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गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

पारिस्थितिक साक्ष्य

                         पारिस्थितिक साक्ष्य

.        न्याय दृष्टांत पडाला वीरा रेड्डी विरूद्ध आंध्र प्रदेश राज्य और अन्य, ए.आई.आर. 1990 एस.सी.79 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहा मामला पारिस्थितिक साक्ष्य पर आधारित होता है वहा ऐसे साक्ष्य को निम्नलिखित कसौटियों को संतुष्ट करना चाहिए:-

(1)    वे परिस्थितिया जिनसे दोषिता का निष्कर्ष निकाले जाने की ईप्सा की गई है, तर्कपूर्ण और दृढ़ता से साबित की जानी चाहिए,

(2)    वे परिस्थितियां निश्चित प्रवृत्ति की होनी चाहिए जिनसे अभियुक्त की दोषिता बिना किसी त्रुटि के इंगित होती हो,

(3)    परिस्थितियों को संचयी रूप से लिए जाने पर उनसे एक श्रृंखला इतनी पूर्ण होनी चाहिए कि इस निष्कर्ष से न बचा जा सके कि समस्त मानवीय संभाव्यता में अपराध अभियुक्त द्वारा कारित किया गया था और किसी अन्य व्यक्ति द्वारा नहीं, और

(4)    दोषसिद्धि को मान्य ठहराने के लिए पारिस्थितिक साक्ष्य पूर्ण होनी चाहिए और अभियुक्त की दोषिसिद्धि से भिन्न कोई अन्य संकल्पना के स्पष्टीकरण के अयोग्य होनी चाहिए और ऐसा साक्ष्य न केवल अभियुक्त की दोषसिद्धि के संगत होनी चाहिए अपितु यह उसकी निर्दोषिता से भी असंगत होनी चाहिए।’’


2.        न्याय दृष्टांत उत्तर प्रदेश राज्य बनाम अशोक कुमार, 1992 क्रि.ला.ज. 1104 के मामले में यह उल्लेख किया गया था कि पारिस्थितिक साक्ष्य का मूल्यांकन करने में गहन सतर्कता बरती जानी चाहिए और यदि अवलंब लिए गए साक्ष्य के आधार पर युक्तियुक्त रूप से दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हों तब अभियुक्त के पक्ष वाला निष्कर्ष स्वीकार किया जाना चाहिए।

 यह भी उल्लेख किया गया था कि अवलंब ली गई परिस्थितिया पूर्णतया साबित हुई पाई जानी चाहिए और इस प्रकार साबित किए गए सभी तथ्यों का संचयी प्रभाव केवल दोषिता की संकल्पना से संगत होना चाहिए।

3.        माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने देवनंदन मिश्र विरूद्ध बिहार राज्य, 1955 ए.आई.आर. 801 के मामले में यह विधिक प्रतिपादन किया है कि जहा अभियुक्त के विरूद्ध अभियोजन द्वारा विभिन्न सूत्र समाधानप्रद रूप से सिद्ध कर दिये गये हैं एवं परिस्थतिथिया अभियुक्त को संभाव्य हमलावर, युक्तियुक्त निष्चितता और समय तथा स्थिति के बाबत् मृतक के सानिध्य में बताती है, अभियुक्त के स्पष्टीकरण की ऐसी अनुपस्थिति या मिथ्या स्पष्टीकरण अतिरिक्त सूत्र के रूप में श्रृंखला को अपने आप पूरा कर देगा। स्पष्टीकरण के अभाव अथवा मिथ्या स्पष्टीकरण को श्रृंखला पूरा करने वाली अतिरिक्त कड़ी के रूप में उस दषा में प्रयुक्त किया जा सकता है, जबकि:-

(1)    अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य से श्रृंखला की विभिन्न कडिया समाधानप्रद रूप से साबित कर दी गयी हों।

(2)    ये परिस्थितिया युक्तियुक्त निष्चितता के साथ अभियुक्त की दोषिता का संकेत देती हों, और

(3)    यह परिस्थितिया समय की स्थिति की दृष्टि से नैकट्य में हो।

4.        इस क्रम में न्याय दृष्टांत शंकरलाल ग्यारसीलाल दीक्षित विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 1981 सु.को. 765 भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है।

 न्याय दृष्टांत महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध सुरेश (2000)1 एस.सी.सी. 471 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि दोषिता-कारक परिस्थिति के विषय में पूछे जाने पर अभियुक्त द्वारा उसका असत्य उत्तर एक ऐसी परिस्थिति को निर्मित करेगा जो परिस्थिति-जन्य श्रृंखला की गुमशुदा कडी के रुप में प्रयुक्त की जा सकेगी।




1  पारिस्थितिक साक्ष्य के मूल्यांकन के संबंध में इस विधिक स्थिति को ध्यान में रखना आवश्यक है कि जहा साक्ष्य पारिस्थितिक स्वरूप की होती है, वहा ऐसी परिस्थितिया, जिनसे दोष संबंधी निष्कर्ष निकाला जाना है, प्रथमतः पूरी तरह से साबित की जानी चाहिये और इस प्रकार से साबित किये गये सभी तथ्यों को केवल अभियुक्त के दोष की उपकल्पना से संगत होना चाहिये। पुनः परिस्थितियों को निश्चयात्मक प्रकृति और प्रवृत्ति का होना चाहिये और उन्हें ऐसा होना चाहिये, जिससे कि दोषिता साबित किये जाने के लिये प्रस्थापित उपकल्पना के सिवाय अन्य प्रत्येक उपकल्पना अपवर्जित हो जाये। अन्य शब्दों में साक्ष्य की ऐसी श्रंखला होनी चाहिये, जो इस सीमा तक पूर्ण हो, कि जिससे अभियुक्त की निर्दोषिता से संगत निष्कर्ष के लिये कोई भी युक्तियुक्त आधार न रह जाये और उसे ऐसा होना चाहिये, जिससे यह दर्शित हो जाये कि सभी मानवीय अधिसंभाव्यनाओं के भीतर अभियुक्त ने वह कार्य अवश्य ही किया होगा,

 संदर्भ:- हनुमंत गोविन्द नारंगढ़कर बनाम म.प्र.राज्य, ए.आई.आर. 1952 एस.सी. 3431,

 चरणसिंह बनाम उत्तरप्रदेश राज्य, ए.आई.आर. 1967(सु.को.) 5201 एवं आशीष बाथम विरूद्ध म.प्र.राज्य 2002(2) जे.एल.जे. 373 (एस.सी.)।







’हेतुक’

                                ’हेतुक’


                                          ’हेतुक’  एक गुह्य मानसिक स्थिति है, जो मनुष्य की उपचेतना  में निवास करती है। इसके द्वारा ही मन कार्य की ओर अग्रसर होता है।

 विधि शास्त्री सामण्ड ने इसे अंतरस्थ आषय की संज्ञा दी है। ’हेतुक’ वह भीतरी प्रेरणा है, जो किसी कार्य के लिये गुप्त रूप से मन को उकसाती है। अंतःपरक होने के कारण ’हेतुक’ को प्रमाणित करना कठिन होता है, क्योंकि उसकी जानकारी केवल अपराधकर्ता को ही होती है।

 विधि का यह सुनिष्चित सिद्धांत है कि जहा हत्या के संबंध में अभियुक्त के विरूद्ध निष्चित, संगत, स्पष्ट एवं विष्वसनीय साक्ष्य उपलब्ध हो, ऐसी परिस्थितियों में हत्या के ’हेतुक’ को प्रमाणित करना महत्वपूर्ण नहीं रह जाता है
, संदर्भ:- अमरजीतसिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, 1995 क्रि.ला.रि.(सु.को.) 495 ।

 जब हत्या का अपराध साक्ष्य से भली-भाति प्रमाणित हो तब ’हेतुक’ प्रमाणित करना अभियोजन के लिये आवष्यक नहीं है, 
संदर्भ:- सुरेन्द्र नारायण उर्फ मुन्ना विरूद्ध उत्तर प्रदेष राज्य, 1197 ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू. 4156 ।


 न्याय दृष्टांत दिल्ली प्रषासन विरूद्ध सुरेन्द्र पाल जैन, उच्चतम न्यायालय निर्णय पत्रिका 1985 दिल्ली-333 में इस क्रम में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि मानव प्रकृति एक अत्यधिक जटिल चीज है। कोई व्यक्ति क्या करता है, यह अनेक बातों पर निर्भर होता है।

 ऐसे मामले भी हो सकते हैं, जहा ’हेतुक’ पता चल जाये किन्तु ऐसे मामले भी हो सकते हैं, जिनमें ’हेतुक’ का कतई पता न चले। ’हेतुक’ के सबूत का अभाव अपने आप में उन निष्कर्षों को अस्वीकार करने के लिये विकल्प प्रदान नहीं करता है, जो अन्यथा तथ्यों और साक्ष्य के समूह से युक्तियुक्त एवं न्यायोचित रूप से निकाले जा सकते हों।






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1.        अभिग्रहित वस्तुओं पर रक्त की मौजूदगी तथा उसकी प्रजाति एवं प्रवर्ग संबंधी साक्ष्य के मूल्य के विषय में विधिक स्थिति की तह तक पहुचने के लिये कतिपय न्याय दृष्टांतों का संदर्भ आवष्यक है।

 जह कंसा बेहरा विरूद्ध उड़ीसा राज्य, ए.आई.आर. 1987 सु.को. 1507 के मामले में अभिग्रहीत वस्तुओं पर पाये गये रक्त समूह का मृतक के रक्त समूह से समरूप पाया जाना एक निर्णायक व निष्चयात्मक दोषिताकारक परिस्थिति माना गया है,


  पूरनसिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, 1989 क्रिमिनल ला रिपोर्टर एस.सी. 12 के मामले में अभियुक्त से अभिग्रहीत वस्तु पर सीरम विज्ञानी द्वारा प्रतिवेदित मानव रक्त की मौजूदगी को, जिसके रक्त समूह का पता नहीं लग सका था, पर्याप्त संपुष्टिकारक साक्ष्य माना गया।



 न्याय दृष्टांत रामस्नेही विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1984 एम.पी.डब्ल्यू.एन. 342 के मामले में अभिग्रहीत वस्तुओं पर केवल रक्त की उपस्थिति, जिसके स्त्रोत का पता नहीं लग सका था, को भी संपुष्टिकारक साक्ष्य माना गया है।


 माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने राजस्थान राज्य विरूद्ध तेजाराम, 1999 (भाग-3) सु.को.केसेस 507 के मामले में यह सुस्पष्ट विधिक प्रतिपादन किया गया है कि यह नहीं कहा जा सकता है कि उन सभी मामलों में जहा रक्त के स्त्रोत का पता नहीं चल सका है, अभिग्रहीत वस्तु पर रक्त की उपस्थ्तिसे प्रकट परिस्थिति को अनुपयोगी मानकर रद्द कर दिया जायेगा।

मृत्युकालिक कथन

                                        मृत्युकालिक कथन

1  न्याय दृष्टांत आंध्रप्रदेष राज्य विरूद्ध गुब्बा सत्यनारायण, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 101 में पीडिता को अस्पताल में भर्ती कराये जाने के समय उसने चिकित्सक को यह बताया था कि वह दुर्घटनावष आग से जल गयी है, चिकित्सक के द्वारा अपने प्रतिवेदन में अंकित की गयी इस टीप को मृत्युकालिक कथन मानते हुये यह ठहराया गया कि ऐसे कथन पर, जो प्रथम उपलब्ध अवसर पर दिया गया है तथा जिसके बारे में ऐसी कोई आंषका नहीं है कि मृतिका उस समय सचेत हालत मे नहीं थी, अविष्वास करने का कोई कारण नहीं है

2     न्याय दृष्टांत रमन कुमार विरूद्ध पंजाब राज्य, 2009 क्रि.ला.ज. 3034 एस.सी. के मामले में भी उपचार शीट में आहत व्यक्ति द्वारा दी गयी इस जानकारी को कि गैस स्टोव जलाते समय अचानक आग लग जाने से घटना घटित हुयी है, मृत्युकालिक कथन के रूप में स्वीकार्य माना गया।

 3    न्याय दृष्टांत प्रकाष विरूद्ध कर्नाटक राज्य, (2007) 3 एस.सी.सी. (क्रिमिनल) 704 के मामले में आहत व्यक्ति को अस्पताल ले जाये जाने के तुरंत बाद पुलिस अधिकारी ने उसका मृत्युकालिक कथन लेखबद्ध किया था, जिसमें उसने दुर्घटना के कारण आग लगना बताया था, इस कथन को मामले की परिस्थितियों में मृत्युकालिक कथन के रूप मं विष्वास योग्य ठहराया गया।

-4.        मरणासन्न कथन साक्ष्य अधिनियम की धारा 32(1) के अंतर्गत सुसंगत एवं ग्राह्य है। किसी व्यक्ति के द्वारा अपनी मृत्यु के एकदम निकट आ जाने के समय किये गये मरणासन्न कथन की एक विषेष सम्माननीयता है क्योंकि उस नितांत गम्भीर क्षण में यह संभावना बहुत ही कम है कि कोई व्यक्ति कोई असत्य कथन करेगा। आसन्न मृत्यु की आहट का सुनायी देने लग जाना अपने आप में उस कथन के सत्य होने की गारंटी है जो मृतक के द्वारा उन कारणों और परिस्थितियों के संबंध में किया जाता है जिनकी परिणति उसकी मृत्यु में हुयी है। अतः साक्ष्य के एक भाग के रूप में मृत्युकालिक कथन की स्थिति अतिपवित्र है क्योंकि वह उस व्यक्ति के द्वारा किया गया होता है जो मृत्यु का आखेट बना है। 

एक बार जब मरने वाले व्यक्ति का कथन और उसे प्रमाणित करने वाले साक्षियों की साक्ष्य न्यायालयों की सावधानीपूर्ण संवीक्षा की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाये तब वह साक्ष्य का बहुत ही महत्वपूर्ण और निर्भरणीय भाग बन जाता है और यदि न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि मृत्युकालिक कथन सच्चा है और किसी भी बनावटीपन से मुक्त है, तो ऐसा मृत्युकालिक कथन अपने आप में ही, किसी सम्पुष्टि की तलाष के बिना ही, दोष-सिद्धि को लेखबद्ध करने के लिये पर्याप्त हो सकता है, बषर्तें वह मृतक के द्वारा तब किये गये हो जब वह स्वस्थ मानसिक स्थिति में था, संदर्भ:- कुंदुला बाला सुब्रहमण्यम बनाम आंधप्रदेष राज्य, 1993(2) एस.सी.सी. 684.

 एवं पी.वी.राधाकृष्ण विरूद्ध कर्नाटक राज्य, 2003(6) एस.सी.सी. 443



.  5      पुलिस अधिकारी के समक्ष किया गया मृत्युकालिक कथन स्वीकार्य है तथापि अन्वेषण अधिकारी द्वारा मृत्युकालिक कथन के अभिलिखित किये जाने की प्रथा को हतोत्साहित किया गया है और माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने इस बात पर बल दिया है कि अन्वेषण अधिकारी मृत्युकालिक कथन अभिलिखित किये जाने हेतु मजिस्ट्रेट की सेवाओं का उपयोग करें, यदि ऐसा करना संभव हो। 

इसका एक मात्र अपवाद तब है जब मृतक इतनी संकटपूर्ण स्थिति में हो कि सिवाय इसके कोई अन्य विकल्प शेष न रह जाये कि कथन को अन्वेषण अधिकारी या पुलिस अधिकारी के द्वारा अभिलिखित किया जाये और बाद में उसके ऊपर मृत्युकालिक कथन के रूप मं निर्भर रहा जाये,

 संदर्भ:- श्रीमती लक्ष्मी विरूद्ध ओमप्रकाष आदि, ए.आई.आर. 2001 सु.को. 2383.
 न्याय दृष्टांत मुन्नु राजा व अन्य विरूद्ध म.प्र.राज्य, ए.आई.आर. 1976 सु.को. 2199

 के मामले अन्वेषण अधिकारी के द्वारा लेखबद्ध किये गये मृत्युकालिक कथन को इस आधार पर अपवर्जित कर दिया गया कि उसे अभिलिखित किये जाने के लिये मजिस्ट्रेट की सेवाओं की अध्यपेक्षा करने पर हुयी विफलता के लिये कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया था। 


7.        न्याय दृष्टांत लक्ष्मण विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 2002 एस.सी. 2973 के मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय की पाच सदस्यीय संविधान पीठ ने यह सुस्पष्ट विधिक अभिनिर्धारण किया है कि मरणासन्न कथन को इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है कि चिकित्सक के द्वारा मरणासन्न व्यक्ति की कथन देने बाबत् मानसिक सक्षमता का प्रमाण-पत्र नहीं लिया गया है। इस मामले में यह ठहराया गया है कि मरणासन्न कथन लेखबद्ध करने वाले कार्यपालक मजिस्ट्रेट की यह साक्ष्य पर्याप्त है कि कथन देने वाला व्यक्ति कथन देने की सक्षम मनःस्थिति में था।


मृतिका द्वारा मृत्यु की परिस्थितियों के संबंध में माता-पिता एवं परिचितों को बतायी गयी बातों को भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 32(1) के अंतर्गत सुसंगत ठहराया गया है तथा उस क्रम में मृतिका द्वारा क्रूर व्यवहार के बारे में माता-पिता आदि को बतायी गयी बातें भी सुसंगत है, संदर्भ:- शरद विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 1984 सु.को. 1622.



साक्ष्य का मूल्यंाकन

                                     साक्ष्य के मूल्यांकन




1                                 विधिक स्थिति सुस्थापित है कि पुलिस अधिकारी की साक्ष्य का मूल्यंकन भी उसी प्रकार तथा उन्हीं मानदण्डों के आधार पर किया जाना चाहिये, जिस प्रकार अन्य साक्षियों की अभिसाक्ष्य का मूल्यांकन किया जाता है तथा किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को यांत्रिक तरीके से मात्र इस आधार पर रद्द कर देना कि वह एक पुलिस अधिकारी है, अथवा मात्र संपुष्टि के अभाव में पुलिस अधिकारी की अभिसाक्ष्य को अस्वीकृत करना न्यायिक दृष्टिकोण नहीं है,

 संदर्भ:- करमजीतसिंह विरूद्ध राज्य (2003) 5 एस.सी.सी. 291 एवं बाबूलाल विरूद्ध म.प्र.राज्य 2004 (2) जेेे.एल.जे. 425

2.        पुलिस अधिकारी की अभिसाक्ष्य के मूल्यांकन एवं विष्लेषण के संबंध में यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि यदि विष्लेषण एवं परीक्षण के बाद ऐसी साक्ष्य विष्वास योग्य है तो उसके आधार पर दोषिता का निष्कर्ष निकालने में कोई अवैधानिकता नहीं है,
 संदर्भ:- करमजीतसिंह विरूद्ध दिल्ली राज्य (2003)5 एस.सी.सी. 291 एवं नाथूसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य ए.आई.आर. 1973 एस.सी. 2783.


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3                   किसी साक्षी को पक्ष-विरोधी घोषित कर दिये जाने मात्र से उसकी अभिसाक्ष्य पूरी तरह नहीं धुल जाती है, अपितु न्यायालय ऐसी अभिसाक्ष्य का सावधानीपूर्वक विष्लेषण कर उसमें से ऐसे अंष को, जो विष्वसनीय एवं स्वीकार किये जाने योग्य है, निष्कर्ष निकालने का आधार बना सकती है।

 इस संबंध में न्याय दृष्टांत खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, ए.आई.आर.-1991 (एस.सी.)-1853 में किया गया प्रतिपादन तथा दाण्डिक विधि संषोधन अधिनियम, 2005 के द्वारा भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 154 में किया गया संषोधन भी दृष्ट्व्य है, जिसकी उपधारा-1 यह प्रावधित करती है कि किसी साक्षी से धारा 154 के अंतर्गत मुख्य परीक्षण में ऐसे प्रष्न पूछने की अनुमति दिया जाना, जो प्रतिपरीक्षण में पूछे जा सकते हैं, उस साक्षी की अभिसाक्ष्य के किसी अंष पर निर्भर किये जाने में बाधक नहीं होगी।



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4                           वस्तुतः ऐसी कोई विधि नहीं है कि ऐसे साक्षियों, जो नातेदार है, के कथनों पर केवल नातेदार होने के कारण विष्वास न किया जाये। प्रायः यह देखा जाता है कि अधिकतर अपराध आहतों के आवास पर और ऐसे असामान्य समय में कारित किये जाते हैं जिनके दौरान नातेदारों के अलावा किसी अन्य की उपस्थिति की आषा नहीं की जा सकती। अतः यदि नातेदारों के कथनों पर केवल उनके नातेदार होने के आधार पर अविष्वास किया जाता है तो ऐसी परिस्थितियों में अपराध साबित करना लगभग असंभव हो जायेगा। तथापि, सावधानी के नियम की, जिसके द्वारा न्यायालय मार्गदर्षित है, यह अपेक्षा है कि ऐसे साक्षियों के कथनों की समीक्षा (जाॅच) किसी स्वतंत्र साक्षी की तुलना में अधिक सावधानी के साथ की जानी चाहिये।


 उपरोक्त दृष्टिकोण उच्चतम न्यायालय द्वारा दरियासिंह बनाम पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 328 वाले मामले में अभिव्यक्त मत से समर्थित है, जिसमें प्रकट किया गया है कि  ’’इस बात पर कोई संदहे नहीं किया जा सकता कि हत्या के मामले में जब साक्ष्य, आहत के निकट नातेदार द्वारा दी जाती है और हत्या कुटुम्ब (परिवार) के शत्रु द्वारा की जानी अभिकथित की गयी हो तो दांडिक न्यायालयों को आहत के निकट नातेदारों की परीक्षा अत्यधिक सावधानी से करनी चाहिये। किन्तु कोई व्यक्ति नातेदार या अन्यथा होने के कारण आहत में हितबद्ध हो सकता है और आवष्यक रूप से अभियुक्त का विरोधी नहीं हो सकता। ऐसी दषा में में इस तथ्य से, कि साक्षी आहत व्यक्ति का नातेदार था या उसका मित्र था, अपनी साक्ष्य में आवष्यक रूप से कोई कमी नहीं छोड़ेगा। किन्तु जहा साक्षी आहत का निकट नातेदार है और यह उपदर्षित होता है कि वह आहत के हमलावर के विरूद्ध आहत व्यक्ति का साथ देगा तो दांडिक न्यायालयों के लिये स्वाभाविक रूप से यह अनिवार्य हो जाता है कि वे ऐसे साक्षियां की परीक्षा अत्यधिक सावधानी से करे और उस पर कार्यवाही करने से पूर्व ऐसी साक्ष्य की कमियों की समीक्षा कर ले।’’

5.        उच्चतम न्यायालय ने कार्तिक मल्हार बनाम बिहार राज्य, जे.टी. 1995(8) एस.सी. 425 वाले मामले में भी ऐसी ही मताभिव्यक्ति   की:-
    ’’ ............... हम यह भी मत व्यक्त करते हैं कि इस आधार में कि चॅकि साक्षी निकट का नातेदार है और परिणामस्वरूप यह एक पक्षपाती साक्षी है, इसलिये उसके साक्ष्य का अवलंब नहीं लिया जाना चाहिये, कोई बल नहीं है।’’ 


6        इस दलील को कि हितबद्ध साक्षी विष्वास योग्य नहीं होता है माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने पहले भी दिलीप सिंह (ए.आई.आर. 1953 एस.सी. 364) वाले मामले में खारिज कर दिया था। इस मामले में न्यायालय ने बार के सदस्यों के मस्तिष्क में यह धारणा होने पर अपना आष्चर्य प्रकट किया था कि नातेदार स्वतंत्र साक्षी नहीं माने जा सकते हैं। न्यायालय की ओर से न्यायमूर्ति विवियन बोस ने यह मत व्यक्त किया: -
        ’’हम उच्च न्यायालय के न्यायाधीषों से इस बात पर सहमत होने में असमर्थ हैं कि दो प्रत्यक्षदर्षी साक्षियां के परिसाक्ष्य के लिये पुष्टि अपेक्षित है। यदि ऐसी मताभिव्यक्ति की बुनियाद ऐसे तथ्य पर आधारित है कि साक्षी महिलायें हंऔर सात पुरूषों का भाग्य उनकी परिसाक्ष्य पर निर्भर है, तो हमें ऐसे नियम की जानकारी नहीं है। यदि यह इस तथ्य पर आधारित है कि वे मृतक के निकट नातेदार है तो हम इससे सहमत होने में असमर्थ हैं। यह भ्रम अनेक दांडिक मामलों में सामान्य रूप से व्याप्त है और इस न्यायालय की एक अन्य खण्डपीठ ने भी आहत रामेष्वर बनाम राजस्थान राज्य (1952 एस.सी.आर.377 = ए.आई.आर. 1950 एस.सी. 54) वाले मामले में इस भ्रम को दूर करने का प्रयास किया है। तथापि दुर्भाग्यवष यह अभी भी, यदि न्यायालयों के निर्णयों में नहीं तो कुछ सीमा तक काउन्सेलों की दलीलों में उपदर्षित होता है।’’


-यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को, यदि वह अन्यथा विष्वास योग्य है, इस आधार पर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि ऐसी साक्ष्य हितबद्ध अथवा रिष्तेदार साक्षी है।  

लेकिन उच्चतम न्यायालय ने कार्तिक मल्हार बनाम बिहार राज्य, जे.टी. 1995(8) एस.सी. में यह मताभिव्यक्ति की है कि इस दलील में कोई बल नहीं है कि एक साक्षी निकट रिश्तेदार है और परिणामस्वरूप वह एक पक्षपाती साक्षी है इसलिये उसकी साक्ष्य का अवलंब नहीं लिया जाना चाहिये। दिलीप सिंह आदि विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1953 एस.सी. 364 के मामले का संदर्भ लेते हुये उक्त मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी प्रकट किया है कि दिलीप सिंह के मामले में न्यायालय द्वारा बार के सदस्यों के मस्तिष्क में व्याप्त इस धारणा पर आश्चर्य प्रकट किया गया था कि नातेदार स्वतंत्र साक्षी नहीं होेते हैं। दिलीप सिंह (पूर्वोक्त) के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह मताभिव्यक्ति की गयी है कि अनेक दाण्डिक मामलों में यह भ्रम सामान्य रूप से व्याप्त है कि मृतक के निकट रिश्तेदारों की साक्ष्य पर निर्भर नहीं किया जा सकता है, लेकिन रामेश्वर बनाम राजस्थान राज्य, ए.आई.आर. 1950 एस.सी. 54 वाले मामले में इस भ्रम को दूर करने का प्रयास किया गया है। तथापि दुर्भाग्यवश यह अभी भी, यदि न्यायालयों के निर्णयों में नहीं तो कुछ सीमा तक अधिवक्ताओं की दलीलों में उपदर्शित होता है। न्याय दृष्टांत उ.प्र.राज्य विरूद्ध वल्लभदास आदि, ए.आई.आर., 1985 एस.सी. 1384 में यह विधिक प्रतिपादन भी किया गया है कि वर्गों में विभाजित ग्रामीण अंचलों में निष्पक्ष साक्षियों का उपलब्ध होना लगभग असम्भव है।



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7                                   न्याय दृष्टांत भरवादा भोगिन भाई हिरजी भाई विरूद्ध गुजरात राज्य ए.आई.आर. 1983 एस.सी. 753 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया जाना कि तुच्छ विसंगतियों को विशेष महत्व नहीं दिया जाना चाहिये क्योंकि सामान्यतः न तो किसी साक्षी से चलचित्रमय स्मृति अपेक्षित है और न ही यह अपेक्षित है कि वह घटना का पुर्नप्रस्तुतीकरण वीडियो टेपवत् करे। सामान्यतः घटना की आकस्मिकता, घटनाओं के विश्लेषण, विवेचना एवं अंगीकार की मानसिक क्षमताओं को प्रतिकूलतः प्रभावित करती है तथा यह स्वाभाविक रूप से संभव नहीं है कि किसी बड़ी घटना के सम्पूर्ण विवरण को यथावत् मस्तिष्क में समाया जा सके। इसके साथ-साथ लोगों के आंकलन, संग्रहण एवं पुनप्र्रस्तुति की मानसिक क्षमताओं में भी भिन्नता होती है तथा एक ही घटनाक्रम को यदि विभिन्न व्यक्ति अलग-अलग वर्णित करें तो उसमें अनेक भिन्नतायें होना कतई अस्वाभाविक नहीं है तथा एसी भिन्नतायें अलग-अलग व्यक्तियों की अलग-अलग ग्रहण क्षमता पर निर्भर करती है। इस सबके साथ-साथ परीक्षण के समय न्यायालय का माहौल तथा भेदक प्रति-परीक्षण भी कभी-कभी साक्षियों को कल्पनाओं के आधार पर तात्कालिक प्रश्नों की रिक्तियों को पूरित करने की और इस संभावना के कारण आकर्षित करता है कि कहीं उत्तर न दिये जाने की दशा में उन्हें मूर्ख न समझ लिया जाये। जो भी हो, मामले के मूल तक न जाने वाले तुच्छ स्वरूप की प्रकीर्ण विसंगतिया साक्षियों की विश्वसनीयता को प्रभावित नहीं कर सकती है। इस विषय में न्याय दृष्टांत उत्तर प्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 1998 भी अवलोकनीय है।

6  प्रथम सूचना रिपोर्ट मामले की वृहद ज्ञानकोष नहीं है कि उसमें घटना से संबंधित प्रत्येक विषिष्टि का उल्लेख हो। प्राथमिकी मूलतः आपराधिक विधि को गतिषील बनाने के लिये होती है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत बलदेव सिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 372 सुसंगत एवं अवलोकनीय है। न्याय दृष्टांत उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध वल्लभदास, ए.आई.आर. 1985 (एस.सी.) 1384 के मामले से संबंधित प्रथम सूचना रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख नहीं था कि मृतक पर लाठी से प्रहार किया गया, इस व्यतिक्रम/लोप को मामले के लिये घातक नहीं माना गया।

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7    यदि किसी तथ्य की जानकारी पुलिस को पूर्व से रही है तो ऐसे तथ्य के बारे में अभियुक्त द्वारा दी गयी सूचना भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 के अंतर्गत ’तथ्य के उद्घाटन’ ; की परिधि में नहीं आती है।

 संदर्भ:- अहीर राजा खेमा विरूद्ध सौराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 1956 एस.सी. 217 ।
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8   एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य अगर अंतर्निहित गुणवत्तापूर्ण है तथा उसमें कोई तात्विक लोप या विसंगति नहीं है तो उसे मात्र इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता है कि वह एकल साक्षी है अथवा संबंधी साक्षी है अथवा हितबद्ध साक्षी है। संदर्भ:- सीमन उर्फ वीरामन विरूद्ध राज्य, 2005(2) एस.सी.सी. 142।

 न्याय दृष्टांत लालू मांझी व एक अन्य विरूद्ध झारखण्ड राज्य, 2003(2) एस.सी.सी. 401 में यह स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि ऐसे मामले हो सकते हैं, जहा किसी घटना विषेष के संबंध में केवल एक ही साक्षी की अभिसाक्ष्य उपलब्ध हो, ऐसी स्थिति में न्यायालय को ऐसी साक्ष्य का सावधानीपूर्वक परीक्षण कर यह देखना चाहिये कि क्या ऐसी साक्ष्य दुर्बलताओं से मुक्त या विसंगति विहीन है।


9 .        न्याय दृष्टांत वादी वेलूथुआर विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में किया गया यह विधिक प्रतिपादन भी इस क्रम में सुसंगत एवं दृष्ट्व्य है कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर यांत्रिक तरीके से अविष्वसनीय ठहराकर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसकी साक्ष्य की संपुष्टि नहीं होती है, क्योंकि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत संपुष्टि का नियम सावधानी एवं प्रज्ञा का नियम है, विधि का नियम नहीं है। जहा किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य विष्लेषण एवं परीक्षण के पष्चात् विष्वसनीय है, वहा उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित करने में कोई अवैधानिकता नहीं हो सकती है।


10   एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य के आधार पर दोष-सिद्धि निष्कर्षित किये जाने के विषय में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा न्याय दृष्टांत वादीवेलु थेवार विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत किसी तथ्य को प्रमाणित करने के लिये किसी विषिष्ट संख्या में साक्षियों की आवष्यकता नहीं होती है, लेकिन यदि न्यायालय के समक्ष यदि एक मात्र साक्षी की अभिसाक्ष्य है तो ऐसी साक्ष्य को उसकी गुणवत्ता के आधार पर 3 श्रेणी में रखा जा सकता है:-
    प्रथम -  पूर्णतः विष्वसनीय,
    द्वितीय - पूर्णतः अविष्वसनीय, एवं
    तृतीय - न तो पूर्णतः विष्वसनीय और न ही पूर्णतः अविष्वसनीय।

11.        उक्त मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि प्रथम दो स्थितियों में साक्ष्य को अस्वीकार या रद्द करने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती है, लेकिन तृतीय श्रेणी के मामलों में कठिनाई स्वाभाविक है तथा ऐसी स्थिति में न्यायालय को न केवल सजग रहना चाहिये, अपितु निर्भरता योग्य पारिस्थतिक या प्रत्यक्ष साक्ष्य से सम्पुष्टि की मांग भी की जानी चाहिये। बचाव पक्ष के विद्वान अधिवक्ता द्वारा अवलंबित न्याय दृष्टांत लल्लू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 854 में उक्त विधिक प्रतिपादन को पुनः दोहराया गया है।
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.धारा 498(ए) के अंतर्गत शारीरिक या मानसिक क्रूरता

                         .धारा 498(ए) के अंतर्गत शारीरिक या मानसिक क्रूरता

 1...धारा 498(ए) के अंतर्गत शारीरिक या मानसिक क्रूरता की परिधि में रखना संभव नहीं है, क्योंकि आम तौर पर परिवार में यह स्थिति होती है कि जहा पति यथोचित रूप से उर्पाजन नहीं करता है वहा न केवल पत्नी और बच्चों की उचित देखभाल नहीं होती है अपितु आये दिन विवाद की स्थिति भी उत्पन्न होती है। लेकिन ऐसी स्थिति को ’संहिता’ की धारा 498(ए) के उद्देष्य के लिये मानसिक या शारीरिक क्रूरता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। इस संबध् में न्याय दृष्टांत पष्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध ओरिलाल जैसवाल ए.आई.आर. 1994 एस.सी. 1418 में किया गया प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है। 




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2....        उक्त क्रम में यह स्पष्ट करना असंगत नहीं होगा कि ’संहिता’ की धारा 498(ए)(ए) में क्रूरता को जिस रूप में परिभाषित किया गया हे, वह केवल शारीरिक क्रूरता तक सीमित नहीं है, अपितु मानसिक प्रताड़नापूर्ण क्रूरता भी उसकी परिधि में आती है।

 इस संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पश्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध ओरीलाल जायसवाल एवं एक अन्य, 1994 क्रि.ला.ज. 2104 के मामले में यह ठहराया है कि मृतिका पुत्र वधु के साथ उसकी सास के द्वारा ’गाली-गलौच एवं दुव्र्यवहार’ के रूप मं किया गया व्यवहार भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113(ए) एवं ’संहिता’ की धारा 498(ए) के संबंध में क्रूरतापूर्ण व्यवहार है।

4.        जहा तक क्रूरता स्थापित करने के लिये साक्ष्य का संबंध है, सामान्यतः विवाहित महिला के पति अथवा उसके रिश्तदारों के द्वारा प्रश्नगत उत्पीड़न एवं क्रूर व्यवहार चूकि सामान्यतः सार्वजनिक रूप से नहीं किया जाता है, अपितु घर की चारदीवारी के अंदर किये जाने वाले ऐसे व्यवहार के बारे में यह सावधानी भी बरती जाती है कि जनसामान्य की नजर  से ऐसा व्यवहार छुपा रहे, इसलिये ऐसे व्यवहार के संबंध में पड़ोसियों की अभिसाक्ष्य का अभाव प्रतिकूल निष्कर्ष निकालने का आधार नहीं बन सकता है तथा सामान्यतः मृतका के माता-पिता, संबंधी एवं मित्रों को मृतका द्वारा इस बारे में बतायी गयी बातें ही साक्ष्य के रूप में रपस्तुत की जा सकती है,

 संदर्भ:- पश्चिमी बंगाल राज्य वि. ओरीलाल जायसवाल, ए.आई.आर. 1994 सु.को. 1418 एवं विकास पाथी वि. आंध्रप्रदेश राज्य, 1989 क्रि.ला.ज. 1186 आंध्रप्रदेश। 


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5.        यह सर्वविदित है कि एक के बाद एक नये विधिक प्रावधानों के अधिनियमन के उपरांत भी विवाहित महिलाओं के प्रति होने वाले अत्याचार की घटनाओं में कमी नहीं आयी है।

 न्याय दृष्टांत कर्नाटक राज्य विरूद्ध एम.व्ही.मंजूनाथे गौड़ा, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 809 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रकट किया है कि इस बारे में किये गये विधायन के प्रति न्यायालयों को संवेदनषील बनाया जाना आवष्यक है तथा ऐसे मामलों में उदार दृष्टिकोण अपनाया जाना सामाजिक हितों के अनुरूप नहीं होगा। 










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’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास का अपराध

             ’संहिता’ की धारा-307  हत्या के प्रयास का अपराध


1.        ’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास का अपराध गठित करने के लिये यह देखना आवश्यक है कि चोट की प्रकृति क्या थी, चोट कारित करने के लिये किस स्वरूप के हथियार का प्रयोग, कितने बल के साथ किया गया। घटना के समय प्र्रहारकर्ता ने अपना मनोउद्देश्य किस रूप से तथा किन शब्दों को प्रकट किया ? उसका वास्तविक उद्देश्य क्या था ? आघात के लिये आहत व्यक्ति के शरीर के किन अंगों को चुना गया ? आघात कितना प्रभावशाली था ? उक्त परिस्थितियों के आधार पर ही यह अभिनिर्धारित किया जा सकता है कि वास्तव में अभियुक्त का उद्देश्य हत्या कारित करना था अथवा नहीं
, संदर्भ:- म.प्र.राज्य बनाम रामदीन एवं पाच अन्य-1990, करेन्ट क्रिमिनल जजमेंट्स 228.
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2.        धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे। यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है।

 संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437


3.        महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध बलराम बामा पाटिल, ए.आई.आर 1983 सु.को. 305 में ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि एवं विस्तार पर विचार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा-307 के अंतर्गत दोष-सिद्धि को उचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि वास्तविक रूप से कारित उपहति की प्रकृति अभियुक्त के मंतव्य के बारे में विनिश्चय करने में पर्याप्त सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा मंतव्य अन्य परिस्थितियों के आधार पर भी तथा कतिपय मामलों में वास्तविक उपहति के संदर्भ के बिना भी विनिश्चय किया जा सकता है।

4  धारा-307 अभियुक्त के कृत्य तथा उसके परिणाम के बीच विभेद करती है तथा जहा तक आहत व्यक्ति का संबंध है, यद्यपि कृत्य से वैसा परिणाम नहीं निकला हो लेकिन फिर भी अभियुक्त इस धारा के अधीन दोषी हो सकता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि पहुचायी गयी उपहति परिस्थितियों के सामान्य क्रम में आहत की मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। न्यायालय को वस्तुतः यह देखना है कि अभियुक्त का कृत्य उसके परिणाम से भिन्न क्या ’संहिता’ की धारा 300 में प्रावधित आशय अथवा ज्ञान की परिस्थितियों के साथ किया गया।

5.            ’प्रयत्न’ का विधि एवं तथ्यों से गठन होता है। जो प्रकरण में विद्यमान परिस्थितियों पर निर्भर रहते हैं। धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे। यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है,

 संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437.




7.        म.प्र.राज्य विरूद्ध सलीम उर्फ चमरू एवं एक अन्य (2005) 5 एस.सी.सी. 554 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के अंतर्गत दोषसिद्धि को न्यायोचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो, जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि चोट की प्रकृति, अभियुक्त के आशय का पता लगाने में सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा आशय मामले की अन्य परिस्थितियों तथा कतिपय मामलों में कारित चोट के संदर्भ के बिना भी पता लगाया जा सकता है। इस मामले में स्पष्ट रूप से यह ठहराया गया है कि मामले को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के अंतर्गत लाने के लिये यह कतई आवश्यक नहीं है कि आहत को पहुचायी गयी चोट, प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो, अपितु यह देखा जाना चाहिये कि क्या कृत्य ऐसे आशय अथवा ज्ञान के साथ किया गया है जैसा धारा में उल्लिखित है। इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक न्याय दृष्टांतों का संदर्भ देते हुये यह स्पष्ट किया है कि केवल यह तथ्य कि आहत के मार्मिक शारीरिक अवयव क्षतिग्रस्त नहीं हुये हैं, अपने आप में उसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के बाहर नहीं ले जा सकता है।
 , संदर्भ:- हरिजन नारायण विरूद्ध स्टेट आफ आन्ध्रप्रदेष ए.आई.आर.-2003 एस.सी. -2851


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8.        ’संहिता’ की धारा 307 के अपराध के संबंध में न्याय दृष्टांत सरजू प्रसाद विरूद्ध बिहार राज्य, ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 843 में यह प्रतिपादित किया गया है कि मामले को ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि में रखने के लिये यह प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि ’संहिता’ की धारा 300 में वर्णित तीन प्रकार के आषयों में से कोई आषय अथवा ज्ञान की स्थिति उस समय विद्यामन थी, जबकि प्रहार किया गया तथा अभियुक्त की मनःस्थिति घटना के समय विद्यमान साम्पाष्र्विक परिस्थितियों के आधार पर तय की जानी चाहिये।


9.        उक्त क्रम में विधिक स्थिति की तह तक जाने के लिये कतिपय न्याय दृष्टांतों का संदर्भ भी समीचीन होगा। न्याय दृष्टांत महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध बलराम बामा पाटिल, ए.आई.आर 1983 सु.को. 305 में ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि एवं विस्तार पर विचार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा-307 के अंतर्गत दोष-सिद्धि को उचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि वास्तविक रूप से कारित उपहति की प्रकृति अभियुक्त के मंतव्य के बारे में विनिश्चय करने में पर्याप्त सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा मंतव्य अन्य परिस्थितियों के आधार पर भी तथा कतिपय मामलों में वास्तविक उपहति के संदर्भ के बिना भी विनिश्चय किया जा सकता है। धारा-307 अभियुक्त के कृत्य तथा उसके परिणाम के बीच विभेद करती है तथा जहा तक आहत व्यक्ति का संबंध है, यद्यपि कृत्य से वैसा परिणाम नहीं निकला हो लेकिन फिर भी अभियुक्त इस धारा के अधीन दोषी हो सकता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि पहुॅचायी गयी उपहति परिस्थितियों के सामान्य क्रम में आहत की मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। न्यायालय को वस्तुतः यह देखना है कि अभियुक्त का कृत्य उसके परिणाम से भिन्न क्या ’संहिता’ की धारा 300 में प्रावधित आशय अथवा ज्ञान की परिस्थितियों के साथ किया गया।


10.        ’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास का अपराध गठित करने के लिये यह देखना आवश्यक है कि चोट की प्रकृति क्या थी, चोट कारित करने के लिये किस स्वरूप के हथियार का प्रयोग, कितने बल के साथ किया गया। घटना के समय प्र्रहारकर्ता ने अपना मनोउद्देश्य किस रूप से तथा किन शब्दों को प्रकट किया ? उसका वास्तविक उद्देश्य क्या था ? आघात के लिये आहत व्यक्ति के शरीर के किन अंगों को चुना गया ? आघात कितना प्रभावशाली था ? उक्त परिस्थितियों के आधार पर ही यह अभिनिर्धारित किया जा सकता है कि वास्तव में अभियुक्त का उद्देश्य हत्या कारित करना था अथवा नहीं,

 संदर्भ: म.प्र.राज्य बनाम रामदीन एवं पाॅच अन्य-1990, करेन्ट क्रिमिनल जजमेंट्स 228.
11.        धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुॅचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे। यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है। संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437.
12.        उपरोक्त विधिक स्थिति से यह सुप्रकट है कि अभियुक्तगण के आषय के निर्धारण में उसके द्वारा कार्य की निरंतरता, चोटें कारित करने हेतु अवसर और समय की पर्याप्तता, हथियार का स्वरूप तथा चोटों का स्थान जैसे तत्व सहायक हो सकते हैं, लेकिन सदैव ही चोट की प्रकृति मात्र के आधार पर ऐसा निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि आषय हत्या करने का नहीं था।













एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य



 1-----      यद्यपि एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य के आधार पर दोष-सिद्धि का निष्कर्ष निकाला जा सकता है, लेकिन ऐसी स्थिति में ऐसी साक्षी की अभिसाक्ष्य पूर्णतः विष्वसनीय होनी चाहिये। यहा इस विधिक स्थिति का उल्लेख करना असंगत नहीं होगा कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर यांत्रिक तरीके से अविष्वसनीय ठहराकर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसकी साक्ष्य की संपुष्टि नहीं है, क्योंकि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत संपुष्टि का नियम सावधानी एवं प्रज्ञा का नियम है, विधि का नियम नहीं है। जहा किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य विष्लेषण एवं परीक्षण के पष्चात् विष्वसनीय है, वहा उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित करने में कोई अवैधानिकता नहीं हो सकती है।

 इस क्रम में न्याय दृष्टांत लालू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य, (2003) 2 एस.सी.सी.-401, उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 1998 तथा वेदी वेलू थिवार  विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में किये गये विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है।



2.        इसी क्रम में     उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, 1989 क्रि.लाॅ.जर्नल पेज 88 = ए.आई.आर.-1988 एस.सी. पेज 1998 दिशा निर्धारक मामले में शीर्षस्थ न्यायालय ने दांडिक मामलों में साक्ष्य विश्लेषण संबंधी सिद्धांत की गहन एवं विस्तृत समीक्षा करते हुये यह प्रतिपादित किया है कि यदि प्रस्तुत किया गया मामला अन्यथा सत्य एवं स्वीकार है तो उसे केवल इस आधार पर अस्वीकार करना उचित नहीं है कि घटना के सभी साक्षीगण तथा स्वतंत्र साक्षीगण को संपुष्टि के लिये प्रस्तुत नहीं किया गया है। साक्ष्यगत अतिरंजना के विषय में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने यह इंगित किया है कि हमारे देश के साक्षियों में यह प्रवृत्ति होती है कि किसी भी अच्छे मामले का अतिश्योक्तिपूर्ण कथन द्वारा समर्थन किया जाये तथा साक्षीगण इस भय के कारण भी अभियोजन पक्ष के वृतांत  में नमक मिर्च मिला देते हैं कि उस पर विश्वास किया जायेगा, किन्तु यदि मुख्य मामले में सच्चाई का अंश है तो उक्त कारणवश उनकी साक्ष्य को अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिये क्योंकि न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह साक्ष्य में से वास्तविक सच्चाई का पता लगाये तथा इस क्रम में यह स्मरण रखना आवश्यक है कि कोई न्यायाधीश दांडिक विचारण में मात्र यह सुनिश्चित करने के लिये पीठासीन नहीं होता कि कोई निर्दोष व्यक्ति दण्डित न किया जाये अपितु न्यायाधीश यह सुनिश्चित करने के लिये भी कर्तव्यबद्ध है कि अपराधी व्यक्ति बच न निकले।
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1 सूचना रिपोर्ट अपने आप में घटना का विस्तृत ज्ञानकोष नहीं है तथा ऐसी रिपोर्ट में मामले की एक सामान्य तस्वीर होना ही आवष्यक है तथा यह जरूरी नहीं है कि उसमें घटना से संबंधित विषिष्टिया उल्लिखित की जाये, संदर्भ:- बल्देव सिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1996 (एस.सी.) 372.
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 विधिक स्थिति सुस्थापित है कि मात्र पक्ष विरोधी घोषित किये जाने से किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य पूरी तरह धुल नहीं जाती है तथा यदि उसका कोई अंष विष्वास योग्य है तो उस पर निर्भर करने में कोई अवैधानिकता नहीं है। (संदर्भ:- खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, ए.आई.आर.-1991 (एस.सी.)-1853)

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े यांत्रिक तरीके से इस आधार पर रदद् नहीं किया जा सकता कि वे पुलिस अधिकारी हैं, संदर्भ:- न्याय दृष्टांत करमजीतसिंह विरूद्ध राज्य (2003) 5 एस.सी.सी. 291 एवं बाबूलाल विरूद्ध म.प्र.राज्य 2004 (2) जेेे.एल.जे. 425 ।
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न्याय दृष्टांत वादी वेलूथिवार विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 के मामले में यह ठहराया गया है कि यदि एकल साक्षी पूर्णतः विष्वास योग्य है तो स्वतंत्र स्त्रोत से सम्पुष्टि के अभाव में भी उसकी अभिसाक्ष्य पर निर्भर किया जा सकता है। 

 न्याय दृष्टांत लालू मांझी व एक अन्य विरूद्ध झारखण्ड राज्य (2003) 2 एस.सी.सी.-401  जहाॅं तक स्वतंत्र स्त्रोत से सम्पुष्टि का प्रष्न है यह आवष्यक नहीं है कि प्रत्येक मामले में स्वतंत्र साक्षी उपलब्ध हों। 

न्याय दृष्टांत उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह ए.आई.आर.-1988 एस.सी. पेज-1998 में यह इंगित किया गया है कि यह देखने में आया है कि स्वतंत्र साक्षी प्रायः अभियोजन घटनाक्रम का समर्थन करने के लिये बहुत अधिक इच्छुक नहीं रहते हैं, ऐसी दषा में उपलब्ध साक्ष्य को मात्र यह कहकर अस्वीकृत कर देना कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसका समर्थन नहीं होता है, उचित नहीं है।

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’संहिता’ की धारा 125 के अंतर्गत भरण-पोषण


                                                      ’संहिता’ की धारा 125

1   जागीर कौर विरूद्ध जसवंत सिंह, 1963 ए.आई.आर. (एस.सी.)-521 मंे अभिनिर्धारित किया गया है कि ’संहिता’ की धारा 125 के अंतर्गत सम्पादित की जाने वाली कार्यवाहिया व्यवहार प्रकृति की संक्षिप्त स्वरूप की होती है, जिनका उद्देष्य असहाय व्यक्तियों को तात्कालिक सहायता पहुचाने का है, ताकि उन्हें जीवन यापन के लिये सड़क पर न भटकना पड़े। ऐसे मामलों में प्रमाण भार उतना कठोर नहीं होता है, जितना कि दाण्डिक मामलों में होता है, अपितु साक्ष्य बाहुल्यता एवं अधि-संभावनाओं की प्रबलताओं के आधार पर निष्कर्ष अभिलिखित किये जाने चाहिये। 


2  .        ’संहिता’ की धारा 125 के प्रावधानों के प्रकाष में यह स्थिति भी सुस्पष्ट है कि जहा वैध विवाह प्रमाणित न होने पर महिला को भरण-पोषण का अधिकार नहीं है, वहीं अधर्मज संतान ’संहिता’ की धारा 125 के अंतर्गत भरण-पोषण राषि प्राप्त करने की अधिकारी हैं। संदर्भ:- बकुल भाई व एक अन्य विरूद्ध गंगाराम व एक अन्य, एस.सी.सी.-1988 (1) पेज-537. 

3.        जहा तक पति/पिता के साधन सम्पन होने का संबंध है, न्याय दृष्टांत चंद्रप्रकाष विरूद्ध शीलारानी, ए.आई.आर. 1961 (दिल्ली)-174, जिसका संदर्भ न्याय दृष्टांत दुर्गासिंह लोधी विरूद्ध प्रेमबाई, 1990 एम.पी.एल.जे.-332 में माननीय मध्यप्रदेष उच्च न्यायालय की खण्डपीठ द्वारा किया गया है, में यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि एक स्वस्थ व्यक्ति के बारे में, जो अन्यथा शारीरिक रूप से अक्षम नहीं है, यह माना जायेगा कि वह अपनी पत्नी तथा बच्चों के भरण-पोषण के लिये सक्षम है तथा ऐसे व्यक्ति पर भरण-पोषण हेतु उत्तरदायित्व अधिरोपित किया जाना विधि सम्मत है, भले ही प्रमाणित न हुआ हो कि उसकी वास्तविक आमदनी क्या है। .

4.        ’संहिता’ की धारा 125 के प्रावधानों के प्रकाष में यह स्थिति भी सुस्पष्ट है कि जहा वैध विवाह प्रमाणित न होने पर महिला को भरण-पोषण का अधिकार नहीं है, वहीं अधर्मज संतान ’संहिता’ की धारा 125 के अंतर्गत भरण-पोषण राषि प्राप्त करने की अधिकारी हैं। संदर्भ:- बकुल भाई व एक अन्य विरूद्ध गंगाराम व एक अन्य, एस.सी.सी.-1988 (1) पेज-537.


5.        जहा तक पति/पिता के साधन सम्पन होने का संबंध है, न्याय दृष्टांत चंद्रप्रकाष विरूद्ध शीलारानी, ए.आई.आर. 1961 (दिल्ली)-174, जिसका संदर्भ न्याय दृष्टांत दुर्गासिंह लोधी विरूद्ध प्रेमबाई, 1990 एम.पी.एल.जे.-332 में माननीय मध्यप्रदेष उच्च न्यायालय की खण्डपीठ द्वारा किया गया है, में यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि एक स्वस्थ व्यक्ति के बारे में, जो अन्यथा शारीरिक रूप से अक्षम नहीं है, यह माना जायेगा कि वह अपनी पत्नी तथा बच्चों के भरण-पोषण के लिये सक्षम है तथा ऐसे व्यक्ति पर भरण-पोषण हेतु उत्तरदायित्व अधिरोपित किया जाना विधि सम्मत है, भले ही प्रमाणित न हुआ हो कि उसकी वास्तविक आमदनी क्या है।




बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

मुस्लिम विधि के अंतर्गत दाम्पत्य संबंधों की पुनसर््थापना


              मुस्लिम विधि के अंतर्गत दाम्पत्य संबंधों की पुनसर्थापना


1           अनीष बेगम विरूद्ध मो. इष्तफा वली खा, ए.आई.आर.-1933 (इलाहाबाद)-634 के मामले में यह ठहराया गया है कि मुस्लिम विधि के अंतर्गत दाम्पत्य संबंधों की पुनसर्थापना का वाद विनिर्दिष्टतः अनुपालन के वाद की प्रकृति का है तथा ऐसे अधिकार को प्रवृत्त किये जाने के लिये लाये गये वाद में मुस्लिम विधि के सिद्धांतों को ध्यान में रखा जाना आवष्यक है। दाम्पत्य संबंधों के पुनसर््थापन के अधिकार के विषय में ऐसा कोई परम अधिकार नहीं है कि पति बिना शर्त पत्नी को अपने साथ रखने के लिये बाध्य कर सके तथा न्यायालय को इस बारे में मामले की परिस्थितियों को देखते हुये विवेकाधिकार का प्रयोग करना चाहिये। 


2    .        न्याय दृष्टांत इतवारी विरूद्ध श्रीमती अगरी आदि, ए.आई.आर. 1960 (इलाहाबाद)-684 के मामले में, जहा भरण-पोषण हेतु याचिका प्रस्तुत किये जाने के बाद पति ने दाम्पत्य संबंधों के पुनसर्थापन के लिये वाद संस्थित किया था तथा पत्नी द्वारा वाद का विरोध इस आधार पर किया गया था कि पति उसके साथ दुव्र्यवहार करता है एवं वाद केवल इसलिये लाया गया है ताकि वह भरण-पोषण के दायित्व से अपने आपको बचा सके,

 न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि दाम्पत्य संबंधों की पुनसर्थापना का अनुतोष संविदा के विनिर्दिष्ट पालन की प्रकृति का होकर साम्य प्रकृति का अनुतोष है एवं साम्यिक सिद्धांतों के अंतर्गत ही उसे स्वीकृत या अस्वीकृत किया जाना चाहिये। उक्त मामले में दाम्पत्य संबंधों की पुनसर्थापना का अनुतोष प्रदान न किया जाना मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में उचित ठहराया गया।


3.        न्याय दृष्टांत शकीला बानू विरूद्ध गुलाम मुष्तफा, ए.आई.आर. 1971 (मुंबई)-166 की कंडिका 6 एवं 8 में किया गया प्रतिपादन भी इस क्रम में सुसंगत एवं अवलोकनीय है, जिसमें यह ठहराया गया है कि यदि पत्नी, पति के विरूद्ध क्रूरता का आक्षेप लगा रही है तो सामान्यतः इस संबंध में उसकी अभिसाक्ष्य के लिये संपुष्टिकारक साक्ष्य की मांग किया जाना अपेक्षित नहीं है।

न्याय दृष्टांतसहदायक

सहदायक की मृत्यु की दषा में, उस स्थिति में जबकि उसने अधिनियम की अनुसूची के वर्ग-1 की किसी महिला उत्तराधिकारी को अपने पीछे छोड़ा है, सम्पत्ति का न्यगमन हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 8 के अंतर्गत उत्तराधिकार के द्वारा होगा न कि उत्तरजीविता के आधार पर।

 इस क्रम में न्याय दृष्टांत गुरूपद खाण्डप्पा विरूद्ध हीराबाई खाण्डप्पा, ए.आई.आर. 1978 एस.सी.1239 में प्रतिपादित यह विधिक स्थिति दृष्ट्व्य है कि मृतक के जिस हिस्से का न्यगमन होना है, उसे निर्धारित करने के लिये माने गये काल्पनिक बंटवारे के परिणाम वास्तविक बंटवारे जैसे ही होगंे।
 सहदायिक सम्पत्ति में काल्पनिक बंटवारे से निर्धारित उसके हिस्से का न्यगमन उत्तराधिकार के आधार पर हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 8 के अंतर्गत होगा न कि धारा 6 के अंतर्गत उत्तरजीविता के आधार पर।

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न्याय दृष्टांत के.कनकरत्नम विरूद्ध ए.पेरूमल व अन्य, ए.आई.आर. 119 मद्रास-247, अप्पा बाबाजी मिसल पाटिल व अन्य विरूद्ध दागडू चंद्रू मिसल, ए.आई.आर. 1995 बाम्बे-333, गणेष प्रसाद विरूद्ध श्रीनाथ, 1986 एम.पी.डब्ल्यू.एन.-नोट- 193 तथा रघुनाथ सिंह विरूद्ध अर्जुन सिंह, 1993, एम.पी.डब्ल्यू.एन.-नोट- 208
 किसी भी पक्षकार के द्वारा प्रस्तुत की गयी ऐसी साक्ष्य का कोई महत्व नहीं है, जो अभिवचनों से परे जाकर नये मामले का गठन करती है, अपितु वही साक्ष्य महत्वपूर्ण है, जो अभिवचनों के अनुरूप है।
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’हिबानामा’ का स्मरण लेख। इस क्रम में आलोच्य निर्णय में संदर्भित न्याय दृष्टांत छोटा उदान्दु साहिब विरूद्ध मस्तान बी, ए.आई.आर.-1975, आंध्रप्रदेष-271 का वह अंष विषेष रूप से संदर्भ योग्य है, जिसमें यह कहा गया है कि मुस्लिम विधि के अंतर्गत यह आवष्यक नहीं है कि वैध उपहार के लिये ’हिबानामा’ निष्पादित किया गया होे, लेकिन यदि ’हिबानामा’ निष्पादित किया गया है तो सम्पत्ति अंतरण अधिनियम तथा पंजीयन अधिनियम के प्रावधानों के प्रकाष में उसका पंजीकृत होना आवष्यक है, केवल उन मामलों को छोड़कर जहा ऐसा प्रलेख पूर्व से सम्पादित ’हिबा’ का स्मरण लेख मात्र है।
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1..फेकन बाई विरूद्ध रामसिंह व अन्य, 1968 जे.एल.जे.-षार्टनोट-23,
 अक्षय कुमार बोस विरूद्ध सुकुमार दत्ता, ए.आई.आर. 1951 कलकत्ता-320,
 युसुफ हसन विरूद्ध रौनक अली, ए.आई.आर. 1993, अवध-54
मनबोध विरूद्ध हीरा साय, ए.आई.आर. 1926 नागपुर-339
के मामलों में यह सुस्पष्ट विधिक प्रतिपादन किया गया है कि वाद-पत्र या प्रतिवाद-पत्र लोक प्रलेख की परिधि में नहीं आते हैं। ऐसी स्थिति में न तो उन्हें भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 74 के अंतर्गत लोक प्रलेख माना जा सकता है और न ही धारा 77 के अंतर्गत ऐसे प्रलेखों की प्रमाणित प्रतिलिपि लोक प्रलेख की प्रमाणित प्रतिलिपि के रूप में ग्राह्य है।


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आर.के. मोहम्मद ओबेदुल्ला विरूद्ध हाजी सी. अब्दुल बहात, ए.आई.आर. 2001 एस.सी. 1658 पैरा 15 मंसम्पत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 3 के स्पष्टीकरण क्र.2 के प्रकाष में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि वास्तविक आधिपत्य आधिपत्यधारी के स्वत्व के विषय में विविक्षित सूचना के समरूप है।

अभिवचनों के अभाव में साक्ष्य--  यह विधिक स्थिति सुसंगत एवं दृष्ट्व्य है कि अभिवचनों के अभाव में साक्ष्य, चाहे उसकी मात्रा कितनी ही क्यों न हो, को नहीं देखा जा सकता है। इस विधिक स्थिति के संबंध में न्याय दृष्टांत
 सिद्दीक मोहम्मद शाह विरूद्ध मुसम्मात सरन, ए.आई.आर. 1930 पी.सी. 57
 प्रेमचंद पाण्डे विरूद्ध सावित्री पाण्डे, ए.आई.आर. 1999 (इलाहाबाद)-43, कुलसुमन्निसां विरूद्ध अहमदी बेगम, ए.आई.आर. 1972 (इलाहाबाद)-219,
 पष्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध मीर फकीर मोहम्मद, ए.आई.आर. 1977 (कलकत्ता)-29  इंदरमल विरूद्ध रामप्रसाद, ए.आई.आर. 1962 एम.पी.एल.जे. 781



 राजस्व प्रलेखों में किये गये नामांतरण अथवा राजस्व प्रलेखों में की गयी प्रविष्टिया अपने आप में न तो स्वत्व प्रदान करती है और न ही स्वत्व का हरण करती हैं, क्योंकि किसी भी अचल सम्पत्ति में स्वत्व अर्जन या स्वत्व की समाप्ति विधिक प्रक्रिया के अंतर्गत ही हो सकता है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत दुर्गादास विरूद्ध कलेक्टर, (1996) 5 एस.सी.सी.-618 तथा शांतिबाई आदि विरूद्ध फूलीबाई आदि, 2007(2) एम.पी.एल.जे.-121  सुसंगत एवं अवलोकनीय है।


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 गंगाधर राव विरूद्ध गोलापल्ली गंगाराव, ए.आई.आर. 1968 (आंध्रप्रदेष) 291 तथा ओमप्रकाष ओमप्रभा जैन विरूद्ध अबनाषचंद्र, ए.आई.आर. 1968 (एस.सी.) 1083 इस विधिक स्थिति के संबंध में सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि एक पक्षकार अपने मामले को अभिवचनों के अनुरूप ही प्रमाणित करने का अधिकार रखता है तथा वह ऐसे किसी आधार पर सफलता का दावा नहीं कर सकता है, जिसके बारे में उसके द्वारा अभिवचन ही नहीं किया गया है। भिन्न शब्दों में पक्षकार उस मामले से, जो उसके द्वारा अभिवचनित किया गया है, भिन्न मामला साक्ष्य के द्वारा अभिवचनों में संषोधन किये बिना न्यायालय के समक्ष नहीं ला सकता है। ने यह अभिवचन किया था कि किरायेदारी नैवासिक उद्देष्य के लिये है, उसे साक्ष्य के द्वारा यह स्थापित करने की अनुमति नहीं दी गयी कि किरायेदारी गैर-नैवासिक उद्देष्य के लिये थी।

.        अभिवचन में संषोधन समाविष्ट किये जाने बाबत् यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि ऐसे अभिवचन जिनसे वाद का स्वरूप नहीं बदलता है अथवा जो वाद के संस्थित किये जाने के बाद पष्चात्वर्ती परिस्थितियों के क्रम में जोड़ना आवष्यक हुये हैं, उनहें युक्तियुक्त शर्तों के साथ अनुज्ञात किया जाना चाहिये।र्
- किशोरीलाल विरूद्ध बालकिशन एवं एक अन्य, 2006(2)एम.पी.जे.आर.
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न्याय दृष्टांत चैनसिंह विरूद्ध रामचंद्र, 1992 राजस्व निर्णय-277 में माननीय उच्च न्यायालय के द्वारा यह स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि रजिस्ट्रीकृत विक्रय विलेख में कब्जा सौंपने तथा प्रतिफल का संदाय किये जाने विषयक बिन्दु निष्पादक और उसके कुटुम्ब के सदस्यों पर भी आबद्धकर है, जब तक कि उसके विपरीत किये गये अभिकथनों को समाधानप्रद स्पष्टीकृत न कर दिया जाये।

 न्याय दृष्टांत नौनितराम विरूद्ध हीरा 1980(1) एम.पी.डब्ल्यू.एन. नोट-148 में भी यह अभिनिर्धारित किया गया है कि विक्रय पत्र में आधिपत्य सौंपे जाने के विषय में किये गये उल्लेख को अन्यथा प्रमाणित न किये जाने की दषा में विलेख को सही अवधारित किया जाना चाहिये जब तक कि अन्यथा प्रमाणित न कर दिया जाये।
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 बूलचंद विरूद्ध अटलराम सिंधी धर्मषाला ट्रस्ट व अन्य 1997 एम.पी.ए.सी.जे. 255  ’अधिनियम’ की धारा 3(2) का लाभ तभी मिल सकता है जबकि न्यास की सम्पूर्ण आय का उपयोग धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक उद्देष्यों के लिये किया जा रहा हो। विनोद कुमार विरूद्ध सूरज कुमार, ए.आई.आर. 1987 (एस.सी.) 179 
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