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सोमवार, 5 अगस्त 2013

संविधान और समाजिक न्याय

            भारत का संविधान और समाजिक न्याय

        सामाजिक न्याय का आशय आम तौर पर समाज में लोगो के मध्य समता, एकता, मानव अधिकार, की स्थापना करना है तथा व्यक्ति की गरीमा को विशेष महत्व प्रदान करना है । यह मानव अधिकार और समानता की अवधारणाओं पर आधारित है और प्रगतिशील कराधन, आय, सम्पत्ति के पुनर्वितरण, के माध्यम से आर्थिक समतावाद लाना सामाजिक न्याय का मुख्य उद्देश्य हैं । भारतीय समाज में सदियों से सामाजिक न्याय की लडाई आम जनता और शासक तथा प्रशासक वर्ग के मध्य होती आई है । यही कारण हेै कि इसे हम कबीर की वाणी बुद्ध की शिक्षा, महावीर की दीक्षा, गांधी की अहिंसा, सांई की सीख, ईसा की रोशनी, नानक के संदेश में पाते हैं ।

        सदियों से मानव सामाजिक न्याय को प्राप्त करने भटकता रहा है और इसी कारण दुनिया में कई युद्ध, क्रांति, बगावत, विद्रोह, हुये हैं जिसके कारण कई सत्ता परिवर्तन हुए हैं । जिन राज्यों और प्रशासकों ने सामाजिक न्याय के विरूद्ध कार्य किया उनकी सत्ता हमेशा क्रांतिकारियों के निशानों में रही है । इसलिए प्रत्येक शासक ने अपनी नीतियों मे सामाजिक न्याय को मान्यता प्रदान की है । इसे हम चाणक्य की राजनीति, अकबर की नीतियों, शेरशाह सूरी के सुधारों, में देखते हैं ।

        हमारा भारतीय समाज पहले वर्ण व्यवस्था पर आधारित था जो धीरे  धीरे बदलकर जाति व्यवस्था मंे परिवर्तित हो गया, उसके बाद असमानता, अलगाववाद, क्षेत्रवाद, रूढीवादीता, समाज में उत्पन्न हुई जिसका लाभ विदेशियों के द्वारा उठाया गया और ‘‘फूट डालो और राज्य करों’’ की नीति अपनाकर भारत को एक लम्बी अवधि तक पराधीन रखा।
        लेकिन लोगो की एकता अखण्डता और भाईचारे की भावना से आजादी की लडाई लडने पर भारत 15 अगस्त सन् 1947 को आजाद हुआ और उसके बाद भारत में सामाजिक न्याय की स्थापना, व्यक्ति का शासन, सोच की स्वतंत्रता, भाषण प्रेस की आजादी, संघ बनाने की स्वतंत्रता हो, इसके लिए सर्वोच्च कानून बनाये जाने की आवश्यकता समझी गई और डाॅ.राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में संविधान सभा का गठन किया गया जिसमें डाॅ. बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर जैसे महान् व्यक्तित्व को मसौदा समिति का अध्यक्ष मनोनीत किया गया ।
        संविधान सभा की कई बैठको के बाद भारत के संविधान की रचना की गई, जो विश्व का सबसे बडा, लिखित, अनूठा, संविधान है जिसमें सामाजिक न्याय को सर्वोच्चता प्रदान की गई है । यह दुनिया का सामाजिक न्याय को दर्शित करने वाला एक प्रमाणिक अभिलेख है ।
        हमारे संविधान मंे सामाजिक और आर्थिक न्याय की गारंटी समस्त नागरिकों को तथा जीवन जीने की गारंटी प्रत्येक व्यक्ति को दी गई है। सामाजिक न्याय का मुख्य उद्देश्य व्यक्तिगत हित और सामाजिक हित के बीच सामान्जस्य स्थापित करना है । इसलिए कल्याणकारी राज्य की कल्पना संविधान निर्माताओं ने की है। बहुजन हितांयैं, बहुजन सुखांयै को ध्यान में रखते हुये समाजवादी व्यस्था स्थापित की गई है ।
        भारतीय समाजवाद अन्य राष्ट्ों के समाजवाद से अलग है । यहां पर सत्ता समाज में निहित रहती है, परन्तु उसका उपयोग समाज के हित के लिए हो इसलिए सरकार नियंत्रण रखती है । सामाजिक न्याय के लिए संविधान में जो प्रावधान दिये गये हैं उनका मुख्य उद्देश्य वितरण की असमानता को दूर करना तथा असमानों में संव्यवहारों में असमानता को दूर करना व कानून का प्रयोग वितरण योग साधन के रूप में समाज में धन का उचित बटवारां करने में किया जाये। इसका विशेष ध्यान रखा गया है ।
         हमारे संविधान की उद्देशीयका संविधान का आधारभूत ढांचा है । जिसमें सामाजिक, आर्थिक राजनैतिक न्याय प्रदान किये जाने की गारंटी प्रदान की गई है । इसके लिए भारतीय संविधान के भाग-3 में मौलिक अधिकार दिये गये हैं । भाग-4 में राज्यों को नीतिनिदेशक तत्व बताये गये है, जो राज्य की नीति का आधारस्तम्भ बताये गये हैं ।
        मूल अधिकार सम्बंधी भाग-3 अधिकारों का घोषणा पत्र, मेग्नाकार्टा, बिल आफ राइट्स, आदेश, हैं जिसके संबंध में न्यायधिपति श्री भगवती ने मेनका गांधी बनाम भारत संघ 1979 भाग-1 उच्चतम न्यायालय निर्णय पत्रिका 243 मामले में कहा है कि‘‘इन मूल अधिकारों का गहन उद्गम स्वतंत्रता का संघर्ष है । उन्हें संविधान में इस आशा और प्रत्याशा के साथ सम्मिलित किया गया था कि एक दिन सही स्वाधीनता का वृक्ष भारत में विकसित होगा । ये उस जाति के अवचेतन मन में अमिट तौर पर अंकित थे जिन्होंने ब्रिटिश शासन से मुक्ति प्राप्त करने के लिए पूरे 30 वर्षो तक लडाई लडी और संविधान अधिनियमित किया गया तो जिन्होंने मूल अधिकारों के रूप में अभिव्यक्ति पायी । ये मूल अधिकार इस देश की जनता द्वारा वैदिक काल से संजोये गये आधारभूत मूल्यों का प्रतिनिधत्व करते हैं और वे व्यक्ति की गरिमा का संरक्षण करने और ऐसी दशांए बनाने के लिए परिकल्पित हैं जिनमें हर एक मानव अपने व्यक्त्वि का पूर्ण विकास कर सके । वे मानव अधिकारों के आधार भूत ढांचे के आधार पर गारंटी का एक ताना-बाना बुनते है और व्यक्तिगत स्वाधीनता पर इसके विभिन्न आयामों में अतिक्रमण न करने की राज्य पर नकारात्मक बाध्यता अधिरोपित करते हैं।’’
        सामाजिक न्याय प्रदान किये जाने के लिए सर्व प्रथम हमारे संविधान के भाग 4 में उल्लेखित राज्य की नीतिनिदेशक तत्व एक लोकहितकारी राज्य और समाजवादी समाज की स्थापना के संबध में महत्वपूर्ण कदम है । जिसके संबंध में डाॅ. अम्बेडकर का कहना है कि हम कल्याणकारी राज्य के नागरिक है । हमारा कर्तव्य केवल शांति व्यवस्था बनाये रखना और जनता के प्राण की स्वतंत्रता और सम्पत्ति की सुरक्षा तक ही सीमित नहीं है बल्कि जन साधारण के सुख ओर समृद्धि की अभिवृद्धि करना है । इसलिए राज्यों को नीति निर्देशक तत्व दिये गये हैं ताकि वे इनका पालन करके जनता के हित के लिए आर्थिक लोक तंत्र की स्थापना कर सकते हैं । अपनी नीतियों के निर्धारण और कानून बनाने में वह इन्हें शामिल कर सकते हैं । 
        डाॅ. अम्ब्ेाडकर के अनुसार नीति निर्देशक तत्व भारतीय संविधान की अनोखी व्यवस्था है । जिसके संबंध में उनका कहना है कि हमारा संविधान संसदीय प्रजातंत्र की स्थापना करता है ।संसदीय प्रजातंत्र से तात्पर्य है-एक व्यक्ति एक वोट । हमारा यह भी तात्पर्य है कि प्रत्येक सरकार अपने प्रतिदिन के कार्य-कलापों में तथा एक विषय के अन्त में, जब कि मतदाताओ और निर्वाचक-मण्डल की सरकार द्वारा किये गये कार्यो का मूल्यांकन करने का अवसर मिलता है, कसौटी पर कसी जायेगी ।
        राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना का उददेश्य यह है कि हम कुछ निश्चित लोगों को यह अवसर न दें कि वे निरंकुशवाद को कायम रख सकें । जब हमने राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना की है, तो हमारी यह भी इच्छा है कि आर्थिक  लोकतंत्र का आदर्श भी स्थापित करें । प्रश्न यह है कि क्या हमारे पास कोई निश्चित तरीका है जिससे हम आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना कर सकते हैं ? विभिन्न ऐसे तरीके हैं जिनमें लोगों का विश्वास है कि आर्थिक लोकतंत्र समझते हैं, और बहुत से लोग समाजवादी समाज की स्थापना को सबसे अच्छा आर्थिक लोकतंत्र मानते है, और बहुत से लोग कम्युनिज्म की स्थापना को सर्वोत्तम आर्थिक समाजवाद का रूप मानते हैं ।             इस तथ्य पर ध्यान देते हुए कि आर्थिक लोकतंत्र लाने के विभिन्न तरीके हैं, हमने जो भाषा प्रयुक्त की है, उसमें जानबूझकर नीति- निदेशक तत्वों में ऐसी चीज रखी है जो निश्चित या अनम्य नहीं है । हमनेइसीलिए विविध तरीकों से आर्थिक लोकतंत्र के आदर्श तक पहंुचने के लिए चिन्तनशील लोगों के लिए पर्याप्त स्थान छोडा है । इस संविधान की रचना में हमारे वस्तुतः दो उद्देश्य हैं-राजनीतिक लोकतंत्र का रूप निर्धारित करना, और यह स्थापित करना कि हमारा आदर्श लोकतंत्र है और इसका भी विधान करना कि प्रत्येक सरकार, जो कोई भी सत्ता में हो, आर्थिक लोकतंत्र लाने का प्रयास करेगी ।
        सामाजिक और आर्थिक न्याय प्रदान किये जाने के लिए नीति निदेशक तत्व राज्य को यह निर्देश देते है कि वे लोक कल्याण की अभिवृद्धि करके ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना का प्रयास करें जिनमें सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक न्याय प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुनिश्चित हों ।
        ये वे निदेश है जो संविधान की प्रस्तावना में अन्तर्निहित हैं, जिनके अनुसार राज्य का कर्तव्य अपने नागरिकों के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक न्याय प्रदान करना है । उन्हें विचार अभिव्यक्ति, धर्म, विश्वास, उपासना, की स्वतंत्रता प्रदान करना है । उन्हें प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्रदान करना है तथा व्यक्ति की गरीमा राष्ट् की एकता और अखण्डता और बन्धुता को बढाना है । तभी हम भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बना सकते है ।    
        नीतिनिदेशक तत्व समाजिक न्याय प्रदान किये जाने की दिशा में उठाये गये महत्वपूर्ण कदम है जिसमें सामाजिक न्याय की विवेचना विस्तार तथा व्यापक रूप से की गई है । इसलिए ग्रेनविल आॅस्टिन ने निदेशक तत्वों की महत्ता को निम्न शब्दों में व्यक्त किया है -भारतीय संविधान प्रथमतः और सर्वोपरि रूप में एक सामाजिक दस्तावेज है । इसके अधिकांश उपबन्ध या तो प्रत्यक्षतः सामाजिक क्रान्ति के उद्देश्य को पूरा करने के लिए आवश्यक दशाओं की स्थापना करते हुये सामाजिक क्रांति के लक्ष्यों को आगे बढाने के लिए या तो सीधे उपबन्धित हैं, या फिर सम्पूर्ण संविधान में राष्ट्ीय पुनर्जागरण का लक्ष्य व्याप्त होते हुए भी सामाजिक क्रान्ति के लिए वचनबद्धता का जो मर्म है, वह भाग-3 और 4 के मूल अधिकारों तथा राज्य की नीति निदेशक तत्वों में है। यह संविधान की आत्मा है।’’
        संविधान शास्त्रीयों के अनुसार नीति निर्देशक तत्व और मूल अधिकारो के बीच में कोई विरोधाभाष नहीं है । डाॅ. अम्ब्ेाडकर के अनुसार यह कहना निरर्थक है कि नीति निर्देशक तत्वों का कोई महत्व नहीं हैं । मेरे विचार के अनुसार तो निदेशक तत्व बहुत ही महत्व के हैं, क्यों कि उनसे यह प्रस्थापित होता है कि हमारा आदर्श लोकतंत्र है। हम यह नही चाहते थें कि बिना किसी ऐसे मार्ग-दशर््ान के कि हमारा आर्थिक आदर्श क्या है, हमारा सामाजिक संगठन किस प्रकार का हो मात्र एक संसदात्मक प्रकार की सरकार संविधान में उपबन्धित विविध साधनों के माध्यम द्वारा गठित करा ली जाये । अतः हम लोगों ने संविधान में जानबूझकर नीति निर्देशक तत्वों का समावेश किया है ।’’
         इन सिंद्धातों में व्यापक लोक साधारण के हितो की रक्षा की भावना सन्निहित है । इसी कारण संविधान के 25वे संशोधन द्वारा राज्यों को निर्देशक तत्वों के सबंध में विधि बनाये जाने की शक्ति प्रदान की गई । जिसमें नीति निदेशक तत्वों को मूल अधिकारो पर प्राथमिकता दी गई है । और इसके अनुसार निदेशक तत्वों को कार्यन्वित करने के लिए बनायी गई किसी भी विधि को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती थी कि वह अनुच्छेद 14 और 19 द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारो से अंसगत है या उसे छीनती है या न्यून करती है ।
        इसीलिए सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय प्रदान किये जाने अनुच्छेद 38 में नया खण्ड 2 जोडकर नीति निर्देशक तत्व भी जोडा गया है कि राज्य विशेष रूप से आय की असमानता को कम करने का प्रयास करेंगा न केवल व्यक्तियों के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुये लोगो के समूहों के बीच प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरो की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा । इस प्रकार आर्थिक असमानता दूर करने का प्रयास किया गया है ।समाज के दुर्बल वर्गो के शिक्षा और अर्थ सम्बंधी हितों की अभिवृद्धि करने के लिए अनुच्छेद 46 इस बात का आह्वान करता है कि राज्य जनता के दुर्बल वर्गो के, विशेषतया अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित आदिम जातियों की शिक्षा तथा अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा तथा सामाजिक अन्याय तथा सब प्रकार के शोषण से उनकी संरक्षा करेगा ।
        अनुच्छेद-46 राज्य को जन के दुर्बलता और विशेषतया अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित आदिम जातियों के शिक्षा तथा आर्थिक हितों की विशेष सावधानी से उन्नति करने तथा सब प्रकार के शोषण से उनका संरक्षण करने का निदेश देता है ।
        संविधान के भाग-3 में भी अल्पसंख्यकों के अधिकारों के संरक्षण के लिए अनेक उलबन्ध हैं । अनुच्छेद-14 भारत के प्रत्येक व्यक्ति को विधि के समक्ष समता ओर विधियों के समान संरक्षण की गारंटी देता है । अनुच्छेद- 15 धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर सार्वजनिक स्थानों में प्रवेश पर राज्य द्वारा भेदभाव करने का प्रतिषेध करता हैं । इस अनुच्छेद की कोई भी बात राज्य को सामाजिक और शिक्षात्मक दृष्टि से पिछडंे हए वर्गो या अनुसूचित जातियों या अनुसूचित आदिम जातियों की उन्नति के लिए विशेष उपबन्ध करने में बाधक न होगी ।   
        बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लिए अनुच्छेद 45 अशिक्षा को दूर करने के उद्देश्य से राज्य को 14 वर्ष तक की आयु तक के सभी बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए उपबन्ध करने का निदेश देता है । 14 वर्ष के बालकों को निःशुल्क शिक्षा देना राज्य का संविधानिक दायित्व माना गया है । क्यों कि अनुच्छेद 21 के अधीन शिक्षा पाने का अधिकार एक मूल अधिकार है । किन्तु उच्च शिक्षा पाने के मामले में यह अधिकार राज्य की आर्थिक क्षमता पर निर्भर करेगा ।
        समाज के दुर्बल वर्गो के शिक्षा और अर्थ सम्बंधी हितों की अभिवृद्धि करने के लिए अनुच्छेद 46 इस बात का आह्वान करता है कि राज्य जनता के दुर्बल वर्गो के, विशेषतया अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित आदिम जातियों की शिक्षा तथा अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा तथा सामाजिक अन्याय तथा सब प्रकार के शोषण से उनकी संरक्षा करेगा ।
        अनुच्छेद-46 राज्य को जन के दुर्बलता और विशेषतया अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित आदिम जातियों के शिक्षा तथा आर्थिक हितों की विशेष सावधानी से उन्नति करने तथा सब प्रकार के शोषण से उनका संरक्षण करने का निदेश देता है ।
        संविधान के भाग-3 में भी अल्पसंख्यकों के अधिकारों के संरक्षण के लिए अनेक उलबन्ध हैं । अनुच्छेद-14 भारत के प्रत्येक व्यक्ति को विधि के समक्ष समता ओर विधियों के समान संरक्षण की गारंटी देता है । अनुच्छेद- 15 धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर सार्वजनिक स्थानों में प्रवेश पर राज्य द्वारा भेदभाव करने का प्रतिषेध करता हैं । इस अनुच्छेद की कोई भी बात राज्य को सामाजिक और शिक्षात्मक दृष्टि से पिछडंे हए वर्गो या अनुसूचित जातियों या अनुसूचित आदिम जातियों की उन्नति के लिए विशेष उपबन्ध करने में बाधक न होगी ।       
        अनुच्छेद-16 सरकारी नौकरियों के लिए अवसर की समानता की गारंटी करता है और इसके संबंध में धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग उदभव, जन्मस्थान, निवास के आधार पर भेदभाव को वर्जित करता है । किन्तु राज्य उक्त वर्गो के व्यक्तियों के लिए, यदि उन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका है, नियुक्तियों या पदों पर आरक्षण का प्रावधान कर सकता है । अनुच्छेद-17 अस्पृश्यता का उन्मूलन करता है जो भारतीय समाज का एक महान कलंक था । अनुच्छेद-19-5 अनुसूचित आदिम जातियों के हितें की सरंक्षा के लिए इस अनुच्छेद के खण्ड घ, ड और च में प्रदत्त मूल अधिकारों पर निर्बन्धन लगाता है ।
        अनुच्छेद-29 से लेकर 30 तक में अल्पसंख्यकों की संस्कृति के संरक्षण के लिए उपबन्ध किया गया है । भारत में रहने वाले नागरिको के किसी वर्ग को, जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाये रखने का अधिकार प्राप्त है । सभी अल्पसंख्यक वर्गो को, चाहे वे धर्म या भाषा पर आधारित हो, अपनी रूचि की शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा । शिक्षा-संस्थाआंे को सहायता देने में राज्य किसी विद्यालय के विरूद्ध इस आधार पर विभेद न करेगा कि वह किसी अल्पसंख्यक वर्ग के प्रबंध में है ।
        अनुच्छेद-275 अनुसूचित आदिम जातियों के कल्याण हेतु राज्यों को
केन्द्र द्वारा सहायक अनुदान का उपबन्ध करता है । अनुच्छेद-325 के अनुसार निर्वाचन हेतु एक साधारण निर्वाचक-नामावली होगी तथा केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग के आधार पर कोई व्यक्ति किसी ऐसी नामावली में सम्मिलित किये जाने के लिए अपात्र न होगा ।
        अनुच्छेद-164 उडीसा, बिहार और मध्य प्रदेश राज्यों में आदिम अनुसूचित जातियों के कल्याण के लिए एक विशेष मंत्री का उपबन्ध करता है । अनुच्छेद-330 से लेकर 342 तक में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित आदिम जातियों, ऐंग्लो-इंडियन्स और पिछडे वर्गो के लिए विशेष उपबन्ध लोक सभा में सीटों के आरक्षण राज्यों में नौकरी में आरक्षण, पिछडा वर्ग नियुक्ति आयोग, अल्पसंख्यक आयुक्त की नियुक्ति आदी के प्रावधान किये गये है । अनुच्छेद- 347,350, 350क, 350ख, भाषायी अल्पसंख्यकों के संरक्षण की व्यवस्था करते हैं ।    अनुसूचित जाति, जनजाति बाहूल्य क्षेत्रों को संविधान के अंतर्गत विशेष क्षेत्र घोषित कर उसके निवासियों को विशेषाधिकार प्रदान किये गये         समान न्याय और निःशुल्क विधिक सहायता को सर्वाधिक महत्व प्रदान करते हुये अनुच्छेद 39क राज्य को यह निदेश देता है कि वह सुनिश्चित करे कि विधिक व्यवस्था इस प्रकार काम करे कि सभी को अवसर के आधार सुलभ हों और वह विशिष्टतया आर्थिक या किसी अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाये तथा उपयुक्त विधान द्वारा या किसी अन्य रीति से निः श्ुाल्क विधिक सहायता की व्यवस्था करें ।
        इस प्रकार निःशुल्क विधिक सहायता शीघ्र परीक्षण की व्यवस्था की गई है । राज्यों में विधिक सेवा प्राधिकरण बनाये गये है । लोक अदालत, सुलह, समझौते के आधार पर प्रकरणो के निपटारे का प्रयास किया जा रहा है ।
        हमारे भारतीय समाज में बहु विवाह, मानव बली, सती प्रथा, पशु हत्या, सदियों से व्याप्त है जिसे धार्मिक रंग देकर कानूनी वैद्धता अपने धर्म के नाम से प्रदान की गई है, जब कि यह सभी कार्य सामाजिक बुराई में शामिल है औरलोक आचरण के विरूद्ध है ।इसलिए संविधान निर्माताओं ने समान नागरिक संहिता की बात नीतिनिदेशक तत्वों में कही है और प्रत्येक विवाह के पंजीयन को कानूनी रूप से अनिवार्य बना दिया गया ।
        व्यक्ति के बौद्धिक, नैतिक, अध्यात्मिक, राजनीतिक, शारीरिक, मानसिक, विकास के लिए मूल अधिकार भाग-3 में प्रदान किये गये हैं जो वे आधारभूत अधिकार हैं जिनके अभाव में व्यक्ति का बहुमुखी विकास संभव नहीं है। यह अधिकार प्राकृतिक, अपर्रिहार है इसलिए इन्हें अप्रतिदेय माना गया है । यह सामाजिक न्याय के मापदण्ड और संरक्षक दोनो हैं । इनके बिना सामाजिक न्याय की प्राप्ति असंभव है ।        
        हमारे मान्नीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा केशवानंद भारती के मामले मे ंयह कहा गया कि मूल अधिकार तथा निदेशक तत्व हमारे संविधान के अन्तःकरण है । मूल अधिकार का प्रयोजन एक समतावादी समाज का निर्माण करना और समाज के उत्पीडन या बन्धनों से सब नागरिकों को मुक्त करना और सबके लिए स्वतंत्रता की उपलब्धि करना है । निदेशक तत्वों का प्रयोजन कुछ ऐसे सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को नियत करना है जो अहिंसात्मक क्रान्ति द्वारा तत्काल प्राप्त किये जा सकते हैं । मूल अधिकारों तथा निदेशक तत्वों के बीच कोई विरोध नही है । वे एक-दूसरे के पूरक हैं । इसी कारण पंडित जवाहरलाल नेहरू को कहना पडा है कि मूल अधिकार ओर नीति निदेशक तत्वो के मध्य विवाद होने पर निर्देशक तत्वों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए  क्यों कि इन सिद्धंातों में व्यापक लोक साधारण के हितों की रक्षा की भावना सन्निहित है ।
         नीति निर्देशक तत्व सामाजिक न्याय प्राप्ति के वे लक्ष्य है जो हमे प्राप्त करना है उन लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु हमे मूल अधिकारो के रूप में  वे साधन दिये गये हैं जिनके माध्यम से हमें उन लक्ष्यों की प्राप्ति करना है । आर्थिक, सामाजिक और राजनेतिक क्षेत्र में मानव के सुखी एंव उन्नत जीवन के लिए प्राकृतिक और अप्रतिदेय मूल अधिकार भाग- 3 में संविधान में दिये गये हैं ।
        जिसके संबंध में कहा गया है कि राज्य ऐसे कोई विधि नहीं बनायेगा  जो मूल अधिकारो से असंगत हो । संविधान के अनुच्छंेद 13 में  घोषित किया गया है कि भारत में  प्रदत्त कोई भी विधि जिसमें अध्यादेश, आदेश, उपनिधि, नियम, अधिसूचना, रूढियां और प्रावधान सम्मिलित है । वे मूल अधिकारों के असंगत नहीं होगी और उस मात्रा तक शून्य होगी जिस मात्रा तक वे भाग-3 के उपबंधों से अंसगत है । इसलिए कहा गया है कि राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बना सकता जो भाग-3 द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों को छीनती हो अथवा अन्यून करती हो ।
        सामाजिक न्यायप्रदान किए जाने संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 तक में प्रत्येक व्यक्ति को सम्मता का अधिकार दिया गया है और विधि के समक्ष समान संरक्षण प्रदान किया गया है । समान परिस्थिति वाले व्यक्ति के साथ समान व्यवहार किया जायेगा । इस प्रकार संविधान में समान न्याय का शासन प्रदान किया गया है क्यों कि कोई व्यक्ति कानून के उपर नहीं है । यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति चाहे किसी भी पद या अवस्था में हो देश की समान विधि के अधीन रहता है ।
        भारतीय समाज सदियों से रूढि प्रथा अन्धविश्वास सामाजिक कुरितियों से ग्रस्त रहा है । जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र के नाम पर समाज को बांटा गया है । इस सामाजिक असामनता को समाप्त करने के लिए अस्पृश्यता निवारण अधिनियम 1955 अनुच्छेद 17 के अनुसार बनाया गया है । अछूतपन के विरूद्ध गारंटी दी गई है । अछूतपन के आधार पर किसी को अयोग्य ठहराना दण्डनीय है। कोई भी व्यक्ति सार्वजनिक पूजा स्थल में जा सकता है । किसी घाट पवित्र कुओं, तालाब, जलधारा, झरने में नहा सकता है। अस्पृश्यता से उत्पन्न अयोग्यता को दण्डनीय अपराध घोषित किया गया है । जन्म रोग मृत्यु से उत्पन्न सामाजिक बुराईयों का अंत किया गया है । उपाधी तथा उपहारों पर रोक लगाई गई है । ताकि सामाजिक समानता अनुच्छेद-18 के अनुसार बनी रहे ।
        संविधान में किसी भी व्यक्ति को उसके प्राण देैहिक स्वाधीनता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जायेगा संविधान का यह अनुच्छेद 21 न सिर्फ कार्यपालिका के विरूद्ध विधिक संरक्षण प्रदान करता है बल्कि विधान मण्डल के विरूद्ध भी संरक्षण प्रदान करता है और विधान मण्डल ऐसी कोई विधि पारित नहीं कर सकता जो किसी व्यक्ति को उसके प्राण और देैहिक स्वतंत्रता से वंचित करती हो । विधान मण्डल द्वारा बनाई विधि, उचित, युक्तियुक्त, नैसर्गिक न्याय के सिंद्धातो के अनुरूप होनी चाहिए।
        एक सुव्यवस्थित समाज के लिए व्यक्तिगत स्वंतत्रता अनिवार्य है। कोई भी अधिकार आत्यन्तिक नहीं हो सकता इसलिए विधि का बंधन लगाया गया है । अनुच्छेद 21 में दैहिक स्वंतत्रता  में वे सभी तथ्य शामिल है जो व्यक्ति को पूर्ण बनाते हैं । इसके अंतर्गत अनुच्छेद 19 में प्रदत्त वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सभा करने की स्वतंत्रता, संघ बनाने की स्वंतत्रता, भ्रमण की स्वतंत्रता, आवास की स्वतंत्रता, शांतिपूर्वक और हथियारो के बिना इकट्ठा होने की स्वतंत्रता, पेशा, व्यवसाय, वार्णिज्य, एंव व्यापार की स्वतंत्रता शामिल है ।    
        दैेहिक स्वतंत्रता का अर्थ शारीरिक  स्वतंत्रता मात्र से नहीं है। इसके अंतर्गत वे सभी प्रकार के अधिकार शामिल है जो व्यक्ति को पूर्ण बनाते है और उसके अधिकारों को संरक्षण प्रदान करते है तथा सभी प्रकार के मनोवैज्ञानिक अवरोधों को हटाते हैं, व्यक्ति के निजी जीवन में किसी भी प्रकार का अप्राधीकृत हस्तक्षेप चाहे वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सभी से संरक्षण प्रदान करते है ।
        अनुच्छे 21 में प्रयुक्त प्राण शब्द का अर्थ केवल मानव जीवन नहीं है और यह न केवल शरीर के अंग भंग करने से निषेध करता है बल्कि इसके अंतर्गत एकांतता का अधिकार भी शामिल है । यह केवल भौतिक अस्तित्व तक सीमित नहींहै वरण् इसमें मानव गरिमा को बनाये रखते हुए जीने का अधिकार शामिल है । इसमें विदेश भ्रमण का अधिकार, व्यापार, व्यवसाय का अधिकार, एकांतता का अधिकार, मानव गरीमा के साथ जीने का अधिकार, न्यूनतम मजदूरी प्राप्त करने का अधिकार, जीवकोपार्जन का अधिकार प्रदूषण रहित जल और वायु के उपयोग का अधिकार, लोकहितवाद, प्रस्तुत करने का अधिकार, काम का अधिकार, वैधानिक रूप से पद मुक्ति का अधिकार, सडक पर व्यापार का अधिकार, बेगार न करने का अधिकार शामिल है ।
        अनुच्छेद 21 में प्राण दैहिक स्वतंत्रता केदियों को भी दी गई है । उन्हें निःशुल्क विधिक सहायता देना उनका शीघ्र न्याय करना शीघ्रता परीक्षण, एकांत कारावास, केदियों को लोहे की बेडिया न लगाना, जेल में अच्छा खाना देना, व्यक्ति को हथकडी न लगाना, परीक्षाणाधीन केदी को सिद्धदोष केदियों से दूर रखना । केदियों से अमानवीय व्यवहार न करना । एंकान्त वास में अधिक अवधि तक न रखना, आवश्यक सुविधाओं से वंचित न रखना । आदि अधिकार बंदियों को दिये गये है ।
        संविधान में प्रदत्त अनुच्छेद 21 को अपात्काल में भी निलंबित नहीं किया जा सकता है और संवैधानिक उपचारो का अधिकार जो डाॅ. अम्बेडकर के अनुसार जिसके बिना यह संविधान शून्य है जो संविधान की आत्मा है का प्रयोग किया जा सकता है और यह अधिकार हमें मूल अधिकारो की गारेंटी प्रदान करके सामाजिक न्याय प्रदान करता है ।
        शोषण के विरूद्ध व्यक्ति को सामाजिक, आर्थिक न्याय प्रदान करने अनुच्छेद 23 में कहा गया है कि मानव के क्रय विक्रय बेगार एंव बलात श्रम को प्रतिषेधित किया गया है । इन्हें दण्डनीय अपराध घोषित किया गया है । नारी का क्रय विक्रय रोका गया है । बेगार प्रथा को समाप्त किया गया है । स्वतंत्रता के पूर्व भारतीय समाज में यह दो महत्वपूर्ण कुरीतियां थी । भारतीय नवाब राजा, जमीदार, कमजोर वर्ग तथा गरीबों से बेगार लेते थे । उन्हें मजदूरी नहीं देते थे । गरीबी के कारण स्त्रीयों का क्रय विक्रय होता था। जिस पर रोक लगाई गई है
        संविधान में सामाजिक न्याय प्रदान किये जाने धार्मिक कट्टरता को खत्म किये जाने धर्म निरपेक्ष राज्य की परिकल्पना की है जिसका अर्थ है कि राज्य का स्वंय अपना कोई धर्म नहीं होगा और न ही अपने नागरिकों में धर्म के आधार पर राज्य भेद-भाव रख्ेागा । धर्म के मामले में तटस्थता बरती गई है । प्रत्येक धर्म को समान आधिकार प्रदान किया गया है ।
         भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय प्रदान करने हेतु जो मूल अधिकार दिये गये है उनकी सुरक्षा के लिए संवैधानिक उपचारो के अधिकार अनुच्छेद 32,226,136,141,142, आदि में दिये गये हैं और नागरिकों को मूल अधिकारों को गारंटी के साथ सुरक्षा प्रदान की गई है, जिसके लिए उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय को एक सजग प्रहरी के रूप में कार्य करते हंै ।