मूल अधिकार व्यादेश
भारतीय संविधान में नागरिकों को स्वतंत्र रूप से जीवन जीने, कार्य करने के मूल अधिकार प्रदान किये गये हैं, जिनमें प्रमुख रूप से समता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरूद्ध अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार तथा संवैधानिक उपचारों का अधिकार शामिल है ।
समता के अधिकार में भारत में प्रत्येक व्यक्ति को विधिक के समक्ष समता और समान संरक्षण प्राप्त है तथा लोक नियोजन में अवसर की समानता, जातिगत आधार पर विभेद का प्रतिषेध आदि शामिल हैं ।
स्वतंत्रता के अधिकार के अंतर्गत स्वतंत्र जीवन जीने, वाक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि के साथ वृत्ति, व्यवसाय, कारोबार की स्वतंत्रता प्रदान की गई है ।
यदि किसी व्यक्ति, संस्था के द्वारा मूल अधिकारों का उल्लंघन किया जाता है तो उसके लिये भारतीय संविधान के अनुच्छेद-32 और 226 के अंतर्गत रिट याचिका क्रमशः माननीय उच्चतम न्यायालय और माननीय उच्च न्यायालय में प्रस्तुत कर सकता है ।
इस संबंध में भारतीय संविधान अनुसार पाच प्रकार की रिट जारी की जा सकती है:-
1. उत्पेरषण,
2. बंदी प्रत्यक्षीकरण,
3. परमादेश,
4. अधिकार पृच्छा,
5. प्रतिषेध.
भारतीय संविधान में प्रदत्त मूल अधिकारों को तीन प्रकार से प्राप्त किया जा सकता हैः
1. सिविल न्यायालय में दावा प्रस्तुत करके,
2. दण्ड न्यायालय में परिवाद प्रस्तुत करके, पुलिस में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करके व बचाव में संवैधानिक अधिकारों को प्रकट करके और,
3. माननीय उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय में रिट याचिका प्रस्तुत करके ।
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा -9 के अंतर्गत दावा पेश करके सभी प्रकार के हक व अधिकारों को प्राप्त किया जा सकता है, ‘‘केवल ऐसे वाद की सुनवाई नहीं की जा सकती जिसके संबंध में विधि के द्वारा स्पष्ट रूप से सिविल न्यायालय की अधिकारिता वर्जित की गई है, इसके अलावा सभी प्रकार के सेवा, पद व धन संबंधी वादों के निराकरण हेतु सिविल वाद प्रस्तुत किया जा सकता है।’’
विधि का यह सुस्थापित सिद्धांत है कि ‘‘जहा अधिकार है, वहा उपचार भी है।’’ भारतीय संविधान के द्वारा हमें जो अधिकार दिये गये हैं, उनका उपचार भी न्यायालय द्वारा दिया गया है । सिविल न्यायालय में व्यवहार वाद प्रस्तुत करके भी विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा-37, 38 व 39 के अंतर्गत स्थाई, अस्थाई और आज्ञापक व्यादेश धारा-41 में वर्णित कुछ प्रतिबंधों के अधीन प्राप्त कर सकते हैं ।
विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 (जिसे आगे अधिनियम से सम्बोधित किया गया है) की धारा-36 के अनुसार ‘‘निवारक अनुतोष न्यायालय के विवेकानुसार अस्थाई या शाश्वत व्यादेश द्वारा प्रदान किया जा सकता है।’’
अधिनियम की धारा-37(1) के अनुसार ‘‘अस्थाई व्यादेश ऐसे होते हैं, जिन्हें विनिर्दिष्ट समय तक या न्यायालय के अतिरिक्त आदेश तक बने रहना है तथा वे वाद के किसी भी प्रक्रम में प्रदान किये जा सकते हैं और सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के द्वारा विनियमित होते हैं।’’
अधिनियम की धारा-37(2) के अनुसार ‘‘शाश्वत व्यादेश वाद की सुनवाई पर और उसके गुणागुण के आधार पर की गई डिक्री द्वारा प्रदान किया जा सकता है, जिसके द्वारा प्रतिवादी को ऐसे कार्यों से रोका जाता है जो वादी के अधिकारों के प्रतिकूल हो ।’’
अधिनियम की धारा-38 के अनुसार ‘‘शाश्वत व्यादेश वादी को उसके पक्ष में विद्यमान बाध्यता के, चाहे वह अभिव्यक्त हो या विवक्षित, उसके भंग का निवारण करने के लिये प्रदान किया जाता है । यदि ऐसी बाध्यता किसी संविदा से उत्पन्न होती है, तब न्यायालय अधिनियम के अध्याय-2 के अनुसार सहायता प्रदान करता है ।’’
इस प्रकार यदि प्रतिवादी वादी की सम्पत्ति के अधिकार या उसके उपयोग पर आक्रमण करे या आक्रमण की धमकी दे तब न्यायालय शाश्वत व्यादेश दे सकता है । हमारे मूल अधिकारों में वृत्ति,कारोबार,व्यवसाय की स्वतंत्रता का अधिकार सामिल है,जो संपत्ति से संबंधित है ।
धारा-38(3) के अनुसार ‘‘सम्पत्ति पर हुये नुकसान के संबंध में याचिका दायर की जा सकती है और माननीय उच्च न्यायालय द्वारा रिट याचिका से उस पर रोक लगाई जा सकती है । धारा-39 के अंतर्गत आज्ञापक व्यादेश न्यायालय द्वारा जारी किया जा सकता है, जिसमें किसी बाध्यता के भंग का निवारण करने के लिये अथवा ऐसे कार्यों का प्रवर्तन कराने के लिये न्यायालय परमादेश, बंदी प्रत्यक्षीकरण, उत्पेरषण, अधिकार पृच्छा एवं प्रतिषेध जैसे उपचार के साथ ही याचिकाकर्ता के मूल अधिकारों की रक्षा आज्ञापक व्यादेश जारी करके कर सकता है ।
‘‘चेतनतिसंह विरूद्ध महर्षि दयानंद सरस्वती यूनिवर्सिटी एवं अन्य की रिट याचिका सिविल स्पेशल अपील (रिट)नं0-1035/1997, दि0-11/09/1997’’
में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा अनुच्छेद-14, 16 व 21 में प्रदत्त मूल अधिकारां का प्रवर्तन सिविल न्यायालय में प्राप्त किया जा सकता है, यह अभिनिर्धारित किया गया है और यह भी प्रतिपादित किया गया है कि यदि सिविल न्यायालय में दावा प्रस्तुत किया गया है तो क्षतिपूर्ति व्यवहार वाद में ही प्राप्त की जा सकती है, इस हेतु पृथक से रिट याचिका प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है ।
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा-91 और 92 में न्यायालय की अनुमति से दो या दो से अधिक व्यक्ति लोक न्यूसेंस या पब्लिक पर प्रभाव डालने वाले दोषपूर्ण कार्य के निवारण के लिये न्यायालय की इजाजत से लोक हित संबंधी दावे प्रस्तुत कर सकते हैं । इसके लिये जरूरी नहीं है कि उच्च न्यायालय में रिट याचिका प्रस्तुत की जाये और इस संबंध में व्यादेश सभी सिविल न्यायालय द्वारा जारी किया जा सकता है ।
इस प्रकार भारतीय संविधान में प्रदत्त मूल अधिकारों के संरक्षण के लिये विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 के अंतर्गत व्यादेश के आदेश के माध्यम से सहायता प्रदान की जा सकती है ।
भारतीय संविधान में नागरिकों को स्वतंत्र रूप से जीवन जीने, कार्य करने के मूल अधिकार प्रदान किये गये हैं, जिनमें प्रमुख रूप से समता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरूद्ध अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार तथा संवैधानिक उपचारों का अधिकार शामिल है ।
समता के अधिकार में भारत में प्रत्येक व्यक्ति को विधिक के समक्ष समता और समान संरक्षण प्राप्त है तथा लोक नियोजन में अवसर की समानता, जातिगत आधार पर विभेद का प्रतिषेध आदि शामिल हैं ।
स्वतंत्रता के अधिकार के अंतर्गत स्वतंत्र जीवन जीने, वाक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि के साथ वृत्ति, व्यवसाय, कारोबार की स्वतंत्रता प्रदान की गई है ।
यदि किसी व्यक्ति, संस्था के द्वारा मूल अधिकारों का उल्लंघन किया जाता है तो उसके लिये भारतीय संविधान के अनुच्छेद-32 और 226 के अंतर्गत रिट याचिका क्रमशः माननीय उच्चतम न्यायालय और माननीय उच्च न्यायालय में प्रस्तुत कर सकता है ।
इस संबंध में भारतीय संविधान अनुसार पाच प्रकार की रिट जारी की जा सकती है:-
1. उत्पेरषण,
2. बंदी प्रत्यक्षीकरण,
3. परमादेश,
4. अधिकार पृच्छा,
5. प्रतिषेध.
भारतीय संविधान में प्रदत्त मूल अधिकारों को तीन प्रकार से प्राप्त किया जा सकता हैः
1. सिविल न्यायालय में दावा प्रस्तुत करके,
2. दण्ड न्यायालय में परिवाद प्रस्तुत करके, पुलिस में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करके व बचाव में संवैधानिक अधिकारों को प्रकट करके और,
3. माननीय उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय में रिट याचिका प्रस्तुत करके ।
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा -9 के अंतर्गत दावा पेश करके सभी प्रकार के हक व अधिकारों को प्राप्त किया जा सकता है, ‘‘केवल ऐसे वाद की सुनवाई नहीं की जा सकती जिसके संबंध में विधि के द्वारा स्पष्ट रूप से सिविल न्यायालय की अधिकारिता वर्जित की गई है, इसके अलावा सभी प्रकार के सेवा, पद व धन संबंधी वादों के निराकरण हेतु सिविल वाद प्रस्तुत किया जा सकता है।’’
विधि का यह सुस्थापित सिद्धांत है कि ‘‘जहा अधिकार है, वहा उपचार भी है।’’ भारतीय संविधान के द्वारा हमें जो अधिकार दिये गये हैं, उनका उपचार भी न्यायालय द्वारा दिया गया है । सिविल न्यायालय में व्यवहार वाद प्रस्तुत करके भी विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा-37, 38 व 39 के अंतर्गत स्थाई, अस्थाई और आज्ञापक व्यादेश धारा-41 में वर्णित कुछ प्रतिबंधों के अधीन प्राप्त कर सकते हैं ।
विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 (जिसे आगे अधिनियम से सम्बोधित किया गया है) की धारा-36 के अनुसार ‘‘निवारक अनुतोष न्यायालय के विवेकानुसार अस्थाई या शाश्वत व्यादेश द्वारा प्रदान किया जा सकता है।’’
अधिनियम की धारा-37(1) के अनुसार ‘‘अस्थाई व्यादेश ऐसे होते हैं, जिन्हें विनिर्दिष्ट समय तक या न्यायालय के अतिरिक्त आदेश तक बने रहना है तथा वे वाद के किसी भी प्रक्रम में प्रदान किये जा सकते हैं और सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के द्वारा विनियमित होते हैं।’’
अधिनियम की धारा-37(2) के अनुसार ‘‘शाश्वत व्यादेश वाद की सुनवाई पर और उसके गुणागुण के आधार पर की गई डिक्री द्वारा प्रदान किया जा सकता है, जिसके द्वारा प्रतिवादी को ऐसे कार्यों से रोका जाता है जो वादी के अधिकारों के प्रतिकूल हो ।’’
अधिनियम की धारा-38 के अनुसार ‘‘शाश्वत व्यादेश वादी को उसके पक्ष में विद्यमान बाध्यता के, चाहे वह अभिव्यक्त हो या विवक्षित, उसके भंग का निवारण करने के लिये प्रदान किया जाता है । यदि ऐसी बाध्यता किसी संविदा से उत्पन्न होती है, तब न्यायालय अधिनियम के अध्याय-2 के अनुसार सहायता प्रदान करता है ।’’
इस प्रकार यदि प्रतिवादी वादी की सम्पत्ति के अधिकार या उसके उपयोग पर आक्रमण करे या आक्रमण की धमकी दे तब न्यायालय शाश्वत व्यादेश दे सकता है । हमारे मूल अधिकारों में वृत्ति,कारोबार,व्यवसाय की स्वतंत्रता का अधिकार सामिल है,जो संपत्ति से संबंधित है ।
धारा-38(3) के अनुसार ‘‘सम्पत्ति पर हुये नुकसान के संबंध में याचिका दायर की जा सकती है और माननीय उच्च न्यायालय द्वारा रिट याचिका से उस पर रोक लगाई जा सकती है । धारा-39 के अंतर्गत आज्ञापक व्यादेश न्यायालय द्वारा जारी किया जा सकता है, जिसमें किसी बाध्यता के भंग का निवारण करने के लिये अथवा ऐसे कार्यों का प्रवर्तन कराने के लिये न्यायालय परमादेश, बंदी प्रत्यक्षीकरण, उत्पेरषण, अधिकार पृच्छा एवं प्रतिषेध जैसे उपचार के साथ ही याचिकाकर्ता के मूल अधिकारों की रक्षा आज्ञापक व्यादेश जारी करके कर सकता है ।
‘‘चेतनतिसंह विरूद्ध महर्षि दयानंद सरस्वती यूनिवर्सिटी एवं अन्य की रिट याचिका सिविल स्पेशल अपील (रिट)नं0-1035/1997, दि0-11/09/1997’’
में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा अनुच्छेद-14, 16 व 21 में प्रदत्त मूल अधिकारां का प्रवर्तन सिविल न्यायालय में प्राप्त किया जा सकता है, यह अभिनिर्धारित किया गया है और यह भी प्रतिपादित किया गया है कि यदि सिविल न्यायालय में दावा प्रस्तुत किया गया है तो क्षतिपूर्ति व्यवहार वाद में ही प्राप्त की जा सकती है, इस हेतु पृथक से रिट याचिका प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है ।
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा-91 और 92 में न्यायालय की अनुमति से दो या दो से अधिक व्यक्ति लोक न्यूसेंस या पब्लिक पर प्रभाव डालने वाले दोषपूर्ण कार्य के निवारण के लिये न्यायालय की इजाजत से लोक हित संबंधी दावे प्रस्तुत कर सकते हैं । इसके लिये जरूरी नहीं है कि उच्च न्यायालय में रिट याचिका प्रस्तुत की जाये और इस संबंध में व्यादेश सभी सिविल न्यायालय द्वारा जारी किया जा सकता है ।
इस प्रकार भारतीय संविधान में प्रदत्त मूल अधिकारों के संरक्षण के लिये विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 के अंतर्गत व्यादेश के आदेश के माध्यम से सहायता प्रदान की जा सकती है ।
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