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बुधवार, 21 मई 2014


 ‘‘विधि और न्याय क्षेत्र में हिन्दी भाषा‘‘

    देश के स्वतंत्रता के 65 वर्ष बाद भी देश के उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों, न्यायिक अधिकरणों में हिन्दी भाषा में पूर्णतः कार्य नहीं होता और संविधान के अनुच्छेद-348 के अनुसार उच्चतम न्यायालय/उच्च न्यायालयों में कामकाज की भाषा अंग्रेजी है। उच्च और उच्चतम न्यायालय ने केवल अंग्रेजी में अपील और  बहस होती है,
     केवल 7 राज्यों-मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार  उत्तराखंड, झारखंड, छत्तीसगढ़ आदि के उच्च न्यायालयों में हिन्दी के प्रयोग की अनुमति है। लेकिन कार्य अंग्रेजी में होता है।
    कुछ हिन्दी भाषी राज्यों में निचले स्तर के न्यायालय में हिन्दी और अन्य हिन्दी भाषी राज्यों को छोड़कर उनकी क्षेत्रीय भाषाओं में कार्य किया जाता है लेकिन अपीलीय न्यायालय की भाषा अंग्रेजी है इसलिए सभी न्यायालयों में क्षेत्रीय भारतीय भाषाओं में कार्य नहीं होगा, तब तक आम जनता को वास्तविक न्याय प्राप्त नहीं होगा।
1.    केन्द्र सरकार की राजभाषा हिन्दी है, फिर भी अंग्रेजी को 1963 में पारित राजभाषा अधिनियम में सरकारी कार्यो/प्रयोजनों के लिये 26 जनवरी, 1965 के बाद भी पहले की तरह प्रयोग किए जाते रहने की छूट दी गई है, जो उचित नहीं है। अतः अंग्रेजी के प्रयोग पर रोक लगाकर केन्द्र में हिन्दी और राज्यों में राज्य की राजभाषाओं में कार्य करने हेतु कठोर कदम उठायें जायें।
2.    इसी प्रकार देश के अन्य सभी राज्यों की राजभाषाएं, उनके     उच्च न्यायालयों के कामकाज की भाषा बनाई जाएॅ।
3.    संसदीय राजभाषा समिति र्की  सिफारिश के अनुसार, उच्चतम न्यायालय में अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी में कार्य करने की भी अनुमति दी जाए।
4.    उच्चतम एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को हिन्दी और संबंधित राज्य की राजभाषा में निर्णय लिखने/कार्य करने हेतु उत्प्रेरित किया जाए।
5.    देश के सभी राज्यों की न्यायिक सेवा-शिक्षा तथा विधि संबंधी अन्य परीक्षाओं का माध्यम, अंग्रेजी के अलावा, हिन्दी और प्रादेशिक भाषाएं बनाई जाएॅ तथा अंग्रेजी के अनिवार्य प्रश्न-पत्र को हटाया जाए, या इसके विकल्प में उतने ही अंक का भारतीय भाषा का प्रश्न-पत्र रखा जाए।
6.    राष्ट्रीय विधि संस्थानों तथा विश्वविद्यालयों में एल.एल.बी. के तीन वर्षीय और 5 वर्षीय पाठ्यक्रमों, में दाखिला हेतु ली जाने वाली प्रवेश-परीक्षा का माध्यम, हिन्दी और भारतीय भाषाएॅ हो।
7.    देश के सभी राज्यों में एल.एल.बी. और एल.एल.एम. की पढ़ाई का माध्यम, हिन्दी और भारतीय भाषाएॅं हों।
8.    विधि संबंधी सभी पुस्तकें हिन्दी और भारतीय भाषाओं में यथाशीघ्र उपलब्ध कराई जाएॅ।
9.    सभी न्यायालयों से प्रशासनिक कार्य हिन्दी में किया जाए।
10.    हिन्दी और हिन्दीतर प्रदेशों की विधान सभाओं में विधायन/कानून बनाने का कार्य मूलतः राज्यों की राजभाषाओं में हो। राज्य की राजभाषा में पारित कानूनों/अधिनियमों के अनुवाद, बाद में हिन्दी और अंग्रेजी में किए जाएॅं।
11.    जिला न्यायालयों/अधीनस्थ न्यायालयों का समस्त कामकाज राज्यों की राजभाषाओं में ही हो।
12.    उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों, जिला स्तर के अधीनस्थ न्यायालयों, केन्द्रीय प्रशासनिक अधिकरण (कैट), न्यायिक अधिकरणों, आयकर अपीलीय अधिकरणों, ऋण वसूली अधिकरणों की भाषा, अंग्रेजी के अलावा, अनिवार्य रूप से हिन्दी और राज्य की राजभाषाएं भी हो।
13.    हिन्दी को अनुवाद की भाषा बनाने से रोका जाए और विधि तथा अन्य क्षेत्रों में मूलतः कार्य हिन्दी और राज्य की राजभाषा में हो।
14.    हिन्दी तथा हिन्दीतर भाषी प्रदेशों के सभी न्यायालयों, न्यायिक अधिकरणों आदि में हिन्दी के कम्प्यूटरों में हिन्दी टाईपिस्टों, हिन्दी आशुलिपिकों आदि की समुचित व्यवस्था हो।
15.    हर राज्य में एक राजभाषा कार्यान्वयन समिति गठित की जाए।

















































शनिवार, 17 मई 2014

जन्म तिथि में सुधार

                        जन्म तिथि में सुधार
    जन्म तिथि में सुधार की सहायता के लिये सिविल अधिकारिता अपवर्जित नहीं होगी। माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा (ईश्वर सिंह बनाम नेशनल फर्टिलाईजर्स एवं अन्य, ए.आई.आर. 1991 एस.सी. 1546) के मामले में अभिनिर्धारित किया है कि सी.पी.सी. की धारा 9 की अधिकारिता के भीतर जन्म तिथि सुधार के मामले आते हैं वह सिविल न्यायालय में पोषणीय होते हैं। वास्तव में उस प्रकार की सुधार की मांग करना विभिन्न प्रयोजनों के लिये हो सकेगा और औद्योगिक विववाद अधिनियम के तहत उपलब्ध अनुतोष के दावा करने के प्रश्न तक आवश्यक रूप से सीमित होने की कोई आवश्यकता नहीं है।

    न्यायालय के अनूुसार वाद की पोषणीयता का विनिश्चय कार्यवाहियों को संस्थित करने के संदर्भ में किया जाना चाहए और चूंकि उस दिनांक जब वाद दाखिल किया गया था, और औद्यौगिक विवाद अधिनियम की धारा 2 -क द्वारा आवरित कोई भी दशाएं प्रकट नहीं हुई है तो याचिकाकर्ता अनुतोष के लिए औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत फोरम के पास नहीं जा सकता और उक्त स्थिति में सिविल वाद औद्यौगिक विवाद अधिनियम की धारा 2-क के द्वारा अपवर्जित नहीं होगा।

    न्यायालय द्वारा यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि यदि वाद के अनुतोषों के लिये वाद उस फोरम में पोषणीय है जहां पर दाखिल किया गया तो फोरम वादी के लिये इसके दरवाजे बंद करने की स्वतंत्रता नहीं रखता। मामले के इस रूप में जहां तक जन्म तिथि से संबंधित अभिलेखों में सुधार की सहायता का संबंध है तो सिविल न्यायालय को अनुतोष प्रदान करने की अधिकारिता है।
   
    न्यायालय ने यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि जहां कर्मचारी यहां तक कि सुधारी गयी जन्म तिथि के आधार पर सेवा निवृत्त स्थिति उस समय तक सिविल वाद उसके हित में विनिश्चत करने में आया तो पारिणामिक अनुतोष सिविल न्यायालय द्वारा प्रदान नहीं किये जा सकते।

    शीर्ष न्यायालय ने द प्रीमियर आॅटो मोबाईल लिमिटेड बनाम कमलाकर शांताराम वाईके एवं अन्य, ए.आई.आर. 1975 एस.सी. 2238 के मामले में भी निम्न लिखित रीति में औद्योगिक विवाद के संबंध में सिविल न्यायालय की अधिकारिता को लागू सिद्धांत प्रतिपादित कियेः-

    (1)    यदि विवाद, औद्योगिक विवाद नहीं है, न यह अधिनियम के तहत किसी अन्य अधिकार के प्रवर्तन से संबंधित है तो केवल सिविल न्यायालय में उपचार उपलब्ध है।

    (2)    यदि विवाद, सामान्य या काॅमन लाॅ के अधीन किसी अधिकार या दायित्व से उत्पन्न औद्वद्योगिक विवाद है और इस अधिनियम के तहत नहीं तो सिविल न्यायालय की अधिकारिता, अनुतोष जो किसी विशिष्ट अनुतोष में मंजूर किए जाने के लिए सक्षम हो के लिए उसके उपचार का चुनाव करने के लिए संबंधित वादी के निर्वाचन पर इसको छोड़ते हुए वैकल्पिक होती है।

    (3)    यदि औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत सृजित अधिकार या बाध्यता के प्रवर्तन से संबंधित है तो वादी को उपलब्ध एकमात्र उपचार का न्याय निर्णयन इस अधिनियम के तहत् किया जाता है।

    (4)    यदि अधिकार जो प्रवर्तित किया जाना इप्सित है वह इस अधिनियम के तहत् सृजित अधिकार है जैसे अध्याय 5-क तो इसके प्रवर्तन के लिए उपचार या तो धारा 33-ग है या औद्योगिक विवाद उठाना, यथा स्थिति हो है।
    5-    न्यायालय के मार्गदर्शक सिद्धांत है जिसके आधार पर सिविल न्यायालय को यह विनिश्चय करना होता है कि क्या कोई विवाद औद्योगिक विवाद की परिभाषा के अधीन आवरित है वाद औद्योगिक अधिनियम की धारा 2-ए या 2(क) के उपबंधों के अधीन अपवर्जित होगा या नहीं होगा।

    6-    वाद दाखिल करने के दिनांक और उक्त दिनांक को कर्मचारी की स्थिति पर भी विचारण किया जाना चाहिए। यदि अभिलेखों को देखने के बाद यह प्रकट हो कि उस बिंदु पर विनिश्चय केवल सभी संबंधित पक्षकारों को सुनवाई का सम्यक् अवसर प्रदान करने के पश्चात् किया जाना चाहिए।

    7-    प्रथम दृष्टया प्रकरण विनिश्चत करने के लिए मामले को व्यवह्त करते समय मात्र संयोगिक रूप से कहना, अपील न्यायालय उपर्युक्त रीति में नहीं कह सकती कि इसके पास वाद ग्रहण करने की कोई अधिकारिता नहीं है। यह आदेश इसके लिए कोई कारण प्रदत्त किये बिना एक पंक्ति में पारित एक सतही आदेश है और वह मान्य नहीं ठहराया जा सकता।

    8-    यह व्यवस्थापित विधि है कि कारण, प्रश्न में विवाद का निर्णय करने वाले मस्तिष्क और विनिश्चय या निकाले निष्कर्ष के मध्य जीवंत संबंध है। कारण प्रदत्त करनेकी विफलता न्याय करने से इंकार करना समझा जाता है।  अलेक्जेंडर मशीनरी हुडली लिमिटेड बनाम फैक्ट्री, 1974 एल.सी.आर. 120 जिसको रिजनल मैनेजर, यू.पी.एस.आर.टी.सी. इटावा एवं अन्य बनाम होतीलाल, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 1462, देखों पैरा 10 के मामले में निर्दिष्ट किया गया है।
   
    9- सेवा के अंतिम प्रक्रम पर क्या जन्म दिनांक संशोधित करने की प्रार्थना स्वीकार किए जाने योग्य है, यह बिंदु विचारणीय था। इस संबंध में नकारात्मक मत निम्नलिखित न्याय दृष्टांतों में दिया गया।

    1-1994(6) सु.को.के. 302
    2-2003(6) सु.को.के. 483
    3-2006 ए.आई.आर.एस.सी.डब्ल्यू.3697
    4-(सुरेंद्र सिंह बनाम स्टेट आॅफ एम.पी., 2007(1) म.प्र. लाॅ.ज. 296     म.प्र.)


    5-    सचिव एवं आयुक्त, गृह विभाग बनाम आर.क्यूरूबक्रम, ए.     आई. आर. 1993 एस.सी. 2647,
    6-    उड़ीसा राज्य एवं अन्य बनाम श्री आर.पटनायक, 1997(2)     एल.एल.जे. 206,
    7-    जी.एम.भारतकोकिंग कोल लिमिटेड पं.बं. बनाम शिव कुमार     दुष्ट, ए.आई.आर. 2001 एल.सी. 72,
     8-    उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य बनाम श्रीमती गुलायची,     (2003)6 एस.सी.सी. 483,
    9-    पंजाब राज्य एवं अन्य बनाम एस.सी.चह्ढ़ा, (2004) 3 एस.    सी.सी. 394 गिरीश नाथ बनाम भारत का संघ एवं अन्य,     2005(1)एम.पी.एल.जे.233


       

//शिक्षा अधिकार कानून संवैधानिक //

//शिक्षा अधिकार कानून संवैधानिक //        

        प्रधान न्यायाधीश श्री आर.एम. लोढा की अध्यक्षता वाली पंाच सदस्यीय संविधान पीठ जिसमें मान्नीय न्यायमूर्ति ए.के. पटनायक, मान्नीय न्यायमूर्ति एस.जे. मुखोपाध्याय, मान्नीय न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और मान्नीय न्यायमृर्ति एस.एम.आई. कलीमुल्ला शामिल थे उसनें शिक्षा का अधिकार (आरटीआई) कानून की संवैधानिक बताया है
        संविधान पीठ के समक्ष यह मसला कनार्टक सरकार के 1994 के दो आदेेशों के कारण पहंुचा था, इन आदेशों में कक्षा एक से चार तक मातृभाषा या क्षेत्रीय भाष में शिक्षा प्रदान करना अनिवार्य किया गया था । सरकार के इन आदेशों की वैधानिकता को चुनौती दी गई थी ।
         सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार किया है कि तमाम विशेषज्ञ इस पर एकमत हैं कि प्राथमिक स्कूलों में बच्चे तभी बेहतर ढंग से विद्या प्राप्त कर सकते हैं अगर पढाई का माध्यम मातृभाषा हो । लेकिन उसने कर्नाटक सरकार के 1994 के उस आदेश को असंवैधानिक ठहरा दिया, जिसमंे राज्य के प्रायमरी स्कूलों में कन्नड में शिक्षा देने की बात कही गई थी ।
1-    संविधान पीठ के अनुसार यह सहायता प्राप्त या गैर सहायता अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू नहीं होगा ।
2-    इस कानून के तहत सभी स्कूलों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए 25 फीसदी सीटें आरक्षित करने का प्रावधान है ।
3-    अनुच्छेद 21(क) संविधान के बुनियादी ढांचे को प्रभावित नहीं करता है ।
4-    सरकारी प्राथमिक शिक्षा देने के लिए भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए मातृभाषा अनिवार्य नहीं कर सकती है । 
5-    सरकार को भाषाई अल्पसंख्यकों को प्राथमिक शिक्षा देने के लिए अनिवार्य रूप से क्षेत्रीय भाषा लागू करने के लिए बाध्य करने का अधिकार नहीं है ।
6-    संविधान में कहीं उल्ल्ेख नहीं है कि मातृभाषा वही है, जिसमें बच्चा अपने को सहज पाता हो ।
7-  कोर्ट ने मौलिक अधिकारों से संबंधित संविधान के अनुच्छेदों (भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) 29(अल्पसंख्यकों के हितों का संरक्षण) और 30 (संस्थाए स्थापित करने के अल्पसंख्यकों के अधिकारों ) के अंतर्गत भी भारत में मातृभाषा में शिक्षा नहीं दी जा सकती।
8-    कोर्ट ने अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रावधान की जो व्याख्या की जिसके अनुसार भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत बच्चे की अपनी पसंद की भाषा में शिक्षा पाने की स्वतंत्रता भी शामिल है ।
9-    बच्चे या उसकी तरफ से उसके अभिभावक को शिक्षा का माध्यम चुनने की आजादी है ।







अफसरों के खिलाफ बिना मंजूरी चार्जशीट

           अफसरों के खिलाफ बिना मंजूरी चार्जशीट

     सीबीआई का गठन पहले 1941 में स्पेशल पुलिस एस्टेब्लशमेंट एक्ट के नाम से हुआ था उसके बाद सीबीआई 1946 के दिल्ली पुलिस एक्ट के तहत काम करती है । सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के सिंगल डायरेक्टिव को खारिज  किया तो वर्ष 2003 में सेन्टल विजिलेंस एक्ट के माध्यम से पुलिस एक्ट में धारा 6-ए जोडी गई ।
              जिसे सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने ऐसे नौकरशाहों की जांच के लिए सरकार की अनुमति लेने संबंधी कानूनी प्रावधान को अमान्य और असंवैधानिक बताया है । साथ ही कहा कि सीबीआई आपराधिक मामलों में अफसरों के खिलाफ बिना मंजूरी चार्जशीट फाईल कर सकती है ।  अब  सीबीआई को भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे किसी भी वरिष्ठ नौकरशाह के खिलाफ बिना सरकार की अनुमति लिए कार्यवाही करने का अधिकार दे दिया ।
                इस संबंध में पहली याचिका सुब्रहाण्यम स्वामी ने 1997में दायल की थी और बाद में 2004 में गैर-सरकारी संगठन सेन्टर फार पब्लिक इंटरेस्ट लिटीगेशंस ने याचिका दायर की थी ।
        सीबीआई अदालतों में 6894 मामले जनवरी 2013 तक अनुमति न मिलने के कारण लंबित थे, जिसमें 950 मामले राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के थे, 23 मामले 20 वर्ष पुराने और 166 मामले दस वर्ष पुराने हैं । फरवरी 2014 तक सीबीआई को 2071 शिकायतें मिली, जिसमें से 2055 का निराकरण हुआ । 28 मामले चार माह से लंबित थे । 53 अधिकारियों के खिलाफ अभियोजन स्वीकृति के लिए केन्द्रीय सतर्कता आयोग से अनुमति मांगी गई ।
        प्रधान न्यायाधीश श्री आर.एम. लोढा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ ने दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टेबिलशमेंट एक्ट की धारा 6-ए के प्रावधान पर यह व्यवस्था दी ।
             अदालत ने अपने फैसले में कहा -
        1. भ्रष्टचार देश का दुश्मन है, भ्रष्टचारियों को अलग-अलग         वर्गों मंे बांटना सही नहीं है । यह भ्रष्टचार के खिलाफ बने         कानून की भी अवहेलना है ।
        2. भ्रष्ट अधिकारी चाहे वे बडे ओहदे पर हों या निचले             पायदान पर, सब एक जैसा अपराध करते हैं । कानून को         भी उनसे एक जैसा सलूक करना चाहिए ।

        3. डीएसपीईए की धारा 6ए के तहत भ्रष्ट अधिकारियों के         खिलाफ कार्यवाही से पहले मंजूरी लेना जांच में बांधा             पहंुचाने जैसा ही है ।

        4. धारा 6-ए संविधान के अनुच्छेद 14 के प्रावधानों के             खिलाफ भी है । अनुच्छेद 14 के मुताबिक कानून के सामने         सब बराबर हैं ।
        5. आपराधिक न्याय व्यवस्था में अपराध की जांच निष्पक्ष             और कानून के अनुसार होनी चाहिए । यह भी देखना             जरूरी है कि हितबद्ध प्रभावशाली लोग जांच को प्रभावित             कर अपराधी को बचाने में सफल नहीं हो पाऐं । ऐसा होना         अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार के खिलाफ है         इसलिए अनुच्छेद 14 के पैमाने पर दिल्ली पुलिस एक्ट             की धारा 6 ए फेल हो जाती है ।
        6. स्वामी और टेलकाॅम वाचडाॅग जैसे अनेक याचिकाओं में         बताए गए तथ्य स्पष्ट कर रहे हैं कि धारा 6-ए के तहत             किया गया भेद खतरनाक तो है ही पीसी एक्ट 1988 के             उददेश्य के भी उलट है ।

        7. दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 155-156 के तहत पुलिस         स्टेशन के इन्चार्ज को जांच का अधिकार दिया गया है, वह         जांच कर सकता है लेकिन धारा 6 ए के कारण सी.बी.आई.         नहीं कर सकती ।
        8. विनीत नारायण के मामले में सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह         चुका है कि एक अपराध के लिए दोषी सभी लोगों के साथ         कानून के अनुसार एक जैसा व्यवहार किया जाना                 चाहिए, यह धारा 6-ए के संबंध में लागू है ।

   
       
       


       
   


















   









                                                        

शुक्रवार, 2 मई 2014

/विधि का शासन और न्याय प्रदान करने में आने वाली कठिनाईयां//

//विधि का शासन और न्याय प्रदान करने में आने वाली कठिनाईयां//
        विधि द्वारा स्थापित न्यायालयों को विधिक प्रक्रिया के अनुसार न्यायालय में विधि का शासन लागू किए जाने में अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है, जिसके कारण न्याय प्रशासन प्रभावित होता हैं । उपरोक्त कठिनायां निम्नलिखित हैंः-
        1. न्यायालय में कार्य की अधिकता ।
        2. न्यायालय में सभी गवाहों को खर्च नहीं दिया जाता है             क्योंकि वह कम होने के कारण जल्दी समाप्त हो जाता है ।
        3. निःशुल्क विधिक सहायता अयोग्य, अप्रशिक्षित, पैनल लायर             के माध्यम से दी जाती है ।
        4. सरकारी अधिवक्ता राजनैतिक प्रभाव से बनाए जाते हैं             इसलिए एक ही दिन में 15-20 प्रकरणों में कार्यवाही किए             जाने हेतु सक्षम नहीं होते हैं ।
        5. न्यायालय के पास प्रतिकर अदायगी हेतु खुद का कोई             फण्ड नहीं है, इसलिए प्रार्थी को इलाज हेतु पर्याप्त राशि             प्रदान नहीं की जा सकती है ।
        6. न्यायालय में फाईलों की संख्या अत्यधिक है, जिसके                 कारण न्यायाधीश निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार कार्यवाही नहंी             कर पाते हैं ।
        7. न्यायालय और न्यायाधीश राजनीति, मीडिया, प्रमोशन के             लालच में डर दबाव के कारण काम करते हैं ।
        8. बाल न्यायालय भी औपचारिकतापूर्ण एक दिन लगाया                 जाता     है, उसमें विशेषज्ञ की नियुक्ति नहीं होती है ।
        9. ग्राम न्यायालय भी केवल एक दिन लगाए जाते हैं और             ग्राम न्यायालय के अनुरूप ग्रामों में जाकर न्यायाधीश                 सुविधाओं के अभाव के कारण न्याय प्रदान नहीं करते हैं ।
        10. शासकीय गवाहों को सुरक्षा प्रदान नहंी की जाती है,             जिसके कारण वे डर दबाव के कारण अभियोजन का पक्ष             समर्थन नहीं करते हैं, जिसके कारण दोषी व्यक्ति न्यायालय             में छूट जाते हैं ।
        11.न्यायालय और न्यायाधीश पर डर दबाव बनाए जाने के             लिए झंूठे आरोप और शिकायतें की जाती हैं, जिसके कारण             न्यायाधीश स्वतंत्रतापूर्वक कार्य नहीं कर पाते हैं ।








भारत में विधि का शासन

 भारत में विधि का शासन

        एडवर्ड काॅक के द्वारा प्रतिपादित विधि के शासन को प्रोफेसर डायसी ने विस्तृत व्याख्या कर अर्थ स्पष्ट किया और प्रायः दुनिया के सभी देशों मंे उनके अभिमत को स्वीकार कर अपने संविधान का अभिन्न अंग बनाया है।

        विधि के शासन में सभी व्यक्ति विधि के समक्ष समान है और सभी का संरक्षण विधि बिना किसी भेदभाव के करती है लेकिन इसमें  वर्ग विभेद को विधि के विपरीत नहीं माना गया है और एक वर्ग विशेष और व्यक्ति के लिए भिन्न कानून और व्यवस्था की जा सकती है, जिसे युक्तियुक्त वर्गीकरण कहा जाता है । 

        विधि के शासन के अंतर्गत राज्य का प्रत्येक अधिकारी अपने आप को विधि के अधीन समझेगा और कानून का पालन करेगा । इसमें राज्य के तीनों अंग कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका तीनों कानून के अनुसार कार्यवाही किए जाने के लिए बाध्य है ।


        विधि के शासन के अंतर्गत व्यक्ति संबंधी सभी स्वतंत्रताऐं इसमें शामिल मानी गई है और इसे संविधान का महत्वपूर्ण अंग माना गया है । विधि के शासन के अंतर्गत राज्य कर्मचारियों के द्वारा संवैधानिक सीमाओं के अंदर अपनी कार्यपालक शक्तियों का प्रयोग किया जाएगा । यदि उनकेे द्वारा अपनी शक्तियों का प्रयोग नहीं किया जाता है या सीमा से अधिक किया जाता है तो जनता उनके आचरण को चुनौती दे सकती है और न्यायालय उनके आचरण में सुधार करेगें ।


        विधि के शासन के अंतर्गत सरकारी अधिकारियों को मनमाना विवेकाधिकार प्राप्त नहीं होंता है, किसी भी व्यक्ति के पास विवेकाधिकार की असीमित शक्तियां नहीं होती हैं। सभी व्यक्तियों को विवेकाधिकार का प्रयोग विधि के अनुसार दी गई शक्तियों के अंतर्गत करना होता है । 


        विधि के शासन के अंतर्गत सभी विधि के उल्लंघन करने वाले को दण्डित किया जाता है । सभी व्यक्तियों पर देश का संपूर्ण कानून लागू बराबरी से लागू होता है, कोई भी व्यक्ति विधि के उपर नहीं माना जाता है, किसी भी सरकारी अधिकारी-कर्मचारी, नेता को विशेष छूट नहीं होती है  ।    

     इस संबंध में 1959 में दिल्ली में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कमीशन आॅफ ज्यूरिस में भारत के संबंध में विधि के शासन को लागू किए जाने के लिए कमेटीयां बनाई गई थीं, जो निम्नलिखित हैं:-


        (1) व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा विधि का शासन
        (2) राज्य के संबंध में विधि का शासन
        (3) आपराधिक प्रशासन के संबंध में विधि का शासन
        (4) सुनवाई तथा परीक्षण  के संबध्ंा में विधि का शासन        
       
(1) व्यक्तिगत स्वतंत्रता और विधि का शासन लागू करने के संबंध में निम्नलिखित घोषणाऐं की गई हैंः-


1. राज्य पक्षपातपूर्ण विधि नहीं बनाएगा,
2.राज्य धार्मिक विश्वास पर हस्तक्षेप नहीं करेंगे,
3. राज्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर प्रतिबंध नहीं लगाऐंगे ।


(2) राज्य के संबंध में विधि का शासन लागू करने के संबध्ंा में निम्नलिखित घोषणाऐं की गई हैंः- 

1.राज्य द्वारा प्रभावशाली सरकार दी जाएगी,
2.राज्य सरकार विधि के अनुसार चलेगी,
3. राज्य सरकार व्यक्ति की सुरक्ष देगी,
4. राज्य द्वारा बुराईयों का अंत किया जाएगा ।


(3) आपराधिक प्रशासन के संबंध में विधि का शासन लागू किए जाने के संबंध में निम्नलिखित घोषणाऐं की गई हैंः-

1.बिना विधिक प्रावधानों के गिरफतार नहीं किया जाएगा,
2. आरोप साबित होने पर जांच एजेन्सी व्यक्ति को निर्दोष मानेगी
3. युक्ति को अपने विरूद्ध आरोप में सुनवाई  का पूरा अवसर दिया जाएगा
4. व्यक्ति का परीक्षण विधि अनुसार होगा ।

(4) सुनवाई तथा परीक्षण करने के संबध्ंा में विधि का शासन लागू किए जाने के संबंध में  निम्नलिखित घोषणाऐं की गई हैंः-ः-


1. न्यायालय स्वतंत्र रूप से कार्य करेंगी ।
2. न्यायालय और न्यायाधीश निष्पक्ष और निर्भिक होकर न्याय प्रदान करेंगे ।
3. .विधि का व्यवसाय स्वतंत्र रूप से किया जाएगा ।

        इस प्रकार विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार न्यायालय प्रशासन द्वारा न्याय प्रदान करना ही विधि का शासन है, जिसमें बिना डर, दबाव, पक्षपात के न्याय प्रदान किया जाएगा । इसके अंतर्गत कानून किसी के साथ विभेद नहीं करेगा, सभी पर समान रूप से लागू होंगा और सभी को समान और संपूर्ण संरक्षण प्रदान किया जाएगा ।
       


























 

पूर्व निर्णीत प्रकरणों के संबंध में

  पूर्व निर्णीत प्रकरणों के  संबंध में

    माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय की विशेष खंडपीठ में पाॅच जजो ने 2003 भाग-1 जे0एल0जे0 105 में पूर्व निर्णय के संबंध में सिद्धांत अभिनिर्धारित किये है, जिसमें मान्नीय मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा बलवीर सिंह (पूर्वोक्त) के मामले में पूर्ण न्यायपीठ के विनिश्चय में, जिसमें अभिनिर्धारित किया गया हैं कि यदि उच्चतम न्यायालय की दो समान अधिकारयुक्त न्यायपीठो के दृष्टिकोण में विरोध हो तब उच्च न्यायालय द्वारा उस निणर््ाय का अनुसरण किया जाना होगा जिसमें से प्रतीत हो कि विधि अधिक विस्तृत रूप और अधिक सही और अधिनियम की योजना के अनुरूप अभिकथित हैं, जिसे सही विधि न मानते हुए उसे इस बिंदु पर उलटा गया है । अतः  2001 रा नि 343त्र 2001  (2) एम पी एल जे 644  (पूर्ण न्यायपीठ) द्वारा उलटा गया ।
        इसके बाद ए.आई.आर. 2005 सुप्रीम कोर्ट 752 सेन्ट्र्ल बोर्ड आॅफ द्विवेदी बोरा कमेटी विरूद्ध महाराष्ट्र् राज्य के मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय के पाॅच न्यायाधीशगण के द्वारा पूर्व निर्णय के संबंध में दिशा निर्देश प्रतिपादित किये गये हैं जिसमें निम्नलिखित सिद्धांत अभिनिर्धारित किए हैं।
1-        उच्च न्यायालय के बारे में, एकल न्यायपीठ अन्य एकल न्यायपीठ के विनिश्चय से आबद्ध हैं।
2-         यदि एकल न्यायाधीश अन्य एकल न्यायपीठ के दृष्टिकोण से सहमत नहीं हो तब उन्हें उस मामले को बृहत्तर न्यायपीठ को निर्देशित करना चाहिए।
3-         इसी प्रकार खंड न्यायपीठ, पूर्वतर खंड न्यायपीठ के विनिश्चय से आबद्ध हैं ।
4-         यदि वह पूर्वतर खंड न्यायपीठ के विनिश्चय से सहमत नहीं हो तब उसके द्वारा मामला बृहत्तर न्यायपीठ को निर्देशित किया जाना चाहिए।
5-        समान सामथ्र्य की दो खंड न्यायपीठो के विनिश्चयों में विरोध की दशा में पूर्वतर खंड न्यायपीठ के विनिश्चय का अनुसार किया जाएगा, सिवाय तब जब उसे पश्चात्वर्ती खंड न्यायपीठ द्वारा स्पष्ट किया गया हो , जिस दिशा में पश्चात्वर्ती खंड न्यायपीठ का विनिश्चय बाध्यकर होगा ।
6-        बृहत्तर न्यायपीठ का विनिश्चय, लघुतर न्यायपीठों के लिए बाध्यकर हैं।
7-        उच्चतम न्यायालय के दो विनिश्चयों में विरोध की दशा में, जब न्यायपीठों में न्यायाधीशों की संख्या समान हो तब पूर्वतर न्यायपीठ का विनिश्चय बाध्यकर होता हैं, सिवाय तब जब समान संख्या की पश्चात्वर्ती न्यायपीठ द्वारा स्पष्टीकृत हो, जिस दशा में पश्चात्वर्ती विनिश्चय बाध्यकर होता हैं।
8-         बृहत्तर न्यायपीठ का विनिश्चय लघुतर न्यायपीठों के लिये बाध्यकर होता हैं। अतः पूर्वतर खंड न्यायपीठ का विनिश्चय, जब तब पश्चत्वर्ती खंड न्यायपीठ द्वारा प्रभेदित नहीं हो, उच्च न्यायालयों तथा अधीनस्थ न्यायालयों के लिए बाध्यकर है।
9-         इसी प्रकार, जब खंड न्यायपीठ के विनिश्चय तथा बृहत्तर न्यायपीठ के विनिश्चय विद्यमान हो तब उच्च न्यायालयों तथा अधीनस्थ न्यायालयों पर बृहत्तर न्यायपीठ के विनिश्चय बाध्यकर हैं।
10-        उच्चतम न्यायालय के विभिन्न विनिश्चयों में जो सामान्य सूत्र हैं वह यह हैं कि उस पूर्व निर्णय को अत्यधिक मूल्य दिया जाना होता हैं जो न्यायालय के विनिश्चयों में सामंजस्य तथा सुनिश्चितता के प्रयोजनार्थ न्यायालय द्वारा अनुसरित विनिर्णय के रूप में प्रवर्तित हो गया हैं । जब तक पूर्व निर्णय के रूप में प्रस्तुत किए गए विनिश्चय को न्यायालय द्वारा स्पष्टतः प्रभेदित नहीं किया जा सका हो अथवा वह कुछ ऐसे पूर्व निर्णयों को विचार में लिय बिना,अनवधानता के कारण दिया गया हो जिनसे न्यायालय सहमत हो।
   





       

विधि का शासन और न्यायपालिका की भूमिका


विधि का शासन और न्यायपालिका की भूमिका
           
        विधि के शासन का अर्थ विधि के द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार निष्पक्ष, निडर होकर पक्षपातरहित ढंग से न्याय प्रदान करना विधि का शासन कहलाता है,  न्यायालय को संहिताबद्ध विधि भारतीय दण्ड संहिता सिविल प्रक्रिया संहिता, दण्ड प्रक्रिया संहिता आदि के पालन में कोई बाधा नहीं है ।  जिसमें न्यायालय लिखित विधि के अनुसार कार्य कर विधि का शासन प्रदान करते हंै।
         लेकिन हमारे देश में अनेक जाति, धर्म भाषा के लोग हैं, जिनमें अनेक रूढी प्रथा और रीति-रिवाज विद्धमान है, जो विधि का रूप रखते ंहै, जैसे मुस्लिम विधि संहिताबद नहीं है, लेकिन मुस्लिम धर्म ग्रन्थ शरियत और कुरान के आधार पर कानून पर आधारित है । इसी प्रकार गौड़-भील, आदिवासी आदी जनजातियांें में भी सामाजिक रूढी प्रथा रीतिरिवाज प्रचलित हैं, जिसके अनुसार उनके यहां विवाह, तलाक, दत्तक, उत्तराधिकार की कार्यवाही होती है, जो न्यायालय में प्रमाणित होने पर विधि का रूप रखते हैं ।
        इसलिए जब न्यायालय द्वारा असंहिताबद्ध रूढीगत विधि को लागू किया जाता है तब न्यायालय को यह ध्यान रखना चाहिए कि वह संविधान के द्वारा प्रदत्त मूल और कानूनी अधिकारों का ध्यान रखते हुए विधि के समक्ष समता-समानता-संरक्षण, वर्ग विभेद, लिंगभेद, जातिभेद धर्मभेद को ध्यान में रखते हुए व्यक्तिगत स्वतंत्रता और प्राकृतिक न्याय तथा मानव अधिकार के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए न्याय प्रदान करे, यही विधि का शासन है ।
        व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संबध्ंा में मूल अधिकारों का उल्लंघन होने पर व्यक्ति को मूल अधिकारों के संबध्ंा में संविधान के द्वारा गारंटी प्रदान की गई है और भारत के उच्च और उच्चतम न्यायालय रिट जारी कर उनके अधिकारों को संरक्षण प्रदान करते हैं ।
        न्याय प्रशासन में विधि का शासन लागू करने में वरिष्ठ न्यायालय की महत्वपूर्ण भूमिका है और वे समय-समय पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता, गिरफतारी, संरक्षण आदि के संबंध में दिशा-निर्देश जारी कर न्यायालय, पुलिस प्रशासन आदि से संबंधित संस्थाओं को सचेत करते  रहते है, उनके द्वारा प्रतिपादित दिशा निर्देशों को लागू करना अधीनस्थ न्यायालय और राज्य का कर्तव्य है ।
        न्यायालयों में विधि का शासन प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका राज्य के प्रमुख अंग जिला कलेक्टर, न्यायिक मजिस्ट्रेट, कार्यपालिक मजिस्ट्रेट, पुलिस आदि की रहती है और सर्वप्रथम संज्ञेय अपराध घटित होने पर पुलिस द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करना अनिवार्य है और उसके पश्चात् उसकी जांच कर अभियोग पत्र पेश करना सुरक्षा एजेन्सीयों का काम है और प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकरण के साथ उसकी प्रतिलिपि धारा 157 द.प्र.सं. के अंतर्गत संबंधित न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजने के साथ ही  विधि का शासन और संरक्षण प्रभावशील हो जाता है ।
        आरोपी के गिरफतार होने पर उसे मान्नीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा डी.के.बसु के मामले में दी गई गाईडलाईन के अनुसार पुलिस के द्वारा गिरफतार किया जाता है, उसे गिरफतारी के कारणों की सूचना दी जाती है । उसके सगे-संबंधियों को गिरफतारी की सूचना से अवगत कराया जाता है और उसे पसंद के अधिवक्ता से सलाह लेने की छूट दी जाती है, इसके बाद उसे 24 घण्टे के अंदर न्यायालय के समक्ष पेश किया जाता है । उसके साथ गिरफतारी के दौरान अमानवीय व्यवहार नहीं किया जाता है, हथकड़ी-बेड़ी नहीं लगाई जाती है । उसे मारपीट कर प्रताडि़त नहीं किया जाता है ।
        आरोपी के गिरफतार होने के बाद व्व्यक्ति को जब सर्वप्रथम मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है तो मजिस्ट्रेट की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । वह आरोपी से पूछतांछ करता है, यदि उसके शरीर पर कोई चोट है, तो उसका मेडीकल करवाता है या वह अपना चिकित्सीय परीक्षण कराना चाहता है तो उसका चिकित्सीय परीक्षण कराया जाता है । इसके बाद उसे और अभियेाजन को सुनकर न्यायिक अभिरक्षा अथवा पुलिस अभिरक्षा में विधिक प्रावधानों के अनुसार भेजा जाता है ।
        मजिस्ट्रेट के द्वारा यदि गिरफतारी के दौरान मानव अधिकारों का उल्लंघन पाया जाता है तो उसका परिवाद मानव अधिकार न्यायालय के समक्ष मानवअधिकार अधिनियम की धारा 13 के अंतर्गत प्रस्तुत कर सकता है । निर्धारित समय अवधि  के लिए न्यायिक रिमांड और पुलिस रिमांड दिए जाने के साथ ही साथ जमानत के सबंध में आरोपी को सुना जाता है और उसे विधिक प्रावधानों के अनुसार जमानत प्रदान की जाती है अथवा निरस्त की जाती है  ।
        उसके बाद न्यायालय में चालान पेश होने पर आरोपी को चालान की नकल दी जाती है । यदि प्रार्थी इलाज के लिए सहायता चाहता है तो उसे सरकारी खर्च पर न्यायालय द्वारा इलाज कराने की सुविधा दी जाती है । आरोपी और प्रार्थी दोनों को निःशुल्क विधिक सहायता प्रदान किए जाने का प्रावधान है, ताकि कोई भी व्यक्ति बिना अभिरक्षा के विचारण का सामना न कर सके ।
        उसके बाद आरोप लगाए जाने के साथ ही विचारण प्रारंभ होता है और विचारण भी शीघ्र किए जाने पर ही विधि का शासन प्रभावशील होता है । विधि के शासन के अनुसार शीघ्र विचारण होना चाहिए, विचारण प्रारंभ होने के दौरान साक्ष्य अभिलेखन न्यायालय द्वारा किया जाता है और यह एक महत्वपूर्ण कार्य है, जिसमें न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने वाले साक्षियों की साक्ष्य घटना के संबध्ंा में अभिलिखित की जाती है ।
        न्यायालय में उपस्थित साक्षियांे को आने- जाने का खर्च दिया जाता है । अभियोजन साक्षी बिना डर दबाव के अपनी साक्ष्य प्रस्तुत करें इसलिए उन्हें सुरक्षा प्रदान की जाती है । इसके बाद आरोपी को आरोपी को बचाव का पर्याप्त अवसर दिया जाता है और उसे भी अपनी तरफ से बचाव साक्ष्य पेश करने का अवसर प्राप्त होता है । विचारण के दौरान उसके निर्दोष होने की उपधारणा की जाती है, जब तक कि वह दोषी नहीं ठहराया जाए, उसके निर्दोष होने की उपधारणा की जाती है । दस दोषी छूट जाऐं, परंतु एक निर्दोष को दोषी नहीं ठहराया जाए, इस बात को ध्यान में रखते हुए न्यायिक विचारण किया जाता है ।
        आरोपी के निर्दोष होने की उपधारणा के बाद विचारण प्रारंभ होने के बाद उसे बचाव और प्रतिरक्षा का पर्याप्त अवसर देकर उसके विरूद्ध आई साक्ष्य से अभियुक्त परीक्षण में अवगत कराकर उससे बचाव में साक्ष्य देने का अवसर प्रदान किया जाता है । यदि उसे लिखित में अंतिम तर्क प्रस्तुत किए जाने और उसे खुद की बाध्यता के साथ बचाव में साक्ष्य प्रस्तुत करने के प्रावधानों के साथ साक्ष्य का विश्लेषण कर निणर््ाय पारित किया जाता है ।
         निणर््ाय पारित होने के बाद आरोपी और प्रार्थी दोनों के हितों को ध्यान  में रखते हुए दण्डादेश पारित किया जाता है, जिसमें प्रार्थी को हुए नुकसान के लिए प्रतिकर और खर्च दिलाया जाता हैे । आरोपी को दण्ड इस उददेश्य के साथ दिया जाता है कि अपराध की पुनर्रावृत्ति न हो और उसे देखकर समाज में सुधार हो और अन्य कोई व्यक्ति पुनः इस प्रकार का अपराध करने की न सोचे ।
        विचारण के समय महिला संबंधी अपराधों में मान्नीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा साक्षी के मामले में प्रतिपादित गाईडलाईन का ध्यान रखा जाता है । प्रार्थी का नाम उजागर न हो, इस बात का ध्यान रखते हुए कैमरा ट्रायल की जाती है । विचारण के दौरान सुलह, समझौता, राजीनामा का प्रयास किया जाता है ताकि पक्षकारों में आपसी सामन्जस्य स्थापित हो और उनमें व्याप्त दुश्मनी, वैमनस्यता समाप्त हो ।
        इस प्रकार विधि द्वारा स्थापित न्यायालय विधिक प्रावधानों के अंतर्गत कार्य करते हुए विधि का शासन स्थापित करते हैं ।