टोव जलाते समय अचानक आग लग जाने से घटना घटित हुयी है, मृत्युकालिक कथन के रूप में स्वीकार्य माना गया।

 3    न्याय दृष्टांत प्रकाष विरूद्ध कर्नाटक राज्य, (2007) 3 एस.सी.सी. (क्रिमिनल) 704 के मामले में आहत व्यक्ति को अस्पताल ले जाये जाने के तुरंत बाद पुलिस अधिकारी ने उसका मृत्युकालिक कथन लेखबद्ध किया था, जिसमें उसने दुर्घटना के कारण आग लगना बताया था, इस कथन को मामले की परिस्थितियों में मृत्युकालिक कथन के रूप मं विष्वास योग्य ठहराया गया।

-4.        मरणासन्न कथन साक्ष्य अधिनियम की धारा 32(1) के अंतर्गत सुसंगत एवं ग्राह्य है। किसी व्यक्ति के द्वारा अपनी मृत्यु के एकदम निकट आ जाने के समय किये गये मरणासन्न कथन की एक विषेष सम्माननीयता है क्योंकि उस नितांत गम्भीर क्षण में यह संभावना बहुत ही कम है कि कोई व्यक्ति कोई असत्य कथन करेगा। आसन्न मृत्यु की आहट का सुनायी देने लग जाना अपने आप में उस कथन के सत्य होने की गारंटी है जो मृतक के द्वारा उन कारणों और परिस्थितियों के संबंध में किया जाता है जिनकी परिणति उसकी मृत्यु में हुयी है। अतः साक्ष्य के एक भाग के रूप में मृत्युकालिक कथन की स्थिति अतिपवित्र है क्योंकि वह उस व्यक्ति के द्वारा किया गया होता है जो मृत्यु का आखेट बना है। 

एक बार जब मरने वाले व्यक्ति का कथन और उसे प्रमाणित करने वाले साक्षियों की साक्ष्य न्यायालयों की सावधानीपूर्ण संवीक्षा की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाये तब वह साक्ष्य का बहुत ही महत्वपूर्ण और निर्भरणीय भाग बन जाता है और यदि न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि मृत्युकालिक कथन सच्चा है और किसी भी बनावटीपन से मुक्त है, तो ऐसा मृत्युकालिक कथन अपने आप में ही, किसी सम्पुष्टि की तलाष के बिना ही, दोष-सिद्धि को लेखबद्ध करने के लिये पर्याप्त हो सकता है, बषर्तें वह मृतक के द्वारा तब किये गये हो जब वह स्वस्थ मानसिक स्थिति में था, संदर्भ:- कुंदुला बाला सुब्रहमण्यम बनाम आंधप्रदेष राज्य, 1993(2) एस.सी.सी. 684.

 एवं पी.वी.राधाकृष्ण विरूद्ध कर्नाटक राज्य, 2003(6) एस.सी.सी. 443



.  5      पुलिस अधिकारी के समक्ष किया गया मृत्युकालिक कथन स्वीकार्य है तथापि अन्वेषण अधिकारी द्वारा मृत्युकालिक कथन के अभिलिखित किये जाने की प्रथा को हतोत्साहित किया गया है और माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने इस बात पर बल दिया है कि अन्वेषण अधिकारी मृत्युकालिक कथन अभिलिखित किये जाने हेतु मजिस्ट्रेट की सेवाओं का उपयोग करें, यदि ऐसा करना संभव हो। 

इसका एक मात्र अपवाद तब है जब मृतक इतनी संकटपूर्ण स्थिति में हो कि सिवाय इसके कोई अन्य विकल्प शेष न रह जाये कि कथन को अन्वेषण अधिकारी या पुलिस अधिकारी के द्वारा अभिलिखित किया जाये और बाद में उसके ऊपर मृत्युकालिक कथन के रूप मं निर्भर रहा जाये,

 संदर्भ:- श्रीमती लक्ष्मी विरूद्ध ओमप्रकाष आदि, ए.आई.आर. 2001 सु.को. 2383.
 न्याय दृष्टांत मुन्नु राजा व अन्य विरूद्ध म.प्र.राज्य, ए.आई.आर. 1976 सु.को. 2199

 के मामले अन्वेषण अधिकारी के द्वारा लेखबद्ध किये गये मृत्युकालिक कथन को इस आधार पर अपवर्जित कर दिया गया कि उसे अभिलिखित किये जाने के लिये मजिस्ट्रेट की सेवाओं की अध्यपेक्षा करने पर हुयी विफलता के लिये कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया था। 


7.        न्याय दृष्टांत लक्ष्मण विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 2002 एस.सी. 2973 के मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय की पाच सदस्यीय संविधान पीठ ने यह सुस्पष्ट विधिक अभिनिर्धारण किया है कि मरणासन्न कथन को इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है कि चिकित्सक के द्वारा मरणासन्न व्यक्ति की कथन देने बाबत् मानसिक सक्षमता का प्रमाण-पत्र नहीं लिया गया है। इस मामले में यह ठहराया गया है कि मरणासन्न कथन लेखबद्ध करने वाले कार्यपालक मजिस्ट्रेट की यह साक्ष्य पर्याप्त है कि कथन देने वाला व्यक्ति कथन देने की सक्षम मनःस्थिति में था।


मृतिका द्वारा मृत्यु की परिस्थितियों के संबंध में माता-पिता एवं परिचितों को बतायी गयी बातों को भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 32(1) के अंतर्गत सुसंगत ठहराया गया है तथा उस क्रम में मृतिका द्वारा क्रूर व्यवहार के बारे में माता-पिता आदि को बतायी गयी बातें भी सुसंगत है, संदर्भ:- शरद विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 1984 सु.को. 1622.



साक्ष्य का मूल्यंाकन

                                     साक्ष्य के मूल्यांकन




1                                 विधिक स्थिति सुस्थापित है कि पुलिस अधिकारी की साक्ष्य का मूल्यंकन भी उसी प्रकार तथा उन्हीं मानदण्डों के आधार पर किया जाना चाहिये, जिस प्रकार अन्य साक्षियों की अभिसाक्ष्य का मूल्यांकन किया जाता है तथा किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को यांत्रिक तरीके से मात्र इस आधार पर रद्द कर देना कि वह एक पुलिस अधिकारी है, अथवा मात्र संपुष्टि के अभाव में पुलिस अधिकारी की अभिसाक्ष्य को अस्वीकृत करना न्यायिक दृष्टिकोण नहीं है,

 संदर्भ:- करमजीतसिंह विरूद्ध राज्य (2003) 5 एस.सी.सी. 291 एवं बाबूलाल विरूद्ध म.प्र.राज्य 2004 (2) जेेे.एल.जे. 425

2.        पुलिस अधिकारी की अभिसाक्ष्य के मूल्यांकन एवं विष्लेषण के संबंध में यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि यदि विष्लेषण एवं परीक्षण के बाद ऐसी साक्ष्य विष्वास योग्य है तो उसके आधार पर दोषिता का निष्कर्ष निकालने में कोई अवैधानिकता नहीं है,
 संदर्भ:- करमजीतसिंह विरूद्ध दिल्ली राज्य (2003)5 एस.सी.सी. 291 एवं नाथूसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य ए.आई.आर. 1973 एस.सी. 2783.


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3                   किसी साक्षी को पक्ष-विरोधी घोषित कर दिये जाने मात्र से उसकी अभिसाक्ष्य पूरी तरह नहीं धुल जाती है, अपितु न्यायालय ऐसी अभिसाक्ष्य का सावधानीपूर्वक विष्लेषण कर उसमें से ऐसे अंष को, जो विष्वसनीय एवं स्वीकार किये जाने योग्य है, निष्कर्ष निकालने का आधार बना सकती है।

 इस संबंध में न्याय दृष्टांत खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, ए.आई.आर.-1991 (एस.सी.)-1853 में किया गया प्रतिपादन तथा दाण्डिक विधि संषोधन अधिनियम, 2005 के द्वारा भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 154 में किया गया संषोधन भी दृष्ट्व्य है, जिसकी उपधारा-1 यह प्रावधित करती है कि किसी साक्षी से धारा 154 के अंतर्गत मुख्य परीक्षण में ऐसे प्रष्न पूछने की अनुमति दिया जाना, जो प्रतिपरीक्षण में पूछे जा सकते हैं, उस साक्षी की अभिसाक्ष्य के किसी अंष पर निर्भर किये जाने में बाधक नहीं होगी।



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4                           वस्तुतः ऐसी कोई विधि नहीं है कि ऐसे साक्षियों, जो नातेदार है, के कथनों पर केवल नातेदार होने के कारण विष्वास न किया जाये। प्रायः यह देखा जाता है कि अधिकतर अपराध आहतों के आवास पर और ऐसे असामान्य समय में कारित किये जाते हैं जिनके दौरान नातेदारों के अलावा किसी अन्य की उपस्थिति की आषा नहीं की जा सकती। अतः यदि नातेदारों के कथनों पर केवल उनके नातेदार होने के आधार पर अविष्वास किया जाता है तो ऐसी परिस्थितियों में अपराध साबित करना लगभग असंभव हो जायेगा। तथापि, सावधानी के नियम की, जिसके द्वारा न्यायालय मार्गदर्षित है, यह अपेक्षा है कि ऐसे साक्षियों के कथनों की समीक्षा (जाॅच) किसी स्वतंत्र साक्षी की तुलना में अधिक सावधानी के साथ की जानी चाहिये।


 उपरोक्त दृष्टिकोण उच्चतम न्यायालय द्वारा दरियासिंह बनाम पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 328 वाले मामले में अभिव्यक्त मत से समर्थित है, जिसमें प्रकट किया गया है कि  ’’इस बात पर कोई संदहे नहीं किया जा सकता कि हत्या के मामले में जब साक्ष्य, आहत के निकट नातेदार द्वारा दी जाती है और हत्या कुटुम्ब (परिवार) के शत्रु द्वारा की जानी अभिकथित की गयी हो तो दांडिक न्यायालयों को आहत के निकट नातेदारों की परीक्षा अत्यधिक सावधानी से करनी चाहिये। किन्तु कोई व्यक्ति नातेदार या अन्यथा होने के कारण आहत में हितबद्ध हो सकता है और आवष्यक रूप से अभियुक्त का विरोधी नहीं हो सकता। ऐसी दषा में में इस तथ्य से, कि साक्षी आहत व्यक्ति का नातेदार था या उसका मित्र था, अपनी साक्ष्य में आवष्यक रूप से कोई कमी नहीं छोड़ेगा। किन्तु जहा साक्षी आहत का निकट नातेदार है और यह उपदर्षित होता है कि वह आहत के हमलावर के विरूद्ध आहत व्यक्ति का साथ देगा तो दांडिक न्यायालयों के लिये स्वाभाविक रूप से यह अनिवार्य हो जाता है कि वे ऐसे साक्षियां की परीक्षा अत्यधिक सावधानी से करे और उस पर कार्यवाही करने से पूर्व ऐसी साक्ष्य की कमियों की समीक्षा कर ले।’’

5.        उच्चतम न्यायालय ने कार्तिक मल्हार बनाम बिहार राज्य, जे.टी. 1995(8) एस.सी. 425 वाले मामले में भी ऐसी ही मताभिव्यक्ति   की:-
    ’’ ............... हम यह भी मत व्यक्त करते हैं कि इस आधार में कि चॅकि साक्षी निकट का नातेदार है और परिणामस्वरूप यह एक पक्षपाती साक्षी है, इसलिये उसके साक्ष्य का अवलंब नहीं लिया जाना चाहिये, कोई बल नहीं है।’’ 


6        इस दलील को कि हितबद्ध साक्षी विष्वास योग्य नहीं होता है माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने पहले भी दिलीप सिंह (ए.आई.आर. 1953 एस.सी. 364) वाले मामले में खारिज कर दिया था। इस मामले में न्यायालय ने बार के सदस्यों के मस्तिष्क में यह धारणा होने पर अपना आष्चर्य प्रकट किया था कि नातेदार स्वतंत्र साक्षी नहीं माने जा सकते हैं। न्यायालय की ओर से न्यायमूर्ति विवियन बोस ने यह मत व्यक्त किया: -
        ’’हम उच्च न्यायालय के न्यायाधीषों से इस बात पर सहमत होने में असमर्थ हैं कि दो प्रत्यक्षदर्षी साक्षियां के परिसाक्ष्य के लिये पुष्टि अपेक्षित है। यदि ऐसी मताभिव्यक्ति की बुनियाद ऐसे तथ्य पर आधारित है कि साक्षी महिलायें हंऔर सात पुरूषों का भाग्य उनकी परिसाक्ष्य पर निर्भर है, तो हमें ऐसे नियम की जानकारी नहीं है। यदि यह इस तथ्य पर आधारित है कि वे मृतक के निकट नातेदार है तो हम इससे सहमत होने में असमर्थ हैं। यह भ्रम अनेक दांडिक मामलों में सामान्य रूप से व्याप्त है और इस न्यायालय की एक अन्य खण्डपीठ ने भी आहत रामेष्वर बनाम राजस्थान राज्य (1952 एस.सी.आर.377 = ए.आई.आर. 1950 एस.सी. 54) वाले मामले में इस भ्रम को दूर करने का प्रयास किया है। तथापि दुर्भाग्यवष यह अभी भी, यदि न्यायालयों के निर्णयों में नहीं तो कुछ सीमा तक काउन्सेलों की दलीलों में उपदर्षित होता है।’’


-यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को, यदि वह अन्यथा विष्वास योग्य है, इस आधार पर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि ऐसी साक्ष्य हितबद्ध अथवा रिष्तेदार साक्षी है।  

लेकिन उच्चतम न्यायालय ने कार्तिक मल्हार बनाम बिहार राज्य, जे.टी. 1995(8) एस.सी. में यह मताभिव्यक्ति की है कि इस दलील में कोई बल नहीं है कि एक साक्षी निकट रिश्तेदार है और परिणामस्वरूप वह एक पक्षपाती साक्षी है इसलिये उसकी साक्ष्य का अवलंब नहीं लिया जाना चाहिये। दिलीप सिंह आदि विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1953 एस.सी. 364 के मामले का संदर्भ लेते हुये उक्त मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी प्रकट किया है कि दिलीप सिंह के मामले में न्यायालय द्वारा बार के सदस्यों के मस्तिष्क में व्याप्त इस धारणा पर आश्चर्य प्रकट किया गया था कि नातेदार स्वतंत्र साक्षी नहीं होेते हैं। दिलीप सिंह (पूर्वोक्त) के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह मताभिव्यक्ति की गयी है कि अनेक दाण्डिक मामलों में यह भ्रम सामान्य रूप से व्याप्त है कि मृतक के निकट रिश्तेदारों की साक्ष्य पर निर्भर नहीं किया जा सकता है, लेकिन रामेश्वर बनाम राजस्थान राज्य, ए.आई.आर. 1950 एस.सी. 54 वाले मामले में इस भ्रम को दूर करने का प्रयास किया गया है। तथापि दुर्भाग्यवश यह अभी भी, यदि न्यायालयों के निर्णयों में नहीं तो कुछ सीमा तक अधिवक्ताओं की दलीलों में उपदर्शित होता है। न्याय दृष्टांत उ.प्र.राज्य विरूद्ध वल्लभदास आदि, ए.आई.आर., 1985 एस.सी. 1384 में यह विधिक प्रतिपादन भी किया गया है कि वर्गों में विभाजित ग्रामीण अंचलों में निष्पक्ष साक्षियों का उपलब्ध होना लगभग असम्भव है।



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7                                   न्याय दृष्टांत भरवादा भोगिन भाई हिरजी भाई विरूद्ध गुजरात राज्य ए.आई.आर. 1983 एस.सी. 753 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया जाना कि तुच्छ विसंगतियों को विशेष महत्व नहीं दिया जाना चाहिये क्योंकि सामान्यतः न तो किसी साक्षी से चलचित्रमय स्मृति अपेक्षित है और न ही यह अपेक्षित है कि वह घटना का पुर्नप्रस्तुतीकरण वीडियो टेपवत् करे। सामान्यतः घटना की आकस्मिकता, घटनाओं के विश्लेषण, विवेचना एवं अंगीकार की मानसिक क्षमताओं को प्रतिकूलतः प्रभावित करती है तथा यह स्वाभाविक रूप से संभव नहीं है कि किसी बड़ी घटना के सम्पूर्ण विवरण को यथावत् मस्तिष्क में समाया जा सके। इसके साथ-साथ लोगों के आंकलन, संग्रहण एवं पुनप्र्रस्तुति की मानसिक क्षमताओं में भी भिन्नता होती है तथा एक ही घटनाक्रम को यदि विभिन्न व्यक्ति अलग-अलग वर्णित करें तो उसमें अनेक भिन्नतायें होना कतई अस्वाभाविक नहीं है तथा एसी भिन्नतायें अलग-अलग व्यक्तियों की अलग-अलग ग्रहण क्षमता पर निर्भर करती है। इस सबके साथ-साथ परीक्षण के समय न्यायालय का माहौल तथा भेदक प्रति-परीक्षण भी कभी-कभी साक्षियों को कल्पनाओं के आधार पर तात्कालिक प्रश्नों की रिक्तियों को पूरित करने की और इस संभावना के कारण आकर्षित करता है कि कहीं उत्तर न दिये जाने की दशा में उन्हें मूर्ख न समझ लिया जाये। जो भी हो, मामले के मूल तक न जाने वाले तुच्छ स्वरूप की प्रकीर्ण विसंगतिया साक्षियों की विश्वसनीयता को प्रभावित नहीं कर सकती है। इस विषय में न्याय दृष्टांत उत्तर प्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 1998 भी अवलोकनीय है।

6  प्रथम सूचना रिपोर्ट मामले की वृहद ज्ञानकोष नहीं है कि उसमें घटना से संबंधित प्रत्येक विषिष्टि का उल्लेख हो। प्राथमिकी मूलतः आपराधिक विधि को गतिषील बनाने के लिये होती है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत बलदेव सिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 372 सुसंगत एवं अवलोकनीय है। न्याय दृष्टांत उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध वल्लभदास, ए.आई.आर. 1985 (एस.सी.) 1384 के मामले से संबंधित प्रथम सूचना रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख नहीं था कि मृतक पर लाठी से प्रहार किया गया, इस व्यतिक्रम/लोप को मामले के लिये घातक नहीं माना गया।

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7    यदि किसी तथ्य की जानकारी पुलिस को पूर्व से रही है तो ऐसे तथ्य के बारे में अभियुक्त द्वारा दी गयी सूचना भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 के अंतर्गत ’तथ्य के उद्घाटन’ ; की परिधि में नहीं आती है।

 संदर्भ:- अहीर राजा खेमा विरूद्ध सौराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 1956 एस.सी. 217 ।
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8   एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य अगर अंतर्निहित गुणवत्तापूर्ण है तथा उसमें कोई तात्विक लोप या विसंगति नहीं है तो उसे मात्र इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है कि वह एकल साक्षी है अथवा संबंधी साक्षी है अथवा हितबद्ध साक्षी है। संदर्भ:- सीमन उर्फ वीरामन विरूद्ध राज्य, 2005(2) एस.सी.सी. 142।

 न्याय दृष्टांत लालू मांझी व एक अन्य विरूद्ध झारखण्ड राज्य, 2003(2) एस.सी.सी. 401 में यह स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि ऐसे मामले हो सकते हैं, जहा किसी घटना विषेष के संबंध में केवल एक ही साक्षी की अभिसाक्ष्य उपलब्ध हो, ऐसी स्थिति में न्यायालय को ऐसी साक्ष्य का सावधानीपूर्वक परीक्षण कर यह देखना चाहिये कि क्या ऐसी साक्ष्य दुर्बलताओं से मुक्त या विसंगति विहीन है।


9 .        न्याय दृष्टांत वादी वेलूथुआर विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में किया गया यह विधिक प्रतिपादन भी इस क्रम में सुसंगत एवं दृष्ट्व्य है कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर यांत्रिक तरीके से अविष्वसनीय ठहराकर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसकी साक्ष्य की संपुष्टि नहीं होती है, क्योंकि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत संपुष्टि का नियम सावधानी एवं प्रज्ञा का नियम है, विधि का नियम नहीं है। जहा किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य विष्लेषण एवं परीक्षण के पष्चात् विष्वसनीय है, वहा उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित करने में कोई अवैधानिकता नहीं हो सकती है।


10   एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य के आधार पर दोष-सिद्धि निष्कर्षित किये जाने के विषय में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा न्याय दृष्टांत वादीवेलु थेवार विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत किसी तथ्य को प्रमाणित करने के लिये किसी विषिष्ट संख्या में साक्षियों की आवष्यकता नहीं होती है, लेकिन यदि न्यायालय के समक्ष यदि एक मात्र साक्षी की अभिसाक्ष्य है तो ऐसी साक्ष्य को उसकी गुणवत्ता के आधार पर 3 श्रेणी में रखा जा सकता है:-
    प्रथम -  पूर्णतः विष्वसनीय,
    द्वितीय - पूर्णतः अविष्वसनीय, एवं
    तृतीय - न तो पूर्णतः विष्वसनीय और न ही पूर्णतः अविष्वसनीय।

11.        उक्त मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि प्रथम दो स्थितियों में साक्ष्य को अस्वीकार या रद्द करने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती है, लेकिन तृतीय श्रेणी के मामलों में कठिनाई स्वाभाविक है तथा ऐसी स्थिति में न्यायालय को न केवल सजग रहना चाहिये, अपितु निर्भरता योग्य पारिस्थतिक या प्रत्यक्ष साक्ष्य से सम्पुष्टि की मांग भी की जानी चाहिये। बचाव पक्ष के विद्वान अधिवक्ता द्वारा अवलंबित न्याय दृष्टांत लल्लू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 854 में उक्त विधिक प्रतिपादन को पुनः दोहराया गया है।
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.धारा 498(ए) के अंतर्गत शारीरिक या मानसिक क्रूरता

                         .धारा 498(ए) के अंतर्गत शारीरिक या मानसिक क्रूरता

 1...धारा 498(ए) के अंतर्गत शारीरिक या मानसिक क्रूरता की परिधि में रखना संभव नहीं है, क्योंकि आम तौर पर परिवार में यह स्थिति होती है कि जहा पति यथोचित रूप से उर्पाजन नहीं करता है वहा न केवल पत्नी और बच्चों की उचित देखभाल नहीं होती है अपितु आये दिन विवाद की स्थिति भी उत्पन्न होती है। लेकिन ऐसी स्थिति को ’संहिता’ की धारा 498(ए) के उद्देष्य के लिये मानसिक या शारीरिक क्रूरता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। इस संबध् में न्याय दृष्टांत पष्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध ओरिलाल जैसवाल ए.आई.आर. 1994 एस.सी. 1418 में किया गया प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है। 




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2....        उक्त क्रम में यह स्पष्ट करना असंगत नहीं होगा कि ’संहिता’ की धारा 498(ए)(ए) में क्रूरता को जिस रूप में परिभाषित किया गया हे, वह केवल शारीरिक क्रूरता तक सीमित नहीं है, अपितु मानसिक प्रताड़नापूर्ण क्रूरता भी उसकी परिधि में आती है।

 इस संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पश्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध ओरीलाल जायसवाल एवं एक अन्य, 1994 क्रि.ला.ज. 2104 के मामले में यह ठहराया है कि मृतिका पुत्र वधु के साथ उसकी सास के द्वारा ’गाली-गलौच एवं दुव्र्यवहार’ के रूप मं किया गया व्यवहार भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113(ए) एवं ’संहिता’ की धारा 498(ए) के संबंध में क्रूरतापूर्ण व्यवहार है।

4.        जहा तक क्रूरता स्थापित करने के लिये साक्ष्य का संबंध है, सामान्यतः विवाहित महिला के पति अथवा उसके रिश्तदारों के द्वारा प्रश्नगत उत्पीड़न एवं क्रूर व्यवहार चूकि सामान्यतः सार्वजनिक रूप से नहीं किया जाता है, अपितु घर की चारदीवारी के अंदर किये जाने वाले ऐसे व्यवहार के बारे में यह सावधानी भी बरती जाती है कि जनसामान्य की नजर  से ऐसा व्यवहार छुपा रहे, इसलिये ऐसे व्यवहार के संबंध में पड़ोसियों की अभिसाक्ष्य का अभाव प्रतिकूल निष्कर्ष निकालने का आधार नहीं बन सकता है तथा सामान्यतः मृतका के माता-पिता, संबंधी एवं मित्रों को मृतका द्वारा इस बारे में बतायी गयी बातें ही साक्ष्य के रूप में रपस्तुत की जा सकती है,

 संदर्भ:- पश्चिमी बंगाल राज्य वि. ओरीलाल जायसवाल, ए.आई.आर. 1994 सु.को. 1418 एवं विकास पाथी वि. आंध्रप्रदेश राज्य, 1989 क्रि.ला.ज. 1186 आंध्रप्रदेश। 


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5.        यह सर्वविदित है कि एक के बाद एक नये विधिक प्रावधानों के अधिनियमन के उपरांत भी विवाहित महिलाओं के प्रति होने वाले अत्याचार की घटनाओं में कमी नहीं आयी है।

 न्याय दृष्टांत कर्नाटक राज्य विरूद्ध एम.व्ही.मंजूनाथे गौड़ा, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 809 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रकट किया है कि इस बारे में किये गये विधायन के प्रति न्यायालयों को संवेदनषील बनाया जाना आवष्यक है तथा ऐसे मामलों में उदार दृष्टिकोण अपनाया जाना सामाजिक हितों के अनुरूप नहीं होगा। 










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