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बुधवार, 10 दिसंबर 2014

अग्रक्रय अधिकार


                अग्रक्रय अधिकार

        अग्रक्रय का अधिकार हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 जिसे  आगे अधिनियम से संबोधित किया गया है की धारा 22 में परिभाषित किया गया है जिसके अनुसार संयुक्त हिन्दू परिवार की संपत्ति का बंटवारा होने के पहले यदि उत्तराधिकार में हक व अधिकार प्राप्त होता है और उनमें से कोई एक सदस्य संपत्ति का विक्रय करना चाहता है तो अधिनियम की अनुसूची के वर्ग-1 में विनिर्दिष्ट वारिस अग्रक्रय का दावा कर सकते हैं।

        अग्रक्रय अधिकार लागू किये जाने के लिये आवश्यक शर्ते:-
1. यह कि विवादित संपत्ति संयुक्त हिन्दू परिवार की उत्तराधिकार में प्राप्त संपत्ति होना चाहिये।
2. यह कि अनुसूची एक के वारिसों में कम से कम दो या दो से अधिक वारिस  होना चाहिये।
3. यह कि विवादित संपत्ति का बंटवारा नहीं होना चाहिये।
4. यह कि संपत्ति उत्तराधिकार में प्राप्त होना चाहिये।
5. यह कि संपत्ति उत्तरजीविता के आधार पर अधिनियम की  धारा 6 के अनुसार उत्तरजीवी सहदायिकों को उत्तरजीविता के आधार पर प्राप्त नहीं होना चाहिये।
6. यह कि सहस्वामी के द्वारा अचल संपत्ति में अपना हित हस्तांतरण करने के बाद दूसरा सहस्वामी अग्रक्रय अधिकार के आधार पर क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय में दावा पेश कर सकता है।
7. यह कि जिस न्यायालय की स्थानीय सीमाओं के अन्दर संपत्ति स्थिति होगी उसे वाद और आवेदन क्षेत्राधिकार प्राप्त होगा।
8. यह कि वादकारण संपत्ति की बिक्री के बाद उत्पन्न होता है।
9. यह कि परिसीमा अधिनियम के अनुच्छेद 97 के अनुसार जब खरीददार बिक्रीसुदा संपत्ति पर कब्जा करता है अथवा रजिस्टर्ड विक्रयपत्र का निष्पादन होता है उसके एक साल के अन्दर आवेदन/दावा पेश होना चाहिये।
10. यह कि वर्ग-1 के वारिसों ने निर्वसीयति की संपत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त किया है तभी यह धारा लागू होगी।
11. यह कि संपत्ति का मूल्य निर्धारण करने के लिये सक्षम न्यायालय में आवेदन प्रस्तुत किया जावेगा और न्यायालय संपत्ति का मूल्य निर्धारित करेगा।
12. यह कि जो भी हिस्सेदार सबसे ज्यादा मूल्य देगा वही अग्रक्रय के अधिकार में संपत्ति प्राप्त करेगा।
13. यह कि हिस्सेदार न्यायालय द्वारा निर्धारित मूल्य पर संपत्ति नहीं खरीदता है तो वह आवेदन का खर्च देगा और उत्तराधिकारी संपत्ति बाहरी व्यक्ति को बिक्री करने के लिये स्वतंत्र होगा।
14.  इसी प्रकार व्यापार कारोबार की बिक्री एवं अधिकार हेतु आवेदन व दावा प्रस्तुत किया जावेगा।
15. इस धारा के अधीन आवेदन पर पारित आदेश अपील योग्य नहीं होगा। लेकिन वाद में पारित आदेश अपीलयोग्य होगा।
16. यह कि बिक्री के बाद दावा पेश होगा , अधिनियम की धारा 22(1) के अन्तर्गत आवेदन पेश नहीं होगा।
17. यह कि धारा 164 म0प्र0.भू राजस्व संहिता के संशोधन के बाद अधिनियम की धारा 22 के प्रावधान लागू होंगे। कृपया देखें ए0आई0आर0 1978 सुप्रीम कोर्ट 793(तीन जज का निर्णय) भजया वि0 श्रीमती गोपिका बाई एवं अन्य। उसमें ए0आई0आर0 1974 म0प्र0 पेज 141 फुल बैंच, चरणलाल साहू वि0 नंदकिशोर भट्ट को मान्यता प्रदान की गई है।
एवं अधिनियम की धारा-4 में संशोधन के बाद धारा 22 के प्रावधान कृषि भूमि पर लागू होंगे।

18.    यह कि म0प्र0सीलिंग एक्ट के अन्तर्गत अधिग्रहित भूमि पर अधिनियम के प्रावधान लागू नहीं होंगे।
19.        यह कि धारा 22 के अतिक्रमण में सहउत्तराधिकारी द्वारा किया गया हित का अन्तरण शून्य न होकर अन्य सह उत्तराधिकारियों के विकल्प पर शून्यकरणीय होता है।

सोमवार, 10 नवंबर 2014

न्यायालय में मामले के त्वरित निराकरण के उपाय:-

न्यायालय में मामले के त्वरित निराकरण के उपाय:-

1. यह कि प्रत्येक न्यायाधीश को विशेष एक्ट और क्षेत्र का अलग से प्रशिक्षण देकर प्रशिक्षित किये जाने के बाद उस विषय विशेष से संबंधित एक्ट और कोर्ट की कार्यवाही हेतु नियुक्त किया जाना चाहिये। यह देखा गया है कि न्यायाधीशों को कई विषय के मामले दे दिये जाते हैं जिसमें कुछ में वे पारंगत होते हैं कुछ में नहीं । जिन मामलों में उन्हें विषय विशेष की जानकारी नहीं होती है ऐसे मामले में जानबूझकर लम्बी तारीख देकर लम्बा खींचते हैं और यहाॅ तक कि अपने कार्यकाल में उसका निराकरण नहीं करते हैं। यही कारण है कि भू-अर्जन अधिनियम , लोक न्यास अधिनियम, मध्यस्थता अधिनियम आदि से संबंधित मामले न्यायालयों में लम्बी अवधि से लंबित रहते हैं।

2. यह कि सिविल तथा विवाह सम्बन्धी मामले जिनका निराकरण समझाइश मध्यस्थता सुलह, समझौता से हो सकता है। अर्थात् ऐसे मामले जिनका निराकरण न्यायालय के बाहर हो सकता है ऐसे मामले सबसे पहले मीडिएशन हेतु मध्यस्थता केन्द्र भेजे जाने चाहिये। जहाॅ पर उनका निराकरण न होने के बाद ही ऐसे मामलेां का पंजीयन सिविल न्यायालय में होना चाहिये। इससे पक्षकारों पर अनावश्यक न्याय शुल्क का बोझ नहीं आयेगा और न्यायालय की भी न्याय शुल्क वापिसी की प्रक्रिया बचेगी तथा न्यायालय का बहुत समय बचेगा। और न्यायालय की आंकड़ोें में भी ऐसे प्रकरण पंजीबद्ध होकर लंबित संख्या को ज्यादा नहीं बताएंगे ।

जहाॅ तक मामलों की परिसीमा का प्रश्न है तो ऐसे मामलों में पक्षकारों को परिसीमा अधिनियम की धारा 14 का लाभ प्राप्त होगा और विधिवत् मध्यस्थता कार्यवाही में लगा समय विहित अवधि में जोड़ा नहीं जायेगा। और वाद परिसीमा में माने जाएंगे।

3. यह कि न्यायालय एम0पी0ई0बी0 की बिजली के बिल की वसूली की कोर्ट हो गई है और निगोशिएविल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट के अन्तर्गत वैध अवैध रूप से जारी बिना दिन तारीख के खाली सुरक्षा हेतु रखे चैकों की वसूली की कोर्ट हो गई है। इसके लिये आवश्यक है कि अलग से विशेष प्राधिकरण बनाये जायें और बैंक ऋण वसूली की तरह एम0पी0ई0बी0 के बिजली चोरी राशि की वसूली और जारी चैक की राशि की वसूली उन अधिकरण के माध्यम से कराई जावे।

इसके साथ ही साथ निगोशिएविल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट में यह संशोधन किया जाये कि चैक जारी होने की सूचना चैक जारी करने वाला तुरन्त बैंक को दे जिससे केवल चैक जारी दिनांक के तीन माह के अन्दर ही उसकी वैधता की तारीख रहने तक चैक से राशि की वसूली की जाये। ऐसा हो जाने पर बिना दिन तारीख के चैक सुरक्ष हेतु जमा चैक फर्जी चैक संम्बन्धी मामलों पर रोक लगेगी और केवल वास्तविक मामले ही चैक वसूली के न्यायालय के सामने आएंगे।

4. यह कि ए0डी0आर0, लोक अदालत, विधिक साक्षरता शिविर आदि में सभी न्यायाधीश संलग्न रहते हैं जिसके कारण वह वास्तविक समय न्यायालय कार्य में नहीं दे पाते हैं और न्यायालय कार्य का महत्वपूर्ण समय ए0डी0आर0 में देते हैं जिसके कारण न्यायालयीन कार्य प्रभावित होता है इसके लिये आवश्यक है कि प्रत्येक जिला एवं तहसील में एक एक न्यायाधीश की नियुक्ति ए0डी0आर0 जज के रूप में की जावे और उसके द्वारा ही सम्पूर्ण ए0डी0आर0 का काम किया जावे। इससे न्यायालय और न्यायाधीशगण को महत्वपूर्ण समय बचेगा जो पूरा न्यायालयीन कार्य में काम आयेगा।

5. यह कि प्रत्येक न्यायालय कम्प्यूटरीकृत हो गये हैं और न्यायालय के आंकड़े कम्प्यूटर के माध्यम से प्रत्येक दिन सी0आई0एस0 में पंजीबद्ध होते रहते हैं जिसकी जानकारी जिला मुख्यालय पर रहती है इसके बाद भी प्रत्येक माह कई बार आंकड़े , लंबित मामलों की जानकारी न्यायालय से बुलाई जाती है जिससे न्यायालय व न्यायाधीश का समय जानकारी देने में लगता है जिसके कारण वे न्यायालयीन कार्यवाही नहीं कर पाते हैं। अतः प्रत्येक जिले व तहसील में इस कार्य के लिये एक लिपिक की नियुक्ति की जावे और वह सी0आई0एस0 के माध्यम से प्रत्येक जानकारी ई-मेल के माध्यम से प्रस्तुत कर सकता है। केवल आंकड़ों के कारण ही न्यायालय में एक तारीख को कोई काम नहीं होता है और 01 से 05 तारीख तक बहुत कम मामले केवल मासिक , वार्षिक जानकारी देने के कारण प्रत्येक माह लगाये जाते हैं जिसके कारण न्यायालय का वास्तविक समय न्यायालयीन कार्य में नहीं लग पाता है।

6. यह कि न्यायालय में केस साक्षी और आरोपी की उपस्थिति न होने के कारण लम्बे समय तक लंबित रहते हैं और न्यायालय द्वारा जारी समंस वारण्ट न्यायालय को अदम तामील भी वापस नहीं किये जाते हैं ऐसी स्थिति में पुलिस केसों में समंस वारण्ट जारी करने वाली एजेन्सी सिविल मामलों की तरह संबंधित न्यायालय के न्यायाधीश के अन्तर्गत अधीनस्थ होना चाहिये और उस न्यायालय न्यायाधीश के प्रति उसकी जिम्मेदारी नियत की जानी चाहिये।

इसके लिये पुलिस अधिकारियों को प्रतिनियुक्ति न्यायालय में पुलिस मामलों में आदेशिका जारी किये जाने हेतु नियुक्त किया जाना चाहिये। ऐसी स्थिति में वह न्यायालय के प्रति जिम्मेदार रहेंगे और समंस वारण्ट की तामीली पर्याप्त होगी।

7. यह कि न्यायालय में आदेशिका जारी किये जाने हेतु कम्प्यूटर की नई तकनीक, एस0एम0एस0, ई-मेल, सोसल नेटवार्किंग का सहारा लिया जाना चाहिये और प्रत्येक व्यक्ति के पास उसके नाम से रजिस्टर्ड मोबाइल में उसे सूचना दी जानी चाहिये। आज टेलीफोन बिजली के बिल , बैंक में जमा राशि और उसकी निकासी आदि की जानकारी तत्काल एस0एम0एस0 के माध्यम से उपभोक्ता को दी जा रही है। इस तकनीक का प्रयोग न्यायालय में भी किया जाना चाहिये।

8. यह कि साक्ष्य लेखन के लिये भी नवीनतम तकनीक का उपयोग वीडियो कान्फ्रेसिंग के माध्यम से किया जा सकता है और किसी कारण से यदि विचाराधीन बन्दी जेल से न्यायालय नहीं आ पाते हैं तो साक्षी के उपस्थित हो जाने पर उनकी साक्ष्य अंकित की जा सकती है। पहचान के बिन्दु पर साक्ष्य स्थगन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

9. यह कि न्यायाधीश के साथ ही साथ अधिवक्तागण साक्ष्य लेखक स्टेनोग्राफर आदि स्टाफ को भी बराबर का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये ताकि वे सब मिलकर नई तकनीक के अनुसार काम कर सके और किसी भी बिन्दु पर कोई कमजोर न पड़े क्योंकि किसी एक भी कमजोर पड़ने पर सम्पूर्ण न्यायिक प्रक्रिया प्रभावित होती है और न्याय में विलंब होता है।
10. यह कि आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में प्रत्येक 10 लाख जनसंख्या/केस पर एक न्यायाधीश , 20 हजार जनसंख्या/केस पर एक हाईकोर्ट जज तथा एक हजार जनसंख्या/केस पर एक सुप्रीम कोर्ट जज का अनुपात है जो बहुत कम है इसलिये जनसंख्या के अनुपात में न्यायालय व न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिये।

11. यह कि हमारे देश में विभिन्न उच्च न्यायालय व उच्चतम न्यायालय के एक ही बिन्दु पर कई विरोधाभाषी निर्णय न्याय पत्रिकाओं में देखने को मिलते हैं ऐसी स्थिति में न्याय के लिये निर्मित प्रशिक्षण संस्थाओं को एक ही बिन्दु पर लागू होने वाले पांच न्यायाधीश, तीन न्यायाधीश, दो न्यायाधीश अथवा उनसे बड़ी पीठ के निर्णय जो लागू होने योग्य हैं उससे अवगत कराने चाहिये जिससे न्यायालय का समय बचेगा और विरोधाभासी निर्णयों से न्यायालय न्यायाधीश पक्षकार का समय बचेगा और हमें उचित निर्णय प्राप्त होगा।

बुधवार, 21 मई 2014


 ‘‘विधि और न्याय क्षेत्र में हिन्दी भाषा‘‘

    देश के स्वतंत्रता के 65 वर्ष बाद भी देश के उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों, न्यायिक अधिकरणों में हिन्दी भाषा में पूर्णतः कार्य नहीं होता और संविधान के अनुच्छेद-348 के अनुसार उच्चतम न्यायालय/उच्च न्यायालयों में कामकाज की भाषा अंग्रेजी है। उच्च और उच्चतम न्यायालय ने केवल अंग्रेजी में अपील और  बहस होती है,
     केवल 7 राज्यों-मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार  उत्तराखंड, झारखंड, छत्तीसगढ़ आदि के उच्च न्यायालयों में हिन्दी के प्रयोग की अनुमति है। लेकिन कार्य अंग्रेजी में होता है।
    कुछ हिन्दी भाषी राज्यों में निचले स्तर के न्यायालय में हिन्दी और अन्य हिन्दी भाषी राज्यों को छोड़कर उनकी क्षेत्रीय भाषाओं में कार्य किया जाता है लेकिन अपीलीय न्यायालय की भाषा अंग्रेजी है इसलिए सभी न्यायालयों में क्षेत्रीय भारतीय भाषाओं में कार्य नहीं होगा, तब तक आम जनता को वास्तविक न्याय प्राप्त नहीं होगा।
1.    केन्द्र सरकार की राजभाषा हिन्दी है, फिर भी अंग्रेजी को 1963 में पारित राजभाषा अधिनियम में सरकारी कार्यो/प्रयोजनों के लिये 26 जनवरी, 1965 के बाद भी पहले की तरह प्रयोग किए जाते रहने की छूट दी गई है, जो उचित नहीं है। अतः अंग्रेजी के प्रयोग पर रोक लगाकर केन्द्र में हिन्दी और राज्यों में राज्य की राजभाषाओं में कार्य करने हेतु कठोर कदम उठायें जायें।
2.    इसी प्रकार देश के अन्य सभी राज्यों की राजभाषाएं, उनके     उच्च न्यायालयों के कामकाज की भाषा बनाई जाएॅ।
3.    संसदीय राजभाषा समिति र्की  सिफारिश के अनुसार, उच्चतम न्यायालय में अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी में कार्य करने की भी अनुमति दी जाए।
4.    उच्चतम एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को हिन्दी और संबंधित राज्य की राजभाषा में निर्णय लिखने/कार्य करने हेतु उत्प्रेरित किया जाए।
5.    देश के सभी राज्यों की न्यायिक सेवा-शिक्षा तथा विधि संबंधी अन्य परीक्षाओं का माध्यम, अंग्रेजी के अलावा, हिन्दी और प्रादेशिक भाषाएं बनाई जाएॅ तथा अंग्रेजी के अनिवार्य प्रश्न-पत्र को हटाया जाए, या इसके विकल्प में उतने ही अंक का भारतीय भाषा का प्रश्न-पत्र रखा जाए।
6.    राष्ट्रीय विधि संस्थानों तथा विश्वविद्यालयों में एल.एल.बी. के तीन वर्षीय और 5 वर्षीय पाठ्यक्रमों, में दाखिला हेतु ली जाने वाली प्रवेश-परीक्षा का माध्यम, हिन्दी और भारतीय भाषाएॅ हो।
7.    देश के सभी राज्यों में एल.एल.बी. और एल.एल.एम. की पढ़ाई का माध्यम, हिन्दी और भारतीय भाषाएॅं हों।
8.    विधि संबंधी सभी पुस्तकें हिन्दी और भारतीय भाषाओं में यथाशीघ्र उपलब्ध कराई जाएॅ।
9.    सभी न्यायालयों से प्रशासनिक कार्य हिन्दी में किया जाए।
10.    हिन्दी और हिन्दीतर प्रदेशों की विधान सभाओं में विधायन/कानून बनाने का कार्य मूलतः राज्यों की राजभाषाओं में हो। राज्य की राजभाषा में पारित कानूनों/अधिनियमों के अनुवाद, बाद में हिन्दी और अंग्रेजी में किए जाएॅं।
11.    जिला न्यायालयों/अधीनस्थ न्यायालयों का समस्त कामकाज राज्यों की राजभाषाओं में ही हो।
12.    उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों, जिला स्तर के अधीनस्थ न्यायालयों, केन्द्रीय प्रशासनिक अधिकरण (कैट), न्यायिक अधिकरणों, आयकर अपीलीय अधिकरणों, ऋण वसूली अधिकरणों की भाषा, अंग्रेजी के अलावा, अनिवार्य रूप से हिन्दी और राज्य की राजभाषाएं भी हो।
13.    हिन्दी को अनुवाद की भाषा बनाने से रोका जाए और विधि तथा अन्य क्षेत्रों में मूलतः कार्य हिन्दी और राज्य की राजभाषा में हो।
14.    हिन्दी तथा हिन्दीतर भाषी प्रदेशों के सभी न्यायालयों, न्यायिक अधिकरणों आदि में हिन्दी के कम्प्यूटरों में हिन्दी टाईपिस्टों, हिन्दी आशुलिपिकों आदि की समुचित व्यवस्था हो।
15.    हर राज्य में एक राजभाषा कार्यान्वयन समिति गठित की जाए।

















































शनिवार, 17 मई 2014

जन्म तिथि में सुधार

                        जन्म तिथि में सुधार
    जन्म तिथि में सुधार की सहायता के लिये सिविल अधिकारिता अपवर्जित नहीं होगी। माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा (ईश्वर सिंह बनाम नेशनल फर्टिलाईजर्स एवं अन्य, ए.आई.आर. 1991 एस.सी. 1546) के मामले में अभिनिर्धारित किया है कि सी.पी.सी. की धारा 9 की अधिकारिता के भीतर जन्म तिथि सुधार के मामले आते हैं वह सिविल न्यायालय में पोषणीय होते हैं। वास्तव में उस प्रकार की सुधार की मांग करना विभिन्न प्रयोजनों के लिये हो सकेगा और औद्योगिक विववाद अधिनियम के तहत उपलब्ध अनुतोष के दावा करने के प्रश्न तक आवश्यक रूप से सीमित होने की कोई आवश्यकता नहीं है।

    न्यायालय के अनूुसार वाद की पोषणीयता का विनिश्चय कार्यवाहियों को संस्थित करने के संदर्भ में किया जाना चाहए और चूंकि उस दिनांक जब वाद दाखिल किया गया था, और औद्यौगिक विवाद अधिनियम की धारा 2 -क द्वारा आवरित कोई भी दशाएं प्रकट नहीं हुई है तो याचिकाकर्ता अनुतोष के लिए औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत फोरम के पास नहीं जा सकता और उक्त स्थिति में सिविल वाद औद्यौगिक विवाद अधिनियम की धारा 2-क के द्वारा अपवर्जित नहीं होगा।

    न्यायालय द्वारा यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि यदि वाद के अनुतोषों के लिये वाद उस फोरम में पोषणीय है जहां पर दाखिल किया गया तो फोरम वादी के लिये इसके दरवाजे बंद करने की स्वतंत्रता नहीं रखता। मामले के इस रूप में जहां तक जन्म तिथि से संबंधित अभिलेखों में सुधार की सहायता का संबंध है तो सिविल न्यायालय को अनुतोष प्रदान करने की अधिकारिता है।
   
    न्यायालय ने यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि जहां कर्मचारी यहां तक कि सुधारी गयी जन्म तिथि के आधार पर सेवा निवृत्त स्थिति उस समय तक सिविल वाद उसके हित में विनिश्चत करने में आया तो पारिणामिक अनुतोष सिविल न्यायालय द्वारा प्रदान नहीं किये जा सकते।

    शीर्ष न्यायालय ने द प्रीमियर आॅटो मोबाईल लिमिटेड बनाम कमलाकर शांताराम वाईके एवं अन्य, ए.आई.आर. 1975 एस.सी. 2238 के मामले में भी निम्न लिखित रीति में औद्योगिक विवाद के संबंध में सिविल न्यायालय की अधिकारिता को लागू सिद्धांत प्रतिपादित कियेः-

    (1)    यदि विवाद, औद्योगिक विवाद नहीं है, न यह अधिनियम के तहत किसी अन्य अधिकार के प्रवर्तन से संबंधित है तो केवल सिविल न्यायालय में उपचार उपलब्ध है।

    (2)    यदि विवाद, सामान्य या काॅमन लाॅ के अधीन किसी अधिकार या दायित्व से उत्पन्न औद्वद्योगिक विवाद है और इस अधिनियम के तहत नहीं तो सिविल न्यायालय की अधिकारिता, अनुतोष जो किसी विशिष्ट अनुतोष में मंजूर किए जाने के लिए सक्षम हो के लिए उसके उपचार का चुनाव करने के लिए संबंधित वादी के निर्वाचन पर इसको छोड़ते हुए वैकल्पिक होती है।

    (3)    यदि औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत सृजित अधिकार या बाध्यता के प्रवर्तन से संबंधित है तो वादी को उपलब्ध एकमात्र उपचार का न्याय निर्णयन इस अधिनियम के तहत् किया जाता है।

    (4)    यदि अधिकार जो प्रवर्तित किया जाना इप्सित है वह इस अधिनियम के तहत् सृजित अधिकार है जैसे अध्याय 5-क तो इसके प्रवर्तन के लिए उपचार या तो धारा 33-ग है या औद्योगिक विवाद उठाना, यथा स्थिति हो है।
    5-    न्यायालय के मार्गदर्शक सिद्धांत है जिसके आधार पर सिविल न्यायालय को यह विनिश्चय करना होता है कि क्या कोई विवाद औद्योगिक विवाद की परिभाषा के अधीन आवरित है वाद औद्योगिक अधिनियम की धारा 2-ए या 2(क) के उपबंधों के अधीन अपवर्जित होगा या नहीं होगा।

    6-    वाद दाखिल करने के दिनांक और उक्त दिनांक को कर्मचारी की स्थिति पर भी विचारण किया जाना चाहिए। यदि अभिलेखों को देखने के बाद यह प्रकट हो कि उस बिंदु पर विनिश्चय केवल सभी संबंधित पक्षकारों को सुनवाई का सम्यक् अवसर प्रदान करने के पश्चात् किया जाना चाहिए।

    7-    प्रथम दृष्टया प्रकरण विनिश्चत करने के लिए मामले को व्यवह्त करते समय मात्र संयोगिक रूप से कहना, अपील न्यायालय उपर्युक्त रीति में नहीं कह सकती कि इसके पास वाद ग्रहण करने की कोई अधिकारिता नहीं है। यह आदेश इसके लिए कोई कारण प्रदत्त किये बिना एक पंक्ति में पारित एक सतही आदेश है और वह मान्य नहीं ठहराया जा सकता।

    8-    यह व्यवस्थापित विधि है कि कारण, प्रश्न में विवाद का निर्णय करने वाले मस्तिष्क और विनिश्चय या निकाले निष्कर्ष के मध्य जीवंत संबंध है। कारण प्रदत्त करनेकी विफलता न्याय करने से इंकार करना समझा जाता है।  अलेक्जेंडर मशीनरी हुडली लिमिटेड बनाम फैक्ट्री, 1974 एल.सी.आर. 120 जिसको रिजनल मैनेजर, यू.पी.एस.आर.टी.सी. इटावा एवं अन्य बनाम होतीलाल, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 1462, देखों पैरा 10 के मामले में निर्दिष्ट किया गया है।
   
    9- सेवा के अंतिम प्रक्रम पर क्या जन्म दिनांक संशोधित करने की प्रार्थना स्वीकार किए जाने योग्य है, यह बिंदु विचारणीय था। इस संबंध में नकारात्मक मत निम्नलिखित न्याय दृष्टांतों में दिया गया।

    1-1994(6) सु.को.के. 302
    2-2003(6) सु.को.के. 483
    3-2006 ए.आई.आर.एस.सी.डब्ल्यू.3697
    4-(सुरेंद्र सिंह बनाम स्टेट आॅफ एम.पी., 2007(1) म.प्र. लाॅ.ज. 296     म.प्र.)


    5-    सचिव एवं आयुक्त, गृह विभाग बनाम आर.क्यूरूबक्रम, ए.     आई. आर. 1993 एस.सी. 2647,
    6-    उड़ीसा राज्य एवं अन्य बनाम श्री आर.पटनायक, 1997(2)     एल.एल.जे. 206,
    7-    जी.एम.भारतकोकिंग कोल लिमिटेड पं.बं. बनाम शिव कुमार     दुष्ट, ए.आई.आर. 2001 एल.सी. 72,
     8-    उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य बनाम श्रीमती गुलायची,     (2003)6 एस.सी.सी. 483,
    9-    पंजाब राज्य एवं अन्य बनाम एस.सी.चह्ढ़ा, (2004) 3 एस.    सी.सी. 394 गिरीश नाथ बनाम भारत का संघ एवं अन्य,     2005(1)एम.पी.एल.जे.233


       

//शिक्षा अधिकार कानून संवैधानिक //

//शिक्षा अधिकार कानून संवैधानिक //        

        प्रधान न्यायाधीश श्री आर.एम. लोढा की अध्यक्षता वाली पंाच सदस्यीय संविधान पीठ जिसमें मान्नीय न्यायमूर्ति ए.के. पटनायक, मान्नीय न्यायमूर्ति एस.जे. मुखोपाध्याय, मान्नीय न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और मान्नीय न्यायमृर्ति एस.एम.आई. कलीमुल्ला शामिल थे उसनें शिक्षा का अधिकार (आरटीआई) कानून की संवैधानिक बताया है
        संविधान पीठ के समक्ष यह मसला कनार्टक सरकार के 1994 के दो आदेेशों के कारण पहंुचा था, इन आदेशों में कक्षा एक से चार तक मातृभाषा या क्षेत्रीय भाष में शिक्षा प्रदान करना अनिवार्य किया गया था । सरकार के इन आदेशों की वैधानिकता को चुनौती दी गई थी ।
         सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार किया है कि तमाम विशेषज्ञ इस पर एकमत हैं कि प्राथमिक स्कूलों में बच्चे तभी बेहतर ढंग से विद्या प्राप्त कर सकते हैं अगर पढाई का माध्यम मातृभाषा हो । लेकिन उसने कर्नाटक सरकार के 1994 के उस आदेश को असंवैधानिक ठहरा दिया, जिसमंे राज्य के प्रायमरी स्कूलों में कन्नड में शिक्षा देने की बात कही गई थी ।
1-    संविधान पीठ के अनुसार यह सहायता प्राप्त या गैर सहायता अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू नहीं होगा ।
2-    इस कानून के तहत सभी स्कूलों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए 25 फीसदी सीटें आरक्षित करने का प्रावधान है ।
3-    अनुच्छेद 21(क) संविधान के बुनियादी ढांचे को प्रभावित नहीं करता है ।
4-    सरकारी प्राथमिक शिक्षा देने के लिए भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए मातृभाषा अनिवार्य नहीं कर सकती है । 
5-    सरकार को भाषाई अल्पसंख्यकों को प्राथमिक शिक्षा देने के लिए अनिवार्य रूप से क्षेत्रीय भाषा लागू करने के लिए बाध्य करने का अधिकार नहीं है ।
6-    संविधान में कहीं उल्ल्ेख नहीं है कि मातृभाषा वही है, जिसमें बच्चा अपने को सहज पाता हो ।
7-  कोर्ट ने मौलिक अधिकारों से संबंधित संविधान के अनुच्छेदों (भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) 29(अल्पसंख्यकों के हितों का संरक्षण) और 30 (संस्थाए स्थापित करने के अल्पसंख्यकों के अधिकारों ) के अंतर्गत भी भारत में मातृभाषा में शिक्षा नहीं दी जा सकती।
8-    कोर्ट ने अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रावधान की जो व्याख्या की जिसके अनुसार भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत बच्चे की अपनी पसंद की भाषा में शिक्षा पाने की स्वतंत्रता भी शामिल है ।
9-    बच्चे या उसकी तरफ से उसके अभिभावक को शिक्षा का माध्यम चुनने की आजादी है ।







अफसरों के खिलाफ बिना मंजूरी चार्जशीट

           अफसरों के खिलाफ बिना मंजूरी चार्जशीट

     सीबीआई का गठन पहले 1941 में स्पेशल पुलिस एस्टेब्लशमेंट एक्ट के नाम से हुआ था उसके बाद सीबीआई 1946 के दिल्ली पुलिस एक्ट के तहत काम करती है । सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के सिंगल डायरेक्टिव को खारिज  किया तो वर्ष 2003 में सेन्टल विजिलेंस एक्ट के माध्यम से पुलिस एक्ट में धारा 6-ए जोडी गई ।
              जिसे सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने ऐसे नौकरशाहों की जांच के लिए सरकार की अनुमति लेने संबंधी कानूनी प्रावधान को अमान्य और असंवैधानिक बताया है । साथ ही कहा कि सीबीआई आपराधिक मामलों में अफसरों के खिलाफ बिना मंजूरी चार्जशीट फाईल कर सकती है ।  अब  सीबीआई को भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे किसी भी वरिष्ठ नौकरशाह के खिलाफ बिना सरकार की अनुमति लिए कार्यवाही करने का अधिकार दे दिया ।
                इस संबंध में पहली याचिका सुब्रहाण्यम स्वामी ने 1997में दायल की थी और बाद में 2004 में गैर-सरकारी संगठन सेन्टर फार पब्लिक इंटरेस्ट लिटीगेशंस ने याचिका दायर की थी ।
        सीबीआई अदालतों में 6894 मामले जनवरी 2013 तक अनुमति न मिलने के कारण लंबित थे, जिसमें 950 मामले राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के थे, 23 मामले 20 वर्ष पुराने और 166 मामले दस वर्ष पुराने हैं । फरवरी 2014 तक सीबीआई को 2071 शिकायतें मिली, जिसमें से 2055 का निराकरण हुआ । 28 मामले चार माह से लंबित थे । 53 अधिकारियों के खिलाफ अभियोजन स्वीकृति के लिए केन्द्रीय सतर्कता आयोग से अनुमति मांगी गई ।
        प्रधान न्यायाधीश श्री आर.एम. लोढा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ ने दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टेबिलशमेंट एक्ट की धारा 6-ए के प्रावधान पर यह व्यवस्था दी ।
             अदालत ने अपने फैसले में कहा -
        1. भ्रष्टचार देश का दुश्मन है, भ्रष्टचारियों को अलग-अलग         वर्गों मंे बांटना सही नहीं है । यह भ्रष्टचार के खिलाफ बने         कानून की भी अवहेलना है ।
        2. भ्रष्ट अधिकारी चाहे वे बडे ओहदे पर हों या निचले             पायदान पर, सब एक जैसा अपराध करते हैं । कानून को         भी उनसे एक जैसा सलूक करना चाहिए ।

        3. डीएसपीईए की धारा 6ए के तहत भ्रष्ट अधिकारियों के         खिलाफ कार्यवाही से पहले मंजूरी लेना जांच में बांधा             पहंुचाने जैसा ही है ।

        4. धारा 6-ए संविधान के अनुच्छेद 14 के प्रावधानों के             खिलाफ भी है । अनुच्छेद 14 के मुताबिक कानून के सामने         सब बराबर हैं ।
        5. आपराधिक न्याय व्यवस्था में अपराध की जांच निष्पक्ष             और कानून के अनुसार होनी चाहिए । यह भी देखना             जरूरी है कि हितबद्ध प्रभावशाली लोग जांच को प्रभावित             कर अपराधी को बचाने में सफल नहीं हो पाऐं । ऐसा होना         अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार के खिलाफ है         इसलिए अनुच्छेद 14 के पैमाने पर दिल्ली पुलिस एक्ट             की धारा 6 ए फेल हो जाती है ।
        6. स्वामी और टेलकाॅम वाचडाॅग जैसे अनेक याचिकाओं में         बताए गए तथ्य स्पष्ट कर रहे हैं कि धारा 6-ए के तहत             किया गया भेद खतरनाक तो है ही पीसी एक्ट 1988 के             उददेश्य के भी उलट है ।

        7. दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 155-156 के तहत पुलिस         स्टेशन के इन्चार्ज को जांच का अधिकार दिया गया है, वह         जांच कर सकता है लेकिन धारा 6 ए के कारण सी.बी.आई.         नहीं कर सकती ।
        8. विनीत नारायण के मामले में सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह         चुका है कि एक अपराध के लिए दोषी सभी लोगों के साथ         कानून के अनुसार एक जैसा व्यवहार किया जाना                 चाहिए, यह धारा 6-ए के संबंध में लागू है ।

   
       
       


       
   


















   









                                                        

शुक्रवार, 2 मई 2014

/विधि का शासन और न्याय प्रदान करने में आने वाली कठिनाईयां//

//विधि का शासन और न्याय प्रदान करने में आने वाली कठिनाईयां//
        विधि द्वारा स्थापित न्यायालयों को विधिक प्रक्रिया के अनुसार न्यायालय में विधि का शासन लागू किए जाने में अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है, जिसके कारण न्याय प्रशासन प्रभावित होता हैं । उपरोक्त कठिनायां निम्नलिखित हैंः-
        1. न्यायालय में कार्य की अधिकता ।
        2. न्यायालय में सभी गवाहों को खर्च नहीं दिया जाता है             क्योंकि वह कम होने के कारण जल्दी समाप्त हो जाता है ।
        3. निःशुल्क विधिक सहायता अयोग्य, अप्रशिक्षित, पैनल लायर             के माध्यम से दी जाती है ।
        4. सरकारी अधिवक्ता राजनैतिक प्रभाव से बनाए जाते हैं             इसलिए एक ही दिन में 15-20 प्रकरणों में कार्यवाही किए             जाने हेतु सक्षम नहीं होते हैं ।
        5. न्यायालय के पास प्रतिकर अदायगी हेतु खुद का कोई             फण्ड नहीं है, इसलिए प्रार्थी को इलाज हेतु पर्याप्त राशि             प्रदान नहीं की जा सकती है ।
        6. न्यायालय में फाईलों की संख्या अत्यधिक है, जिसके                 कारण न्यायाधीश निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार कार्यवाही नहंी             कर पाते हैं ।
        7. न्यायालय और न्यायाधीश राजनीति, मीडिया, प्रमोशन के             लालच में डर दबाव के कारण काम करते हैं ।
        8. बाल न्यायालय भी औपचारिकतापूर्ण एक दिन लगाया                 जाता     है, उसमें विशेषज्ञ की नियुक्ति नहीं होती है ।
        9. ग्राम न्यायालय भी केवल एक दिन लगाए जाते हैं और             ग्राम न्यायालय के अनुरूप ग्रामों में जाकर न्यायाधीश                 सुविधाओं के अभाव के कारण न्याय प्रदान नहीं करते हैं ।
        10. शासकीय गवाहों को सुरक्षा प्रदान नहंी की जाती है,             जिसके कारण वे डर दबाव के कारण अभियोजन का पक्ष             समर्थन नहीं करते हैं, जिसके कारण दोषी व्यक्ति न्यायालय             में छूट जाते हैं ।
        11.न्यायालय और न्यायाधीश पर डर दबाव बनाए जाने के             लिए झंूठे आरोप और शिकायतें की जाती हैं, जिसके कारण             न्यायाधीश स्वतंत्रतापूर्वक कार्य नहीं कर पाते हैं ।