धारा-89
सिविल
प्रक्रिया संहिता के अनुसार
जहां न्यायालय को यह प्रतीत
होता है कि प्रकरण में किसी
ऐसे समझौते के तत्व विद्यमान
है जो दोनो पक्षकारो को स्वीकार्य
हो सकता है वहां न्यायालय
समझौते के निबंधन बनाएगा और
उन्हें पक्षकारों को उनकी
टीका टिप्पणी के लिए देगा और
पक्षकारों की टीका टिप्पणी
प्राप्त करने के पश्चात न्यायालय
संभव समझौते के निबंधनपुनः
तैयार कर सकेगा और उन्हें
निम्न लिखित के लिए निर्दिष्ट
करें-
क- माध्यस्थम्,
ख- सुलह,
ग- न्यायिक
समझौते,जिसके
अंतर्गत लोक अदालत के माध्यम
से समझौता भी
शामिल
है,
घ- बीच-बचाव,
वैकल्पिक
न्यायिकेतर उपाय के सबंध में
सिविल प्रक्रिया संहिता के
आदेश 10
में
नियम 1क,
1ख,
और
1ग
जोडे गये है जो इस प्रकार है-
आदेश
10-1क----वैकल्पिक
विवाद प्रस्ताव का कोई एक
तरीका अपनाने का न्यायालय का
निर्देश-स्वीकृति
और इन्कार को लेखबद्ध करने
के बाद न्यायालय वाद से संबंधित
पक्षकारो को धरा-89
की
उपधारा 1
में
उल्लिखित न्यायाल से बाहर
सुलह समझौता के किसी तरीके
का विकल्प देने का निर्देश
देगा । पक्षकारो के विकल्प
देने पर,
न्यायालय
ऐसे न्यायमंच फोरम या प्राधिकारी
के समक्ष उपस्थिति की तारीख
नियत करेगा,
जैसा
पक्षकारों ने विकल्प दिया है
।
आदेश
10-1ख----सुलह/समझौता
न्यायमंच या प्राधिकारी के
समक्ष उपस्थिति-जहंा
नियम 1क
के अधीन किसी वाद को संदर्भित
किया गया हो तो उस वाद में सुलह
करने के लिए पक्षकार उस अधिकरण
न्यायमंच या प्राधिकारी के
समक्ष उपस्थित होगे।
आदेश
10-1ग----सुलह
के प्रयासो के असफल होने के
परिणामस्वरूप न्यायालय के
समक्ष उपस्थिति-
जहां
नियम जहंा नियम 1क
के अधीन किसी वाद को संदर्भित
किया गया है और उस सुलह न्यायमंच
या प्राधिकारी का समाधान हो
जाता है कि न्याय के हित में
उस मामले में आगे बढना उचित
नहीं होगा,
तो
वह उस मामले को वापस उस न्यायालय
को संदर्भित करेगा और पक्षकारो
को उसके द्वारा नियत दिनाक
को न्यायालय के समक्ष उपस्थित
होने का निर्देश देगा ।
क- माध्यस्थम्-
जहां
कोई मामला कोई माध्यस्थ् या
सुलह के लिए निर्दिष्ट किया
गया है वहां माध्यस्थम् और
सुलह अधिनियम 1996
का
26
के
उपबंध ऐसे लागू होंगे मानो
माध्यस्थम् या सुलह के लिए
कार्यवाहिया उस अधिनियम के
उपबंधों के अधीन समझौते के
लिए निर्दिष्ट की गई थीं,
इस
अधिनियम की धारा-73
के
अनुसार निपटारे के तथ्य विद्यमान
होने पर करार का निष्पादन किया
जायेगा ।
ख- सुलह-
सुलह
के अंतर्गत कोई करार न होने
की दशा में मामला किसी तीसरे
पक्षकार के समक्ष सुलह हेतु
भेजा जायेगा । इसके लिए आवश्यक
है कि एक पक्षकार के निमंत्रण
पर दूसरा पक्षकार लिखित में
आमंत्रण स्वीकार करना चाहिए
। सुलाह कर्ता का नियुक्ति
सहमति से की जायेगी ।सुलहकर्ता
विवादो को मेत्री पूर्ण ढंग
से स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप
से निपटाने में सहयोग प्रदान
करेगा ।
ग- न्यायिक
समझौते जिसमें लोक अदालत भी
शामिल है-
न्यायालय
प्रकरण को विधिक सेवा प्राधिकरण
अधिनियम 1987
का
39
की
धारा-20
की
उपधारा-
1 के
उपबंधों के अनुसार लोक अदालत
को निर्दिष्ट करेगा और उस
अधिनियम के सभी अन्य उपबंध
लोक अदालतों को इस प्रकार
निर्दिष्टि किए गए विवाद के
संबंध में लागू होंगे,
जहां
न्यायिक समझौते के लिए निर्दिष्ट
किया गया है,
वहां
न्यायालय उसे किसी उपयुक्त
संस्था या व्यक्ति को निर्दिष्ट
करेगा और ऐसी संस्था या व्यक्ति
लोक अदालत समझा जाएगा तथा
विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम
1987
का
39
के
सभी उपबंध ऐसे लागू होंगे मानो
वह विवाद लोक अदालत को उस
अधिनियम के उपबंधों के अधीन
निर्दिष्ट किया गया था,
लोक
अदालत का प्रत्येक अधिनिर्णय
विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम
1987
का
39
अधिनियम
की धारा-21
के
अंतर्गत किसी सिविल न्यायालय
की एक डिक्री माना जायेगा ।
घ- बीच-बचाव-बीच
बचाव के लिए निर्दिष्ट किया
गया है,
वहां
न्यायालय पक्षकारो के बीच
समझौता राजीनामा कराएगा और
ऐसी प्रक्रिया का पालन करेगा
जो विहित की जाए।
इस
प्रकार धारा-89
सहपठित
आदेश 10
नियम
1क,
1ख,
1ग,
मंे
न्यायालय के बाहर समझौता या
राजीनामा के आधार पर विवाद
निपटाने की नवीन व्यवस्था की
गई है जिसमें मुकदमे बाजी को
कम समय में आपसी मेल जोल के
वातावरण में सद्भावना पूर्वक
विवाद को निपटाया जाता है ।
धारा-89
के
अंतर्गत राजीनामा समझौते से
जो मामले निपटते है उनमें वादी
को पूरी न्यायशुल्क की पूरी
राशि वापिस की जाती है । इस
संबंध में विधिक सेवा प्राधिकरण
1987
की
धारा-20-1
के
अनुसार किसी लोक अदालत में
द्वारा कोई समझौता या परिनिर्धारण
कियाजाता है तो ऐसे मामले में
संदत्त न्यायालय फीस,
न्यायालय
फीस अधिनियम 1870
का
7
के
अधिन उपबंधित रीति में वापस
की जायेगी । इस संबंध में
न्यायालय जिला कलेक्टर को
प्रमाण पत्र जारी करेगा।
मध्यस्थता
धारा-89
के
अंतर्गत सुलाह समझौते का एक
महत्वपूर्ण आधार है । जिसके
संबंध में मान्नीय उच्चतम
न्यायालय के द्वारा
एस.एल.पी.नंबर-6000/2010
सी
नंबर-760/2007
एफकाॅम
इन्फ्रास्ट््रेेक्चर लिमि.
विरूद्ध
चेरियर वारके कार्पोरेशन
प्राईवेट लिमि.2010
भाग-8
एस.एस.सी.24
के
मामले में अभिनिर्धारित किया
है कि यह एक महत्वपूर्ण न्यायिक
प्रक्रिया है जिसका पालन कराया
जाना राजीनामा वाले मामलो
में अनिवार्य है । इस मामले
में भी ऐसे मामलो की सूचि दी
गई है जिनमें मध्यस्थ के मामले
की प्रक्रिया का पालन कराया
जाना चाहिए और यह भी बताया गया
कि किन मामलो में इसका पालन
आवश्यक नही है ।
मध्यस्थता
के लिए उपयुक्त मामलो में जैसे
1.
दीवानी
मामले,
निषेधादेश
या समादेश,
विशिष्ट
निष्पादन,
दीवानी
वसूली,
मकान
मालिक किरायेदार के मामले,
बेदखली
के मामले,
2.
श्रमिक
विवाद
3.
मोटर
दुर्घटना दावे,
4.
वैवाहिक
मामले,
बच्चो
की अभिरक्षा के मामले,
भरण-पोषण
के मामले,
5.
अपराधिक
मामले,
जिनमें
धारा-406,498ए
भा.द.वि.
एंव.
पराक्रम
लिखत अधि
नियम
की धारा-138
के
मामले,
धारा-125
दं.प्र.स.
भरण-पोषण
के
मामले,
निम्नलिखित
मामले मध्यस्थता हेतु उपयुक्त
नहीं पाये गयेः-
1.
लोकहित
मामले,
2.
ऐसे
मामले जिनमें शासन एक तरफ से
पक्षकार है ।
3.
आराजीनामा
योग्य धारा-320
द.प्र.सं.
के
अवर्णित मामले
प्रत्येक
प्रकरण में मध्यस्थ की प्रक्रिया
अनिवार्य है लेकिन यदि आवश्यक
तत्व न हो तो मध्यस्थ को भेजा
जाना प्रकरण को आवश्यक नहीं
है । इसमें पक्षकारो के मध्य
विभिन्न कोर्ट में लंबित सभी
मामले एक साथ निपटते हैं ।
कोर्ट फीस वापिस होती है ।
आदेश की अपील नहीं होती है ।
मध्य
प्रदेश शासन के द्वारा इस सबंध
में 30.082006
के
राजपत्र मंे नियम प्रकाशित
किये गये हैं । दोनो पक्ष आपसी
सहमति से एक मध्यस्थ को नियुक्त
कर सकते है या मध्यस्थ द्वारा
एक मध्यस्थ विचाराधीन वाद
के लिए नियुक्त किया जा सकता
है। मध्यस्थता हमेशा निर्णय
लेने की क्षमता दोनो पक्षों
को सौंप देती है ।
सर्व
प्रथम प्रत्येक जिले में एक
मध्यस्थ केन्द्र की स्थापना
की जायेगी । जिसका प्रभारी
अधिकारी ए.डी.जे.
स्तर
का होगा । मध्यस्थ के लिए
उपर्युक्त मामला पाये जाने
पर संबंधित न्यायाधीश एक
संक्षिप्त जानकारी सहित मामला
मध्यस्थ जिले मे स्थापित
मध्यस्थ केन्द्र के प्रभारी
अधिकारी को भेजेगा । प्रभारी
अधिकारी राष्ट््रीय विधिक
सेवा प्राधिकरण के द्वारा
नियुक्त एंव मान्यता प्राप्त
मध्यस्थ को मामला सुपुर्द
करेगा ।
पक्षकारों
को मध्यस्थ केन्द्र में उपस्थित
होने की तारीख संबंधित न्यायाधीश
द्वारा दी जायेगी । मध्यस्थ
द्वारा 60
के
अंदर मामले को निराकृत करने
का प्रयास किया जायेगा। पक्षकारो
के विशेष अनुरोध पर 30
दिन
ओर समयावधि बढाई जा सकती है
। 90
दिन
से ज्यादा समय मध्यस्थ कार्यवाही
हेतु नहीं दिया जायेगा ।
समझौता
होने पर ज्ञापन मध्यस्थ कार्यालय
में अभिलिखित किया जायेगा
जिस पर केस नंबर,
मध्यस्थ
केन्द्र का केस नंबर,
पक्षकारो
के नाम,
शर्तो
का उल्लेख होगा और उस पर मध्यस्थ
सहित सभी पक्षकार अधिवक्ताओ
के हस्ताक्षर होगें । एक-एक
प्रतिलिपि दोनो पक्षकारो को
दी जायेगी । जो न्यायालय में
प्रस्तुत करेंगे । तथा मध्यस्थ
भी समझौते की एक प्रति न्यायालय
को सीधे भेजेगी । न्यायालय
विधि अनुसार समझौते के अनुसरण
में समझौता डिक्री पारित करेगा
। जिसकी अपील नही होगी ।
जगदीश
प्रसाद विरूद्ध संगम लाल
आई.एल.आर.
2011 मध्य
प्रदेश 3011
में
अभिनिर्धारित किया गया है कि
प्रत्येक लोक अदालत का अधिनिर्णय
लिगल सर्विस अधार्टी एक्ट
1987
की
धारा-20
और
21
के
अंतर्गत सिविल न्यायालय की
डिक्री की श्रेणी में आता है
।
रमेशचंद
विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी.
आई
एल.आर.
2012 मध्य
प्रदेश 320
में
अभिनिर्धारित कियागयाहै कि
धारा-35
कोर्ट
फीस अधिनियम के अंतर्गत लोक
अदालत में राजी नामा होने पर
सम्पूर्ण राशि वापिस की जायेगी
और लोक अदालत का निर्णय धारा-21
के
अंतर्गत डिक्री की श्रेणी
में आता है ।
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