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बुधवार, 7 अगस्त 2013

विधि के इतिहास



                   विधि के इतिहास

                                                           किसी भी देश के इतिहास  मानने के लिये वहां के विधि के इतिहास का अध्ययन किया जाना आवश्यक है । विधि के विकास एंव पतन से समाज जुड़ा हुआ है ।

             किसी भी देश में विधि का विकास एक दिन में नहीं होता है,बल्कि कई काल और परिवर्तन के बाद विधि का विकास होता है विधि के इतिहास के अंतर्गत न्यायालय का नियम एंव उसमें प्रतिपादित एंव लागू होने वाले सिद्वांतों अध्ययन से न्याय व्यवस्था को माना जा सकता है । 

                                                      भारतीय दंड सहिता ,भारतीय संविदा अधिनियम,व्यवहार प्रक्रिया सहिता, दण्ड प्रक्रिया संहिता, आदि का विकास सन् 1858 के बाद हुआ 

              ।भारत में न्याय व्यवस्था के संबंधमें लिखित मं जानकारी ईस्ट इंडिया कम्पनी के जन्म के साथ मिलती है । ईस्ट इंडिया कम्पनी लंदन के व्यापारियों की एक संस्था थी जिसका उद्वेश्य व्यापार करना था इसकी स्थापना इंग्लेंड की सम्राज्ञी द्वारा एक विशेष चार्टर जारी करके की जिसमें कम्पनी अपने कर्मचारियों पर अनुशासन बनाये रखने के लिये कानून बना सकती थी

         लेकिन वे कानून इंग्लेड के विपरीत नहीं हो सकते थे । इस प्रकार भारत में सर्वप्रथम किसी लिखित कानून की व्यवस्था सन् 1600 में लागू हुई है । 

                                              दि गवर्नर एण्ड कम्पनी मर्चेन्टस आफ लंदन ट्रेडिंग इन टू द ईस्ट के नाम से अर्थात ईस्ट इंडिया कम्पनी के नाम से भारत में आने तक मुगलो को शासन था।

                                      कम्पनी ने सर्वप्रथम सूरत में अपनी एक फेक्ट्री स्थापित की और सन् 1615 में सर टामस रो ने मुगल बादशाह से धर्म पालन और अपने कानून को लागू करने की अनुमति प्राप्त कर ली इसके बाद अंग्रेजो ने काजियों के अधिकार को भी समाप्त कर दिया और उनकी परिषद के द्वारा न्याय व्यवस्था लागू की ।

                                              इस प्रकार सर्वप्रथम भारत में अंगेरजी न्याय व्यवस्था सूरत में जूरी पद्वति के रूप में अंग्रेजो के द्वारा इंग्लेड के कानून के अनुसार कर दिया जाता था । जबकि यहां के भारतीयो पर मुस्लिम अपराध कानून लागू होता था । 

                                                            इस प्रकार भारत में पहली न्यायिक प्रणाली सूरत में लागू हुई थी । इसके बाद भी अग्रेजो ने मद्रास में दूसरी फेक्ट्री स्थापित की जहां पर भारतीय बस्ती काला नगर और अंग्रेज बस्ती श्वेत नगर कहलाती थी ।

             श्वेत नगर में अंग्रेज एजेन्ट एंव उनकी परिषद न्याय व्यवस्था इंग्लेड के कानून अनुसार लागू थी । दीवानीए फौजदारी विवाद का निराकरण करती थी ।

                   काले नगर में भारतीय का अपना न्यायालय था जिसे चाउल्ट्री न्यायालय कहते थे । इसके पदाधिकारी आदिगार कहलाते थे ।जघन्य अपराध की दशा में जिन राजाओं की अनुमति इंग्लेड के कानून में दंडित कर दिया जाता था ।

                                                   सन् 1666  में जब मद्रास प्रसीडेंसी नगर बना। तब भारतीय न्यायालय में इंग्लेड का कानून लागू होने लगा । समुद्र संबंधी विवादको के लिये एडमिरल्टी कोर्ट बनाया गया । 

                                                  सन् 1688 में कम्पनी नं अंतिम चार्टर जारी कर न्याय व्यवस्था हेतु एक निगम स्थापित किया । जिसमें एक मैयर होता थाए12 एल्डरमैन होते थे 

               60 से अधिक अन्य सदस्य होते थे। निगम का मैयर तथा एल्डरमैन मिलकर मैयर न्यायालय की स्थापना करते थे । यह कोर्ट आफ रिकार्ड अभिलेख न्यायालय थी जो दोनो विवाद सुनती थी। इसमें जूरी पद्धति लागू थी। इसके विरूद्ध विरूद्व एडमिरल्टी कोर्ट में अपील होती थी । 

                                                             1726 में बम्बई ईस्ट इंडिया कम्पनी को प्राप्त होने पर एक चारटर जारी कर बम्बई, कल्कत्ता, मद्रास के विरूद्ध एक  निगम की स्थापना की गई। जिसमें एक मेयरए 9 एलडर मैन होते थे । जो न्याय प्रशासन करते थे और मेयर न्यायालय कहा जाता था। 

                                                       मेयर न्यायालय में इंग्लेण्ड का कानून लागू होता था। यह अभिलेख न्यायालय था। यह केवल सिविल कोर्ट थी । इसके निर्णय के विरूद्ध इग्लेण्ड के सम्राट के सम्मुख अपील होती थी। इसमें जूरी पद्धति लागू होती थी। इसमें तीन सदस्य होते थे । इस प्रकार पहली बार भारत में इग्लेण्ड का कानून लागू किया गया । 

                                                             सन् 1753 में चार्टर के द्वारा सर्व प्रथम सत्र न्यायालयों की स्थापना की गई । भारतीय स्वेच्छया से अपना विवाद इस न्यायालय को सौंप सकते थे। प्रसीडेंसी नगरो में एक निवेदन न्यायालय कोर्ट आफ रिक्वेस्ट लघु वादो के निराकरण के लिए स्थापित की गई ।

                 पहली बार प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत लागू किया गया । एल्डरमैन जिसमें पक्षकार होता था उसमें न्यायाधीश के तरह कार्य नहीं कर सकता था। न्यायालय पर सरकारी नियंत्रण स्थापित किया गया । 

                                                   सन् 1765 में पहली बार बंगाल,बिहार, उडीसा, की दीवानी शाह आलम के द्वारा कम्पनी दिये जाने पर कम्पनी के द्वारा लगान वसूली और व्यवहार वादो में न्याय निर्णय का काम किया गया । निजाम अपराधिक मुकदमो का काम करता था यह काम भी कम्पनी के द्वारा किया जाने लगा ।

                                            इसके पूर्व बंगाल, बिहारए,उडीसा में जमीदार न्याय प्रदान करते थे। यदि वह मृत्यु दण्ड देता था तो नवाब की पूर्व अनुमति ली जाती थी। जमीदार अदालत व्यवहार मुकदमा में कार्य करती थी । धार्मिक मुकदमो को हल करने के लिए धार्मिक अदालते होती थी। जमीदार के निर्णय के विरूद्ध मुर्शिदाबाद में अपील होती थी।

                                                          सन् 1772 में वारेन हेस्टिग्स के द्वाराअदालत पद्धति का पुनर्गठन किया गया । बंगालए बिहारए उडीसा के प्रत्येक जिले में एक कलेक्टर की नियुक्ति मालगुजारी वसूली के लिए की जाती थी तथा दीवानी एंव फौजदारी अदालते स्थापित हुई।

                जिले का कलेक्टर मुफ्सिल दीवानी अदालत का अधिकारी होता था। जो पांच सौ रूपये तक के विवादो को सुनती थी। जिसमें सम्पत्ति संबंधी विवादए उत्तराधिकार संबंधी विवाद सम्मिलित थे। इनके निर्णय की प्रतिलिपियां प्राप्त की जा सकती है । 

                                                               मुफ्सिल दीवानी अदालतो के उपर सदर दीवानी अदालत थी । जिसमें एक गवर्नर उसके परिषद के दो सदस्य होते थे।
             इस अदालत में ट्रेजरी का दीवानए मुख्य कानूनगो तथा कचहरी के अन्य अधिकारी भी उपस्थित रहते थे।
                     सदर दीवानी अदालत 500 रूपये से अधिक विवादो को और मुफ्सिल अदालतो के मुकदमे सुनती थी। कलकत्ता महानगर को छोडकर शेष क्षेत्र मुफ्सिल क्षेत्र कहलाता था। परगने के मुखिया को दस रूपये के विवाद तक की सुनवाई का क्षेत्राधिकार प्राप्त था । 


                                       1774 की योजना में फौजदारी अदालत स्थापित की गई । काजी तथा मुफ्ती की सहायता के लिए मौलवी भी नियुक्त किये जाते थे । इनका कार्य कानून का उद्घोषण करना था। मौलवी दण्डाधिकारी नहीं होते थे।


                                                     प्रत्येक जिले के कलेक्टर का कर्तव्य था कि वह फौजदारी अदालत के सम्मुख गवाहों को पेश करें । अतः कलेक्टर प्रशासी कार्य भी करता था।

                     अपराधियों का परीक्षण खुली अदालतो में होता था। 

                                                               डकैती, हत्या , छल.कपट.शांति भंग इत्यादि के मुकदमें इन मुफ्सिल फौजदारी अदालतो द्वारा परीक्षित किये जाते थे ।यह अदालतें दण्ड में कोडे लगवाती थी तथा कारावास की सजा भी देती थी। दोषी व्यक्तियों अर्थात् अपराधियों को सडको पर दंड स्वरूप कार्य भी करना पडता था।

                                                      मुफ्सिल फौजदारी अदालतें अपराधी को मृत्यु दण्ड नहीं दे सकती थी। यदि मृत्यु दण्ड देना होता था । तो वह मुकदमा साक्ष्य के साथ सदर निजामत अदालत के अनुमोदन हेतु भेज दिया जाता था।

                                                          प्रत्येक मुफ्सिल निजामत अथवा फौजदारी अदालत को अपने प्रलेख सुरक्षित रखने पडते थे तथा निरीक्षण हेतु सदर निजामत अदालत भेजने पडते थे। इस प्रकार सदर निजामत अदालत का मुफ्सिल फौजदारी अदालतों पर नियंत्रण रहता था। 

                                                         जिलों की फौजदारी अदालतों के उपर एक सदर फौजदारी अदालत स्थापित की गई थी। इस अदालत के अधिकारी की नियुक्ति नाजिम द्वारा की जाती थी तथा इसे दरोगा अदालत कहा जाता था। दरोगा.अदालत की सहायता के लिये मुख्य काजी को नियुक्त किया जाता था। मुख्य काजी न्यायालय का मुख्य कानून उद्घोषक होता था। परन्तु वह मुख्य न्यायाधीश नहीं था।


                                         सदर फौजदारी अदालत जिले की फौजदारी अदालतो पर नियंत्रण रखती थी तथा मृत्यु दण्ड का अनुमोदन भी करती थी । गवर्नर.जनरल तथा उसकी परिषद् को सदर फौजदारी अदालत के प्रलेखों के निरीक्षण का अधिकार था।


                                           रेगुलेटिंग एक्ट 1773 ने न्याय व्यवस्था में अमूलचूल परिवर्तन किये । कलकत्ता में मेयर न्यायालय की जगह सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था की गई। सुप्रीम कोर्ट में एक मुख्य न्यायाधीश एंव एक न्यायाधीश होते थे। जो बेरिस्टर होते थे ।गवर्नर जनरल एंव उसकी परिषद को छोडकर सबके विरूद्ध क्षेत्राधिकार था । यह धार्मिक. एडमिरल्टी ,लेख क्षेत्राधिकार रखता था।

                                                       कलकत्ता में गर्वनर जनरल तथा चार सलाहकार बनाये गये । गवर्नर जनरल की परिषद बंगालए बिहारए उडीसा में कानून बना सकती थी। राजाज्ञाये जारी कर सकती थी । विधायनी शक्ति इग्लेण्ड के कानून के अंतर्गत प्रदान की गई थी। जिन्हें रेगुलेशन कहा जाता था। इस प्रकार इग्लेण्ड की संसद का कानून पहली बार कम्पनी में लागू होता था। बनारस और उसके क्षेत्र गाजीपुरए मिर्जापुरए जोनपुरए में रेगुलेटिंग एक्ट लागू किया गया ।


                                             1861 में भारतीय उच्च न्यायालय के अंतर्गत उच्च न्यायालयों की स्थापना की गई । उच्च न्यायालय मद्रासए कलकत्ता मुम्बई की गई ।एक न्यायाधीश तथा 15 से अधिक न्यायाधीश होते थे । सम्राट के द्वारा की जाती थी। जो जिला न्यायालय के विरूद्ध अपील सुनते थ् । तथा निम्न न्यायालयों में नियंत्रण रखती थी। 


                                                                 राजा नंद कुमार, कासी जुरा. पटनाकेस, कमालुद्दीन, के मामले से रेगुलेटिंग एक्ट की कमी उजागर होने पर 1881 बन्दोबस्त अधिनियम पारित किया गया । जिसमें कलकत्ता के बाहर भी कानून बनाने का अधिकार दिया गया । और सदर अदालतो को सुप्रीम कोर्ट के बराबर मानयता दी गई । 


                                                         1935 में भारत सरकार अधिनियम पारित हुआ । जिसमें दिल्ली में संघ न्यायालय फेडरल कोर्ट की स्थापना की गई। जो भारतीय उच्च न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध अपील सुनता था ।
                      यह सवैधानिक न्यायालय था। जिसके निर्णय के विरूद्ध प्रिवीकोंसिल इग्लेण्ड में अपील होती थी। 1950 में इसे समाप्त कर उच्चतम न्यायालय के रूप में इसकी स्थापना की गई ।

                     सुप्रीम कोर्ट की स्थापना के पहले प्रिवीकोसिल में अपील होती थी जो सम्राट की परिषद थी और इग्लेण्ड के परिषद को परामर्श देती थी तथा उसकी तरफ से न्याय करती थी।यह दुनिया की सबसे बडी अदालत थी। 


                                                                1726 के चाटर्स से स्थापित मेयर न्यायालय की पहली अपील गवर्नर परिषद को और दूसरी अपील इग्लैण्ड के सम्राट के सम्मुख अर्थात प्रिवीकौंसिल होती थी।
        1773 में बम्बईए कलकत्ताए मद्रास में स्थापित सुप्रीम कोर्ट की अपील प्रिवीकौंसिल में होती थी। पण्डितए दिनिशाए मुल्ला को हिन्दू विधि के लिए और फैजी को मुस्लिम विधि के लिए प्रिवीकौंसिल में नियुक्त किया गया ।


                                                                 भारत में प्रचलित कानूनो का संहिताकरण किया गया । 1833 में अखिल भारतीय व्यवस्थापिका की स्थापना की गई थी। 1835 में प्रथम विधि आयोग बनाया गया । 1853 में द्वितीय विधि आयोग के सुझाव पर भारतीय दण्ड संहिता 1860    , दं0प्र0सं0 1861     , व्य0प्र0सं0 1871ए,    बनाई गई तथा तृतीय आयोग के सुझाव पर भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम   ,भारतीय संविदा अधिनियम,                 पराक्रम लिखित अधिनियम, 1881   ,      संविदा का विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम,      भारतीय साक्ष्य अधिनियमए,     सम्पत्ति अंतरण अधिनियम,    कम्पनी अधिनियम,    साधारण खण्ड अधिनियमए,   तलाक अधिनियम, की संरचना की गई ।

                                                    भारत में प्रारंभ में हिन्दू विधि लागू होती थी। मुगल शासनकाल के बाद मुस्लिम अपराध कानून लागू हुआ लेकिन हिन्दूओ पर हिन्दू विधि और मुस्लिमो पर मुस्लिम विधि व्यवहार प्रकरणो में लागू होती थी। भारत में इग्लैण्ड की तरह अंग्रेजी शासन काल में सामान्य विधि  कामन ला  लागू होती थी।