यह ब्लॉग खोजें

विक्रय की संविदा------आधिपत्य का अनुतोष लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
विक्रय की संविदा------आधिपत्य का अनुतोष लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 5 अगस्त 2013

विक्रय की संविदा------आधिपत्य का अनुतोष



            विक्रय की संविदा------आधिपत्य का अनुतोष

                                            विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1963 जिसे आगे अधिनियम से संवोधित किया गया है । इस अधिनियमकाअध्याय2,संविदााओ के विनिर्दिष्ट अनुपालन से संबंधित है । अधिनियम की धारा 9 से धारा 25 तक में संविदा के विशिष्ट अनुपालन संबंधी प्रावधान दिये हैं।

                                             अधिनियम की धारा 20 में विनिर्दिष्ट पालन की डिक्री पारित करने में न्यायालय को विवेकाधिकार प्रदान किया गया है, किन्तु यह विवेकाधिकार मनमाना नहीं है, बल्कि स्वस्थ और युक्तियुक्त न्यायिक सिद्धांत द्वारा मार्गदर्शित तथा अपील न्यायालय द्वारा शुद्धिशक्य है ।

                            अधिनियम की धारा-21 में कतिपय मामलो में प्रतिकर दिलाने की शक्ति न्यायालय को प्रदान की गई है ।

                                         अधिनियम की धारा-21-1 के अनुसार किसी संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के वाद में वादी ऐसे पालन के या तो अतिरिक्त या स्थान पर उस भंग के लिए प्रतिकर का भी दावा कर सकेगा ।

                                    अधिनियम की धारा-21-2 के अनुसार यदि किसी ऐसे वाद में, न्यायालय यह विनिश्चित करे कि विनिर्दिष्ट पालन तो अनुदत्त नहीं किया जाना चाहिए किन्तु पक्षकार के मध्य ऐसी संविदा है जो प्रतिवादी द्वारा भंग की गई हो ओर प्रतिवादी उस भंग के लिये प्रतिकर पाने का हकदार है तो वह तद्नुसार वैसा प्रतिफल दिलाएगा ।

                                               अधिनियम की धारा-21-3 के अनुसार यदि किसी ऐसे वाद में, न्यायालय यह विनिश्चित करे कि विनिर्दिष्ट पालन तो अनुदत्त यिका जाना चाहिए किन्तु उस मामले में न्याय की पुष्टि के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है और संविदा के भंग के लिए वादी को कुछ प्रतिकर भी दिया जाना चाहिए तो वह तद्नुसार ऐसा प्रतिकर दिलाएगा ।

                                            अधिनियम की धारा-21-4 के अनुसार इस धारा के अधीन अधिनिर्णीत किसी प्रतिकर की रकम की अवधारणा में न्यायालयय, भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (1872 का 9) की धारा 73 में विनिदिष्ट सिद्धांतों द्वारा मार्गदर्शित होगा । जो प्रकरण के तथ्य परिस्थितियों के अनुसार निर्धारित किया जायेगा ।जिसमें वास्तविक क्षति प्रदान की जायेगी । दूरवर्ती अथवा काल्पनिक क्षति प्रदान नहीं की जायेगी ।

                                                        अधिनियम की धारा-21-5 के अनुसार इस धारा के अधीन कोई प्रतिकर नहीं दिलाया जावेगा तब तक कि वादी ने अपने वाद पत्र में प्रतिकर का दावा न किया हो,

                                                     परन्तु जहाॅ वाद पत्र में वादी ने किसी ऐसे प्रतिकर का दावा न किया हो वहाॅ न्यायालय कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम में वादी को वादपत्र में ऐसे प्रतिकर का दावा अंतर्विष्ट करने के लिए वाद पत्र संशोधित करने की अनुज्ञा ऐसे निबंधनों पर देगा जैसे न्याससंगत हो ।

                                     स्पष्टीकरणः- यह परिस्थिति की संविदा विनिर्दिष्ट पालन के अयोग्य हो गई है न्यायालय को इस धारा द्वारा प्रदत्त अधिकारिता के प्रयोग से प्रविरत नहीं करती ।

                                                इस प्रकार अधिनियम की धारा-21 के अनुसार न्यायालय में यदि प्रतिकर का दावा न किया है तो भी प्रतिकर दिलाया जा सकता है किन्तु इसके लिए आवश्यक है कि वाद पत्र में संशोधन किया जाये । यदि वाद पत्र में प्रतिकर का दावा नहीं किया है तो न्यायालय विवेकानुसार प्रतिकर प्रदान नहीं कर सकती है। इसके लिए संशोधन होना आवश्यक है ।

                                     अधिनियम की धारा-22 न्यायालय को कब्जा विभाजन अग्रिम धन के प्रतिदाय आदि के लिए अनुतोष अनुदत्त करने की शक्ति प्रदान करती है ।

                                              अधिनियम की धारा-22-1 के अनुसार सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) किसी तत्प्रतिकूल बात के अन्तर्विष्ट होते हुए भी स्थावर संपत्ति के अंतरण तक संविदा के विनिर्दिष्ट पालन का वाद लाने वाला कोई व्यक्ति समुचित मामले में -

क. ऐसे पालन के अतिरिक्त सम्पत्ति का कब्जा या विभाजन और प्रथम कब्जे की मांग कर सकेगा, अथवा

ख. उस दशा में जिसे कि उसका विनिर्दिष्ट पालन का दावा नामंजूर कर दिया गया हो कोई भी अन्य अनुतोष, जिसका वह हकदार हो और जिसके अंतर्गत उस द्वारा दिए गये किसी अग्रिम धन या निक्षेप का प्रतिदाय भी आता है, मांग सकेगा ।

                                             अधिनियम की धारा-22-2 के अनुसार, उपधारा एक के खण्ड (क) या खण्ड (ख) के अधीन कोई भी अनुतोष न्यायालय के द्वारा अनुदत्त नहीं किया जावेगा जब तक कि उसका विनिर्दिष्टतः दावा न किया गया हो ।

परन्तु जहाॅ कि वाद पत्र में वादी ने किसी ऐसे अनुतोष का दावा न किया हो वहाॅ न्यायालय दावे के किसी प्रक्रम में वादी को वाद पत्र में ऐसे अनुतोष का दावा अंतर्गत करने के लिए संशोधन करने की अनुज्ञा ऐसे निबंधनों पर देगा जैसे न्यायसंगत हो ।

                                               अधिनियम की धारा-22-3 के अनुसार, उपधारा एक के खण्ड (ख) के अधीन अनुतोष अनुदत्त करने की न्यायालय की शक्ति धारा 21 के अधीन प्रतिकर देने की उसकी शक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालेगी ।

                                                   अधिनियम की धारा 22 जो न्यायालय को कब्जा विभाजन अग्रिम धन की वापिसी के संबंध में अनुतोष प्रदान करने की शक्ति प्रदान करती है । उसकी धारा 22(1)(क) के अनुसार संविदा के विर्निदिष्ट अनुपालन के बाद में यदि न्यायालय समुचित मामला पाता है तो ऐसे पालन के अतिरिक्त संपत्ती का कब्जा या विभाजन और पृथक कब्जे की मांग कर सकेगा । इसके अलावा धारा 22(1)(ख) के अंतर्गत यदि विनिर्दिष्ट पालन का दावा नामंजूर किया जाता है,तो अग्रिम धन वापिसी की मांग की जा सकती है,परंतु इसके लिए आवश्यक है,कि कोई भी अनुतोष की न्यायालय से मांग की जाय और यदि मांग नहीं की गई तो वादपत्र में संशोधन की अनुमति न्यायालय से प्राप्त की जाये।

                                             अधिनियम की धारा 22(3) के अनुसार धारा 21 के अंतर्गत प्रतिकर देने की शक्तियों पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पडेगा ।

                                      विनिर्दिष्ट अनुतोष के पालन में आधिपत्य का अनुतोष अधिनियम की धारा 22(क) के अंतर्गत मांगा जाना चाहिये और यदि नहीं मांगा गया है,तो न्यायालय में कब्जे का अनुतोष प्रदान कर सकता है विनिर्दिष्ट अनुतोष के अनुपालन में अनुतोष में आधिपत्य का अनुतोष शामिल रहता है तथा सामान्य रूप से स्थावर संपत्ती बिक्रय की संविदा के पालन में आधिपत्य के अनुतोष की प्रार्थना किया जाना आवश्यक है ।

यहा पर समुचित मामले से आशय जहंा अनुतोष दावे या डिक्री से विनिर्दिष्ट अनुतोष के परिपालन की पूर्ति नहीं हो वहंा वादी विर्निदिष्ट अनुतोष के साथ विशिष्ट रूप से कब्जा की मांग कर सकता है । धारा 22 का मुख्य उददेश्य वाद की बाहुल्यता रोकना है । यह धारा भूतलक्षी प्रभाव रखती है ।

यह धारा संपत्ती अंतरण अधिनियम की धारा 55(1)(एफ) से मेल खाती है । यदि डिक्री में आधिपत्य की बात नहीं लिखी गई है,तो भी निष्पादन न्यायालय डिक्री धारी को कब्जा प्रदान कर सकता है,क्योंकि डिक्री में आधिपत्य शामिल है ।

संपत्ती अंतरण अधिनियम की धारा 55(1)(एफ) में क्रेता एवं विक्रेता के अधिकारों और दायित्व दिये गये हैं । जिसके अनुसार अपेक्षा किये जाने पर विक्रेता आबद्ध है कि के्रता या उसके द्वारा विनिर्दिष्ट व्यक्ति को उस संपत्ती पर ऐसा कब्जा देय जैसा संपत्ती की प्रकृति के अनुसार दिया जा सकता हो । इसी आधारभूत नियम के आधार पर अधिनियम की धारा 22में न मांगने पर भी कब्जा न्यायालय द्वारा दिलाया जावेगा ।

                                                        माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा बाबूलाल वि0 मेसर्स हजारीलाल, किशोरीलाल ए.आई.आर.1982 सुप्रीम कोर्ट 818 में स्पष्ट प्रतिपादित किया है । जहंा संविदा के तहत जिस पक्ष के पास वादग्रस्त संपत्ती का अनन्य कब्जा है वहंा विनिर्दिष्ट रूप से आधिपत्य प्रदान किये जाने के अनुतोष की याचना किये बिना मात्र विक्रय की संविदा का विनिर्दिष्ट अनुपालन डिक्रीधारी को पूर्ण एवं प्रभावी अनुतोष प्रदान कर सकता है । र्निणीत ऋणी की पूर्णता संतुष्टी हेतु न केवल विक्रयपत्र संपादित करने,बल्कि संपत्ती का आधिपत्य प्रदान करने हेतु आबद्ध है।

                                     विक्रय की संविदा के विर्निदिष्ट अनुपालन के सभी मामलों में आधिपत्य के अनुतोष की याचना करना आवश्यक नहीं है । उपर्युक्त धारा 22 में पद ’’समुचित मामला ’’ का प्रयोग किया गयाहै । यह पद स्पष्ट करता है,कि प्रत्येक मामले में यह आवश्यक नहीं है,कि वादी विक्रय की संविदा के विनिर्दिष्ट अनुपालन के साथ साथ आधिपत्य प्राप्ति का विनिर्दिष्ट रूप से दावा करे। आधिपत्य प्रदान किया जाना बिक्रय की संविदा के विनिर्दिष्ट अनुपालन के अनुतोष में ही अंर्तनिहीत है ।

                                           अधिनियम की धारा 22(2) में निष्पादन कार्यवाही शामिल है । कब्जे के साथ विभाजन की डिक्री नहीं दी जा सकती है । सबसे पहले विक्रय करार की पूर्ति में दावा डिक्री किया जाना चाहिये इसके पश्चात् विक्रय पत्र का पंजीयन होना चाहिये इसके बाद ही बिभाजन की डिक्री के लिए कार्यवाही की जा सकती है ।

                                           इसी प्रकार यदि तीसरे पक्ष के पास कब्जा है,तो सबसे पहले डिक्री के निष्पादन में आदेश 21 नियम 97 सपठित धारा 47 सी.पी.सी. के अंतर्गत तृतीय पक्षकार को आपत्ती प्रस्तुत करना चाहिये वह अलग से दावा नहीं कर सकता उसकी आपत्ती सुनने के पश्चात् ही तृतीय पक्ष से कब्जा दिलाया जा सकता है । यह सिद्धात ’’ए.आई.आर.1995,358, भंवरलाल वि0सत्य नारायण 1983 एम.पी.एल.जे. 527,बाटा शू कंपनी वि0 प्रीतमदास ’’अभिनिर्धारित किया गया है ।

                                                        बाबूलाल वि0 राजकुमार ए.आई.आर. 1996 सुप्रीम कोर्ट 2050 में भी यह भी अभिर्निधारित किया है,कि विनिर्दिष्ट अधिनियम की डिक्री में कब्जा देते हुये यदि तृतीय पक्ष के पास कब्जा है,तो उसे सुना जाना आवश्यक है उसे सुने बिना तृतीय पक्ष को कब्जा नहीं दिलाया जा सकता । यदि तृतीय पक्षकार को सुना नहीं जाता है,तो इस प्रकार की कार्यवाही उचित नहीं है । ऐसे मामले में न्यायालय स्व विवेक में कब्जा नहीं दिला सकती है यह मामला समुचित मामला नहीं माना जायेगा ।

                                             माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा ए.आई.आर. 2006, सुप्रीम कोर्ट 145 टी.सी.वर्गिस वि. देवकी अम्मा,बाला अंबिकादेवी एवंए.आई.आर.2011,पंजाब हरियाणा ,30 लाबिन्दर कुमार शर्मा वि0 प्रमोद कुमार के मामले में अभिनिर्धारित किया है,कि संविदा के विनिर्दिष्ट अनुपालन के वाद में वैकल्पिक अनुतोष विभाजन अग्रिम धन वापिसी आदि सहायता चाहे जाने के लिए इनका विशेष रूप से अभ्।िबचन किया जाना आवश्यक है ।

                                          न्यायालय केबल समुचित मामले में कब्जे का अनुतोष प्रदान कर सकता है । समुचित मामला ऐसा मामला माना जा सकता है जिसमें मूल अनुतोष के साथ पारिणामिक अनुतोष जुडा होता है और बिना पारिणामिक अनुतोष के मूल अनुतोष प्रदान नहीं किया जा सकता । विक्रय संविदा का वाद इसी प्रकार का वाद है,जिसमें संपत्ती अंतरण अधिनियम की धारा 55 के अनुसार विके्रता को के्रता से कब्जा प्रदान कराना अनिवार्य है ।