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बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

मुस्लिम विधि के अंतर्गत दाम्पत्य संबंधों की पुनसर््थापना


              मुस्लिम विधि के अंतर्गत दाम्पत्य संबंधों की पुनसर्थापना


1           अनीष बेगम विरूद्ध मो. इष्तफा वली खा, ए.आई.आर.-1933 (इलाहाबाद)-634 के मामले में यह ठहराया गया है कि मुस्लिम विधि के अंतर्गत दाम्पत्य संबंधों की पुनसर्थापना का वाद विनिर्दिष्टतः अनुपालन के वाद की प्रकृति का है तथा ऐसे अधिकार को प्रवृत्त किये जाने के लिये लाये गये वाद में मुस्लिम विधि के सिद्धांतों को ध्यान में रखा जाना आवष्यक है। दाम्पत्य संबंधों के पुनसर््थापन के अधिकार के विषय में ऐसा कोई परम अधिकार नहीं है कि पति बिना शर्त पत्नी को अपने साथ रखने के लिये बाध्य कर सके तथा न्यायालय को इस बारे में मामले की परिस्थितियों को देखते हुये विवेकाधिकार का प्रयोग करना चाहिये। 


2    .        न्याय दृष्टांत इतवारी विरूद्ध श्रीमती अगरी आदि, ए.आई.आर. 1960 (इलाहाबाद)-684 के मामले में, जहा भरण-पोषण हेतु याचिका प्रस्तुत किये जाने के बाद पति ने दाम्पत्य संबंधों के पुनसर्थापन के लिये वाद संस्थित किया था तथा पत्नी द्वारा वाद का विरोध इस आधार पर किया गया था कि पति उसके साथ दुव्र्यवहार करता है एवं वाद केवल इसलिये लाया गया है ताकि वह भरण-पोषण के दायित्व से अपने आपको बचा सके,

 न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि दाम्पत्य संबंधों की पुनसर्थापना का अनुतोष संविदा के विनिर्दिष्ट पालन की प्रकृति का होकर साम्य प्रकृति का अनुतोष है एवं साम्यिक सिद्धांतों के अंतर्गत ही उसे स्वीकृत या अस्वीकृत किया जाना चाहिये। उक्त मामले में दाम्पत्य संबंधों की पुनसर्थापना का अनुतोष प्रदान न किया जाना मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में उचित ठहराया गया।


3.        न्याय दृष्टांत शकीला बानू विरूद्ध गुलाम मुष्तफा, ए.आई.आर. 1971 (मुंबई)-166 की कंडिका 6 एवं 8 में किया गया प्रतिपादन भी इस क्रम में सुसंगत एवं अवलोकनीय है, जिसमें यह ठहराया गया है कि यदि पत्नी, पति के विरूद्ध क्रूरता का आक्षेप लगा रही है तो सामान्यतः इस संबंध में उसकी अभिसाक्ष्य के लिये संपुष्टिकारक साक्ष्य की मांग किया जाना अपेक्षित नहीं है।