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बुधवार, 17 जुलाई 2013

दुष्प्रेरण

  धारा-306 और 107 भा0द0सं0 के अंतर्गत माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित   विधिक प्रतिपादनाऐ                            
                                                                       दुष्प्रेरण
                                भा0दं0सं0 की धारा-107 दुष्प्रेरण से संबंधित है । जिसके अनुसार कोई व्यक्ति किसी बात के लिये  दुष्प्रेरण करता है । 

पहला-    उस काम को करने के लिय किसी व्यक्ति को उकसाता है या 


दूसरा-    उस बात को करने के लिये किसी षडयंत्र में एक या अधिक अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों         के साथ सम्मिलित होता है । यदि उस षडयंत्र के अनुसरण में और उस बात को  करने के उददेश्य से कोई कार्य    या अवैध लोप घटित हो जाये या 


तीसरा-    उस बात के लिये किये जाने में किसी कार्य या अवैध लोप व्दारा साश्य सहायता   करता है ।

 
                                              मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा 2010 भाग 4 मनीसा पेज एक एस0एस0 चीना विरूद्ध विजय कुमार महाजन एंव अन्य में अभिनिर्धारित किया है कि दुष्प्रेरण किसी व्यक्ति को उकसाने की मानसिक प्रक्रिया या एक व्यक्ति को कोई चीज करने के लिये आशयित करने हेतु अन्तर्वलित करता है । अभियुक्त व्दारा बिना उकसाने या आत्म हत्या करने में सहायता के व्दारा कोई  सकारात्मक कार्य किये । विधान का आशय और इस न्यायालय व्दारा विनिश्चित प्रकरणों का अनुपात स्पष्ट है कि धारा 306 के तहत एक व्यक्ति को दोषसिद्ध करने के अनुसरण में अपराध कारित करने की स्पष्ट आपराधिक मन स्थिति होना चाहिये। 




.                       यह एक सजीव कार्य या प्रत्यक्ष कार्य भी आवश्यक करता है , जो मृतक को आत्म हत्या करने के अलावा  कोई अन्य विकल्प  नहीं देखते हुये प्रस्तुत करता है और कार्य मृतक को ऐसी स्थिति  में ढकेलने  के लिये आशयित होना चाहिये कि वह आत्म हत्या कारित करें ।

                   यदि मृतक निःसंदेह रूप से सामान्य चिडचिडेपन मनमुटाव और मतभेदों से अति संवेदनशील था जो हमारे दिन प्रतिदिन के जीवन में होते हैं । प्रत्येक व्यक्ति की मानवीय संवेदना  एक दूसरे से अलग होती है । भिन्न भिन्न लोग समान स्थिति में भिन्न भिन्न रूप से व्यवहार करते हैं ।तब हमे सावधानी से कार्य करना चाहिए 



                                                                                                   रमेश कुमार विरूद्ध छत्तीसगढ़ राज्य 2001 भाग-9 एस.एस.सी. 618 न्यायालय ने उकसाहट को परिभाषित करते हुए स्पष्ट किया है कि उकसाहट किसी कार्य को करने के लिये उत्तेजित करने, भड़काने या उत्साहित करने हेतु अंकुश होता है । उकसाहट की अपेक्षाओं को संतुष्ट करने के लिये यद्यपि यह आवश्क नहीं है कि मूल शब्द इस निमित उपयोग होना चाहिये या जो उकसाहट गठित करते है । आवश्यक रूप से और विनिर्दिष्टता पूर्वक परिणाम को सुझााते हो फिर भी भडकाने की निश्चित युक्ति युक्त परिणाम को अर्थान्वयत  किया जाना चाहिये 


                                             पश्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध होरीलाल जायसवाल-1994 भाग  1   एस0एस0सी0-73 में उच्चतम न्यायालय ने चेतावनी दी कि न्यायालय को प्रत्येक प्रकरण के तथ्य एंव परिस्थितिया निर्धारित करने में स्पष्टतः सावधान करना चाहिये और परीक्षण में निष्कर्ष के प्रयोजन हेतु प्रस्तुत साक्ष्य में क्या पीडित इतनी कूररता की शिकार थी, वस्तुतः उसको आत्म हत्या कारित करने के व्दारा जीवन का अंत करने के लिये प्रेरित किया गया । 




                                                          यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि पीडित ने आत्महत्या  अत्यधिक संवेदनशील सामान्य चिडचिडेपन, मनमुटाव और घरेलू जीवन में मत भेदो से कारित की थी ओर ऐसा चिडचिडापन, मनमुटाव और मतभेद सामान्यतः आत्महत्या कारित करने के लिये समाज में व्यक्ति को उकसाने हेतु अपेक्षित नहीं थे । न्यायालय का विवेक इस निष्कर्ष पर आधारित होने के लिये संतुष्ट नहीं होना चाहिये कि दुष्प्रेरण के आरोप का अभियुक्त आत्म हत्या के आरोप का दोषी होना पाया जाना चाहिये ।


                                                   उच्चतम न्यायालय के द्वारा चित्रेश कुमार चैपडा बनाम दिल्ली राज्य 2009 भाग-16 एस0एस0सी 605 में दुष्प्रेरण पर विचार किया है। न्यायालय ने ‘‘उकसाहट‘‘ और ‘‘प्रेरित‘‘ करना ‘‘ शब्दो के डिकशनरी अर्थ को व्यवहत किया। न्यायालय ने अभिमत दिया कि कोई आश्य पत्र व्दारा किसी कार्य को करने के लिये उकसाने, भडकाने या उत्साहित करने के लिये नहीं होना चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति के आत्म हत्या करने की विधि एक दूसरे से अलग अलग होती है। प्रत्येक व्यक्ति के पास उसकी स्वंय का स्व-आदर और स्व-प्रतिष्ठा की योजना होती है । इसलिये ऐसे प्रकरणो को व्यवहत करने के लिये कोई निश्चित सूत्र  प्रतिपादित करना असंभव है । प्रत्येक प्रकरण उसके स्वय के तथ्यों एव परिस्थितियों के आधार पर विनिश्चित होना चाहिये ।
       




       
                             विधि के सुस्थापित सिंद्धात के अनुसार भा0दं0वि0 की धारा 306 के आरोप में दंडित किये जाने के लिये दो तत्व आवश्यक है:-


    1-     यह कि एक व्यक्ति व्दारा आत्महत्या कारित करने के लिये उकसाना  या  प्रताडित  किये जाने के फलस्वरूव आत्म हत्या की गई है ।


    2-     यह कि आरोपी ने उसे आत्म हत्या करने के लिये दुष्प्रेरित किया।


                                                             भा0दं0वि की धारा-107 और 306 का एक साथ पठन करने  पर यह स्पष्ट होता हे कि यदि कोई व्यक्ति अन्य किसी व्यक्ति को आत्महत्या करने  को उकसाता है और ऐसे उकसाने के परिणाम स्वरूव दूसरा व्यक्ति आत्म हत्या करता है तो उकसाने वाला व्यक्ति धारा 306 भा0दं0वि0 के अंतर्गत उकसाने हेतु उत्तरदायी होता है । 
  
                                              इसके लिये आवश्यक है कि आत्म हत्या करने वाले की मनोस्थिति एंव मरने वाले के लिये आत्म हत्या करने  के अलावा ओर कोई रास्ता नही बचा है । विधि के सुस्थापित सिद्धांत अनुसार क्र्रोध ,भावनावश जल्दबाजी में उठाये गये  कदम दुष्प्रेरण की श्रेणी में नहीं आते है ।


                                           अमलेन्दु पाल उर्फ झंटू बनाम पश्चिमी बंगाल राज्य, ए.आईआर.2010 एस.सी.-512- 2009 ए.आई.आर.एस.सी.डव्लू. 7070 वाले मामले में मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने मत व्यक्त किया है किः-इस न्यायालय ने सतत् यह दृष्टिकोण अपनाया है कि किसी अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के अधीन अपराध का दोषी ठहराने के लिये न्यायालय को मामले के तथ्यो और परिस्थ्तिियों की अति सावधानी पूर्वक परीक्षा करनी चाहिये और उसके समक्ष प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का भी यह निष्कर्ष निकालने के लिये अवधारणा करना चाहिये कि क्या विपदग्रस्त के साथ की गई क्रूरता ओर तंग करने के कारण उसके पास अपने जीवन का अंत करने के सिवाये कोई अन्य विकल्प नहीं बचा था।

                                                      यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिये कि अभिकथित आत्महत्या दुष्प्रेरण के मामलो में आत्महत्या करने के लिये उकसाने के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्यो का सबूत होना चाहिये ।   घटना के सन्निकट समय पर अभियुक्त की ओर से किसी ऐसे सकारात्मक कार्य, जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया का अभाव होने के कारण भ0दं0वि0 की धारा 306 के निबंधनो में की गई दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है। 


                                        रणधीर सिंह बनाम पंजाब राज्य ,2004-13 एस.सी.सी. 120- ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 5097 - 2004 ए.आई.आर. एस.सी.डव्ल्यू 5832 किसी मामले को भारतीय दंड संहिता की धार 306 की परिधि के अंतर्गत आने के लिये मामला आत्महत्या का होना चाहिये और उक्त अपरध कारित करने में उस व्यक्ति जिसने कथित रूप से आत्महत्या करने के लिये दुष्प्रेरित किया था, द्वारा उकसाहट के किसी कार्य द्वारा या आत्महत्या करने के कार्य को सुकर बनाने के लिये कतिपय कार्य करके सक्रिय भूमिका अदा की जानी चाहिये । इसलिये उक्त अपराध से आरोपित व्यक्ति को भा0दंवि0 की धारा 306 के अधीन दोषसिद्व करने से पूर्व अभियोजन पक्ष द्वारा उस व्यक्ति द्वारा किये गये दुष्प्रेरण के कार्य को साबित और सिद्व किया जाना आवश्यक है । ‘‘


         मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 306 से संबंधित विधिक स्थिति को दोहराया है जो कि पैरा-12 ओर 13 में विस्तार से स्थापित हे । पैरा 12 और 13 इस प्रकार है:-


                               ‘‘ दुष्पेरण किसी व्यक्ति को उकसाने या जानबूझकर कोई कार्य करने में सहायता करने की एक मानसिंक प्रक्रिया  है । षडयंत्र के मामलों में भी उस कार्य को करने के लिये षडयंत्र करने की मानसिंक प्रक्रिया अंतर्वलित होती है । इससे पूर्व कि यह कहा जा सके कि भा0दं0सं0 की धारा 306 के अधीन दुष्प्रेरित करने का अपराध किया गया है, ऐसी अत्यधिक सक्रिय भूमिका होनी अपेक्षित है जिसे उकसाने या किसी कार्य को करने में सहायता करने के रूप में वर्णित किया जा सके ।

                                                                 पश्चिमी बंगाल राजय बनाम उड़ीलाल जायसवाल 1994 1-एस.सी.सी. 73- ए.आई.आर.1994 एस.सी. 1418- 1994 क्रिमी.ला जनरल 2104 वाले  मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया है कि न्यायालयों को यह निष्कर्ष निकालने के प्रयोजन के लिये कि क्या मृतिका के साथ की गई क्रूरता ने ही वास्तव में उसे आत्महत्या करके जीवन का अंत करने के लिये उत्प्रेरित किया था । प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों तथा विचारण में प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का अवधारणा करने में अत्यधिक सावधान रहना चाहिये।

                                                    यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि आत्महत्या करने वाला विपदग्रस्त घरेलू जीवन में ऐसी सामान्य चिड़चिड़ी बातो, कलह ओर मतभेदो के प्रति अतिसंवेदनशील था जो उस समाज के लिये एक सामान्य बात है जिसमें विपदग्रस्त रहता है और ऐसे चिड़चिड़ेपन, कलह और मतभेदो में उस समाज में के किसी व्यक्ति से उसी प्रकार की परिस्थितियों में आत्महत्या करने की प्रत्याशा नहीं थी, तब न्यायालय की अंतश्चेतना का यह निष्कर्ष निकालने के लिये समाधान नहीं  होना चाहिये कि आत्महत्या के अपराध के दुष्प्रेरण के आरोप से अभियुक्त को दोषी ठहराया जाये । ‘‘



                                                                मान्नीय उच्चतम न्यायालय के उपर उदघृत निर्णयों का परिशीलन करने पर यह बात ध्यान में रखी जानी आवश्यक है कि अभिकथित आत्महत्या के दुष्प्रेरण के मामलों मे आत्महत्या करने के लिये उकसाने का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्यो का सबूत होना चाहिये। घटना घटने के सन्निकट समय पर अभियुक्त की और से किसी ऐसे सकारात्मक कार्य, जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया ,का अभाव होने  के कारण भा0 दं0सं. की धारा 306 के निबंधनो में की गई दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है ।   
     
                                                      इसलिये अपेक्षित यह हैकि जब तक घटना के सन्निकट समय पर अभियुक्त की ओर से किया गया कोई ऐसा सकारात्क कार्य नहीं है । जिसने आत्म हत्या करने वाले व्यक्ति को आत्महत्या करने  के लिये बाध्य किया , धारा 306 के अधीन दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है । 


                                                          उमेश कुमार गुप्ता