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बुधवार, 27 नवंबर 2013

धारा 315 दण्ड प्रक्रिया संहिता अभियुक्त सक्षम साक्षी

अभियुक्त के सक्षम साक्षी होने के विषय में धारा 315 दण्ड प्रक्रिया संहिता ?    

        भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20  (3) में यह उपबंधित किया गया है, कि किसी भी व्यक्ति को जिस पर कोई अपराध लगाया गया है, स्वयं अपने विस्द्ध साक्ष्य देने के लिये बाध्य नहीं किया जायेगा। यह मूल अधिकार इस सिद्धांत पर आधारित है, कि प्रत्येक व्यक्ति तब तक निर्दाेष माना जाएगा, जब तक उसे अपराधी सिद्ध न कर दिया जाए। अपराधी के अपराध सिद्ध करने का भार अभियोजक पर होता है। अभियुक्त को अपनी इच्छा के विरूद्ध कोई स्वीकृति या बयान देने की आवश्यकता नहीं होती है। 

        इसी सिद्धांत को आधार मानते हुए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा- 315 (1) में उपबंधित किया गया है, कि कोई व्यक्ति, जो किसी अपराध के लिए किसी दण्ड न्यायालय के समक्ष अभियुक्त है, प्रतिरक्षा के लिए सक्षम साक्षी होगा और अपने विरूद्ध या उसी विचारण में उसके साथ आरोपित किसी व्यक्ति के विरूद्ध लगाए गए आरोपों को नासाबित करने के लिए शपथ पर साक्ष्य दे सकता है:-
    परन्तु -
(क) वह स्वयं अपनी लिखित प्रार्थना के बिना साक्षी के रूप में न बुलाया जाएगा,
(ख) उसका स्वयं साक्ष्य न देना पक्षकारों में से किसी के द्वारा या न्यायालय
    द्वारा किसी टीका-टिप्पणी का विषय न बनाया जाएगा और न उसे उसके, या उसी विचारण में उसके साथ आरोपित किसी व्यक्ति के विरूद्ध कोई उपधारणा ही की जाएगी।
    (2) कोई व्यक्ति जिसके विरूद्ध किसी दंड न्यायालय में धारा 98, या धारा        107, या धारा 108, या धारा 109, या धारा 110 के अधीन या अध्याय 9        के अधीन या अध्याय 10 के भाग ख, भाग ग या भाग घ के अधीन       कार्यवाही संस्थित की जाती, ऐसी कार्यवाही में अपने आपको साक्षी         के रूप में पेश कर सकता है:
    परन्तु धारा 108, धारा 109 या धारा 110 के अधीन कार्यवाही में ऐसे व्यक्ति
द्वारा साक्ष्य न देना पक्षकारों में से किसी के द्वारा या न्यायालय के द्वारा किसी टीका-टिप्पणी का विषय नहीं बनाया जाएगा और न उसे उसके या किसी अन्य व्यक्ति के विरूद्ध जिसके विरूद्ध उसी जाॅंच में ऐसे व्यक्ति के साथ कार्यवाही की गई है, कोई  उपधारणा ही की जाएगी।
        भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20-3- में दिये गये मूल अधिकार के समकक्ष धारा-315 दं0प्र0सं0 है। इसका संरक्षण तब मिलेगा जब निम्नलिखितें शर्तें पूरी होगी:-

    1-    व्यक्ति पर अपराध करने का आरोप लगाया गया हो।
    2-    उसे अपने विरूद्ध गवाही देने के लिये बाध्य किया गया हो।
    3-    उसे अपने विरूद्ध गवाही देने के लिये बाध्य किया जाये।

        यह संरक्षण केवल आपराधिक मामले में अपराध के अभियुक्त को प्राप्त है,  सिविल कार्यवाही में लागू नहीं होता है।

        एम.पी. शर्मा बनाम सतीशचंद्र ए.आई.आर. 1954 सुप्रीम कोर्ट 300 एवं वीरा इब्राहिम महाराष्ट््र राज्य ए.आई.आर. 1976 एस.सी. 1167 में अभिनिर्धारित किया गया है, कि यदि किसी व्यक्ति के विरूद्ध एफ.आई.आर. दर्ज की गई है, तो भी उसे अपने विरूद्ध साक्ष्य देने के लिये बाध्य नहीं किया जायेगा। गवाह बनने के लिये वाक्यांश की व्याख्या करते हुए माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है, कि ऐसी साक्ष्य प्रस्तुत करना या न्यायालय में किसी विलेख को प्रस्तुत करना जो विवादास्पद विषय पर प्रकाश डालता हो। इसमें अभियुक्त के ऐसे बयान शामिल नहीं है जो उसके व्यक्तिगत ज्ञान पर आधारित है। 

        माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा स्टेट आफ बाम्बे बनाम काथूकाली ए.आई.आर.-1961 सुप्रीम कोर्ट 1808 और परसादी बनाम उत्तरप्रदेश ए.आई.आर. 1973 सुप्रीम कोर्ट 210 में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-27 को वैध घोषित किया है। 

        माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है, कि यदि कोई अभियुक्त से स्वेच्छया से साक्ष्य देता है तो वह वर्जित नहीं है किन्तु उस पर यदि शारीरिक, मानसिक दबाव डाला जाता है तो इस प्रकार का साक्ष्य दबावपूर्ण साक्ष्य माना जाएगा इसलिए नंदनी सतपती बनाम पी.एल. धनी ए.आई.आर. 1978 सुप्रीम कोर्ट 1025 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि दं0प्र0सं0 की धारा-161 (2) में अभियुक्त से पूछताछ के दौरान ही उसे अपने लिये साक्ष्य देने बाध्य नहीं किया जा सकता। 

        दं0प्र0सं0 संहिता की धारा-315 यह नियम प्रतिपादित करती है, कि अभियुक्त व्यक्ति प्रतिरक्षा (कममिदबम) के लिए सक्षम साक्षी होता है और किसी अन्य साक्षी तरह वह अभियोजन द्वारा अपने विरूद्ध लगाए गए आरोपों को नासाबित करने के लिए शपथ पर साक्ष्य देने का हकदार होता है। 

        यह धारा यह भी उपबन्ध करती है कि साक्षी के रूप में उसकी परीक्षा न किए जाने से न्यायालय इससे कोई प्रतिकूल निष्कर्ष नहीं निकाल सकता। परन्तु यदि अभियुक्त अपनी परीक्षा प्रतिरक्षा के साक्षी के रूप में स्वेच्छा से करता है तो अभियोजन उसकी आगे की परीक्षा करने का हकदार होगा और ऐसा साक्ष्य सह-अभियुक्त के विरूद्ध उपयोग किया जा सकता है। 

        धारा-315 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत आरोपी से सक्षम साक्षी के रूप में प्रस्तुत होने संबंधी प्रक्रिया:-

        1-     यह कि आरोपी न्यायालय के समक्ष लिखित आवेदन प्रस्तुत              करेगा।
        2-    यह कि आरोपी को न्यायालय द्वारा साक्ष्य लेने के पूर्व शपथ                दिलाई जाएगी।
        3-     यह कि अभियोजन उसकी प्रतिपरीक्षा करेगा और प्रतिपरीक्षण             में  उसके विरूद्ध आए तथ्यों को प्रस्तुत कर सकेगा।
        4-    यह कि आरोपी इस सम्पूर्ण साक्ष्य के बाद उसके विरूद्ध                 साबित तथ्य साक्ष्य में ग्राह्य होगे। 

        अभियुक्त को शपथ दिलाने या प्रतिज्ञान कराने के विरूद्ध सृजित शपथ अधिनियम, 1969 की धारा 4(2) के अधीन वर्जन केवल दांडिक विचारण पर ही लागू होता है। शब्द ‘‘दांडिक कार्यवाही’’ की परिधि का विस्तार पुनरीक्षणों या अपीलों में दिए गए अन्तरिम आवेदन-पत्रों के समर्थन में शपथ-पत्रों के दाखिल किए जाने पर विस्तारित नहीं किया जा सकता। 

        माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा मोहम्मद शरीफ बनामा स्टेट  आफ झारखण्ड 2006 क्रिमनल लाॅ जनरल 4498 झारखण्ड, काशीराम बनाम स्टेट आफ एम.पी. ए.आई.आर. 2001 सुप्रीम कोर्ट 2902 में  अभिनिर्धारित किया गया है, कि यदि अभियुक्त व्यक्ति साक्षी कक्ष में नहीं आता है तो इससे विपरीत आशय का निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए। यह प्राथमिक आपराधिक विधिशास्त्र है कि किसी अभियुक्त को साक्षी बनने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। इसी प्रकार यह प्रतिरक्षा हेतु समुचित अवसर प्रदान किया गया परन्तु प्रतिरक्षा प्रस्तुत नहीं की जाती है तो प्रतिरक्षा का अधिकार आरोपी का समाप्त किया जा सकता है इसे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के विपरित नहीं माना जा सकता है।

        यदि अभियुक्त साक्षी बन कर पेश हुआ और उसे उस दस्तावेज को पेश करने से नहीं रोका जाना चाहिए जिसपर वह भरोसा करके आया है। उसे इस आधार पर ऐसा करने से नहीं रोका जाना चाहिए कि उसने ऐसा साक्ष्य अभिलेखन के पूर्व नहीं किया था।  ऐसी  स्थिति में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा- गजेन्द्रसिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ राजस्थान 1998 भाग-8 एस.एस.सी.-612 में अभिनिर्धारित किया है, कि उसे साक्ष्य-सम्बंधी दस्तावेज़ पेश करने की अनुमति दे देनी चाहिए।  

        विधि का यह सर्वमान्य सिद्धांत है, कि अभियोजन को अपना मामला साबित करना चाहिए और आपराधिक मामलों में सबूत का भार अभियोजन पर आरोपित किया गया है।

             भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-103 में विशिष्ट तथ्य के सबूत का भार उस व्यक्ति पर होता है जो न्यायालय से यह चाहता है, कि उसके अस्तित्व में विश्वास करें। जब तक कि किसी विधि द्वारा यह उपबंधित न हो कि उस तथ्य के सबूत का भार किसी विशिष्ट व्यक्ति पर होगा। ऐसे मामलों में आरोपी अभियोजन साक्षियों को प्रतिपरीक्षण में सुझाव देकर बचाव में दस्तावेज पेश कर और स्वयं उपस्थित होकर विशिष्ट तथ्य को साबित कर सकता है किन्तु उसे बाध्य नहीं किया जा सकता।


        भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-105 में अभिनिर्धारित है, कि यह साबित करने का भार कि अभियुक्त का मामला अपवादों के अंतर्गत आता है, उस व्यक्ति पर है और न्यायालय ऐसी परिस्थितियों के अभाव की उपधारणा करेगा। ऐसे मामलों में आरोपी स्वयं को प्रस्तुत कर तथ्य साबित कर सकता है, परन्तु उसे इसके लिये बाध्य नहीं किया जा सकता। 


        भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-106 इस बात का अपवाद है, कि अभियोजन को अपना मामला संदेह के परे साबित करना चाहिए। 

                       धारा-106 भा0सा0अधि0 के अनुसार जबकि कोई तथ्य विशेषतः किसी व्यक्ति के ज्ञान में है, तब उस तथ्य को साबित करने का भार उस पर है। जबकि कोई व्यक्ति किसी कार्य को उस आशय से भिन्न किसी आशय से करता है जिसे उस कार्य का स्वरूप और परिस्थितियाॅ इंगित करती है तब उस आशय को साबित करने का भार उस व्यक्ति पर है।

        इस प्रकार यह धारा-101 भा.सा.अधि. का अपवाद है। आरोपी को जब कोई विशेष ज्ञान किसी वस्तु अथवा तथ्य के संबंध में है तो उसे साबित करने का भार उस पर है।


        इसी प्रकार जब अभियुक्त के कब्जे में कोई वस्तु प्रतिबंधित पाई जाती है तो विशेष ज्ञान के द्वारा यह स्पष्ट कर सकता है, कि वह वस्तु उसके पास किस प्रकार आई। उसके नहीं बताने पर उसे अवैध रूप से प्राप्त मानकर उसे संदेह का लाभ नहीं दिया जा सकता। जहा पर आरोपी को विशेष ज्ञान और जानकारी साबित करना है वहा पर वह खुद को प्रस्तुत करके उसे स्पष्ट कर सकता है। यदि उसके द्वारा अभियोजन साक्षियों को बचाव में सुझाव अथवा दस्तावेज और स्पष्टीकरण नहीं दिया जाता है, तो उसके विरूद्ध उपधारणा की जा सकती है।

        इस प्रकार धारा-315 दं0प्र0सं0 इस मूल अधिकार पर आधारित है, कि किसी भी व्यक्ति को अपने विरूद्ध साक्ष्य देने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता और अभियोजन को अपना मामला संदेह के परे खुद साबित करना चाहिए। इसके लिये आरोपी को अपने विरूद्ध साक्ष्य देने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता है।

        अपने विरूद्ध हस्तलिपि के मिलान हेतु नमूना देने, रक्त सेम्पल देना, नार्का टेस्ट देना, मेमोरेण्डम कथन देना, तलाशी पंचनामा देना, हस्ताक्षर करना आदि भौतिक एवं रासायनिक परीक्षण अपने विरूद्ध साक्ष्य देने की श्रेणी में नहीं आते हैं क्योंकि ये वस्तुए केवल तुलना के उद्देश्य से ली जाती है।
               
                           
       

बुधवार, 20 नवंबर 2013

मृत्यु के मामले में मुआवजा निर्धारण

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha
श्रीमती सरला वर्मा एवं अन्य बनाम दिल्ली परिवहन निगम एवं अन्य, 2009 (2) दुर्घटना और मुआवजा प्रकाशिका 161 (सु.को.) में प्रतिपादित मुख्य सिद्धांत

1.        मृत्यु के मामले में मुआवजा निर्धारण के लिये-जहां मृतक विवाहित , है मृतक के व्यक्तिगत एवं जीवन यापन व्ययों के प्रति कटौती का निम्न सिद्धांत परिवार में आश्रितों की संख्या के आधार पर निर्धारित किया गया है:-

क्रमंाक     परिवार में आश्रितों की संख्या    व्यक्तिगत एवं जीवन
                            यापन व्ययों के प्रति कटौती

1        2 से 3                    1/3 (एक तिहाई)
2.        4 से 6                    1/4 (एक चैथाई)
3.        6 से अधिक                1/5 (एक पांचवा)

2.        यदि मृतक अविवाहित है तो व्यक्तिगत एवं जीवन यापन की कटौती 50 प्रतिशत की जाएगी, अविवाहित मृतक की केवल माता ही आश्रित मानी जाएगी, पिता-भाई‘-बहिन नहीं अपवादिक परिस्थितियों में माने जाएंगे।

3.        मृत्यु के मामले में प्रयोज्य गुणांक के संबध्ंा में मृतक की आयु के आधार पर निम्नलिखित गुणांक  अभिनिर्धारित किया गया है:-

क्रमांक        मृतक की आयु                 प्रयुक्त गुणांक
1.        15 वर्ष तक                        20
2.         15 से 20 वर्ष                        19
3.        21 से 25 वर्ष                        18
4.        26 से 30 वर्ष                        17
5.        31 से 30 वर्ष                        16
6.        36 से 40 वर्ष                        15
7.        41 से 45 वर्ष                        14
8.        46 से 50 वर्ष                        12
9.        51 से 55 वर्ष                        10
10.        56 से 60 वर्ष                        8
11.        61 से 65 वर्ष                        6
12.        65 से अधिक                         5

4.        मृत्यु के मामले में संपदा क्षति हेतु 5,000/-रूपये, अंत्येष्टि व्ययों हेतु 5,000/-रूपये और सहजीवन की क्षति हेतु 10,000/-रूपये दिये जायेंगे जो केवल मृतक की उत्तरजीवी विधवा को दिये जाएंगे। मृतक के विधिक उत्तराधिकारीगण को कारित पीड़ा, व्यथा, कठिनाई के लिये कोई राशि नहीं दी जाएगी।  (सहजीवन की क्षति केवल विधवा को ही दिलाई जाएगी) ।
5.        मृत्यु के पश्चात् हुए वेतन संसोधन को विचारण में ग्रहण नहीं किया जा सकेगा।
6.        मृत्यु के मामले में अंत्येष्ठि व्यय, मृत शरीर के परिवहन के व्यय, मृत्यु के पूर्व मृतक के चिकित्सीय उपचार को भी प्रदान किया जाएगा।
7मोटर व्हीकल एक्ट की धारा 163 (क) के अधीन किए गए दावों तथा धारा 166 के अधीन किए गए दावों के लिए दायित्व तथा मुआवजे की मात्रा के निर्धारण के सिद्धांत भिन्न-भिन्न (अलग-अलग) हैं ।
8.        मृत्यु के मामले में मृतक की आयु मृतक की आय, आश्रितों की संख्या तीन बातें प्रमाणित की जानी चाहिए।
9.        आश्रितता की क्षति के निर्धारण हेतु आय क निर्धारण होना चाहिए फिर उसमें मृतक के व्यक्तिगत जीवन यापन की कटौती की जानी चाहिए उसके बाद मृतक की आयु के संबंध में गुणांक कर उचित मुआवजा राशि निकाला जाना चाहिए।






























युक्तियुक्त संदेह

                            युक्तियुक्त संदेह    
        विधि का यह सामान्य सिद्धांत है, कि किसी भी निर्दाेष को सजा न हो इसलिए यदि संदेह उत्पन्न होता है, तो संदेह का लाभ आरोपी को दिया जाना चाहिए। लेकिन संदेह किसी कल्पना, अटकलों और अंदाज के आधार पर आधारित न होकर मजबूर आधारांे पर आधारित होना चाहिए।

        युक्तियुक्त संदेह साधारण तौर पर संदेह की वह श्रेणी है जो किसी न्यायसंगत और युक्तियुक्त व्यक्ति को कोई निष्कर्ष निकालने की अनुमति देगी। संदेह का औचित्य अन्वेषण किये जाने वाले अपराध की प्रकृति के अनुकूल होना चाहिए। संदेह का लाभ देने के नियम को लागू करने की अत्यधिक लगन ऐसी काल्पनिक शंकाओं अथवा चिरकालिक सन्देहों को प्रोत्साहन न दें, जिनके द्वारा सामाजिक प्रतिरक्षा का विनाश हो जाए। न्याय को इस अभिवाक् पर निष्फल नहीं किया जा सकता है, कि किसी निर्दोष को दंड देने की बनिस्बत सैकड़ो दोषी व्यक्तियों को बचकर निकलने देना अधिक अच्छा है। दोषी को बचकर निकलने देना विधि के अनुसार न्याय करना नहीं है।

        दाण्डिक विधि विनश्चिायक सबूत की अपेक्षा नहीं करती। वह केवल युक्तियुक्त संदेह से परे सबूत की अपेक्षा करती है।  माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा उ.प्र. राज्य बनाम रांझा राम आदि (1986) 4 एस.सी.सी. 99} के.गोपाल रेड्डी बनाम आंध्रप्रदेश राज्य, 1979 उम.नि.प. 893 मंे अभिनिर्धारित किया है, कि   युक्तियुक्त सन्देह से किसी भी समय किसी विवाद के बारे में हम में से किसी के दिमाग से उत्पन्न होने वाला कोई तुच्छ, हवाई या सारहीन सन्देह अभिप्रेत नहीं है, इससे ऐसा सन्देह अभिप्रेत नहीं है, जो दोषसिद्धि में हिचकिचाहट की भावना से उत्पन्न हुआ है। इससे युक्तियुक्तता पर आधारित वास्तविक संदेह अभिपे्रत है।

        माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा खमकरण और अन्य बनाम उ.प्र. राज्य, ए.आई.आर. 1974 एस.सी. 1567 एवं इन्दरसिंह व अन्य बनाम दिल्ली प्रशासन, 1979-1 उम.नि.प. 1443 में अभिनिर्धारित किया है, कि केवल सम्भाव्यताएॅ या क्षीण सम्भाव्यताएॅ या मात्र सन्देह, जो युक्तियुक्त नहीं है। न्याय के प्रशासन को खतरे में डाले बिना, उस दशा में अभियुक्त व्यक्ति की दोषमुक्ति का आधार नहीं बन सकते, जब अन्यथा उचित रूप से विश्वसनीय परिसाक्ष्य है। 

    माननीय उच्चतम न्यायालय का स्पष्ट अभिमत है    कि ‘‘यह आवश्यक है, कि सभी दाण्डिक मामलों में युक्तियुक्त सन्देह से परे सबूत दिया जाना चाहिए, यह आवश्यक नहीं कि यह परिपूर्ण हो। यदि कोई मामला पूर्ण रूप से साबित कर दिया गया है तो यह दलील दी जाती है, कि यह कृत्रिम है। यदि किसी मामले में कुछ दोष रह गये हैं, जो मानव के त्रुटि उन्मुख होने के कारण अनिवार्य हैं तो यह दलील दी जाती है कि यह बहुत अपूर्ण है। यह आश्चर्य     होता है कि क्या किसी निर्दाेष व्यक्ति को सजा दिलाने से बचाने के लिये अत्यधिक तर्क, अतिसंवेदिता में बहुत से दोषी व्यक्तियों को     निर्दयता से छूट दे दी जाए। युक्तियुक्त सन्देह से परे सबूत मार्गदर्शन है न कि कोई जादू टोना।‘‘ 


            अब्दुलगानी बनाम म.प्र. राज्य ए.आई.आर. 1974 एस.सी. 753 में अभिनिर्धारित किया गया है, कि  न्यायालय में साक्ष्य देते समय कभी-कभी कोई साक्षी भ्रमित हो जाता है। कोई साक्षी पूर्णतः सत्यवादी होने के बावजूद न्यायालय के वातावरण और बीधने वाली प्रति-परीक्षण से आतंकित हो सकता है। ऐसी असंगतियों को जो मामले की जड़ तक नहीं पहुंचती और मामले की मूल विशेषताओं को नष्ट नहीं करती। असम्यक महत्व नहीं दिया जा सकता। 

        माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा उप्र. राज्य बनाम अनिल सिंह, 1989-1 उम.नि.प. 977 के मामले में न्यायालयों की साक्ष्य में फर्क होने की दशा में सारे मामले को झूंठा मानकर अस्वीकार करते हुए सुगम मार्ग अपनाने की भत्र्सना की है। न्यायालय का कर्तव्य यह है, कि वह वास्तविक सच्चाई का पता लगावे। न्यायाधीश मात्र इसलिए दाण्डिक विचारण में पीठासन नहीं होता है, कि वह यह सुनिश्चित करें कि किसी निर्दाेष व्यक्ति को दंडित न किया जाए। न्यायाधीश इसलिए भी पीठासीन होता है-जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई दोषी व्यक्ति दंडित होने से न बच जाए। दोनों ही महत्वपूर्ण कर्तव्य हैं, जिनका न्यायाधीशांें को पालन करना होता है। 

    कालीराम बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य ए.आई.आर.1973    में अभिनिर्धारित किया गया है, कि यदि अभियुक्त के दोष के बारे में कोई युक्तियुक्त संदेह उत्पन्न हो जाए तो उसके लाभ से अभियुक्त को वंचित नहीं किया जा सकता है। यदि न्यायालय अभियुक्त को संदेह का लाभ न दें, तो यह न्यायोचित न होगा, लेकिन दोषमुक्ति से विधि और व्यवस्था की स्थिति पर प्रभाव पड़ सकता है या इससे समाज के ऐसे सदस्यों में एक प्रतिकूल प्रतिक्रिया हो सकती है, जो यह विश्वास करते हैं, कि अभियुक्त दोषी है। अभियुक्त के दोष पर इस तथ्य की दृष्टि से विचार नहीं किया जाना चाहिए कि बहुसंख्यक व्यक्ति यह विश्वास करते हैं, कि वह दोषी  है,  अपितु  इस दृष्टि से कि क्या उसका दोष अभिलेख पर लाई गई साक्ष्य द्वारा सिद्ध कर दिया गया है। वास्तव में अभ्ज्ञियुक्त के रूप में दोषारोपित व्यक्ति के दोष का निर्णय करने के लिये न्यायालयों के पास शायद ही और कोई मापदंड या सामग्री है।
       
        कभी-कभी लोकहित और अभियुक्त के हित के विरोध का उल्लेख किया जाता है। यह निःसंदेह सही है, कि गलत दोष-मुक्ति अवांछनीय है और इससे न्याय पद्धति में आम जनता का विश्वास शिथिल पड़ सकता है। तथापि निर्दोष व्यक्ति की गलत दोषसिद्धि इससे कहीं अधिक बुरी है। निर्दोष व्यक्ति की दोषसिद्धि के परिणाम कहीं अधिक गंभीर होते हैं और इसकी प्रतिक्रियाएॅ अवश्यंभावी  रूप से सभ्य समाज में अनुभव की जा सकती है।

        आरोपी/अभियुक्त के विरूद्ध कितना भी प्रबल संदेह हो और न्यायाधीश का कितना भी प्रबल नैतिक विश्वास एवं निश्चय हों, परन्तु जब तक वैध साक्ष्य तथा अभिलेख की विषय वस्तु के आधार पर युक्तियुक्त शंका के परे दोषारोप सिद्ध नहीं होता है, तब तक उसे दण्डित नहीं किया जा सकता है। समग्र रूप से अभियोजन कथा सत्य हो सकती है, परन्तु ‘‘हो सकती है‘‘ और ‘‘होना चाहिए‘‘ के मध्य एक लंबी दूरी है और आरोपी को वैध विश्वसनीय एवं अकाट्य साक्ष्य के माध्यम से इस दूरी को पार करना अनिवार्य है। 


        शिवाजी साहब राय व अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 1973 एस.सी. 2622, बर्की जोसफ बनाम केरल राज्य, ए.आई.आर. 1993 एस.सी. 1892 पैरा-1, 2, आशीष बाथम बनाम म.प्र. राज्य, 2003 (1) एम.पी.एच.टी. 1 एस.सी. वाले मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह ठहराया है, कि निश्चय ही यह एक प्राथमिक सिद्धांत है, कि इससे पहले कि न्यायालय अभियुक्त को दोषसिद्ध कर सके, अभियुक्त दोषी ‘‘होना चाहिए‘‘ न कि केवल ‘‘दोषी हो सकता है‘‘। ‘‘हो सकता है तथा ‘‘होना चाहिए‘‘ के बीच वास्तविक अन्तर बहुत लम्बा है जो अस्पष्ट अटकलों को निश्चित निष्कर्षाें से अलग करता है।

        हमें इस बात से अनभिज्ञ नहीं होना चाहिए कि किसी दाण्डिक विचारण में सबूत की कोटि उससे अधिक कड़ी होती है जितनी सिविल कार्यवाहियों में अपेक्षित होती है। किसी दाण्डिक विचारण में मामले के तथ्य और परिस्थितियाॅ चाहे कितनी ही पेचीदा क्यांे न हो, फिर भी अभियुक्त के विरूद्ध लगाये गये आरोपों को सभी युक्तियुक्त सन्देहों से परे साबित किया जाना चाहिए और सबूत की अपेक्षा को कल्पनाओं और अनुमानों के आधार पर नहीं छोड़ा जा सकता है। हालांकि न्यायालय की अंतश्चेतना की इस संबंध में तुष्टि हो जानी चाहिए कि अभियुक्त को ऐसी स्थिति में दोषी अभिनिर्धारित नहीं किया गया है।

                      जब अभिकथित अपराधों के संबंध में अभियुक्त के निर्दोष होने के बाबत् युक्तियुक्त संदेह है, फिर भी यह ध्यान में रखना चाहिए कि किसी दाण्डिक विचारण में सबूत के लिये कोई पूर्ण स्तरमान नहीं है और यह प्रश्न कि क्या अभियुक्त के विरूद्ध लगाये गये आरोप किसी युक्तियुक्त संदेह से परे साबित हो गये हैं। प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर तथा उस मामले में प्रस्तुत की गई साक्ष्य की श्रेणी ओर अभिलेख पर रखी गई सामाग्री पर निर्भर करता है।
        गुरूवचन सिंह बनाम सतपाल सिंह व अन्य, ए0आई0आर0 1990 एस0सी0 209 वाले मामले मंे यह उपदर्शित किया है, कि न्यायालय की अंतश्चेतना को किसी नियम द्वारा आबद्ध नहीं किया जा सकता, बल्कि वह स्वयं किसी निर्णय को देने में सत्यता और बुद्धिमता का प्रयोग करते हुए यह कार्य करती है। 


        अंत में यह निष्कर्ष निकलता है, कि न्याय दर्शन भारतीय दर्शन की धुरी है। इसमें न केवल आर्य विचारधारा प्रभावित हुई, बल्कि जैन, बौद्ध एवं समस्त उपनिषदीय चिंतन का स्वरूप भी निश्चित हुआ। संसार में सत्य केवल साधारण कथन से मान्य नहीं होता है। उसे तर्क आधारित होना पड़ता है। केवल तर्कांे से भी कुछ विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। तर्क तो खोपड़ी की खुजलाहट मात्र है, जो बुद्धि के चातुर्य से प्रकट होता है। तर्क से हम दिन को रात व रात को दिन सिद्ध कर सकते हैं। हर तर्क को अपने पक्ष में प्रमाण लाना पड़ता है। शुद्ध ज्ञान तर्कशील प्रमाणों का विवेचन विश्लेषण है। अतः युक्तियुक्त संदेह को कल्पना, अटकलों और संभावनाओं पर न तौलते हुए मजबूत आधार सबूत, निश्चयात्मक तथ्यों के आधार पर तौलना चाहिए।






मंगलवार, 19 नवंबर 2013

धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत ‘‘मृत्यु समीक्षा‘‘ एवं धारा-176 (1-ए) दं0प्र0सं0

धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत ‘‘मृत्यु समीक्षा‘‘ एवं धारा-176 (1-ए) दं0प्र0सं0  जांच 

                             भारतीय संविधान में प्रत्येक व्यक्ति को प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है, इसलिए कि व्यक्ति के साथ न्याय हो। अतः मृत्यु समीक्षा के अलावा न्यायिक मजिस्टेªट द्वारा भी जांच के प्रावधान धारा-176 (1-ए) के अंतर्गत दं0प्र0सं0 में जोड़े गये हैं। जिसका मुख्य उद्देश्य यह है कि:-

1- किसी भी व्यक्ति की स्वतंत्रता या नागरिक अधिकार अन्यायपूर्ण तरीके से न छीनें जाये।

2- कोई भी व्यक्ति जिसकी स्वतंत्रता छीन ली गई है अभिरक्षा में रहे व्यक्तियों की निर्दयता और उपेक्षा का शिकार न बनने पाये।

3- किसी भी मृत व्यक्ति की जो जमीन में गाड़ दिया गया है पहचान हो सके और मृत्यु के कारणों का पता चल सके।

4- यदि मृत्यु या मामले पर संदेह हो, तो मामला न्यायिक मृत्यु समीक्षा में सुलझना चाहिए न कि पुलिस मृत्यु समीक्षा से।

5- यह कि, पुलिस अभिरक्षा के दौरान मृत्यु या बलात्कार होने पर पीडि़त व्यक्ति को न्याय प्राप्त हो सके और दोषी को सजा प्राप्त हो सके।

उपरोक्त मानवीय दृष्टिाकोण को ध्यान में रखते हुए न्यायिक मजिस्टेªट के द्वारा मृत्यु समीक्षा के अधिकार दं0प्र0सं0 मंे दिये गये हैं।

मृत्यु समीक्षा:-समीक्षा का अर्थ है, तथ्य की विधिवत जांच चिकित्सा न्यायशास्त्र में मृत्यु समीक्षा का अर्थ है मृत्यु के उन कारणों की जांच जो प्राकृतिक कारण नहीं लगते। जब भी किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है तो विधि के अंतर्गत यह आवश्यक है, कि जांच की जाए कि मृत्यु प्राकृतिक या अप्राकृतिक किन कारणों से हुई है।

यदि मृत्यु प्राकृतिक कारणों जैसे हृदयधमनी अवरोध, कर्क रोग, फुफ््फुसशोथ आदि से हुई है तो आगे की जांच आवश्यक नहीं है और शव की अंत्येष्ठि क्रिया उसके धार्मिक संस्कारों के अनुसार कर दी जाती है।

यदि मृत्यु अप्राकृतिक कारणों से हुई है तो यह आवश्यक है, कि मृत्यु के कारण की जांच की जाए (मृत्यु समीक्षा) और अपराधी को पकड़कर दंड दिया जाए। ऐसी मृत्यु को अप्राकृतिक या संदेहास्पद मृत्यु कहते हैं और यह जरूरी है, कि उसकी रिपोर्ट अधिकारियों को की जाए ताकि अन्वेषण हो सके।

धारा-176 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत मृत्यु के कारण की मजिस्टेªट द्वारा जांच के प्रावधान दिये गये हैं।

निम्नलिखित परिस्थितियों में मजिस्टेªट मृत्यु की जांच कर सकता है

1- जब किसी व्यक्ति की मृत्यु पुलिस की अभिरक्षा में हुई है।

2- जब मृत्यु उन परिस्थितियों में हुई है जो धारा-174 में पुलिस द्वारा जांच के संबंध में बताई गई है।

धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत निम्नलिखित परिस्थितियों में मृत्यु के कारणों की जांच की आवश्यकता है -

जब (1) किसी व्यक्ति ने आत्महत्या की है, या

(2) किसी व्यक्ति की हत्या की गई है, या

(3) किसी व्यक्ति की मृत्यु-

1. किसी पशु द्वारा, या

2. किसी मशीन द्वारा,

3. किसी दुर्घटना में हुई है, या

(4) किसी व्यक्ति की मृत्यु ऐसी परिस्थितियों में हुई है कि जिससे ऐसा संदेह है, कि उसके साथ किसी ने अपराध किया है।

दण्ड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम 2005 द्वारा-

धारा-176 (1) (क) जोड़ी गई है जिसके अनुसार पुलिस द्वारा की जा रही जांच और विवेचना के अतिरिक्त न्यायिक मजिस्टेªट या महानगरीय मजिस्टेªट जैसा भी मामला हो जिसकी स्थानीय क्षेत्राधिकारिता में अपराध हुआ है, उसके द्वारा जांच की जाएगी। ऐसी जांच निम्नलिखित मामलों में की जाएगी।

1. जहाॅ कोई व्यक्ति या महिला पुलिस अभिरक्षा में है या मजिस्टेªट या न्यायालय द्वारा प्राधिकृत अभिरक्षा में है और इस दौरान.......................................

जहाॅ कोई व्यक्ति मर जाता है,

जहाॅ कोई व्यक्ति गायब हो जाता है,

जहाॅ किसी स्त्री के साथ बलात्कार किया जाना अपेक्षित है,

वहाॅ पर न्यायिक मजिस्टेªट द्वारा जांच की जाएगी।

जांच की प्रक्रिया:-

1. ऐसी जांच करने वाला मजिस्टेªट उसके संबंध में लिए गए साक्ष्य को इसमें इसके पश्चात् विहित किसी प्रकार से मामले की परिस्थितियों के अनुसार अभिलिखत करेगा।

2. जब कभी ऐसे मजिस्टेªट के विचार में यह समीचीन है, कि किसी व्यक्ति के, जो पहले ही गाड़ दिया गया है, मृत शरीर की इसलिए परीक्षा की जाए कि उसकी मृत्यु के कारण का पता चले, तब मजिस्टेªट उस शरीर को निकलवा सकता है और उसकी परीक्षा करा सकता है।

3. जहाॅ कोई जांच इस धारा के अधीन की जानी है, वहाॅ मजिस्टेªट जहाॅ कहीं साध्य है, मृतक के उन नातेदारों को, जिनके नाम और पते ज्ञात हैं, इत्तिला देगा और उन्हें जांच के समय उपस्थित रहने की अनुज्ञा देगा। ‘‘नातेदार‘‘ पद से माता-पिता, संतान, भाई-बहिन और पति या पत्नि अभिप्रेत है।

4. जांच अधिकारी किसी व्यक्ति की मृत्यु के 24 घंटे के भीतर शव को परीक्षित किये जाने की दृष्टि से निकटतम सिविल सर्जन या इसके लिये राज्य शासन द्वारा नियुक्त अन्य सुयोग्य चिकित्सकीय व्यक्ति को अग्रेषित करेगा। यदि ऐसा करना संभव न हो, तो लिखित रूप से ऐसे कारणांे को अभिलिखित किया जावेगा।

धारा-174 दं0प्र0सं0 एवं धारा-176 दं0प्र0सं0 में जांच अंतर

धारा-174 दं0प्र0सं0
   

धारा-176 दं0प्र0सं0

(1) धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत विशेष रूप से नियुक्त मृत्यु समीक्षा करने के लिये सशक्त जिला मजिस्टेªट, उपखंड मजिस्टेªट, कार्यपालिक मजिस्टेªट द्वारा जांच की जाएगी।
   

जबकि धारा-176 दं0प्र0सं0 (1) (क) के अंतर्गत स्थानीय क्षेत्राधिकारिता के न्यायिक मजिस्टेªट या महानगरीय मजिस्टेªट जिसकी स्थानीय क्षेत्राधिकारिता पर अपराध कारित हुआ, उसके द्वारा जांच की जावेगी।

(2) धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत मृत्यु के दृष्यमान कारणांे की जांच की जाती है और केवल उसकी रिपोर्ट तैयार की जाती है।
   

जबकि धारा-176 (1) (क) के अंतर्गत साक्ष्य अभिलिखत करके मामले की संपूर्ण जांच कर ही रिपोर्ट तैयार की जाती है और उसमें दोषी व्यक्ति का उल्लेख भी होता है।

(3) धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत नियुक्त मजिस्टेªट मृत्यु के कारण की बाबत् संदेह होने पर एवं मृत्यु की समीक्षा कर कारणों का उल्लेख कर यह राय देता है, कि मृत्यु अप्राकृतिक मृत्यु है।
   

जबकि धारा-176 (1) (क) के अंतर्गत न्यायिक मजिस्टेªट मामले की जांच करता है। साक्षियों के कथन अभिलिखत कर मृत्यु के कारणों का पता लगाकर उसके रिश्तेदारों से पूछताछ कर, शव परीक्षण कराकर उपर्युक्त जांच प्रतिवेदन देता है,जिसमें किये गये अपराध का उल्लेख, जिन व्यक्तियों ने अपराध किया, उनका उल्लेख, कौन सा अपराध किया, उसका उल्लेख होता है और इस प्रकार का जांच प्रतिवेदन आपराधिक कार्यवाही किये जाने के लिये पर्याप्त आधार होता है।

(4) धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत मौके पर केवल दो अधिक गवाहों को उस समय की वास्तविक स्थिति के दर्शाने हेतु एवं मामले के तथ्यों से परिचित व्यक्तियों को बुलाया जाता है।
   

जबकि धारा-176 (1) (क) के अंतर्गत मृतक के रिश्तेदार की उपस्थिति में भी जांच की जाती है और संबंधित व्यक्तियों की साक्ष्य अभिलिखित की जाती है, उसके बाद प्रतिवेदन प्रस्तुत किया जाता है, जिसमंे संपूर्ण परिस्थितियों का वर्णन रहता है।

(5) धारा-174 दं0प्र0सं0 की मृत्यु समीक्षा रिपोर्ट में साक्षियों का वर्णन नहीं रहता है।
   

जबकि धारा-176 (1) (क) के अंतर्गत की जा रही जांच में साक्षियों के नाम का उल्लेख रहता है।

(6) धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत जिन परिस्थितियों में मृत्यु होना पाया जाता है उसकी जांच की जाती है।
   

जबकि धारा-176 (1) (क) के अंतर्गत किस व्यक्ति ने अपराध किया उसकी जांच की जाती है।

(7) धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत जांच की प्रक्रिया धारा-174 और 175 दं0प्र0सं0 के अनुसार की जाती है।
   

जबकि धारा-176 (1) (क) के अंतर्गत प्रक्रिया निर्धारित नहीं है। इसे जांच अधिकारी स्वयं निर्धारित कर सकता है या जिस अधिकारी ने उसे नियुक्त किया है वह प्रक्रिया को निर्धारित करके दे सकता है।

(8) धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत जांच अधिकारी की शक्तियाॅ सीमित हैं।
   

जबकि धारा-176 (1) (क) के अंतर्गत जांच करने हेतु मजिस्टेªट को ये सब शक्तियाॅ प्राप्त हैं जो उसे किसी अपराध की जांच विचारण के संबंध में प्राप्त हैं।

   

इस प्रकार धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत सीमित जांच की जाती है, जबकि धारा-176 (1) (क) दं0प्र0सं0 के अंतर्गत जांच का क्षेत्र असीमित हैं।

गुरुवार, 19 सितंबर 2013

सामान्य उददेश्य

                                           सामान्य उददेश्य
        धारा-149 प्रतिनिधिक एंव आन्वयिक दाण्डिक दायितत्व विधि विरूद्ध जमाव के प्रत्येक सदस्य हेतु विहित करती है,जहां अपराध उस जमाव के सामान्य उददेश्य के अग्रसरण में ऐसे विधि विरूद्ध जमाव के किसी सदस्य द्वारा कारित किया गया हो या उस जमाव के सदस्यों का उस उददेश्य के अग्रसरण में कारित किया जाना जानते हुए किया हो ।

        विधि के सुस्थापित सिद्धांतो के अनुसार जब कभी न्यायलाय किसी व्यक्ति या व्यक्तियों को धारा-149 की सहायता से अपराध हेतु दोषसिद्ध करती है । जमाव के सामान्य उददेश्य के संबंध में स्पष्ट निष्कर्ष दिया जाना चाहिए एंव चर्चा किया गया साक्ष्य न केवल सामान्य उददेश्य की प्रकृति दर्शाना चाहिए । बल्कि यह भी कि उददेश्य विधि विरूद्ध था। भा.द.सं. की धारा-149 के तहत दोषसिद्धि अभिलिखित करने के पूर्व, भा.द.सं. की धारा-141 के आवश्यक संघटक स्थापित किये जाने चाहिए ।   

    141 विधिविरूद्ध जमाव- पांच याअधिक व्यक्तियों का जमाव विधिविरूद्ध जमाव कहा जाता है यदि उन व्यक्तियों का जिनसे वह जमाव गठित हुआ है, सामान्य उददेश्य हो-

    पहला-    केन्द्रीय सरकार को या किसी राज्य सरकार को संसद को या किसी राज्य के विधान मंडल को या किसी लोक सेवक को जब कि वह ऐसे लोक सेवक की विधिपूर्ण शक्ति का प्रयोग कर रहा हो, आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा आतंकित करना अथवा

    दूसरा-    किसी विधि के या किसी वैध आदेशिका के निष्पादन का  प्रतिशेध करना अथवा

    तीसरा-    किसी रिष्टि या आपराधिक अतिचार या अन्य अपराध का रना अथवा

    चैथा-        किसी व्यक्ति पर आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा किसी सम्पत्ति का कब्जा  लेना या अभिप्राप्त करना या किसी व्यक्ति को किसी मार्ग के अधिकार के उपभोग से या जल का उपभोग करने के अधिकार या अन्य अमूर्त अधिकार से जिसका वह कब्जा रखता हो, या उपभोग करता हो, वंचित करना या किसी अधिकार या अनुमति अधिकार को प्रवर्तित करना अथवा

    पांचवा-    आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा किसी व्यक्ति को वह करने के लिए जिसे करने के लिए वह वैध रूप से आबद्ध न हो या उसका लोप करने के लिए जिसे करने का वह वैध रूप से हकदार हो विवश करना ।

    स्पष्टीकरण-    कोई जमाव जो इकट्ठा होते समय विधि विरूद्ध नहीं था बाद को विधि विरूद्ध जमाव हो सकेगा ।

        यह इस प्रकार अवेक्षित किया जाना चाहिए कि धारा-149 के आवश्यक संघटको में से एक है कि अपराध विधि विरूद्ध जमाव के किसी सदस्य द्वारा कारित किया जाना चाहिए और धारा-149 यह स्पष्ट करती है कि यह केवल वहां होता, जहंा पांच या अधिक व्यक्ति ने जमाव गठित किया, जो एक विधिविरूद्ध जमाव होता है, उक्त धारा की अन्य आवश्यकतांए स्पष्टतः, यथा उस जमाव को करते हुए व्यक्तियों का सामान्य उददेश्य पूर्ण हो । अन्य शब्दों में, विधिविरूद्ध जमाव की एक आवश्यक शर्त है कि इसकी सदस्यता पांच या अधिक होना चाहिए । जो प्रस्तुत प्रकरण में पूरी होती है। धारा-149 द्वारा विनिर्दिष्ट अपराध के आवश्यक संघटकों के संबंध में सही विधिक स्थिति शंका में नहीं है। 

        यदि जमाव की सदस्यता पांच से कम हो तो धारा-141 लागू नहीं होती है । इसलिए धारा-149 का अवलम्ब नहीं लिया जा सकता । यदि पंाच या अधिक व्यक्ति विधिविरूद्ध जमाव गठित करने के रूप में आरोपित हैं और अभियोजन द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य उन समस्त के विरूद्ध आरोप साबित करता है, यह एक स्पष्ट प्रकरण होता है, जहां धारा- 149 अवलम्ब ली जा सकती है । यह परन्तु आवश्यक नहीं है कि पांच या अधिक व्यक्ति धारा-149 के तहत आरोप के पूर्व दोषसिद्ध किये जाने चाहिए, विधि विरूद्ध जमाव के किसी सदस्य के विरूद्ध सफलतापूर्वक लगाया जा सकता है । यह हो सकेगा कि पांच व्यक्तियों से कम धारा-302/149 के तहत आरोपित एंव दोष सिद्ध किये जा सकेंगे, यदि आरोप है कि न्यायालय के समक्ष व्यक्ति अन्य के साथ विधिविरूद्ध जमाव गठित करते, ऐसे नामित अन्य व्यक्ति परीक्षण हेतु उनके साथियों के साथ उपलब्ध नहीं हो सकेंगे, इस कारण से उदाहरण हेतु कि वह फरार हो गये हो ।

        ऐसे प्रकरण मंे, तथ्य कि पांच से कम व्यक्ति न्यायालय के समक्ष हैं,   धारा-149 को इस साधारण कारण से अप्रयोज्य नहीं बनाता है कि आरोप एंव साक्ष्य दोनो साबित किये जाना ईप्सित है कि न्यायालय के समक्ष व्यक्ति और पांच से अधिक संख्या में एंव इस प्रकार, वे एक साथ विधिविरूद्ध जमाव गठित करते । इसलिए, धारा-149 के तहत आरोप लगाने के अनुसरण मंे, यह आवश्यक नही है कि पांच या अधिक व्यक्ति न्यायालय के समक्ष आवश्यक रूप से लाये जाने चाहिए और दोषसिद्ध किये जाने चाहिए ।

        उपर्युक्त उपबन्ध यह स्पष्ट करता है कि भा.द.सं. की धारा-149 की सहायता से अभियुक्त को दोषसिद्ध करने के पूर्व, न्यायालय को सामान्य उददेश्य और यह कि उददेश्य विधिविरूद्ध था की प्रकृति के बारे में स्पष्ट निष्कर्ष देना चाहिए । ऐसे निष्कर्ष साथ ही अभियुक्तगण द्वारा किसी ओर कार्य के अभाव में भी, मात्र तथ्य कि वे लैस थे सामान्य उददेश्य साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा ।धारा-149 एक विनिर्दिष्ट अपराध सृजित करती है और उस अपराध हेतु दण्ड व्यवहत करती है । 

        जब कभी न्यायलाय किसी व्यक्ति या व्यक्तियों को धारा-149 की सहायता से अपराध हेतु दोषसिद्ध करती है । जमाव के सामान्य उददेश्य के संबंध में स्पष्ट निष्कर्ष दिया जाना चाहिए एंव चर्चा किया गया साक्ष्य न केवल सामान्य उददेश्य की प्रकृति दर्शाना चाहिए । बल्कि यह भी कि उददेश्य विधि विरूद्ध था । भा.द.सं. की धारा-149 के तहत दोषसिद्धि अभिलिखित करने के पूर्व, भा.द.सं. की धारा-141 के आवश्यक संघटक स्थापित किये जाने चाहिए ।

        विधान का धारा-149 अधिनियमित करने में विधिविरूद्ध जमाव के प्रत्येक सदस्य केा इसके एक या अधिक सदस्यों द्वारा कारित किये प्रत्येक अपराध के लिए दण्डित किये जाने का उत्तरदायी बनाने का आशय नहीं है । धारा-149 आकर्षित करने के अनुसरण में, यह देखा जाना चाहिए कि फंसाने वाला कृत्य विधि विरूद्ध जमाव के सामान्य उददेश्य को पूर्ण करने के लिए किया या था और यह अन्य सदस्यों के ज्ञान में होना चाहिए यथा सामान्य उददेश्य के अग्रसरण में कारित किया होना चाहिए । यदि जमाव के सदस्य जानते या सामान्य उददेश्य के अग्रसरण में कारित होते हुए विशिष्ट अपराध की सम्भावना से अवगत थे, वे भा.दं.सं. की धारा-149 के तहत इसके लिए उत्तरदायी होगे ।

        यदि परिवादी और अभियुक्त स्वयं खुली लडाई में संलग्न थे, इसलिए भा.द.सं. की धारा-149 के तत्व आकर्षित नहीं होगे क्यों कि अपराध की सदोषता अपीलार्थीगण को व्यक्तिगत रूप से अन्तर्वलित करेगा, के विरूद्ध दूसरे दाण्डिक प्रकरण के लम्बान का तथ्य स्वीकार किया है जो वर्तमान अपीलार्थीगण की प्रेरणा पर संस्थित किया गयाथा ।
        उच्चतम न्यायालय के ए0आई0आर. 1976 एस0सी0 912 पूरणबनाम राजस्थान राज्य  में सम्प्राशित निर्णय की ओर यह दर्शाने के लिए आकर्षित किया कि अचानक दो पक्षकारो के मध्य पारस्परिक लडाई के मामले मंे, भा0द0सं0 की धारा 149 आन्वयिक दाण्डिक दायित्व अधिरोपित करने के प्रयोजन हेतु अवलम्ब नहीं ली जा सकती और अभियुक्तगण व्यक्तिगत रूप से उनके द्वारा कारित क्षतियों के लिए दोषसिद्ध किये जायगे । इस प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने सम्प्रेक्षित किया है कि पक्षकारो के मध्य अचानक पारस्परिक लडाई के मामले में, भा.0द0सं0 की धारा-149 की सहायता का अवलम्ब लेने के प्रश्न आन्वयिक दाण्डिक दायित्व अधिरोपित करने के प्रयोजन हेतु नहीं होगा और अभियुक्त केवल उसके द्वारा उसके वयैक्तिक कार्य द्वारा कारित क्षतियां के लिए दोषसिद्धि किया जा सकता था ।
        उच्चतम न्यायालय के द्वारा मरियादासन और अन्य बनाम तमिलनाडू राज्य ए0आई0आर0 1980 एस0सी0 573 में अभिनिर्धारित किया है कि अपराध कारित करने के सामान्य उददेश्य से किसी अवैध सभा का गठन साबित करने के लिए संतोष जनक साक्ष्य के अभाव में और जब सम्पूर्ण लडाई अचानक आवेश के क्षण प्रारम्भ हुई हो, तब अभियुक्त अकेला उनके वैयक्तिक कार्याे के लिए उत्तरदायी हो सकता है और भा0द0सं0 की धारा-149 के तहत दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता 

        उच्चतम न्यायालय के ए0आई0आर0 1991 एस0सी0 339 अब्दुल हमीद और अन्य बनाम उ0प्र0 राज्य  में सम्प्रकाशित अन्य निर्णय को समान साम्यानुमान दोहराने के लिए अवलम्बित किया कि खुली लडाई में, अभियुक्त उसके वैयक्ति कार्य हेतु उत्तरदायी होगा । 

        अब्दल हमीद बनाम उ0प्र0 राज्य 1991 भाग 1 एस0सी0सी0 339 गजानन्द बनाम उ0प्र0 राज्य ए0आई0आर0 1954 एस0सी0 695 के मामले में यह ठहराया गया है कि एक खुली लडाई परिभाषा    के अनुसार है जब दोनो तरफ से लडाई प्रारम्भ होना अर्थ है, खुली होती है और एक अवस्था की लडाई होती है प्रश्न ऐसी लडाई में कोैन हमला करता है और कौन बचाव पूर्णतः अतात्विक होता है प्रतिद्वंद्वी कमाण्डर द्वारा अपनाई गयी चालाकियों पर निर्भर करता है।

        द्वारका प्रसाद बनाम उ0प्र0 राज्य 1993 सप्ली 3 एस0सी0सी0 141 में यह ठहराया गया है कि -  
    एक खुली लडाई होती है जब दोनो तरफ से लडाई प्रारंभ होना अर्थ   
    है । प्रश्न ऐसी लडाई में कौन हमला करता है और कौन बचाव,     पूर्णतः अतात्विक होता है, प्रतिद्वंद्वी पक्षकारो द्वारा अपनाई गयी     चालाकियों पर निर्भर करता है । पारस्परिक लडाई के ऐसे मामलो में 

    दोनो उनके वैयक्तिक कार्यो के लिए दोषसिद्ध किये जा सकते है ।

    यह स्थिति गजानन्द बनाम उ.प्र.राज्य कानबी नानजी वीरजी बनाम गुजरात राज्य, पूरण बनाम राजस्थान राज्य, विश्वास अबा कुराने बनाम महाराष्ट्र, के मामलो में स्थापित की गई है। यथा एक बार अभियोजन द्वारा यह स्थापित होता है कि प्रश्नगत घटना खुली लडाई के परिणामस्वरूप है, तब सामान्यतः प्रायवेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार किसी भी पक्षकार को उपलब्ध नहीं होता है और वे क्रमशः उनके कार्यो हेतु दोषी होंगे ।

    केवल सिंह बनाम पंजाब राज्य 2003 भाग-12 एस0सी0सी0 369 में  यह सम्प्रकाशित में यह ठहराया गया है कि दोनो पक्षकारगण सशस्त्र आए और खुली लडाई में हुए, जिसके परिणामस्वरूप दोनो     पक्षकारो को क्षतियां हुई ।    चूंकि दोनो पक्षकारगण लडाई के लिए तैयारी से आए थे इस प्रश्न में जाना अनावश्यक है कि क्या उनमें से किसी ने प्रायवेट प्रतिरक्षा के     अधिकार का अनुप्रयोग किया और इसलिए अभियुक्त की सदोषता उनके वैयक्तिक कार्यो हेतु निर्देशन द्वारा विनिश्चित की जानी चाहिए।इसलिए ऐसी स्थिति में भा0द0सं0 की धाराओ 147,148 और 149 के सिद्धांतो को लागू करने हेतु न्यायालय के लिए सुरक्षित नही ंहोगा ।
  
      


                      

सोमवार, 26 अगस्त 2013

विधि संबंधी लेख

                                                    विधि संबंधी लेख 

                            विधिक प्रतिपादनाएं


1 ----भ्रष्टाचार निवारण अधनियम
2----प्रतिरक्षा का अधिकार
3----धारा-24 हिन्दूु विवाह अधिनियम
4----अभियोजन चलाने की अनुमति
5----धारा-27 साक्ष्य अधिनियम
6===अचानक लडाई में धारा-34 और 149 आई0पी0सी0 का लागू न होना
7===सामान्य आशय    
8===धारा-306 और 107 भा0द0सं0
9---आपराधिक षडयंत्र
10---दान
11----पराक्रम्य लिखत अधिनियम 1881
12---सामान्य उददेश्य
13-----धारा-306 भा0द0सं0 के अंतर्गत माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित विधिक प्रतिपादनाऐ-   
14---धारा-311 दं0प्र0सं0 न्यायालय द्वारा साक्ष्य बुलाये जाने की अनुमति देना
15---ले जाना और बहलाकर ले जाना तथा चले जाना
16-----------बलात्कार एंव नापुन्सकता
17------------सहमति
18------------पराक्रम्य लिखत अधिनियम
19---------परिस्थितिजन्य साक्ष्य
20--------------सम्पत्ति अंतरण अधिनियम की धारा-3
21-----------धारा-149
22--------------सूचना का अधिकार अधिनियम-2005-एक परिचय             
23-------------टी0पी0एक्ट
24--------कौटुम्बिक प्रबंध आपसी तथ्य -



                     न्याय व्यवस्था


1--भारतीय न्याय व्यवस्था-समस्या और समाधान

2---न्याय तक पहुंच-कितने दूर कितने पास
3---भारत में अधिवक्ता व्यवसाय

4--भारतकासंविधानऔरपर्यावरणसंरक्षण   

          विधि संबंधी लेख 
1--सामान्य आशय    
2--सामान्य आशय, सामान्य उद्देश्य और खुली अथवा अचानक लडाई
3-----खुली अथवा अचानक लडाई
4---इलेक्ट्रानिक साक्ष्य
5--सरकार द्वारा या उसके विरूद्व वाद
6---आचरण की साक्ष्य
7--क्रूरता   
8--लोक न्यास
9--जाली लाइसेंस एंव बीमा कम्पनी का क्षति पूर्ति हेतु उत्तरदायित्व
10--मृत्यु कालीन कथन
                                          लेख
1-------व्यस्क मताधिकार
2------भारत का संविधान और समाजिक न्याय
3-----भारत में चुनाव सुधार और चुनाव आयोग के सामने चुनौतियां

                         बाबा अम्बेडकर

1--भारत के संविधान निर्माण में बाबा अम्बेडकर का योगदान   
2--डाॅ. भीमराव आम्बेडकर का जीवन और लक्ष्य
3--बाबा आम्बेडकर और नारी उत्थान


                     विधि संबधी समस्याएं
1--मूल अधिकारों का संरक्षण ...... व्यादेश के द्वारा
2---आपराधिक मामले...... आयु निर्धारण
3---बौद्धिक संपदा अधिकार
4---साक्ष्य अधिनियम ............निर्णयों की सुसंगता
5--संविदा के विनिर्दिष्ट अनुपालन ............ आधिपत्य का अनुतोष एवं
6-आज्ञप्ति के निष्पादन में विक्रय के संबध में सामान्य प्रक्रिया
7-गर्भपात से संबंधित विधि................ महिला भ्रूण हत्या ’’
8--दण्ड विधि (संशोधन)अध्यादेशए 2013................ धारा 376-ई
9--गौ वंश
10-गनशाट इन्जुरी

                                                बालक संबंधी विधि

1---संविधान में बच्चों से संबंधित विशेष प्रावधान
2--निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम
3---बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006
4--बाल मजदूरी
5--बालक अधिकार संरक्षण आयोग अधिनियम 2005
6-किशोर न्याय ( बालकों की देख-रेख तथा संरक्षण) अधिनियम 2000 एंव मध्य प्रदेश किशोर न्याय (बालको की देखरेख और संरक्षण) नियम, 2003 में बालको के कल्याण संबंधी दिये गये विशेष प्रावधान-
7---लापता बच्चों के संबंध में मान्नीय उच्चतम न्यायालय के दिशा निर्देश
8---किशोर न्याय
9--किशोर न्याय (बालकों की देख-रेख तथा संरक्षण)  अधिनियम 2000 एंव उसके नियमों के अधीन आयु निर्धारण


                                   महिलाओं संबंधी विधि 

1--संविधान में स्त्रीयों से संबंधित विशेष प्रावधान
2--देश मंे महिलाओं की स्थिति
3-महिलाओं की जन भागीधारी में संबिधान की भूमिका
4--दुष्कर्म क्रूरता की जांच के संबंध मे दिशा निर्देश
5--लैगिक अपराधो से बालको का संरक्षण अधिनियम 2012
6--महिला एंव बच्चो से संबधित कानून के क्र्रियान्वयन में आने वाली कठिनाई

        महिलाओ एव बच्चो संबंधी महत्वपूर्ण विधि

1--सूचना क्रांति   
2--घरेलू हिंसा
3-ग्राम न्यायालय
4--मोटर यान अधिनियम 1988
5-विवाह का रजिस्ट्र्ेशन
6--मानव अधिकार एंव आयोग

















 





मंगलवार, 20 अगस्त 2013

चिकित्सीय उपेक्षा के मामले में आपराधिक दायित्व की सीमा ?

चिकित्सीय उपेक्षा के मामले में आपराधिक दायित्व की सीमा ?

                                                माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा अनेक मामलों में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जब तक डाक्टर के द्वारा घोर उपेक्षा जानबूझकर घोर लापरवाही न की जाए तब तक उसके काम को अपराध की श्रेणी में नहीं माना जा सकता है।

                                                            घोर उपेक्षा को भा0दं0सं0 में परिभाषित नहीं किया गया है माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा इसे चिकित्सीय उपेक्षा के मामले में परिभाषित किया गया है। सामान्य अर्थ में उपेक्षा का अर्थ उस सतर्कता का अभाव है जिसको कि उन विशिष्ट परिस्थितियों में प्रयुक्त करना विधिक कत्र्तव्य होता है। उपेक्षा आशय के विपरीत एक मानसिक अवस्था को प्रदर्शित करती है जिसमें कि किसी विशिष्ट परिणाम कारित करने की इच्छा का अभाव रहता है। इसका अर्थ प्रमाद अथवा असावधानी ही है।

                                                  उपेक्षा मंे वह परिणाम की इच्छा नहीं की जाती है न ही उसके उत्पन्न करने के लिए कार्य कियाजाता है जो परिणाम उत्पन्न होते है संक्षेप में उपेक्षा का अर्थ दोषपूर्ण असावधानी है। उपेक्षा के मामले में पक्षकार वह कार्य नहीं करता है जिसके करने के लिए वह सक्षम है वह एक निश्चात्मक कत्र्तव्य का उल्लघन करता है यहां वह उस कार्य की ओर ध्यान नहीं देता है जिसको करनाउसका कत्र्तव्य है।

                                     इसलिए अनुचित चिकित्सा उपचार जिसमें कि सामान्य ज्ञान और कुशलता का अभाव होगा और जो सद्भावना पूर्वक नहीं किया गया हो वही चिकित्सीय उपचार उपेक्षा की श्रेणी में आता है। यदि कोई डाक्टरद्वारा अनुचित अशुद्ध उपचार सद्भावनापूर्वक सामान्य ज्ञान तथा कुशलतापूर्वक किया गया है तो वह कार्य अपराध की श्रेणी में नहीं आता है और केवल सिविल दायित्व ही उत्पन्न करता है।

                                      भा0दं0वि0 की धारा -88 92 93 में चिकित्सक द्वारा उनके समान अंन्य प्रोफेशनल व्यक्तियां को विशेष परिस्थितियों में कार्य किए जाने के लिए संरक्षण प्रदान किया गया है।

                             माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा चिकित्सक के कार्य को तब तक अपराधिक कार्य नहीं माना जा सकता है जब तक उसके द्वारा इलाज करने में तीव्र उपेक्षा व उच्च स्तर की लापरवाही नहीं बरती गयी है।

                                     माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा सुरेश गुप्ता बनाम राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली (2004)6 एस0सी0सी0-422 मे पारित दिशा निर्देशों के अनुसार चिकित्सीय उपचार के दौरान प्रत्येक दुर्घटना या मृत्यु के लिए चिकित्सीय व्यक्ति के खिलाफ सजा के लिए कार्यव्राही नहीं की जा सकती। उनके दोष को इंगित करते हुए पर्याप्त चिकित्सीय अभिमत के बिना चिकित्सगण का दांडिक अभियोजन समुदाय में आम जनता की गलत सेवा होगी, क्योंकि यदि न्यायालयें, अस्पतालों और चिकित्सकों पर प्रत्येक बात जो गलत होती है, के लिए दांडिक दायित्व अधिरोपित किया जाता है, तो चिकित्सकगण उनके रोगियों का सर्वोत्तम उपचार करने की अपेक्षा उनके स्वयं की सुरक्षा के बारे में अधिक चितिंत होगें। यह चिकित्सक और रोगी के मध्य आपसी विश्वास हिल जाने में परिणित होगा।



                                             चिकित्सक के अस्पताल या दवाखाना में प्रत्येक दुर्घटना या दुर्भाग्य उसका सदोष उपेक्षा के अपराध के लिए परीक्षण करने के लिए उपेक्षा का घोर कृत्य नहीं है। ृ इसी प्रकार माननीय उच्चतम न्यायालयेद्वारा जैकब मैथ्यु बनाम स्टेट आॅफ पंजाब, ए0आई0आर0 2005, सु0को0-3180 में यह अभिनिर्धारित किया है कि प्रोफेशनल व्यक्ति को उपेक्षा के लिए दो आधारों पर दायी माना जा सकता है। या तो उसके पास वह अपेक्षित कौशल न हो जिसके होने के संबंध में वह दर्शाता है अथवा उसके द्वारा युक्तियुक्त सक्षमता से कौशल न किया गया हो। यह निर्णीत करने के लिए कि व्यक्ति उपेक्षा का दोषी था अथवा नहीं मानक यह होगा कि क्या साधारण सक्षम व्यक्ति की तरह उस पेशे के साधारण कौशल काउपयोग किया गया था। यह स्पष्ट किया गया कि प्रत्येक प्रोफेशनल के लिए उस ब्रांच मे जिसमें कि वह प्रेक्टिस करता है उच्च स्तर की विशेषज्ञता को धारण करना अथवा कौशल को धारण करना संभव नहीं होता है।

                                              इसी प्रकरण में माननीय उच्चतम न्यायालयद्वारा आगे यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जब मरीज चिकित्सीय इलाज अथवा सर्जिकल आॅपरेशन के लिए सहमत होता है तो मेडिकल मेन के प्रत्येक उपेक्षावान कृत्य को आपराधिक होना नहीं कहा जा सकता है। इसे उसदशा में ही आपराधिक होना कहा जा सकता है जबकि चिकित्सकीय व्यक्ति घोर अक्षमता वाला प्रदर्शित करे अथवा उसके द्वारा घोर लापरवाही की गयी हो। मात्र अनवधानता अथवा कतिपय डिग्री की पर्याप्त केयर एवं सर्तकता का अभाव होने पर सिविल दायित्व ही सृजित होगां। इस आधार पर आपराधिक दायित्व सृजित नहीं होगा।

डा0 उषा बाधवा बनाम स्टेट आॅफ एम0पी0 2003(2)एम0पी0डब्ल्यु0एन0 -92,
 रूपलेखा बनाम स्टेट आॅफ एम0पी0 2006 (3) एम0पी0एल0जे0- 120 
डा0 अशोक लोधा बनाम स्टेट आॅफ एम0 पी0 2005 (3) एम0पी0एल0जे0-281
हसमुख बनाम स्टेट आॅफ एम0पी0-2005 क्रि0लाॅ0रि0-844 खुशलदास बनाम स्टेट 1959 एम0पी0एल0जे0-966 म0प्र0 1959 जे0एल0जे0-602 म0प्र0 ए0आई0आर0-1960 म0प्र0-50 आादि मामले में

                                        म0प्र0 उच्च न्यायालय द्वारा उपरोक्त अभिनिर्धारित सिद्धांतों के आधार पर चिकित्सीय उपेक्षा को वर्णित किया है।इस प्रकार चिकित्सीय कार्य तभी आपराधिक उपेक्षा की श्रेणी में आएगा:-

1 जब चिकित्सीय व्यक्ति घोर अक्षमता प्रदर्शित करें।

2 जब चिकित्सीय व्यक्ति द्वारा घोर उच्च स्तर की लापरवाही बरती जाए।

3 जब चिकित्सक के द्वारा युक्तियुक्त सक्षमता से उस कौशल का उपयोग न किया गया हो, जिसे वह धारण करता है।

4 जब चिकित्सक के द्वारा किए गए कार्य और निकाले गए इलाज केे परिणाम का प्रत्यक्ष निकटतम संबंध हो।

5 जब उसके द्वारा साधारण व्यक्ति की तरह अपने पेशे में धारण कौशल का साधारण तरीके से उपयोग किया गया है।

6 जब चिकित्सीय रिपोर्ट या अन्य चिकित्सक कीयह राय हो कि उचित इलाज नहीं हुआ है और चिकित्सक की राय के अनुसार कार्य तीव्रतापूर्वक अथवा अत्यधिक उपेक्षापूर्ण कृत्य की कोटि में आता है।

7 चिकित्सीय उपेक्षा में आपराधिक दायित्व के लिए रे ईप्सा लाक्यूटर (घटना स्वयं बोलती है) का सिद्धांत लागू नहीं होता है। क्योंकि यह नियम साक्ष्य की विषय वस्तु है और इसके आधार पर केवल सिविल दायित्व अपेक्षित किया जा सकता है

8 चिकित्सीय उपेक्षा का टेस्ट बाॅलम टेस्ट बोलम बनाम फीयर अस्पताल प्रबंधन समिति 1957 (2) आॅल0ई0आर0 118 में निर्धारित मानकों के अनुसार करना चाहिए अर्थात यदि कोई व्यक्ति चिकित्सीय विज्ञान से अथवा सर्जरी की प्रेक्टिस से पूरी तरह अनभिज्ञ हो ओैर वह इलाज करे अथवा आॅपरेशन करे तो उसके इस कृत्य के संबंध में गंभीर उपेक्षा अथवा तीव्रता का अनुमान
लगाया जा सकता है।

9 सिविल दायित्व और आपराधिक दायित्व में अंतर होता है कोई उपेक्षा सिविल दायित्व उत्पन्न कर सकती है, जरूरी नहीं कि वह आपराधिक दायित्व उत्पन्न करे। कतिपय डिग्री की पर्याप्त केयर एवं सर्तकता का अभाव होने पर सिविल दायित्व होता है। मात्र आवश्यक सर्तकता ध्यान देने या कोैशल अपनाने की मात्र कमी होने पर सिविल दायित्व उत्पन्न होताहै।

उपरोक्त दशाओं में चिकित्सक का कार्य अपराध की श्रेणी में आता है।

                                            यही कारण है कि माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा जैकब मैथ्यू के मामले में देश में बढ़ते डाक्टरों के विरूद्ध आपराधिक मामलों की संख्या को देखते हुए तथा ऐसे मामले मे डाक्टरों की अकारण गिरफतारी तथा डाक्टरों एवं मरीजों के बीच बढ़ते अविश्वास को देखते हुए सरकार को नियम बनाने निर्देशित किया गया है कि मेडिकल कौसिंल आफ इंडिया के साथ मिलकर उसेनियम बनाना चाहिए और मानक निर्धारित किया जाना चाहिए कि किस स्तर की उपेक्षा एवं लापरवाही अपराध दायित्व की श्रेणी में आती है।

इस संबंध में डाक्टरों की ऐसे मामलों में अकारणगिरफतारी न की जाए ऐसे दिशा निर्देश भी दिए गए है

सोमवार, 19 अगस्त 2013

धारा-306 और 107 भा0द0सं0

  धारा-306 और 107 भा0द0सं0 के अंतर्गत माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित  विधिक प्रतिपादनाऐ     
                                                 दुष्प्रेरण
        भा0दं0सं0 की ़धारा-107 दुष्प्रेरण से संबंधित है । जिसके अनुसार कोई व्यक्ति किसी बात के लिये  दुष्प्रेरण करता है । 

पहला-    उस काम को करने के लिय किसी व्यक्ति को उकसाता है या 

दूसरा-    उस बात को करने के लिये किसी षडयंत्र में एक या अधिक अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों   के साथ सम्मिलित होता है । यदि उस षडयंत्र के अनुसरण में और उस बात को      करने के उददेश्य से कोई कार्य    या अवैध लोप घटित हो जाये या 

तीसरा-    उस बात के लिये किये जाने में किसी कार्य या अवैध लोप व्दारा साश्य सहायता             करता है । 

        मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा 2010 भाग 4 मनीसा पेज एक एस0एस0 चीना विरूद्ध विजय कुमार महाजन एंव अन्य में अभिनिर्धारित किया है कि दुष्प्रेरण किसी व्यक्ति को उकसाने की मानसिक प्रक्रिया या एक व्यक्ति को कोई चीज करने के लिये आशयित करने हेतु अन्तर्वलित करता है । अभियुक्त व्दारा बिना उकसाने या आत्म हत्या करने में सहायता के व्दारा कोई  सकारात्मक कार्य किये । विधान का आशय और इस न्यायालय व्दारा विनिश्चित प्रकरणों का अनुपात स्पष्ट है कि धारा 306 के तहत एक व्यक्ति को दोषसिद्ध करने के अनुसरण में अपराध कारित करने की स्पष्ट आपराधिक मन स्थिति होना चाहिये। 

.        यह एक सजीव कार्य या प्रत्यक्ष कार्य भी आवश्यक करता है , जो मृतक को आत्म हत्या करने के अलावा  कोई अन्य विकल्प  नहीं देखते हुये प्रस्तुत करता है और कार्य मृतक को ऐसी स्थिति  में ढकेलने  के लिये आशयित होना चाहिये कि वह आत्म हत्या कारित करें ।

        यदि मृृतक निःसंदेह रूप से सामान्य चिडचिडेपन मनमुटाव और मतभेदों से अति संवेदनशील था जो हमारे दिन प्रतिदिन के जीवन में होते हैं । प्रत्येक व्यक्ति की मानवीय संवेदना  एक दूसरे से अलग होती है । भिन्न भिन्न लोग समान स्थिति में भिन्न भिन्न रूप से व्यवहार करते हैं ।तब हमे सावधानी से कार्य करना चाहिए ।

        रमेश कुमार विरूद्ध छत्तीसगढ़ राज्य 2001 भाग-9 एस.एस.सी. 618 न्यायालय ने उकसाहट को परिभाषित करते हुए स्पष्ट किया है कि उकसाहट किसी कार्य को करने के लिये उत्तेजित करने, भड़काने या उत्साहित करने हेतु अंकुश होता है । उकसाहट की अपेक्षाओं को संतुष्ट करने के लिये यद्यपि यह आवश्क नहीं है कि मूल शब्द इस निमित उपयोग होना चाहिये या जो उकसाहट गठित करते है । आवश्यक रूप से और विनिर्दिष्टता पूर्वक परिणाम को सुझााते हो फिर भी भडकाने की निश्चित युक्ति युक्त परिणाम को अर्थान्वयत  किया जाना चाहिये ।

        पश्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध होरीलाल जायसवाल-1994 भाग  1   एस0एस0सी0-73 में उच्चतम न्यायालय ने चेतावनी दी कि न्यायालय को प्रत्येक प्रकरण के तथ्य एंव परिस्थितियाॅ निर्धारित करने में स्पष्टतः सावधान करना चाहिये और परीक्षण में निष्कर्ष के प्रयोजन हेतु प्रस्तुत साक्ष्य में क्या पीडित इतनी कू्ररता की शिकार थी, वस्तुतः उसको आत्म हत्या कारित करने के व्दारा जीवन का अंत करने के लिये प्रेरित किया गया ।
        यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि पीडित ने आत्महत्या  अत्यधिक संवेदनशील सामान्य चिडचिडेपन, मनमुटाव औैर घरेलू जीवन में मत भेदो से कारित की थी ओर ऐसा चिडचिडापन, मनमुटाव और मतभेद सामान्यतः आत्महत्या कारित करने के लिये समाज में व्यक्ति को उकसाने हेतु अपेक्षित नहीं थे । न्यायालय का विवेक इस निष्कर्ष पर आधारित होने के लिये संतुष्ट नहीं होना चाहिये कि दुष्प्रेरण के आरोप का अभियुक्त आत्म हत्या के आरोप का दोषी होना पाया जाना चाहिये ।

        उच्चतम न्यायालय के द्वारा चित्रेश कुमार चैपडा बनाम दिल्ली राज्य 2009 भाग-16 एस0एस0सी 605 में दुष्प्रेरण पर विचार किया है। न्यायालय ने ‘‘उकसाहट‘‘ और ‘‘प्रेरित‘‘ करना ‘‘ शब्दो के डिकशनरी अर्थ को व्यवहत किया। न्यायालय ने अभिमत दिया कि कोई आश्य पत्र व्दारा किसी कार्य को करने के लिये उकसाने, भडकाने या उत्साहित करने के लिये नहीं होना चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति के आत्म हत्या करने की विधि एक दूसरे से अलग अलग होती है। प्रत्येक व्यक्ति के पास उसकी स्वंय का स्व-आदर और स्व-प्रतिष्ठा की योजना होती है । इसलिये ऐसे प्रकरणो को व्यवहत करने के लिये कोई निश्चित सूत्र  प्रतिपादित करना असंभव है । प्रत्येक प्रकरण उसके स्वय के तथ्यों एव परिस्थितियों के आधार पर विनिश्चित होना चाहिये ।
       




       

        विधि के सुस्थापित सिंद्धात के अनुसार भा0दं0वि0 की धारा 306 के आरोप में दंडित किये जाने के लिये दो तत्व आवश्यक है:-
    1-     यह कि एक व्यक्ति व्दारा आत्महत्या कारित करने के लिये उकसाना  या  प्रताडि़त             किये जाने के फलस्वरूव आत्म हत्या की गई है ।
    2-     यह कि आरोपी ने उसे आत्म हत्या करने के लिये दुष्प्रेरित किया।
        भा0दं0वि की धारा-107 और 306 का एक साथ पठन करने  पर यह स्पष्ट होता हेै कि यदि कोई व्यक्ति अन्य किसी व्यक्ति को आत्महत्या करने  को उकसाता है और ऐसे उकसाने के परिणाम स्वरूव दूसरा व्यक्ति आत्म हत्या करता है तो उकसाने वाला व्यक्ति धारा 306 भा0दं0वि0 के अंतर्गत उकसाने हेतु उत्तरदायी होता है ।  
 
        इसके लिये आवश्यक है कि आत्म हत्या करने वाले की मनोस्थिति एंव मरने वाले के लिये आत्म हत्या करने  के अलावा ओर कोई रास्ता नही बचा है । विधि के सुस्थापित सिद्धांत अनुसार क्र्रोध ,भावनावश जल्दबाजी में उठाये गये  कदम दुष्प्रेरण की श्रेणी में नहीं आते है ।
        अमलेन्दु पाल उर्फ झंटू बनाम पश्चिमी बंगाल राज्य, ए.आईआर.2010 एस.सी.-512- 2009 ए.आई.आर.एस.सी.डव्लू. 7070 वाले मामले में मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने मत व्यक्त किया है किः-इस न्यायालय ने सतत् यह दृष्टिकोण अपनाया है कि किसी अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के अधीन अपराध का दोषी ठहराने के लिये न्यायालय को मामले के तथ्यो और परिस्थ्तिियों की अति सावधानी पूर्वक परीक्षा करनी चाहिये और उसके समक्ष प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का भी यह निष्कर्ष निकालने के लिये अवधारणा करना चाहिये कि क्या विपदग्रस्त के साथ की गई क्रूरता ओर तंग करने के कारण उसके पास अपने जीवन का अंत करने के सिवाये कोई अन्य विकल्प नहीं बचा था।

         यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिये कि अभिकथित आत्महत्या दुष्प्रेरण के मामलो में आत्महत्या करने के लिये उकसाने के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्यो का सबूत होना चाहिये ।   घटना के सन्निकट समय पर अभियुक्त की ओर से किसी ऐसे सकारात्मक कार्य, जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया का अभाव होने के कारण भ0दं0वि0 की धारा 306 के निबंधनो में की गई दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है। 


        रणधीर सिंह बनाम पंजाब राज्य ,2004-13 एस.सी.सी. 120- ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 5097 - 2004 ए.आई.आर. एस.सी.डव्ल्यू 5832 किसी मामले को भारतीय दंड संहिता की धार 306 की परिधि के अंतर्गत आने के लिये मामला आत्महत्या का होना चाहिये और उक्त अपरध कारित करने में उस व्यक्ति जिसने कथित रूप से आत्महत्या करने के लिये दुष्प्रेरित किया था, द्वारा उकसाहट के किसी कार्य द्वारा या आत्महत्या करने के कार्य को सुकर बनाने के लिये कतिपय कार्य करके सक्रिय भूमिका अदा की जानी चाहिये । इसलिये उक्त अपराध से आरोपित व्यक्ति को भा0दंवि0 की धारा 306 के अधीन दोषसिद्व करने से पूर्व अभियोजन पक्ष द्वारा उस व्यक्ति द्वारा किये गये दुष्प्रेरण के कार्य को साबित और सिद्व किया जाना आवश्यक है । ‘‘

        ं मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 306 से संबंधित विधिक स्थिति को दोहराया है जो कि पैरा-12 ओर 13 में विस्तार से स्थापित हे । पैरा 12 और 13 इस प्रकार है:-

    ‘‘ दुष्पेरण किसी व्यक्ति को उकसाने या जानबूझकर कोई कार्य करने में सहायता करने की एक मानसिंक प्रक्रिया  है । षडयंत्र के मामलों में भी उस कार्य को करने के लिये षडयंत्र करने की मानसिंक प्रक्रिया अंतर्वलित होती है । इससे पूर्व कि यह कहा जा सके कि भा0दं0सं0 की धारा 306 के अधीन दुष्प्रेरित करने का अपराध किया गया है, ऐसी अत्यधिक सक्रिय भूमिका होनी अपेक्षित है जिसे उकसाने या किसी कार्य को करने में सहायता करने के रूप में वर्णित किया जा सके ।
        पश्चिमी बंगाल राजय बनाम उड़ीलाल जायसवाल 1994 1-एस.सी.सी. 73- ए.आई.आर.1994 एस.सी. 1418- 1994 क्रिमी.लाॅ जनरल 2104 वाले  मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया है कि न्यायालयों को यह निष्कर्ष निकालने के प्रयोजन के लिये कि क्या मृतिका के साथ की गई क्रूरता ने ही वास्तव में उसे आत्महत्या करके जीवन का अंत करने के लिये उत्प्रेरित किया था । प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों तथा विचारण में प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का अवधारणा करने में अत्यधिक सावधान रहना चाहिये।

        यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि आत्महत्या करने वाला विपदग्रस्त घरेलू जीवन में ऐसी सामान्य चिड़चिड़ी बातो, कलह ओर मतभेदो के प्रति अतिसंवेदनशील था जो उस समाज के लिये एक सामान्य बात है जिसमें विपदग्रस्त रहता है और ऐसे चिड़चिड़ेपन, कलह और मतभेदो में उस समाज में के किसी व्यक्ति से उसी प्रकार की परिस्थितियों में आत्महत्या करने की प्रत्याशा नहीं थी, तब न्यायालय की अंतश्चेतना का यह निष्कर्ष निकालने के लिये समाधान नहीं  होना चाहिये कि आत्महत्या के अपराध के दुष्प्रेरण के आरोप से अभियुक्त को दोषी ठहराया जाये । ‘‘
        मान्नीय उच्चतम न्यायालय के उपर उदघृत निर्णयों का परिशीलन करने पर यह बात ध्यान में रखी जानी आवश्यक है कि अभिकथित आत्महत्या के दुष्प्रेरण के मामलों मे आत्महत्या करने के लिये उकसाने का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्यो का सबूत होना चाहिये। घटना घटने के सन्निकट समय पर अभियुक्त की और से किसी ऐसे सकारात्मक कार्य, जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया ,का अभाव होने  के कारण भा0 दं0सं. की धारा 306 के निबंधनो में की गई दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है ।        
         इसलिये अपेक्षित यह हैकि जब तक घटना के सन्निकट समय पर अभियुक्त की ओर से किया गया कोई ऐसा सकारात्क कार्य नहीं है । जिसने आत्म हत्या करने वाले व्यक्ति को आत्महत्या करने  के लिये बाध्य किया , धारा 306 के अधीन दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है । धारा-306 भा0द0सं0 के अंतर्गत माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित विधिक प्रतिपादनाऐ-   

        अमलेन्दु पाल उर्फ झंटू बनाम पश्चिमी बंगाल राज्य, ए.आईआर.2010 एस.सी.-512- 2009 ए.आई.आर.एस.सी.डव्लू. 7070 वाले मामले में मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने मत व्यक्त किया है किः-इस न्यायालय ने सतत् यह दृष्टिकोण अपनाया है कि किसी अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के अधीन अपराध का दोषी ठहराने के लिये न्यायालय को मामले के तथ्यो और परिस्थ्तिियों की अति सावधानी पूर्वक परीक्षा करनी चाहिये और उसके समक्ष प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का भी यह निष्कर्ष निकालने के लिये अवधारणा करना चाहिये कि क्या विपदग्रस्त के साथ की गई क्रूरता ओर तंग करने के कारण उसके पास अपने जीवन का अंत करने के सिवाये कोई अन्य विकल्प नहीं बचा था।

         यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिये कि अभिकथित आत्महत्या दुष्प्रेरण के मामलो में आत्महत्या करने के लिये उकसाने के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्यो का सबूत होना चाहिये ।   घटना के सन्निकट समय पर अभियुक्त की ओर से किसी ऐसे सकारात्मक कार्य, जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया का अभाव होने के कारण भ0दं0वि0 की धारा 306 के निबंधनो में की गई दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है।

        रणधीर सिंह बनाम पंजाब राज्य ,2004-13 एस.सी.सी. 120- ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 5097 - 2004 ए.आई.आर. एस.सी.डव्ल्यू 5832 किसी मामले को भारतीय दंड संहिता की धार 306 की परिधि के अंतर्गत आने के लिये मामला आत्महत्या का होना चाहिये और उक्त अपरध कारित करने में उस व्यक्ति जिसने कथित रूप से आत्महत्या करने के लिये दुष्प्रेरित किया था, द्वारा उकसाहट के किसी कार्य द्वारा या आत्महत्या करने के कार्य को सुकर बनाने के लिये कतिपय कार्य करके सक्रिय भूमिका अदा की जानी चाहिये । इसलिये उक्त अपराध से आरोपित व्यक्ति को भा0दंवि0 की धारा 306 के अधीन दोषसिद्व करने से पूर्व अभियोजन पक्ष द्वारा उस व्यक्ति द्वारा किये गये दुष्प्रेरण के कार्य को साबित और सिद्व किया जाना आवश्यक है । ‘‘

3.        ं मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 306 से संबंधित विधिक स्थिति को दोहराया है जो कि पैरा-12 ओर 13 में विस्तार से स्थापित हे । पैरा 12 और 13 इस प्रकार है:-

    ‘‘ दुष्पेरण किसी व्यक्ति को उकसाने या जानबूझकर कोई कार्य करने में सहायता करने की एक मानसिंक प्रक्रिया  है । षडयंत्र के मामलों में भी उस कार्य को करने के लिये षडयंत्र करने की मानसिंक प्रक्रिया अंतर्वलित होती है । इससे पूर्व कि यह कहा जा सके कि भा0दं0सं0 की धारा 306 के अधीन दुष्प्रेरित करने का अपराध किया गया है, ऐसी अत्यधिक सक्रिय भूमिका होनी अपेक्षित है जिसे उकसाने या किसी कार्य को करने में सहायता करने के रूप में वर्णित किया जा सके ।
        पश्चिमी बंगाल राजय बनाम उड़ीलाल जायसवाल 1994 1-एस.सी.सी. 73- ए.आई.आर.1994 एस.सी. 1418- 1994 क्रिमी.लाॅ जनरल 2104 वाले  मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया है कि न्यायालयों को यह निष्कर्ष निकालने के प्रयोजन के लिये कि क्या मृतिका के साथ की गई क्रूरता ने ही वास्तव में उसे आत्महत्या करके जीवन का अंत करने के लिये उत्प्रेरित किया था । प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों तथा विचारण में प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का अवधारणा करने में अत्यधिक सावधान रहना चाहिये।

        यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि आत्महत्या करने वाला विपदग्रस्त घरेलू जीवन में ऐसी सामान्य चिड़चिड़ी बातो, कलह ओर मतभेदो के प्रति अतिसंवेदनशील था जो उस समाज के लिये एक सामान्य बात है जिसमें विपदग्रस्त रहता है और ऐसे चिड़चिड़ेपन, कलह और मतभेदो में उस समाज में के किसी व्यक्ति से उसी प्रकार की परिस्थितियों में आत्महत्या करने की प्रत्याशा नहीं थी, तब न्यायालय की अंतश्चेतना का यह निष्कर्ष निकालने के लिये समाधान नहीं  होना चाहिये कि आत्महत्या के अपराध के दुष्प्रेरण के आरोप से अभियुक्त को दोषी ठहराया जाये । ‘‘

        मान्नीय उच्चतम न्यायालय के उपर उदघृत निर्णयों का परिशीलन करने पर यह बात ध्यान में रखी जानी आवश्यक है कि अभिकथित आत्महत्या के दुष्प्रेरण के मामलों मे आत्महत्या करने के लिये उकसाने का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्यो का सबूत होना चाहिये। घटना घटने के सन्निकट समय पर अभियुक्त की और से किसी ऐसे सकारात्मक कार्य, जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया ,का अभाव होने  के कारण भा0 दं0सं. की धारा 306 के निबंधनो में की गई दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है ।   
           इसलिये अपेक्षित यह हैकि जब तक घटना के सन्निकट समय पर अभियुक्त की ओर से किया गया कोई ऐसा सकारात्क कार्य नहीं है । जिसने आत्म हत्या करने वाले व्यक्ति को आत्महत्या करने  के लिये बाध्य किया , धारा 306 के अधीन दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है । 

दुष्प्रेरण 

        भा0दं0सं0 की ़धारा-107 दुष्प्रेरण से संबंधित है । जिसके अनुसार कोई व्यक्ति किसी बात के लिये  दुष्प्रेरण करता है ।
पहला-    उस काम को करने के लिय किसी व्यक्ति को उकसाता है या
दूसरा-    उस बात को करने के लिये किसी षडयंत्र में एक या अधिक अन्य व्यक्ति या         व्यक्तियों के साथ सम्मिलित होता है । यदि उस षडयंत्र के अनुसरण में         और उस बात को करने के उददेश्य से कोई कार्यया अवैध लोप घटित हो         जाये या
तीसरा-    उस बात के लिये किये जाने में किसी कार्य या अवैध लोप व्दारा साश्य         सहायता करता है ।
        मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा 2010 भाग 4 मनीसा पेज एक एस0एस0 चीना विरूद्ध विजय कुमार महाजन एंव अन्य में अभिनिर्धारित किया है कि दुष्प्रेरण किसी व्यक्ति को उकसाने की मानसिक प्रक्रिया या एक व्यक्ति को कोई चीज करने के लिये आशयित करने हेतु अन्तर्वलित करता है । अभियुक्त व्दारा बिना उकसाने या आत्म हत्या करने में सहायता के व्दारा कोई  सकारात्मक कार्य किये । विधान का आशय और इस न्यायालय व्दारा विनिश्चित प्रकरणों का अनुपात स्पष्ट है कि धारा 306 के तहत एक व्यक्ति को दोषसिद्ध करने के अनुसरण में अपराध कारित करने की स्पष्ट आपराधिक मन स्थिति होना चाहिये।
.        यह एक सजीव कार्य या प्रत्यक्ष कार्य भी आवश्यक करता है , जो मृतक को आत्म हत्या करने के अलावा  कोई अन्य विकल्प  नहीं देखते हुये प्रस्तुत करता है और कार्य मृतक को ऐसी स्थिति  में ढकेलने  के लिये आशयित होना चाहिये कि वह आत्म हत्या कारित करें ।
        यदि मृृतक निःसंदेह रूप से सामान्य चिडचिडेपन मनमुटाव और मतभेदों से अति संवेदनशील था जो हमारे दिन प्रतिदिन के जीवन में होते हैं । प्रत्येक व्यक्ति की मानवीय संवेदना  एक दूसरे से अलग होती है । भिन्न भिन्न लोग समान स्थिति में भिन्न भिन्न रूप से व्यवहार करते हैं ।तब हमे सावधानी से कार्य करना चाहिए ।
        रमेश कुमार विरूद्ध छत्तीसगढ़ राज्य 2001 भाग-9 एस.एस.सी. 618 न्यायालय ने उकसाहट को परिभाषित करते हुए स्पष्ट किया है कि उकसाहट किसी कार्य को करने के लिये उत्तेजित करने, भड़काने या उत्साहित करने हेतु अंकुश होता है । उकसाहट की अपेक्षाओं को संतुष्ट करने के लिये यद्यपि यह आवश्क नहीं है कि मूल शब्द इस निमित उपयोग होना चाहिये या जो उकसाहट गठित करते है । आवश्यक रूप से और विनिर्दिष्टता पूर्वक परिणाम को सुझााते हो फिर भी भडकाने की निश्चित युक्ति युक्त परिणाम को अर्थान्वयत  किया जाना चाहिये ।
        पश्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध होरीलाल जायसवाल-1994 भाग-1 एस0एस0 सी0-73 में उच्चतम न्यायालय ने चेतावनी दी कि न्यायालय को प्रत्येक प्रकरण के तथ्य एंव परिस्थितियाॅ निर्धारित करने में स्पष्टतः सावधान करना चाहिये और परीक्षण में निष्कर्ष के प्रयोजन हेतु प्रस्तुत साक्ष्य में क्या पीडित इतनी कू्ररता की शिकार थी, वस्तुतः उसको आत्म हत्या कारित करने के व्दारा जीवन का अंत करने के लिये प्रेरित किया गया।
        यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि पीडित ने आत्महत्या  अत्यधिक संवेदनशील सामान्य चिडचिडेपन, मनमुटाव औैर घरेलू जीवन में मत भेदो से कारित की थी ओर ऐसा चिडचिडापन, मनमुटाव और मतभेद सामान्यतः आत्महत्या कारित करने के लिये समाज में व्यक्ति को उकसाने हेतु अपेक्षित नहीं थे । न्यायालय का विवेक इस निष्कर्ष पर आधारित होने के लिये संतुष्ट नहीं होना चाहिये कि दुष्प्रेरण के आरोप का अभियुक्त आत्म हत्या के आरोप का दोषी होना पाया जाना चाहिये ।
        उच्चतम न्यायालय के द्वारा चित्रेश कुमार चैपडा बनाम दिल्ली राज्य 2009 भाग-16 एस0एस0सी 605 में दुष्प्रेरण पर विचार किया है। न्यायालय ने ‘‘उकसाहट‘‘ और ‘‘प्रेरित‘‘ करना ‘‘ शब्दो के डिकशनरी अर्थ को व्यवहत किया। न्यायालय ने अभिमत दिया कि कोई आश्य पत्र व्दारा किसी कार्य को करने के लिये उकसाने, भडकाने या उत्साहित करने के लिये नहीं होना चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति के आत्म हत्या करने की विधि एक दूसरे से अलग अलग होती है। प्रत्येक व्यक्ति के पास उसकी स्वंय का स्व-आदर और स्व-प्रतिष्ठा की योजना होती है । इसलिये ऐसे प्रकरणो को व्यवहत करने के लिये कोई निश्चित सूत्र  प्रतिपादित करना असंभव है । प्रत्येक प्रकरण उसके स्वय के तथ्यों एव परिस्थितियों के आधार पर विनिश्चित होना चाहिये ।
        विधि के सुस्थापित सिंद्धात के अनुसार भा0दं0वि0 की धारा 306 के आरोप में दंडित किये जाने के लिये दो तत्व आवश्यक है:-
    1-     यह कि एक व्यक्ति व्दारा आत्महत्या कारित करने के लिये उकसाना  या          प्रताडि़त  किये जाने के फलस्वरूव आत्म हत्या की गई है ।
    2-     यह कि आरोपी ने उसे आत्म हत्या करने के लिये दुष्प्रेरित किया।
        भा0दं0वि की धारा-107 और 306 का एक साथ पठन करने  पर यह स्पष्ट होता हेै कि यदि कोई व्यक्ति अन्य किसी व्यक्ति को आत्महत्या करने  को उकसाता है और ऐसे उकसाने के परिणाम स्वरूव दूसरा व्यक्ति आत्म हत्या करता है तो उकसाने वाला व्यक्ति धारा 306 भा0दं0वि0 के अंतर्गत उकसाने हेतु उत्तरदायी होता है ।   
        इसके लिये आवश्यक है कि आत्म हत्या करने वाले की मनोस्थिति एंव मरने वाले के लिये आत्म हत्या करने  के अलावा ओर कोई रास्ता नही बचा है । विधि के सुस्थापित सिद्धांत अनुसार क्र्रोध ,भावनावश जल्दबाजी में उठाये गये  कदम दुष्प्रेरण की श्रेणी में नहीं आते है ।
  धारा-306 और 107 भा0द0सं0 के अंतर्गत माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित                            विधिक प्रतिपादनाऐ                              दुष्प्रेरण
        भा0दं0सं0 की ़धारा-107 दुष्प्रेरण से संबंधित है । जिसके अनुसार कोई व्यक्ति किसी बात के लिये  दुष्प्रेरण करता है ।
पहला-    उस काम को करने के लिय किसी व्यक्ति को उकसाता है या
दूसरा-    उस बात को करने के लिये किसी षडयंत्र में एक या अधिक अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों         के साथ सम्मिलित होता है । यदि उस षडयंत्र के अनुसरण में और उस बात को             करने के उददेश्य से कोई कार्य    या अवैध लोप घटित हो जाये या
तीसरा-    उस बात के लिये किये जाने में किसी कार्य या अवैध लोप व्दारा साश्य सहायता             करता है ।
        मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा 2010 भाग 4 मनीसा पेज एक एस0एस0 चीना विरूद्ध विजय कुमार महाजन एंव अन्य में अभिनिर्धारित किया है कि दुष्प्रेरण किसी व्यक्ति को उकसाने की मानसिक प्रक्रिया या एक व्यक्ति को कोई चीज करने के लिये आशयित करने हेतु अन्तर्वलित करता है । अभियुक्त व्दारा बिना उकसाने या आत्म हत्या करने में सहायता के व्दारा कोई  सकारात्मक कार्य किये । विधान का आशय और इस न्यायालय व्दारा विनिश्चित प्रकरणों का अनुपात स्पष्ट है कि धारा 306 के तहत एक व्यक्ति को दोषसिद्ध करने के अनुसरण में अपराध कारित करने की स्पष्ट आपराधिक मन स्थिति होना चाहिये।
.        यह एक सजीव कार्य या प्रत्यक्ष कार्य भी आवश्यक करता है , जो मृतक को आत्म हत्या करने के अलावा  कोई अन्य विकल्प  नहीं देखते हुये प्रस्तुत करता है और कार्य मृतक को ऐसी स्थिति  में ढकेलने  के लिये आशयित होना चाहिये कि वह आत्म हत्या कारित करें ।
        यदि मृृतक निःसंदेह रूप से सामान्य चिडचिडेपन मनमुटाव और मतभेदों से अति संवेदनशील था जो हमारे दिन प्रतिदिन के जीवन में होते हैं । प्रत्येक व्यक्ति की मानवीय संवेदना  एक दूसरे से अलग होती है । भिन्न भिन्न लोग समान स्थिति में भिन्न भिन्न रूप से व्यवहार करते हैं ।तब हमे सावधानी से कार्य करना चाहिए ।
        रमेश कुमार विरूद्ध छत्तीसगढ़ राज्य 2001 भाग-9 एस.एस.सी. 618 न्यायालय ने उकसाहट को परिभाषित करते हुए स्पष्ट किया है कि उकसाहट किसी कार्य को करने के लिये उत्तेजित करने, भड़काने या उत्साहित करने हेतु अंकुश होता है । उकसाहट की अपेक्षाओं को संतुष्ट करने के लिये यद्यपि यह आवश्क नहीं है कि मूल शब्द इस निमित उपयोग होना चाहिये या जो उकसाहट गठित करते है । आवश्यक रूप से और विनिर्दिष्टता पूर्वक परिणाम को सुझााते हो फिर भी भडकाने की निश्चित युक्ति युक्त परिणाम को अर्थान्वयत  किया जाना चाहिये ।
        पश्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध होरीलाल जायसवाल-1994 भाग  1   एस0एस0सी0-73 में उच्चतम न्यायालय ने चेतावनी दी कि न्यायालय को प्रत्येक प्रकरण के तथ्य एंव परिस्थितियाॅ निर्धारित करने में स्पष्टतः सावधान करना चाहिये और परीक्षण में निष्कर्ष के प्रयोजन हेतु प्रस्तुत साक्ष्य में क्या पीडित इतनी कू्ररता की शिकार थी, वस्तुतः उसको आत्म हत्या कारित करने के व्दारा जीवन का अंत करने के लिये प्रेरित किया गया ।
        यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि पीडित ने आत्महत्या  अत्यधिक संवेदनशील सामान्य चिडचिडेपन, मनमुटाव औैर घरेलू जीवन में मत भेदो से कारित की थी ओर ऐसा चिडचिडापन, मनमुटाव और मतभेद सामान्यतः आत्महत्या कारित करने के लिये समाज में व्यक्ति को उकसाने हेतु अपेक्षित नहीं थे । न्यायालय का विवेक इस निष्कर्ष पर आधारित होने के लिये संतुष्ट नहीं होना चाहिये कि दुष्प्रेरण के आरोप का अभियुक्त आत्म हत्या के आरोप का दोषी होना पाया जाना चाहिये ।
        उच्चतम न्यायालय के द्वारा चित्रेश कुमार चैपडा बनाम दिल्ली राज्य 2009 भाग-16 एस0एस0सी 605 में दुष्प्रेरण पर विचार किया है। न्यायालय ने ‘‘उकसाहट‘‘ और ‘‘प्रेरित‘‘ करना ‘‘ शब्दो के डिकशनरी अर्थ को व्यवहत किया। न्यायालय ने अभिमत दिया कि कोई आश्य पत्र व्दारा किसी कार्य को करने के लिये उकसाने, भडकाने या उत्साहित करने के लिये नहीं होना चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति के आत्म हत्या करने की विधि एक दूसरे से अलग अलग होती है। प्रत्येक व्यक्ति के पास उसकी स्वंय का स्व-आदर और स्व-प्रतिष्ठा की योजना होती है । इसलिये ऐसे प्रकरणो को व्यवहत करने के लिये कोई निश्चित सूत्र  प्रतिपादित करना असंभव है । प्रत्येक प्रकरण उसके स्वय के तथ्यों एव परिस्थितियों के आधार पर विनिश्चित होना चाहिये ।
       




       
        विधि के सुस्थापित सिंद्धात के अनुसार भा0दं0वि0 की धारा 306 के आरोप में दंडित किये जाने के लिये दो तत्व आवश्यक है:-
    1-     यह कि एक व्यक्ति व्दारा आत्महत्या कारित करने के लिये उकसाना  या  प्रताडि़त             किये जाने के फलस्वरूव आत्म हत्या की गई है ।
    2-     यह कि आरोपी ने उसे आत्म हत्या करने के लिये दुष्प्रेरित किया।
        भा0दं0वि की धारा-107 और 306 का एक साथ पठन करने  पर यह स्पष्ट होता हेै कि यदि कोई व्यक्ति अन्य किसी व्यक्ति को आत्महत्या करने  को उकसाता है और ऐसे उकसाने के परिणाम स्वरूव दूसरा व्यक्ति आत्म हत्या करता है तो उकसाने वाला व्यक्ति धारा 306 भा0दं0वि0 के अंतर्गत उकसाने हेतु उत्तरदायी होता है ।   
        इसके लिये आवश्यक है कि आत्म हत्या करने वाले की मनोस्थिति एंव मरने वाले के लिये आत्म हत्या करने  के अलावा ओर कोई रास्ता नही बचा है । विधि के सुस्थापित सिद्धांत अनुसार क्र्रोध ,भावनावश जल्दबाजी में उठाये गये  कदम दुष्प्रेरण की श्रेणी में नहीं आते है ।
        अमलेन्दु पाल उर्फ झंटू बनाम पश्चिमी बंगाल राज्य, ए.आईआर.2010 एस.सी.-512- 2009 ए.आई.आर.एस.सी.डव्लू. 7070 वाले मामले में मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने मत व्यक्त किया है किः-इस न्यायालय ने सतत् यह दृष्टिकोण अपनाया है कि किसी अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के अधीन अपराध का दोषी ठहराने के लिये न्यायालय को मामले के तथ्यो और परिस्थ्तिियों की अति सावधानी पूर्वक परीक्षा करनी चाहिये और उसके समक्ष प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का भी यह निष्कर्ष निकालने के लिये अवधारणा करना चाहिये कि क्या विपदग्रस्त के साथ की गई क्रूरता ओर तंग करने के कारण उसके पास अपने जीवन का अंत करने के सिवाये कोई अन्य विकल्प नहीं बचा था।

         यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिये कि अभिकथित आत्महत्या दुष्प्रेरण के मामलो में आत्महत्या करने के लिये उकसाने के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्यो का सबूत होना चाहिये ।   घटना के सन्निकट समय पर अभियुक्त की ओर से किसी ऐसे सकारात्मक कार्य, जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया का अभाव होने के कारण भ0दं0वि0 की धारा 306 के निबंधनो में की गई दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है।
        रणधीर सिंह बनाम पंजाब राज्य ,2004-13 एस.सी.सी. 120- ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 5097 - 2004 ए.आई.आर. एस.सी.डव्ल्यू 5832 किसी मामले को भारतीय दंड संहिता की धार 306 की परिधि के अंतर्गत आने के लिये मामला आत्महत्या का होना चाहिये और उक्त अपरध कारित करने में उस व्यक्ति जिसने कथित रूप से आत्महत्या करने के लिये दुष्प्रेरित किया था, द्वारा उकसाहट के किसी कार्य द्वारा या आत्महत्या करने के कार्य को सुकर बनाने के लिये कतिपय कार्य करके सक्रिय भूमिका अदा की जानी चाहिये । इसलिये उक्त अपराध से आरोपित व्यक्ति को भा0दंवि0 की धारा 306 के अधीन दोषसिद्व करने से पूर्व अभियोजन पक्ष द्वारा उस व्यक्ति द्वारा किये गये दुष्प्रेरण के कार्य को साबित और सिद्व किया जाना आवश्यक है । ‘‘
        ं मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 306 से संबंधित विधिक स्थिति को दोहराया है जो कि पैरा-12 ओर 13 में विस्तार से स्थापित हे । पैरा 12 और 13 इस प्रकार है:-
    ‘‘ दुष्पेरण किसी व्यक्ति को उकसाने या जानबूझकर कोई कार्य करने में सहायता करने की एक मानसिंक प्रक्रिया  है । षडयंत्र के मामलों में भी उस कार्य को करने के लिये षडयंत्र करने की मानसिंक प्रक्रिया अंतर्वलित होती है । इससे पूर्व कि यह कहा जा सके कि भा0दं0सं0 की धारा 306 के अधीन दुष्प्रेरित करने का अपराध किया गया है, ऐसी अत्यधिक सक्रिय भूमिका होनी अपेक्षित है जिसे उकसाने या किसी कार्य को करने में सहायता करने के रूप में वर्णित किया जा सके ।
        पश्चिमी बंगाल राजय बनाम उड़ीलाल जायसवाल 1994 1-एस.सी.सी. 73- ए.आई.आर.1994 एस.सी. 1418- 1994 क्रिमी.लाॅ जनरल 2104 वाले  मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया है कि न्यायालयों को यह निष्कर्ष निकालनेेेेेेेेेेेेे के प्रयोजन के लिये कि क्या मृतिका के साथ की गई क्रूरता ने ही वास्तव में उसे आत्महत्या करके जीवन का अंत करने के लिये उत्प्रेरित किया था । प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों तथा विचारण में प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का अवधारणा करने में अत्यधिक सावधान रहना चाहिये।
        यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि आत्महत्या करने वाला विपदग्रस्त घरेलू जीवन में ऐसी सामान्य चिड़चिड़ी बातो, कलह ओर मतभेदो के प्रति अतिसंवेदनशील था जो उस समाज के लिये एक सामान्य बात है जिसमें विपदग्रस्त रहता है और ऐसे चिड़चिड़ेपन, कलह और मतभेदो में उस समाज में के किसी व्यक्ति से उसी प्रकार की परिस्थितियों में आत्महत्या करने की प्रत्याशा नहीं थी, तब न्यायालय की अंतश्चेतना का यह निष्कर्ष निकालने के लिये समाधान नहीं  होना चाहिये कि आत्महत्या के अपराध के दुष्प्रेरण के आरोप से अभियुक्त को दोषी ठहराया जाये । ‘‘
        मान्नीय उच्चतम न्यायालय के उपर उदघृत निर्णयों का परिशीलन करने पर यह बात ध्यान में रखी जानी आवश्यक है कि अभिकथित आत्महत्या के दुष्प्रेरण के मामलों मे आत्महत्या करने के लिये उकसाने का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्यो का सबूत होना चाहिये। घटना घटने के सन्निकट समय पर अभियुक्त की और से किसी ऐसे सकारात्मक कार्य, जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया ,का अभाव होने  के कारण भा0 दं0सं. की धारा 306 के निबंधनो में की गई दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है ।        
         इसलिये अपेक्षित यह हैकि जब तक घटना के सन्निकट समय पर अभियुक्त की ओर से किया गया कोई ऐसा सकारात्क कार्य नहीं है । जिसने आत्म हत्या करने वाले व्यक्ति को आत्महत्या करने  के लिये बाध्य किया , धारा 306 के अधीन दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है ।