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गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

पारिस्थितिक साक्ष्य

                         पारिस्थितिक साक्ष्य

.        न्याय दृष्टांत पडाला वीरा रेड्डी विरूद्ध आंध्र प्रदेश राज्य और अन्य, ए.आई.आर. 1990 एस.सी.79 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहा मामला पारिस्थितिक साक्ष्य पर आधारित होता है वहा ऐसे साक्ष्य को निम्नलिखित कसौटियों को संतुष्ट करना चाहिए:-

(1)    वे परिस्थितिया जिनसे दोषिता का निष्कर्ष निकाले जाने की ईप्सा की गई है, तर्कपूर्ण और दृढ़ता से साबित की जानी चाहिए,

(2)    वे परिस्थितियां निश्चित प्रवृत्ति की होनी चाहिए जिनसे अभियुक्त की दोषिता बिना किसी त्रुटि के इंगित होती हो,

(3)    परिस्थितियों को संचयी रूप से लिए जाने पर उनसे एक श्रृंखला इतनी पूर्ण होनी चाहिए कि इस निष्कर्ष से न बचा जा सके कि समस्त मानवीय संभाव्यता में अपराध अभियुक्त द्वारा कारित किया गया था और किसी अन्य व्यक्ति द्वारा नहीं, और

(4)    दोषसिद्धि को मान्य ठहराने के लिए पारिस्थितिक साक्ष्य पूर्ण होनी चाहिए और अभियुक्त की दोषिसिद्धि से भिन्न कोई अन्य संकल्पना के स्पष्टीकरण के अयोग्य होनी चाहिए और ऐसा साक्ष्य न केवल अभियुक्त की दोषसिद्धि के संगत होनी चाहिए अपितु यह उसकी निर्दोषिता से भी असंगत होनी चाहिए।’’


2.        न्याय दृष्टांत उत्तर प्रदेश राज्य बनाम अशोक कुमार, 1992 क्रि.ला.ज. 1104 के मामले में यह उल्लेख किया गया था कि पारिस्थितिक साक्ष्य का मूल्यांकन करने में गहन सतर्कता बरती जानी चाहिए और यदि अवलंब लिए गए साक्ष्य के आधार पर युक्तियुक्त रूप से दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हों तब अभियुक्त के पक्ष वाला निष्कर्ष स्वीकार किया जाना चाहिए।

 यह भी उल्लेख किया गया था कि अवलंब ली गई परिस्थितिया पूर्णतया साबित हुई पाई जानी चाहिए और इस प्रकार साबित किए गए सभी तथ्यों का संचयी प्रभाव केवल दोषिता की संकल्पना से संगत होना चाहिए।

3.        माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने देवनंदन मिश्र विरूद्ध बिहार राज्य, 1955 ए.आई.आर. 801 के मामले में यह विधिक प्रतिपादन किया है कि जहा अभियुक्त के विरूद्ध अभियोजन द्वारा विभिन्न सूत्र समाधानप्रद रूप से सिद्ध कर दिये गये हैं एवं परिस्थतिथिया अभियुक्त को संभाव्य हमलावर, युक्तियुक्त निष्चितता और समय तथा स्थिति के बाबत् मृतक के सानिध्य में बताती है, अभियुक्त के स्पष्टीकरण की ऐसी अनुपस्थिति या मिथ्या स्पष्टीकरण अतिरिक्त सूत्र के रूप में श्रृंखला को अपने आप पूरा कर देगा। स्पष्टीकरण के अभाव अथवा मिथ्या स्पष्टीकरण को श्रृंखला पूरा करने वाली अतिरिक्त कड़ी के रूप में उस दषा में प्रयुक्त किया जा सकता है, जबकि:-

(1)    अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य से श्रृंखला की विभिन्न कडिया समाधानप्रद रूप से साबित कर दी गयी हों।

(2)    ये परिस्थितिया युक्तियुक्त निष्चितता के साथ अभियुक्त की दोषिता का संकेत देती हों, और

(3)    यह परिस्थितिया समय की स्थिति की दृष्टि से नैकट्य में हो।

4.        इस क्रम में न्याय दृष्टांत शंकरलाल ग्यारसीलाल दीक्षित विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 1981 सु.को. 765 भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है।

 न्याय दृष्टांत महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध सुरेश (2000)1 एस.सी.सी. 471 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि दोषिता-कारक परिस्थिति के विषय में पूछे जाने पर अभियुक्त द्वारा उसका असत्य उत्तर एक ऐसी परिस्थिति को निर्मित करेगा जो परिस्थिति-जन्य श्रृंखला की गुमशुदा कडी के रुप में प्रयुक्त की जा सकेगी।




1  पारिस्थितिक साक्ष्य के मूल्यांकन के संबंध में इस विधिक स्थिति को ध्यान में रखना आवश्यक है कि जहा साक्ष्य पारिस्थितिक स्वरूप की होती है, वहा ऐसी परिस्थितिया, जिनसे दोष संबंधी निष्कर्ष निकाला जाना है, प्रथमतः पूरी तरह से साबित की जानी चाहिये और इस प्रकार से साबित किये गये सभी तथ्यों को केवल अभियुक्त के दोष की उपकल्पना से संगत होना चाहिये। पुनः परिस्थितियों को निश्चयात्मक प्रकृति और प्रवृत्ति का होना चाहिये और उन्हें ऐसा होना चाहिये, जिससे कि दोषिता साबित किये जाने के लिये प्रस्थापित उपकल्पना के सिवाय अन्य प्रत्येक उपकल्पना अपवर्जित हो जाये। अन्य शब्दों में साक्ष्य की ऐसी श्रंखला होनी चाहिये, जो इस सीमा तक पूर्ण हो, कि जिससे अभियुक्त की निर्दोषिता से संगत निष्कर्ष के लिये कोई भी युक्तियुक्त आधार न रह जाये और उसे ऐसा होना चाहिये, जिससे यह दर्शित हो जाये कि सभी मानवीय अधिसंभाव्यनाओं के भीतर अभियुक्त ने वह कार्य अवश्य ही किया होगा,

 संदर्भ:- हनुमंत गोविन्द नारंगढ़कर बनाम म.प्र.राज्य, ए.आई.आर. 1952 एस.सी. 3431,

 चरणसिंह बनाम उत्तरप्रदेश राज्य, ए.आई.आर. 1967(सु.को.) 5201 एवं आशीष बाथम विरूद्ध म.प्र.राज्य 2002(2) जे.एल.जे. 373 (एस.सी.)।