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गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास का अपराध

             ’संहिता’ की धारा-307  हत्या के प्रयास का अपराध


1.        ’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास का अपराध गठित करने के लिये यह देखना आवश्यक है कि चोट की प्रकृति क्या थी, चोट कारित करने के लिये किस स्वरूप के हथियार का प्रयोग, कितने बल के साथ किया गया। घटना के समय प्र्रहारकर्ता ने अपना मनोउद्देश्य किस रूप से तथा किन शब्दों को प्रकट किया ? उसका वास्तविक उद्देश्य क्या था ? आघात के लिये आहत व्यक्ति के शरीर के किन अंगों को चुना गया ? आघात कितना प्रभावशाली था ? उक्त परिस्थितियों के आधार पर ही यह अभिनिर्धारित किया जा सकता है कि वास्तव में अभियुक्त का उद्देश्य हत्या कारित करना था अथवा नहीं
, संदर्भ:- म.प्र.राज्य बनाम रामदीन एवं पाच अन्य-1990, करेन्ट क्रिमिनल जजमेंट्स 228.
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2.        धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे। यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है।

 संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437


3.        महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध बलराम बामा पाटिल, ए.आई.आर 1983 सु.को. 305 में ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि एवं विस्तार पर विचार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा-307 के अंतर्गत दोष-सिद्धि को उचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि वास्तविक रूप से कारित उपहति की प्रकृति अभियुक्त के मंतव्य के बारे में विनिश्चय करने में पर्याप्त सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा मंतव्य अन्य परिस्थितियों के आधार पर भी तथा कतिपय मामलों में वास्तविक उपहति के संदर्भ के बिना भी विनिश्चय किया जा सकता है।

4  धारा-307 अभियुक्त के कृत्य तथा उसके परिणाम के बीच विभेद करती है तथा जहा तक आहत व्यक्ति का संबंध है, यद्यपि कृत्य से वैसा परिणाम नहीं निकला हो लेकिन फिर भी अभियुक्त इस धारा के अधीन दोषी हो सकता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि पहुचायी गयी उपहति परिस्थितियों के सामान्य क्रम में आहत की मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। न्यायालय को वस्तुतः यह देखना है कि अभियुक्त का कृत्य उसके परिणाम से भिन्न क्या ’संहिता’ की धारा 300 में प्रावधित आशय अथवा ज्ञान की परिस्थितियों के साथ किया गया।

5.            ’प्रयत्न’ का विधि एवं तथ्यों से गठन होता है। जो प्रकरण में विद्यमान परिस्थितियों पर निर्भर रहते हैं। धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे। यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है,

 संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437.




7.        म.प्र.राज्य विरूद्ध सलीम उर्फ चमरू एवं एक अन्य (2005) 5 एस.सी.सी. 554 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के अंतर्गत दोषसिद्धि को न्यायोचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो, जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि चोट की प्रकृति, अभियुक्त के आशय का पता लगाने में सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा आशय मामले की अन्य परिस्थितियों तथा कतिपय मामलों में कारित चोट के संदर्भ के बिना भी पता लगाया जा सकता है। इस मामले में स्पष्ट रूप से यह ठहराया गया है कि मामले को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के अंतर्गत लाने के लिये यह कतई आवश्यक नहीं है कि आहत को पहुचायी गयी चोट, प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो, अपितु यह देखा जाना चाहिये कि क्या कृत्य ऐसे आशय अथवा ज्ञान के साथ किया गया है जैसा धारा में उल्लिखित है। इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक न्याय दृष्टांतों का संदर्भ देते हुये यह स्पष्ट किया है कि केवल यह तथ्य कि आहत के मार्मिक शारीरिक अवयव क्षतिग्रस्त नहीं हुये हैं, अपने आप में उसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के बाहर नहीं ले जा सकता है।
 , संदर्भ:- हरिजन नारायण विरूद्ध स्टेट आफ आन्ध्रप्रदेष ए.आई.आर.-2003 एस.सी. -2851


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8.        ’संहिता’ की धारा 307 के अपराध के संबंध में न्याय दृष्टांत सरजू प्रसाद विरूद्ध बिहार राज्य, ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 843 में यह प्रतिपादित किया गया है कि मामले को ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि में रखने के लिये यह प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि ’संहिता’ की धारा 300 में वर्णित तीन प्रकार के आषयों में से कोई आषय अथवा ज्ञान की स्थिति उस समय विद्यामन थी, जबकि प्रहार किया गया तथा अभियुक्त की मनःस्थिति घटना के समय विद्यमान साम्पाष्र्विक परिस्थितियों के आधार पर तय की जानी चाहिये।


9.        उक्त क्रम में विधिक स्थिति की तह तक जाने के लिये कतिपय न्याय दृष्टांतों का संदर्भ भी समीचीन होगा। न्याय दृष्टांत महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध बलराम बामा पाटिल, ए.आई.आर 1983 सु.को. 305 में ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि एवं विस्तार पर विचार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा-307 के अंतर्गत दोष-सिद्धि को उचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि वास्तविक रूप से कारित उपहति की प्रकृति अभियुक्त के मंतव्य के बारे में विनिश्चय करने में पर्याप्त सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा मंतव्य अन्य परिस्थितियों के आधार पर भी तथा कतिपय मामलों में वास्तविक उपहति के संदर्भ के बिना भी विनिश्चय किया जा सकता है। धारा-307 अभियुक्त के कृत्य तथा उसके परिणाम के बीच विभेद करती है तथा जहा तक आहत व्यक्ति का संबंध है, यद्यपि कृत्य से वैसा परिणाम नहीं निकला हो लेकिन फिर भी अभियुक्त इस धारा के अधीन दोषी हो सकता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि पहुॅचायी गयी उपहति परिस्थितियों के सामान्य क्रम में आहत की मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। न्यायालय को वस्तुतः यह देखना है कि अभियुक्त का कृत्य उसके परिणाम से भिन्न क्या ’संहिता’ की धारा 300 में प्रावधित आशय अथवा ज्ञान की परिस्थितियों के साथ किया गया।


10.        ’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास का अपराध गठित करने के लिये यह देखना आवश्यक है कि चोट की प्रकृति क्या थी, चोट कारित करने के लिये किस स्वरूप के हथियार का प्रयोग, कितने बल के साथ किया गया। घटना के समय प्र्रहारकर्ता ने अपना मनोउद्देश्य किस रूप से तथा किन शब्दों को प्रकट किया ? उसका वास्तविक उद्देश्य क्या था ? आघात के लिये आहत व्यक्ति के शरीर के किन अंगों को चुना गया ? आघात कितना प्रभावशाली था ? उक्त परिस्थितियों के आधार पर ही यह अभिनिर्धारित किया जा सकता है कि वास्तव में अभियुक्त का उद्देश्य हत्या कारित करना था अथवा नहीं,

 संदर्भ: म.प्र.राज्य बनाम रामदीन एवं पाॅच अन्य-1990, करेन्ट क्रिमिनल जजमेंट्स 228.
11.        धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुॅचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे। यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है। संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437.
12.        उपरोक्त विधिक स्थिति से यह सुप्रकट है कि अभियुक्तगण के आषय के निर्धारण में उसके द्वारा कार्य की निरंतरता, चोटें कारित करने हेतु अवसर और समय की पर्याप्तता, हथियार का स्वरूप तथा चोटों का स्थान जैसे तत्व सहायक हो सकते हैं, लेकिन सदैव ही चोट की प्रकृति मात्र के आधार पर ऐसा निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि आषय हत्या करने का नहीं था।