.धारा 498(ए) के अंतर्गत शारीरिक या मानसिक क्रूरता
1...धारा 498(ए) के अंतर्गत शारीरिक या मानसिक क्रूरता की परिधि में रखना संभव नहीं है, क्योंकि आम तौर पर परिवार में यह स्थिति होती है कि जहा पति यथोचित रूप से उर्पाजन नहीं करता है वहा न केवल पत्नी और बच्चों की उचित देखभाल नहीं होती है अपितु आये दिन विवाद की स्थिति भी उत्पन्न होती है। लेकिन ऐसी स्थिति को ’संहिता’ की धारा 498(ए) के उद्देष्य के लिये मानसिक या शारीरिक क्रूरता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। इस संबध् में न्याय दृष्टांत पष्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध ओरिलाल जैसवाल ए.आई.आर. 1994 एस.सी. 1418 में किया गया प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
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2.... उक्त क्रम में यह स्पष्ट करना असंगत नहीं होगा कि ’संहिता’ की धारा 498(ए)(ए) में क्रूरता को जिस रूप में परिभाषित किया गया हे, वह केवल शारीरिक क्रूरता तक सीमित नहीं है, अपितु मानसिक प्रताड़नापूर्ण क्रूरता भी उसकी परिधि में आती है।
इस संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पश्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध ओरीलाल जायसवाल एवं एक अन्य, 1994 क्रि.ला.ज. 2104 के मामले में यह ठहराया है कि मृतिका पुत्र वधु के साथ उसकी सास के द्वारा ’गाली-गलौच एवं दुव्र्यवहार’ के रूप मं किया गया व्यवहार भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113(ए) एवं ’संहिता’ की धारा 498(ए) के संबंध में क्रूरतापूर्ण व्यवहार है।
4. जहा तक क्रूरता स्थापित करने के लिये साक्ष्य का संबंध है, सामान्यतः विवाहित महिला के पति अथवा उसके रिश्तदारों के द्वारा प्रश्नगत उत्पीड़न एवं क्रूर व्यवहार चूकि सामान्यतः सार्वजनिक रूप से नहीं किया जाता है, अपितु घर की चारदीवारी के अंदर किये जाने वाले ऐसे व्यवहार के बारे में यह सावधानी भी बरती जाती है कि जनसामान्य की नजर से ऐसा व्यवहार छुपा रहे, इसलिये ऐसे व्यवहार के संबंध में पड़ोसियों की अभिसाक्ष्य का अभाव प्रतिकूल निष्कर्ष निकालने का आधार नहीं बन सकता है तथा सामान्यतः मृतका के माता-पिता, संबंधी एवं मित्रों को मृतका द्वारा इस बारे में बतायी गयी बातें ही साक्ष्य के रूप में रपस्तुत की जा सकती है,
संदर्भ:- पश्चिमी बंगाल राज्य वि. ओरीलाल जायसवाल, ए.आई.आर. 1994 सु.को. 1418 एवं विकास पाथी वि. आंध्रप्रदेश राज्य, 1989 क्रि.ला.ज. 1186 आंध्रप्रदेश।
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5. यह सर्वविदित है कि एक के बाद एक नये विधिक प्रावधानों के अधिनियमन के उपरांत भी विवाहित महिलाओं के प्रति होने वाले अत्याचार की घटनाओं में कमी नहीं आयी है।
न्याय दृष्टांत कर्नाटक राज्य विरूद्ध एम.व्ही.मंजूनाथे गौड़ा, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 809 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रकट किया है कि इस बारे में किये गये विधायन के प्रति न्यायालयों को संवेदनषील बनाया जाना आवष्यक है तथा ऐसे मामलों में उदार दृष्टिकोण अपनाया जाना सामाजिक हितों के अनुरूप नहीं होगा।
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1...धारा 498(ए) के अंतर्गत शारीरिक या मानसिक क्रूरता की परिधि में रखना संभव नहीं है, क्योंकि आम तौर पर परिवार में यह स्थिति होती है कि जहा पति यथोचित रूप से उर्पाजन नहीं करता है वहा न केवल पत्नी और बच्चों की उचित देखभाल नहीं होती है अपितु आये दिन विवाद की स्थिति भी उत्पन्न होती है। लेकिन ऐसी स्थिति को ’संहिता’ की धारा 498(ए) के उद्देष्य के लिये मानसिक या शारीरिक क्रूरता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। इस संबध् में न्याय दृष्टांत पष्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध ओरिलाल जैसवाल ए.आई.आर. 1994 एस.सी. 1418 में किया गया प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
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2.... उक्त क्रम में यह स्पष्ट करना असंगत नहीं होगा कि ’संहिता’ की धारा 498(ए)(ए) में क्रूरता को जिस रूप में परिभाषित किया गया हे, वह केवल शारीरिक क्रूरता तक सीमित नहीं है, अपितु मानसिक प्रताड़नापूर्ण क्रूरता भी उसकी परिधि में आती है।
इस संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पश्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध ओरीलाल जायसवाल एवं एक अन्य, 1994 क्रि.ला.ज. 2104 के मामले में यह ठहराया है कि मृतिका पुत्र वधु के साथ उसकी सास के द्वारा ’गाली-गलौच एवं दुव्र्यवहार’ के रूप मं किया गया व्यवहार भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113(ए) एवं ’संहिता’ की धारा 498(ए) के संबंध में क्रूरतापूर्ण व्यवहार है।
4. जहा तक क्रूरता स्थापित करने के लिये साक्ष्य का संबंध है, सामान्यतः विवाहित महिला के पति अथवा उसके रिश्तदारों के द्वारा प्रश्नगत उत्पीड़न एवं क्रूर व्यवहार चूकि सामान्यतः सार्वजनिक रूप से नहीं किया जाता है, अपितु घर की चारदीवारी के अंदर किये जाने वाले ऐसे व्यवहार के बारे में यह सावधानी भी बरती जाती है कि जनसामान्य की नजर से ऐसा व्यवहार छुपा रहे, इसलिये ऐसे व्यवहार के संबंध में पड़ोसियों की अभिसाक्ष्य का अभाव प्रतिकूल निष्कर्ष निकालने का आधार नहीं बन सकता है तथा सामान्यतः मृतका के माता-पिता, संबंधी एवं मित्रों को मृतका द्वारा इस बारे में बतायी गयी बातें ही साक्ष्य के रूप में रपस्तुत की जा सकती है,
संदर्भ:- पश्चिमी बंगाल राज्य वि. ओरीलाल जायसवाल, ए.आई.आर. 1994 सु.को. 1418 एवं विकास पाथी वि. आंध्रप्रदेश राज्य, 1989 क्रि.ला.ज. 1186 आंध्रप्रदेश।
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5. यह सर्वविदित है कि एक के बाद एक नये विधिक प्रावधानों के अधिनियमन के उपरांत भी विवाहित महिलाओं के प्रति होने वाले अत्याचार की घटनाओं में कमी नहीं आयी है।
न्याय दृष्टांत कर्नाटक राज्य विरूद्ध एम.व्ही.मंजूनाथे गौड़ा, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 809 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रकट किया है कि इस बारे में किये गये विधायन के प्रति न्यायालयों को संवेदनषील बनाया जाना आवष्यक है तथा ऐसे मामलों में उदार दृष्टिकोण अपनाया जाना सामाजिक हितों के अनुरूप नहीं होगा।
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