सहदायक की मृत्यु की दषा में, उस स्थिति में जबकि उसने अधिनियम की अनुसूची के वर्ग-1 की किसी महिला उत्तराधिकारी को अपने पीछे छोड़ा है, सम्पत्ति का न्यगमन हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 8 के अंतर्गत उत्तराधिकार के द्वारा होगा न कि उत्तरजीविता के आधार पर।
इस क्रम में न्याय दृष्टांत गुरूपद खाण्डप्पा विरूद्ध हीराबाई खाण्डप्पा, ए.आई.आर. 1978 एस.सी.1239 में प्रतिपादित यह विधिक स्थिति दृष्ट्व्य है कि मृतक के जिस हिस्से का न्यगमन होना है, उसे निर्धारित करने के लिये माने गये काल्पनिक बंटवारे के परिणाम वास्तविक बंटवारे जैसे ही होगंे।
सहदायिक सम्पत्ति में काल्पनिक बंटवारे से निर्धारित उसके हिस्से का न्यगमन उत्तराधिकार के आधार पर हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 8 के अंतर्गत होगा न कि धारा 6 के अंतर्गत उत्तरजीविता के आधार पर।
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न्याय दृष्टांत के.कनकरत्नम विरूद्ध ए.पेरूमल व अन्य, ए.आई.आर. 119 मद्रास-247, अप्पा बाबाजी मिसल पाटिल व अन्य विरूद्ध दागडू चंद्रू मिसल, ए.आई.आर. 1995 बाम्बे-333, गणेष प्रसाद विरूद्ध श्रीनाथ, 1986 एम.पी.डब्ल्यू.एन.-नोट- 193 तथा रघुनाथ सिंह विरूद्ध अर्जुन सिंह, 1993, एम.पी.डब्ल्यू.एन.-नोट- 208
किसी भी पक्षकार के द्वारा प्रस्तुत की गयी ऐसी साक्ष्य का कोई महत्व नहीं है, जो अभिवचनों से परे जाकर नये मामले का गठन करती है, अपितु वही साक्ष्य महत्वपूर्ण है, जो अभिवचनों के अनुरूप है।
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’हिबानामा’ का स्मरण लेख। इस क्रम में आलोच्य निर्णय में संदर्भित न्याय दृष्टांत छोटा उदान्दु साहिब विरूद्ध मस्तान बी, ए.आई.आर.-1975, आंध्रप्रदेष-271 का वह अंष विषेष रूप से संदर्भ योग्य है, जिसमें यह कहा गया है कि मुस्लिम विधि के अंतर्गत यह आवष्यक नहीं है कि वैध उपहार के लिये ’हिबानामा’ निष्पादित किया गया होे, लेकिन यदि ’हिबानामा’ निष्पादित किया गया है तो सम्पत्ति अंतरण अधिनियम तथा पंजीयन अधिनियम के प्रावधानों के प्रकाष में उसका पंजीकृत होना आवष्यक है, केवल उन मामलों को छोड़कर जहा ऐसा प्रलेख पूर्व से सम्पादित ’हिबा’ का स्मरण लेख मात्र है।
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1..फेकन बाई विरूद्ध रामसिंह व अन्य, 1968 जे.एल.जे.-षार्टनोट-23,
अक्षय कुमार बोस विरूद्ध सुकुमार दत्ता, ए.आई.आर. 1951 कलकत्ता-320,
युसुफ हसन विरूद्ध रौनक अली, ए.आई.आर. 1993, अवध-54
मनबोध विरूद्ध हीरा साय, ए.आई.आर. 1926 नागपुर-339
के मामलों में यह सुस्पष्ट विधिक प्रतिपादन किया गया है कि वाद-पत्र या प्रतिवाद-पत्र लोक प्रलेख की परिधि में नहीं आते हैं। ऐसी स्थिति में न तो उन्हें भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 74 के अंतर्गत लोक प्रलेख माना जा सकता है और न ही धारा 77 के अंतर्गत ऐसे प्रलेखों की प्रमाणित प्रतिलिपि लोक प्रलेख की प्रमाणित प्रतिलिपि के रूप में ग्राह्य है।
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आर.के. मोहम्मद ओबेदुल्ला विरूद्ध हाजी सी. अब्दुल बहात, ए.आई.आर. 2001 एस.सी. 1658 पैरा 15 मंसम्पत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 3 के स्पष्टीकरण क्र.2 के प्रकाष में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि वास्तविक आधिपत्य आधिपत्यधारी के स्वत्व के विषय में विविक्षित सूचना के समरूप है।
अभिवचनों के अभाव में साक्ष्य-- यह विधिक स्थिति सुसंगत एवं दृष्ट्व्य है कि अभिवचनों के अभाव में साक्ष्य, चाहे उसकी मात्रा कितनी ही क्यों न हो, को नहीं देखा जा सकता है। इस विधिक स्थिति के संबंध में न्याय दृष्टांत
सिद्दीक मोहम्मद शाह विरूद्ध मुसम्मात सरन, ए.आई.आर. 1930 पी.सी. 57
प्रेमचंद पाण्डे विरूद्ध सावित्री पाण्डे, ए.आई.आर. 1999 (इलाहाबाद)-43, कुलसुमन्निसां विरूद्ध अहमदी बेगम, ए.आई.आर. 1972 (इलाहाबाद)-219,
पष्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध मीर फकीर मोहम्मद, ए.आई.आर. 1977 (कलकत्ता)-29 इंदरमल विरूद्ध रामप्रसाद, ए.आई.आर. 1962 एम.पी.एल.जे. 781
राजस्व प्रलेखों में किये गये नामांतरण अथवा राजस्व प्रलेखों में की गयी प्रविष्टिया अपने आप में न तो स्वत्व प्रदान करती है और न ही स्वत्व का हरण करती हैं, क्योंकि किसी भी अचल सम्पत्ति में स्वत्व अर्जन या स्वत्व की समाप्ति विधिक प्रक्रिया के अंतर्गत ही हो सकता है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत दुर्गादास विरूद्ध कलेक्टर, (1996) 5 एस.सी.सी.-618 तथा शांतिबाई आदि विरूद्ध फूलीबाई आदि, 2007(2) एम.पी.एल.जे.-121 सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
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गंगाधर राव विरूद्ध गोलापल्ली गंगाराव, ए.आई.आर. 1968 (आंध्रप्रदेष) 291 तथा ओमप्रकाष ओमप्रभा जैन विरूद्ध अबनाषचंद्र, ए.आई.आर. 1968 (एस.सी.) 1083 इस विधिक स्थिति के संबंध में सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि एक पक्षकार अपने मामले को अभिवचनों के अनुरूप ही प्रमाणित करने का अधिकार रखता है तथा वह ऐसे किसी आधार पर सफलता का दावा नहीं कर सकता है, जिसके बारे में उसके द्वारा अभिवचन ही नहीं किया गया है। भिन्न शब्दों में पक्षकार उस मामले से, जो उसके द्वारा अभिवचनित किया गया है, भिन्न मामला साक्ष्य के द्वारा अभिवचनों में संषोधन किये बिना न्यायालय के समक्ष नहीं ला सकता है। ने यह अभिवचन किया था कि किरायेदारी नैवासिक उद्देष्य के लिये है, उसे साक्ष्य के द्वारा यह स्थापित करने की अनुमति नहीं दी गयी कि किरायेदारी गैर-नैवासिक उद्देष्य के लिये थी।
. अभिवचन में संषोधन समाविष्ट किये जाने बाबत् यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि ऐसे अभिवचन जिनसे वाद का स्वरूप नहीं बदलता है अथवा जो वाद के संस्थित किये जाने के बाद पष्चात्वर्ती परिस्थितियों के क्रम में जोड़ना आवष्यक हुये हैं, उनहें युक्तियुक्त शर्तों के साथ अनुज्ञात किया जाना चाहिये।र्
- किशोरीलाल विरूद्ध बालकिशन एवं एक अन्य, 2006(2)एम.पी.जे.आर.
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न्याय दृष्टांत चैनसिंह विरूद्ध रामचंद्र, 1992 राजस्व निर्णय-277 में माननीय उच्च न्यायालय के द्वारा यह स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि रजिस्ट्रीकृत विक्रय विलेख में कब्जा सौंपने तथा प्रतिफल का संदाय किये जाने विषयक बिन्दु निष्पादक और उसके कुटुम्ब के सदस्यों पर भी आबद्धकर है, जब तक कि उसके विपरीत किये गये अभिकथनों को समाधानप्रद स्पष्टीकृत न कर दिया जाये।
न्याय दृष्टांत नौनितराम विरूद्ध हीरा 1980(1) एम.पी.डब्ल्यू.एन. नोट-148 में भी यह अभिनिर्धारित किया गया है कि विक्रय पत्र में आधिपत्य सौंपे जाने के विषय में किये गये उल्लेख को अन्यथा प्रमाणित न किये जाने की दषा में विलेख को सही अवधारित किया जाना चाहिये जब तक कि अन्यथा प्रमाणित न कर दिया जाये।
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बूलचंद विरूद्ध अटलराम सिंधी धर्मषाला ट्रस्ट व अन्य 1997 एम.पी.ए.सी.जे. 255 ’अधिनियम’ की धारा 3(2) का लाभ तभी मिल सकता है जबकि न्यास की सम्पूर्ण आय का उपयोग धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक उद्देष्यों के लिये किया जा रहा हो। विनोद कुमार विरूद्ध सूरज कुमार, ए.आई.आर. 1987 (एस.सी.) 179
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इस क्रम में न्याय दृष्टांत गुरूपद खाण्डप्पा विरूद्ध हीराबाई खाण्डप्पा, ए.आई.आर. 1978 एस.सी.1239 में प्रतिपादित यह विधिक स्थिति दृष्ट्व्य है कि मृतक के जिस हिस्से का न्यगमन होना है, उसे निर्धारित करने के लिये माने गये काल्पनिक बंटवारे के परिणाम वास्तविक बंटवारे जैसे ही होगंे।
सहदायिक सम्पत्ति में काल्पनिक बंटवारे से निर्धारित उसके हिस्से का न्यगमन उत्तराधिकार के आधार पर हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 8 के अंतर्गत होगा न कि धारा 6 के अंतर्गत उत्तरजीविता के आधार पर।
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न्याय दृष्टांत के.कनकरत्नम विरूद्ध ए.पेरूमल व अन्य, ए.आई.आर. 119 मद्रास-247, अप्पा बाबाजी मिसल पाटिल व अन्य विरूद्ध दागडू चंद्रू मिसल, ए.आई.आर. 1995 बाम्बे-333, गणेष प्रसाद विरूद्ध श्रीनाथ, 1986 एम.पी.डब्ल्यू.एन.-नोट- 193 तथा रघुनाथ सिंह विरूद्ध अर्जुन सिंह, 1993, एम.पी.डब्ल्यू.एन.-नोट- 208
किसी भी पक्षकार के द्वारा प्रस्तुत की गयी ऐसी साक्ष्य का कोई महत्व नहीं है, जो अभिवचनों से परे जाकर नये मामले का गठन करती है, अपितु वही साक्ष्य महत्वपूर्ण है, जो अभिवचनों के अनुरूप है।
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’हिबानामा’ का स्मरण लेख। इस क्रम में आलोच्य निर्णय में संदर्भित न्याय दृष्टांत छोटा उदान्दु साहिब विरूद्ध मस्तान बी, ए.आई.आर.-1975, आंध्रप्रदेष-271 का वह अंष विषेष रूप से संदर्भ योग्य है, जिसमें यह कहा गया है कि मुस्लिम विधि के अंतर्गत यह आवष्यक नहीं है कि वैध उपहार के लिये ’हिबानामा’ निष्पादित किया गया होे, लेकिन यदि ’हिबानामा’ निष्पादित किया गया है तो सम्पत्ति अंतरण अधिनियम तथा पंजीयन अधिनियम के प्रावधानों के प्रकाष में उसका पंजीकृत होना आवष्यक है, केवल उन मामलों को छोड़कर जहा ऐसा प्रलेख पूर्व से सम्पादित ’हिबा’ का स्मरण लेख मात्र है।
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1..फेकन बाई विरूद्ध रामसिंह व अन्य, 1968 जे.एल.जे.-षार्टनोट-23,
अक्षय कुमार बोस विरूद्ध सुकुमार दत्ता, ए.आई.आर. 1951 कलकत्ता-320,
युसुफ हसन विरूद्ध रौनक अली, ए.आई.आर. 1993, अवध-54
मनबोध विरूद्ध हीरा साय, ए.आई.आर. 1926 नागपुर-339
के मामलों में यह सुस्पष्ट विधिक प्रतिपादन किया गया है कि वाद-पत्र या प्रतिवाद-पत्र लोक प्रलेख की परिधि में नहीं आते हैं। ऐसी स्थिति में न तो उन्हें भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 74 के अंतर्गत लोक प्रलेख माना जा सकता है और न ही धारा 77 के अंतर्गत ऐसे प्रलेखों की प्रमाणित प्रतिलिपि लोक प्रलेख की प्रमाणित प्रतिलिपि के रूप में ग्राह्य है।
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आर.के. मोहम्मद ओबेदुल्ला विरूद्ध हाजी सी. अब्दुल बहात, ए.आई.आर. 2001 एस.सी. 1658 पैरा 15 मंसम्पत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 3 के स्पष्टीकरण क्र.2 के प्रकाष में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि वास्तविक आधिपत्य आधिपत्यधारी के स्वत्व के विषय में विविक्षित सूचना के समरूप है।
अभिवचनों के अभाव में साक्ष्य-- यह विधिक स्थिति सुसंगत एवं दृष्ट्व्य है कि अभिवचनों के अभाव में साक्ष्य, चाहे उसकी मात्रा कितनी ही क्यों न हो, को नहीं देखा जा सकता है। इस विधिक स्थिति के संबंध में न्याय दृष्टांत
सिद्दीक मोहम्मद शाह विरूद्ध मुसम्मात सरन, ए.आई.आर. 1930 पी.सी. 57
प्रेमचंद पाण्डे विरूद्ध सावित्री पाण्डे, ए.आई.आर. 1999 (इलाहाबाद)-43, कुलसुमन्निसां विरूद्ध अहमदी बेगम, ए.आई.आर. 1972 (इलाहाबाद)-219,
पष्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध मीर फकीर मोहम्मद, ए.आई.आर. 1977 (कलकत्ता)-29 इंदरमल विरूद्ध रामप्रसाद, ए.आई.आर. 1962 एम.पी.एल.जे. 781
राजस्व प्रलेखों में किये गये नामांतरण अथवा राजस्व प्रलेखों में की गयी प्रविष्टिया अपने आप में न तो स्वत्व प्रदान करती है और न ही स्वत्व का हरण करती हैं, क्योंकि किसी भी अचल सम्पत्ति में स्वत्व अर्जन या स्वत्व की समाप्ति विधिक प्रक्रिया के अंतर्गत ही हो सकता है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत दुर्गादास विरूद्ध कलेक्टर, (1996) 5 एस.सी.सी.-618 तथा शांतिबाई आदि विरूद्ध फूलीबाई आदि, 2007(2) एम.पी.एल.जे.-121 सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
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गंगाधर राव विरूद्ध गोलापल्ली गंगाराव, ए.आई.आर. 1968 (आंध्रप्रदेष) 291 तथा ओमप्रकाष ओमप्रभा जैन विरूद्ध अबनाषचंद्र, ए.आई.आर. 1968 (एस.सी.) 1083 इस विधिक स्थिति के संबंध में सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि एक पक्षकार अपने मामले को अभिवचनों के अनुरूप ही प्रमाणित करने का अधिकार रखता है तथा वह ऐसे किसी आधार पर सफलता का दावा नहीं कर सकता है, जिसके बारे में उसके द्वारा अभिवचन ही नहीं किया गया है। भिन्न शब्दों में पक्षकार उस मामले से, जो उसके द्वारा अभिवचनित किया गया है, भिन्न मामला साक्ष्य के द्वारा अभिवचनों में संषोधन किये बिना न्यायालय के समक्ष नहीं ला सकता है। ने यह अभिवचन किया था कि किरायेदारी नैवासिक उद्देष्य के लिये है, उसे साक्ष्य के द्वारा यह स्थापित करने की अनुमति नहीं दी गयी कि किरायेदारी गैर-नैवासिक उद्देष्य के लिये थी।
. अभिवचन में संषोधन समाविष्ट किये जाने बाबत् यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि ऐसे अभिवचन जिनसे वाद का स्वरूप नहीं बदलता है अथवा जो वाद के संस्थित किये जाने के बाद पष्चात्वर्ती परिस्थितियों के क्रम में जोड़ना आवष्यक हुये हैं, उनहें युक्तियुक्त शर्तों के साथ अनुज्ञात किया जाना चाहिये।र्
- किशोरीलाल विरूद्ध बालकिशन एवं एक अन्य, 2006(2)एम.पी.जे.आर.
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न्याय दृष्टांत चैनसिंह विरूद्ध रामचंद्र, 1992 राजस्व निर्णय-277 में माननीय उच्च न्यायालय के द्वारा यह स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि रजिस्ट्रीकृत विक्रय विलेख में कब्जा सौंपने तथा प्रतिफल का संदाय किये जाने विषयक बिन्दु निष्पादक और उसके कुटुम्ब के सदस्यों पर भी आबद्धकर है, जब तक कि उसके विपरीत किये गये अभिकथनों को समाधानप्रद स्पष्टीकृत न कर दिया जाये।
न्याय दृष्टांत नौनितराम विरूद्ध हीरा 1980(1) एम.पी.डब्ल्यू.एन. नोट-148 में भी यह अभिनिर्धारित किया गया है कि विक्रय पत्र में आधिपत्य सौंपे जाने के विषय में किये गये उल्लेख को अन्यथा प्रमाणित न किये जाने की दषा में विलेख को सही अवधारित किया जाना चाहिये जब तक कि अन्यथा प्रमाणित न कर दिया जाये।
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बूलचंद विरूद्ध अटलराम सिंधी धर्मषाला ट्रस्ट व अन्य 1997 एम.पी.ए.सी.जे. 255 ’अधिनियम’ की धारा 3(2) का लाभ तभी मिल सकता है जबकि न्यास की सम्पूर्ण आय का उपयोग धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक उद्देष्यों के लिये किया जा रहा हो। विनोद कुमार विरूद्ध सूरज कुमार, ए.आई.आर. 1987 (एस.सी.) 179
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