मुस्लिम अपराध कानून की विशेषताऐं
भारत में भा0द0स0 के पूर्व सन 1600 से लेकर 1860 तक मुस्लिम अपराध कानून लागू रहा । मुस्लिम अपराध कानून का जन्म अरब की तत्कालीन कठोर परिस्थितियों में हुआ था । अतः इस कानून में स्वाभाविक कठोरता थी । विभिन्न प्रकार के दंडारोपण के अनुसार यह कानून निम्नलिखित चार भागों में विभक्त किया जा सकता है
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1. किसा
2. दिया
3. हद
4. ताजिर
1. किसा
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किसा का शाब्दिक अर्थ प्रतिशोध है । अपराध कानून में इसका अर्थ जैसे को तैसा है । इस प्रकार मुस्लिम कानून व्यवस्था में बहुत से अपराध ऐसे थे जिनमें अपराधी को वही दंड मिलता था जो वह अपराध करता था । इस प्रकार की दंड व्यवस्था उन अपराधो के लिये थी जैसे जानबूझकर हत्या करना । किसी व्यक्ति को अंग भंग करना । इस दंड व्यवस्था के अनुसार उस व्यक्ति के संबंधी जिसके विरूद्व अपराध होता था। अपराधी के विरूद्व वही कार्य करते थे । यदि अपराधी किसी की हत्या कर देता था तो मृतक व्यक्ति के रिश्तेदार या संबंधी अपराधी की मृत्यु कर सकते थे । यदि अभियुक्त किसी की टांग तोड़ देता था तो दंड केे स्वरूप उसकी भी टांग तोड़ दी जाती थी । इस प्रकार का दंड अमानवीय था ।
2. दिया
इस दंड व्यवस्था के अनुसार अपराधी को कुछ धन क्षतिग्रस्त पक्ष को देना पड़ता था । सही दंड था । इसे ष्ष्रूधिर धनष्ष् भी कहा जा सकता है । यदि अनजाने में किसी व्यक्ति द्वारा अन्य को चोंट पहुंच जाती थी तो इस प्रकार की दंड व्यवस्था थी । इसका अर्थ है धन देकर अपराध मुक्त हो सकता था ।
कुछ अपराध इस प्रकार के भी थे जिनमें किसी को दिया में बदला जा सकता था । जैसे यदि किसी व्यक्ति की हत्या की है और मृतक व्यक्ति के संबंधी चाहे तो धन लेकर अभियुक्त को मुक्त कर सकते थे ।
3. हद
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हद का शाब्दिक अर्थ ष्ष् सीमाष्ष् है । मुस्लिम अपराध शास्त्र में इसके अर्थ .अपराध के लिये दंड की सीमा है । इस नियम के पीछे अन्तर्निहित धारणा यह है कि विशेष प्रकार के अपराधों के लिये निश्चित दंड दिया जावेगा या निश्चित दंड की व्यवस्था होगी । खुदा के विरूद्व अपराध एसमाज के विरूद्व अपराधएऐसे ही अपराध थे जिनमें दंड की सीमा निश्चित थी ।
न्यायाधीश को ही अभियुक्त के विरूद्व निश्चित दंड देना पड़ता था । यदि पत्थरों से मारते मारते किसी की हत्या करदी जाये तो उसके लिये दंड व्यवस्था नहीं हो सकती थी । कुछ ऐसे भी अपराध थे जिनमें बदले की दंड व्यवस्था नहीं हो सकती थी जैसे जिना । इस अपराध में भी दंड की सीमा निश्चित थी और अपराधी को 80 कोड़े लगते थे । इसी प्रकार की निश्चित दंड व्यवस्था उस व्यक्ति के लिये भी थी जो दूसरे की पत्नि के विरूद्व झूंठा जिना का आरोप लगाता था । हद की दंड व्यवस्था अत्यन्त कठोर थी ।
4. ताजिर
मुस्लिम अपराध शास्त्र में कुछ अपराध ऐसे भी थे जिनमें न्यायाधीश को अपने विवेक के अनुसार दंड देने की स्वतंत्रता थी। इस प्रकार के अपराध के अंतर्गत बन्दीगृह की सजा दी जाती थी । यदि कोई व्यक्ति किसी को अपमानित करता था तो उसके लिये भी ताजिर की व्यवस्था थी । ताजिर बहुत ही कम अपराधों के लिये व्यवस्थित किया गया था ।
इस प्रकार यद्यपि न्यायाधीश अभियुक्त को अपने विवेक से दंडित कर सकता था परन्तु विवेक लागू करने की सीमा थी । यदि आवश्यक्ता पड़ती थी तो दिया किसा इत्यादि को भी ताजिर में बदला जा सकता था । ताजिर के अंतर्गत ऐसे अपराध आते थे जिनकी प्रवृति समाज को दूषित करने की होती थी इसलिये कभी कभी अत्यन्त कठोर दंड भी दिया जाता था जिसे रियासत कहते थे।