किशोर
न्याय (
बालकों
की देख-रेख
तथा संरक्षण
अधिनियम 2000 एंव उसके नियमों के अधीन आयु
निर्धारण
अधिनियम 2000 एंव उसके नियमों के अधीन आयु
निर्धारण
किशोर
न्याय (बालकों
की देख-रेख
तथा संरक्षण)
अधिनियम
2000
जिसे
आगे अधिनियम से संबोधित किया
गया है । उसका उद्देश्य और
प्रयोजन विधि का उल्लंघन करने
वाले अपचारी और उपेक्षित
किशोरों की देख-रेख
संरक्षण,
उपचार,
विकास,
और
पुनर्वास करने का है । इसलिए
इसका निर्वाचन उदारतापूर्वक
किशोर के हित में किये जाने
निर्देशित किया गया है । अधिनियम
की धारा-2
ट
के अनुसार किशोर या बालक एक
ऐसे व्यक्ति से अभिप्रेत हैं
जो 18
वर्ष
की आयु पूरी नहीं की गई है ।
इस प्रकार उपेक्षित किशोर के
मामले में बालक और लड़की दोनो
की आयु एक समान रखी गई है ।
अधिनियम
की धारा-4
के
अंतर्गत अधीन किशोर न्यायबोर्ड
की स्थापना की गई है और सर्व
प्रथम विधि के साथ संघर्ष में
बालक को बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत
किया जायेगा और अधिनियम की
धारा-7
के
अंतर्गत जब इस अधिनियम के अधीन
एक बोर्ड की शक्तियों का प्रयोग
करने के लिए किसी मजिस्ट्ेट
के समक्ष बालक को प्रस्तुत
किया जायेगा तो अधिनियम की
धारा-7(2)
के
अंतर्गत वह जांच करेगा कि जो
किशोर या बालक उसके समक्ष लाया
गया है वह वास्तव में किशोर
बालक है अथवा नहीं । इस सबंध
में अधिनियम की धारा-49
में
आयु की उपधारणा और अवधारणा
संबंधी प्रावधान दिये गये
हैं ।
किशोर
न्याय बालको की देखरेख संशोधन
अधिनियम 2006
की
धारा-6
सं
संशोधित धारा-
7ए
से जोडी गई है-
धारा-7ए
के अनुसार जब किसी न्यायालय
में किशोर होने का दावा प्रस्तुत
हो,
तब
प्रक्रिया-
जब
किसी न्यायालय में किशोर होने
का दावा प्रस्तुत हो या न्यायालय
की यह राय हो कि अभियुक्त,
अपराध
करने के दिनांक को किशोर था,
तब
न्यायालय उस व्यक्ति की आुय
ज्ञात करने के लिए ऐसी जांच
करेगा और ऐसी साक्ष्य ग्रहण
(लेकिन
शपथ पत्र नहीं लेगा)
जो
आवश्यक हो और जांच का निष्कर्ष
लिखेगा कि वह व्यक्ति किशोर
या बालक है या नहीं और निष्कर्ष
में,
उसकी
आयु,
जहां
तक सम्भव हो उतनी सही लिखेगा
।
परन्तु
किशोर होने का दावा,
प्रकरण
के निराकरण के पश्चात् भी,
किसी
भी न्यायालय में उठाया जा
सकेगा और उसको मान्यता दी
जावेगी और वह दावा इस अधिनियम
के और इसके अन्तर्गत बने नियमों
के प्रावधान अनुसार निर्णित
किया जावेगा चाहे वह व्यक्ति
इस अधिनियम के लागू होने के
दिनांक को या इसके पूर्व किशोर
न रहा हो ।
अधिनियम
की धारा-7ए-2
के
अनुसार,
यदि
न्यायालय इस निर्णय पर पहंुचती
है कि वह व्यक्ति अपराध करने
के दिनांक को किशोर था तो वह
उस किशोर व्यक्ति को बोर्ड
के सन्मुख उचित आदेश पारित
करने हेतु प्रस्तुत करेगी और
यदि न्यायालय ने कोई दण्डादेश
दिया होगा वह प्रभावहीन हो
जावेगा ।
प्रताप
सिंह बनाम झारखंड राज्य और
एक अन्य 2005
भाग-3
उच्चतम
न्यायालय पत्रिका 10
में
प्रतिपादित दिशा निदेर्शो
के अनुसार किसी किशोर की आयु
का अवधारण उस तारीख से किया
जाएगा जिस तारीख को उसके द्वारा
अपराध किया गया न कि उस तारीख
से जिसको उसे उस अपराध के सबंध
में न्यायालय या सक्षम प्राधिकारी
के समक्ष पेश किया गया ।
अधिनियम
की धारा-68
के
अंतर्गत राज्य सरकार को राजपत्र
में अधिसूचना द्वारा इस
अधिनियम के प्रयोजनों का
अनुपालन करने के लिए नियम
बनाने के शक्ति दी गई है । इसी
शक्ति का प्रयोग करते हुए मध्य
प्रदेश शासन द्वारा मध्य
प्रदेश किशोर न्याय (बालको
की देखरेख और संरक्षण )नियम,
2003 की
रचना की गई है,
जिसे
आगे नियम से सम्बंोधित किया
गया है । नियम 10
मे
किशोर न्यायबोर्ड जांच में
अनुशरण की जाने वाली प्रक्रिया
बताई गई है ।
नियम
10(1) के
अनुसार बोर्ड बालक से संबंधित
प्रत्येक मामले में,
उसकी
आयु तथा उसकी शारीरिक और मानसिक
दशा के बारे में जन्म प्रमाण
पत्र या चिकित्सीय राय अभिप्राप्त
करेगा । उसके पश्चात अपनी राय
किशोर के सबंध में व्यक्त
करेगा । यदि बालक 18
वर्ष
से कम का पाया जाता है तो अधिनियम
की धारा-14
के
अंतर्गत आयु की जांच के पश्चात
कार्यवाही प्रारंभ करेगा।
अधिनियम
की धारा-6(2)
के
अंतर्गत इस प्रकार की शक्तियां
किशोर न्यायबोर्ड के रूप में
उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय
के समक्ष उस समय प्राप्त है
जब कार्यवाही अपील पुनरीक्षण
या अन्य रूप में उनके सामने
आती है । इस सबंध में सुस्थापित
सिद्धांत है कि अपचारी किशोर
की आयु की जांच लंबित रहते समय
उसे अन्तरिम जमानत पर छोड़ा
जायेगा ।
शाकिर मेवाती विरूद्ध मध्य प्रदेश शासन आई.एल.आर. 2011 भाग-3 संक्षिप्त नोट क्रमांक-116 में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि यदि सत्र विचारण के दौरान अभियुक्त की आयु का प्रश्न उठाया जाये तो मामले को किशोर न्यायालय/किशोर न्याय बोर्ड को निर्दिष्ट करने की बजाए सत्र न्यायालय को ही व्यक्ति की आयु के बारे में जांच प्रारंभ करना यह भली भांति सेशन न्यायालय की शक्तियों के भीतर है ।
शाकिर मेवाती विरूद्ध मध्य प्रदेश शासन आई.एल.आर. 2011 भाग-3 संक्षिप्त नोट क्रमांक-116 में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि यदि सत्र विचारण के दौरान अभियुक्त की आयु का प्रश्न उठाया जाये तो मामले को किशोर न्यायालय/किशोर न्याय बोर्ड को निर्दिष्ट करने की बजाए सत्र न्यायालय को ही व्यक्ति की आयु के बारे में जांच प्रारंभ करना यह भली भांति सेशन न्यायालय की शक्तियों के भीतर है ।
किशोर
अपराधी की जांच मामले की
परिस्थिति के अनुसार की जायेगी
संबंधी लेखों व दस्तावेजो पर
विचार करने के बाद बोर्ड को
संतुष्ट होना चाहिए तथा मामले
की परिस्थितियों के अनुसार
सभी आवश्यक जांच अपेक्षित है
जो उचित व न्यायसंगत है । वह
जांच बोर्ड को करनी चाहिए ।
बब्लू
पासी विरूद्ध झारखण्ड राज्य
न्यायदृष्टांत 2009
ए.आई.आर.
सुप्रीम
कोर्ट 314
में
यह अवधारित किया गया है कि
व्यक्ति से प्रथमतः उसके जन्म
प्रमाण-पत्र,
द्वितीयता
मेट््िरकुलेशन या समकक्ष
प्रमाण-पत्र
आयु के संबंध में प्राप्त किये
जाने चाहिए। जन्म प्रमाण-पत्र
या मेट््िरकुलेशन प्रमाण-पत्र
प्रस्तुत न होने की दशा में
व्यक्ति की आयु निर्धारित
करने मंे चिकित्सीय बोर्ड का
अभिमत लिया जा सकता है किन्तु
चिकित्सीय बोर्ड का अभिमत
निश्चायक प्रमाण नहीं होता
क्यों कि व्यक्ति के खान-पान,
वातावरण,
रहन-सहन,
अनुवांशिकता
और अन्य बाह्य कारण उसकी शारीरिक
बनावट पर प्रभाव डालते हैं ।
इस
प्रकार सर्वप्रथम जन्म एंव
मृत्यु के रजिस्टर में किये
गये प्रविष्टी पर विचार किया
जाना चाहिए उसके बाद स्कूल
रजिस्टर में प्रवेश आयु पर
विचार किया जाना चाहिए । परन्तु
यह ध्यान रखना चाहिए कि माता-पिता
स्कूल में प्रवेश कराते समय
आयु को कम ज्यादा कराने की
प्रवृत्ति रखते हैं । इसलिए
यदि इसकी संभावना हो तो मेडीकल
साक्ष्य को प्राथमिकता दी
जानी चाहिए । इसके लिए अस्थि
परीक्षण कराया जाना चाहिए ।
कुमारी
अनीता बनाम अटल बिहारी 1993
क्रि.ला.जनरल
549
एम.पी.
के
मामले में अभिनिर्धारित किया
गया है कि-जहां
किसी अपराध के संबंध में किसी
अभियुक्त व्यक्ति को यह अवसर
दिया गया कि वह अपनी बात को
साबित करें कि क्या अवयस्क
था अथवा यह कि क्या वह बालकथन
में अपराध किया है वहां यह
विचार व्यक्त किया कि जन्म
रजिस्टर की बातें तात्विक
मानी जायेंगी । इसी मामले में
यह भी अभिनिर्धारित किया गया
है कि जहां अभियुक्त की आयु
के विषय में कोई सम्यक प्रमाण
न था वहां न्यायालय को
रेडीयोंलोजिस्ट की रिपोर्ट
पर जोर दिया जाना चाहिए ।
इसी
मामले में अभियुक्त की आयु
प्रश्नगत था कि जिस दिन कथित
अपराध कारित हुआ था उस दिन
अभियुक्त व्यक्ति एक किशोर
था वहां यह विचार व्यक्त किया
गया कि उसका विनिश्चय परीक्षण
के स्तर पर किया जाना न्यायोचित
है । ओसीफिकेशन
परीक्षण के संदर्भ में
रेडीयोंलोजिस्ट की रिपोर्ट
के बारे में यह सुस्थापित
सिद्धांत है कि बालक पर खान-पान,
जलवायु,
रहन-सहन,
का
असर होने के कारण लगभग दो वर्ष
कम ज्यादा का अंतर आयु निर्धारण
के समय रखा जाना चाहिए ।
इस संबंध में 2008 भाग-1 एम.पी.एल.जे. क्रि.204 अनुज सिंह विरूद्ध मध्य प्रदेश शासन के मामले में अभिनिर्धारित किया गया है । इसी मामले में अभिनिर्धारित किया गया है जब दो दृष्टिकोण संभव हो तो अभियुक्त के हित में होने वाला दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए । प्रस्तुत मामले में स्कूूल दाखिला रजिस्टर और अस्थि संबंधी जांच में विरोधाभाष पाया गया है । 2007 भाग-3 एम.पी.एल.जे. 214 उमेद सिंह विरूद्ध मध्य प्रदेश शासन में भी यही बात अभिनिर्धारित की गई है ।
इस संबंध में 2008 भाग-1 एम.पी.एल.जे. क्रि.204 अनुज सिंह विरूद्ध मध्य प्रदेश शासन के मामले में अभिनिर्धारित किया गया है । इसी मामले में अभिनिर्धारित किया गया है जब दो दृष्टिकोण संभव हो तो अभियुक्त के हित में होने वाला दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए । प्रस्तुत मामले में स्कूूल दाखिला रजिस्टर और अस्थि संबंधी जांच में विरोधाभाष पाया गया है । 2007 भाग-3 एम.पी.एल.जे. 214 उमेद सिंह विरूद्ध मध्य प्रदेश शासन में भी यही बात अभिनिर्धारित की गई है ।
अधिनियम
की धारा-49
में
आयु की उपधारणा और अवधारणा
के संबंध में प्रावधान दिया
गया है जिसके अनुसार जहां यह
सक्षम प्राधिकरण को यह प्रतीत
होता है कि इस अधिनियम के
उपबंधों में से किसी के अधीन
इसके समक्ष लाया गया व्यक्ति
साक्ष्य देने के प्रयोजनार्थ
से भिन्न एक किशोर या बालक है
वहां सक्षम प्राधिकरण उस व्यक्ति
की आयु के बारे में ऐसी सम्यक
जांच करेगा और उस प्रयोजन के
लिए ऐसा साक्ष्य ग्रहण करेगा
जो आवश्यक लेकिन एक शपथ पत्र
नहीं और एक निष्कर्ष यथा शाक्य
निकटतम उसकी आयु का वर्णन करने
वाला एक निष्कर्ष अभिलिखित
करेगा चाहे व्यक्ति एक किशोर
या बालक हो ।
धारा-49(2)
के
अनुसार एक सक्षम प्राधिकरण
का कोई आदेश मात्र इस किसी
पश्चात्वर्ती सबूत द्वारा
अवैधानिक होना समझा जायेगा
कि जिस व्यक्ति के बावत् आदेश
पारित किया गया है,
वह
एक किशोर या बालक,
और
उसकी आयु होने के लिए सक्षम
प्राधिकरण द्वारा अभिलिखित
आयु नहीं है ।
अधिनियम
की धारा-49(1)
के
अनुसार जहां यह सक्षम प्राधिकारी
को प्रतीत होता है किकरेगा
और उस प्रयोजनार्थ वह ऐसा
साक्ष्य ग्रहण करेगा जो आवश्यक
हो और एक निष्कर्ष अभिलिखित
करेगा कि क्या व्यक्ति एक
किशोर है या नहीं और विशेष तौर
पर उसकी यथा शक्य निकटतम आयु
के बारे में निष्कर्ष अभिलिखित
करेगा । इस संबंध में शपथ पत्र
नहीं लिया जायेगा ।
इस
प्रकार अधिनियम की धारा-6,7,7ए,49,
के
अनुसार उपेक्षित बालक की आयु
की जांच का निर्धारण किया
जायेगा । जांच करते समय घटना
दिनांक को उपेक्षित बालक की
आयु उसके द्वारा प्रस्तुत
जन्म-मृत्यु
प्रमाण-पत्र
एंव प्रस्तुत दस्तावेजो तथा
अन्य चिकित्सीय अभिसाक्ष्य
पर विचार किया जायेगा ।
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