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सोमवार, 5 अगस्त 2013

इलेक्ट्रानिक साक्ष्य की प्रकृति


इलेक्ट्रानिक साक्ष्य की प्रकृति

संयुक्त राष्ट् महा सभा के द्वारा 30 जनवरी 1997 को यह संकल्प लिया गया है कि अंतर्राष्ट्ीय व्यापार विधि से संबंधित संयुक्त राष्ट् आयोग द्वारा इलेक्ट्ानिक वाणिज्य आदर्ष विधि को स्वीकार किया जायेगा और यह संकल्प लिया गया है कि कागज विहीन तरीको को बढावा दिया जायेगा और उक्त संकल्प को प्रभावी करने के लिए सरकारी सेवाओ में इलेक्ट्ानिक अभिलेखों को मान्यता प्रदान की गई है । और इस संबंध में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 को 9 जून 2000 को स्वीकृति प्रदान हुई है तथा 17 अक्टूबर 2000 से यह अधिनियम प्रभावषील हुआ है ।
सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 की धारा-2 टी के अनुसार इलेक्ट्ानिक अभिलेख से अभिप्राय है कि किसी इलेक्ट्ानिक प्रारूप या माइक्रोफिल्म या कम्प्यूटर उत्पादित माइक्रोफिष में डाटा अभिलेख व उत्पादित डाटा भंडारित प्राप्त या प्रेषित ध्वनि अभिप्रेत है ।
इलेक्ट्ानिक अभिलेख को मान्यता प्रदान करने के लिए सरकारी अभिकरणों में दस्तावेजो की इलेक्ट्ानिक फाइल बनाने को सुकर बनाने और भारतीय दण्ड संहिता, भारतीय साक्ष्य अधिनियम ,1872, बैंककार बही साक्ष्य अधिनियम, 1891 और भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, 1934 का और संषोधन करनेतथा उससे संबंधित या उसके आनुषंगिक विषयों का उपबन्ध करने के लिए अधिनियम में प्रभावी संषोधन किये गये हैं ।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 जिसे आगे अधिनियम से संबोधित किया गया है की धारा- 65 ख के अनुसार इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड की अन्तर्वस्तुओं

का सबूत धारा 65 बी के अनुसार सिद्ध किया जा सकता है ।
यह नया प्रावधान है जिसमें ऐसे रिकार्ड को सिद्ध करने का तरीका बताया गया है । इसका प्राथमिक उददेष्य द्वितीयक साक्ष्य द्वारा सबूत को पक्का करना है । द्वितीयक साक्ष्य की यह सुविधा कम्प्यूटर आउटपुट के बारे में लागू होती है और ऐसे आउटपुट को सबूत के प्रयोजनो के लिए दस्तावेज माना जायेगा । इस धारा में यह भी कहा गया है कि उपधारा (1) के अनुसार कोई सूचना जो इलेक्ट्राॅनिक रिकार्डमें अन्तर्निहित है और जिसका मुद्रण करके या कापी करके रिकार्ड किया जाता है उसे भी दस्तावेज माना जायेगा । इस धारा में कुछ ष्षर्ते दी गई हैं जिनका अनुपालन करना जरूरी माना गया है । जहां षर्ते पूरी हो जाती है इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड साक्ष्य में ग्राहय कर लिया जाता है और किसी भी कार्यवाही में मूल दस्तावेज पेष करना जरूरी नहीं रह जाता है ।
कम्प्यूटर आउटपुट की सुसंगतता के संबंध में षर्ते- कम्प्यूटर आउटपुट को साक्ष्य बनने के लिए निम्नलिखित षर्ते पूरी करनी चाहिएं जैसा कि उपधारा (2) में दिया है:
() कम्प्यूटर आउटपुट में जो सूचना है वह कम्प्यूटा में उस समय भरी गई थी जब कि कम्प्यूटर लगातार चल रहा था और उस समय ये संबंधित सारी सूचनाएं एकत्र कर रहा था और कम्प्यूटर उस व्यक्ति द्वारा संचालित किया जा
रहा था, जिसका इसके इस्तेमाल पर नियंत्रण था ।
() इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड में भरी गयी सूचना इस प्रकार की थी, जो कि नियमित रूप से सामान्य गतिविधियों द्वारा भरी गयी थी ।
() डाटा फीडिंग के दौरान कम्प्यूटर का नियमितसंचालन किया जाता था और यदि कोई अंतराल था तो इससे कम्प्यूटर की सही सूचना पर कोई असर नहीं पड रहा था
() इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड की सूचना सामान्य गतिविधियों के दौरान प्राप्त की गई थी ।
जहां सूचना एक दूसरे से सम्बद्ध कम्प्यूटरो से प्राप्त की गई थी या एक के बाद एक कम्प्यूटर से प्राप्त की गई थी, वहां सभी कम्प्यूटर्स जो इस्तेमाल किए जाते हैं, उन्हें एक इकाई माना जायेगा । इस संबंध में धारा- 65बी (3) के संदर्भ में कम्प्यूटर का अर्थ लगाया जाना चाहिए ।
जब इस धारा के अंतर्गत कोई कथन निकालना है तो उसके साथ यह प्रमाण पत्र देना जरूरी है कि कथन की प्रकृति क्या है और इसे कैसे हासिल किया गया है । पूरा विवरण तरीका तथा धारा की षर्ते आदि देना जरूरी है । इस प्रमाण पत्र पर संबंधित गतिविधियों से जुडे हुये अधिकारी का हस्ताक्षर होना चाहिए जो कथन की सत्यता को प्रमाणित कर रहा हो । इस प्रयोजन के लिए यह पर्याप्त है कि कथन हस्ताक्षर करने वाले की पूरी जानकारी औरविष्वास के अनुसार सही है धारा- 65बी (4)
इस धारा के प्रयोजन के लिए कोई सूचना कम्प्यूटर में सही तरीके से मानव द्वारा या मषीनरी द्वारा भरी जानी जरूरी है । यदि कम्प्यूटर संबंधित गतिविधियों से बाहर कार्य कर रहा है तो भी कार्य के दौरान संबंधित अधिकारी द्वारा दी गई सूचना भी इसी श्रेणी में आएगी ।
इस धारा का स्पष्टीकरण घोषित करता है कि धारा 65बी की प्रयोजनार्थ अन्य सूचना से निकाली गई सूचना का अर्थ होगा कि इसे गणना करके, तुलना करके या अन्य तरीके से निकाला गया है ।
इस प्रकार धारा-65, एवं 65बी साक्ष्य अधिनियम की प्रकृति एंव विचारण के दौरान उसके अभिलेखन की प्रणाली को समझाया गया है ।
साक्ष्य की अधिनियम धारा-65-ख के अनुसार कोई भी सूचना जो इसमें निहित है जो इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड के रूप में है जो दृष्यमान अथवा चुम्बकीय मीडिया द्वारा मुद्रित एकत्रित अथवा किसी पेपर पर अभिलिखित हो; कम्प्यूटर द्वारा प्रस्तुत की गई है (कम्प्यूटर आउटपुट के रूप में एक दस्तावेज माना जायेगा) और निम्नलिखित ष्षर्ते पूरी होने पर उसकी अंतरवस्तु के संबंध में प्रत्यक्ष साक्ष्य के रूप में वह ग्राहय मानी जायेगी ।
धारा 67-. डिजिटल हस्ताक्षर के संदर्भ में प्रमाण- डिजिटल हस्ताक्षर के प्राप्ति के मामले के अपवाद के अलावा यदि किसी सब्सक्राइबर की डिजिटल हस्ताक्षर किसी इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड पर लिया गया कथित किया जाता है ता यह तथ्य कि उक्त डिजिटल हस्ताक्षर जो कि सब्सक्राइबर का डिजिटल हस्ताक्षर है प्रमाणित होना चाहिए ।
धारा 73-. डिजिटल हस्ताक्षर के सत्यापन का प्रमाणः- इस को अभिनिष्चित करने के क्रम में कि डिजिटल हस्तक्षर उसी व्यक्ति का है जिसके लिए तात्पर्यित है न्यायालय निर्देष दे सकता है -
() वह व्यक्ति या नियंत्रक या प्रमाणीकृत प्राधिकारी डिजिटल हस्ताक्षर प्रमाण पत्र प्रस्तुत करें;
() कोई अन्य व्यक्ति जो डिजिटल हस्ताक्षर के संदर्भ में डिजिटल हस्ताक्षर प्रमाण पत्र सूची बद्ध ‘पब्लिक की’
डिजिटल हस्ताक्षर के संदर्भ में उक्त व्यक्ति द्वारा तात्पर्यित माना जाएगा ।
स्पष्टीकरणः- इस धारा के उददेष्यों के लिए ‘नियत्रंक’ का तात्पर्य तकनीकी अधिनियम 1999 की धारा 17 की उपधारा (1) के अधीन नियुक्त नियंत्रक से है ।
धारा 85-. इलेक्ट्राॅनिक करारों के बारे में उपधारणा- दी गई है कि न्यायालय यह उपधारित करेगा कि प्रत्येक इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड जो किसी करार से तात्पर्यित है जिसमें पक्षकारो के डिजिटल हस्ताक्षर भी है के विषय में यह सुनिष्चित किया जाएगा कि वे पक्षकारो के ही हस्ताक्षर है ।
धारा 85-. इलेक्ट्राॅनिक रिकार्डस् एंव डिजिटल हस्ताक्षर विषयक उपधारणा- (1) किसी कार्यवाही में जिसमें इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड की प्राप्ति षामिल हे, न्यायालय यह उपधारणा करेगी कि जब तक कि तत्प्रतिकूलता में साबित न कर दिया जाय उक्त इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड परिवर्तित नहीं कर दिया जाता है यह उस समय से जो कि समय के विनिर्दिष्ट बिन्दु से संबंधित हो तो उसे प्राप्त करने की प्रास्थिति से संबंधित है ।
(2) प्रत्येक कार्यवाही में जिसमें डिजिटल हस्ताक्षर अभिप्राप्त किया गया है जब तक कि इसके विपरीत साबित न कर दिया जाय न्यायालय यह उपधारित करेगा -
() प्राप्त किया गया डिजिटल हस्ताक्षर सब्सक्राइबर द्वारा लिया गया माना जाएगा इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड के अनुमोदन एंव हस्ताक्षर के आषय से संबद्ध माना जाएगा;
() अभिप्राप्त इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड के अलावा एक ‘सेक्योर डिजिटल हस्ताक्षर’ इस धारा में किसी बात के न होते हुये कोई उपधारणा इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड की परिषुद्धता का किसी डिजिटल हस्ताक्षर की षुद्धता एंव समेकता के सृजन की उपधारणा कर सकेगा ।
धारा 85-. डिजिटल हस्ताक्षर प्रमाण पत्र के संबंध में उपधारणा- दी गई है कि जब तक कि तत्प्रतिकूल रूप में साबित न किया जाय न्यायालय यह उपधारणा कर सकेगा कि डिजिटल हस्ताक्षर प्रमाण पत्र में सूची बद्ध सूचना सत्य है । सिवाय सब्सक्राइबर सूचना में विनिर्दिष्ट सूचना के जो सत्यापित नहीं है; यदि प्रमाण पत्र सब्सक्राइबर द्वारा स्वीकृत होता है ।
इसी प्रकार धारा 88-. इलेक्ट्राॅनिक सूचना के संदर्भ में उपधारणा- दी गई है कि न्यायालय यह उपधारित कर सकता है कि कोई इलेक्ट्राॅनिक सूचना जो ओर्जिनेटर द्वारा इलेक्ट्राॅनिक मेल से पाने वाले को भेजी गई हो एंव जिसके लिए समाचार तात्पर्यित हो जैसा कि यह कम्प्यूटर में सुस्थित किया गया हो एंव जो उसके कम्प्यूअर ट्ांषमिषन के लिए हो; किन्तु न्यायालय उस व्यक्ति के बारे में कोई उपधारणा नहीं करेगी जिसके द्वारा सूचना प्रेषित की गई है ।
90-. पांचवर्ष पुराने इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड के संबंध में उपधारणा- दी गई है कि जहां केाई इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड जो कि पांच वर्ष पुराना प्रमाणित हैं अथवा प्रमाणित होने के लिए तात्पर्यित है, किसी अभिरक्षा
द्वारा प्रस्तुत किया जाता है जिसे न्यायालय विषेष मामलों में उचित समझता है; न्यायालय यह उपधारित कर सकेगा कि डिजिटल हस्ताक्षर जो कि किसी खास व्यक्ति के डिजिटल हस्ताक्षर के लिए तात्पर्यित है वह उसके द्वारा इस प्रकार
सुनिष्चित है अथवा उसकी ओर से प्राधिकृत व्यक्ति द्वारा सुनिष्चित है ।
स्पष्टीकरणः- इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड उचित अभिरक्षा में तब कहे जाते हैं यदि वे उस स्थान में जिसमें है किसी व्यक्ति के देखभाल के अधीन होते है; वे प्राकृतिक रूप में हो सकते हैं; किन्तु कोई अभिरक्षा उस समय अनुचित नहीं होगा यदि यह साबित कर दिया जाता है कि इसका विधिक मूल है अथवा विषिष्ट मामले की परिस्थिति इस प्रकार हो कि ऐसे मूल के अधिसम्भाव्य बनावें ।
131-उन दस्तावेजों या इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड का पेष किया जाना जिन्हें कोई दूसरा व्यक्ति, जिसका उन पर कब्जा है, पेष करने से इंकार कर सकता थाः- कोई भी व्यक्ति अपने कब्जे में की ऐसे दस्तावेजो अथवा इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड को पेष करने के लिए जिनको पेष करने से कोई अन्य व्यक्ति, यदि वे उसके कब्जे में होतीं, इन्कार करने का हकदार होता, विवष नहीं किय जाएगा जब तक कि ऐसा अंतिम वर्णित व्यक्ति उनक पेषकरण क लिये सम्मति नहीं देता ।
इस प्रकार भारतीय साक्ष्य अधिनियम में संषोधन के स ेइलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड की प्रकृति और उसके अभिलेखन की सामग्री तथा उसके संबंध में की जाने वाली उपधारणा में सीमित प्रावधान दिये गये हैं । भा..सं. में जहां पर दस्तावेज का उल्लेख है उसके स्थान पर इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड भी षामिल किया गया है और इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड का अर्थ सूचना प्रोद्योगिकी अधिनियम की धारा-2 की उपधारा 1 के खण्ड टी में दिया गया है जिसके अनुसार इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड से किसी इलेक्ट्राॅनिक प्ररूप या माइक्रोफिल्म या कम्प्यूटर उत्पादित माइक्रोफिष में डाटा अभिलेख या उत्पादित डाटा, भंडारित, प्राप्त या प्रेषित ध्वनि अभिप्रेत हैं;



साक्ष्य अधिनियम 1872 के अधीन निर्णयों की सुसंगता


                            साक्ष्य अधिनियम 1872 के अधीन निर्णयों की सुसंगता 
 
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 40, 41, 42, 43,और 44, निर्णय, डिक्री, आदेश की सुसंगतता के संबंध में है निर्णय सत्यनिष्ठ संव्यवहार है जो न्यायालय द्वारा सार्वजनिक रूप से अभिलिखित किया जाता है और वह इस तथ्य का निश्चयात्मक सबूत है कि अमुख समय पर कुछ पक्षकार के बीच मुकदमें बाजी हुई थी और वह अमुख रूप से समाप्त हुई है भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 40 के अंतर्गत द्वितीय वाद या विचारण के रोक के लिये पूर्व निर्णय सुसंगत माने गये हैं । 
 
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 40 के अनुसार किसी भी ऐसे निर्णय, आदेश या डिक्री का अस्तित्व जो किसी न्यायालय को वाद के संज्ञान या कार्य विचारण करने से विधि द्वारा निवारित करते हैं सुसंगत तथ्य है जबकि प्रश्न यह है कि क्या ऐसे न्यायालय को ऐसे वाद का संज्ञान या विचारण करना चाहिये
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की तीन धारा 41,42,43 न्यायालय को निर्णयों या उसकी विशेष बातों को साबित करने के लिये सुसंगत बनाती है । 

 
यदि किसी न्यायालय मंे सिविल या आपराधिक मामले में किसी विषय पर निर्णय देने का अधिकार है और वाद का एक पक्षकार यह कहता है इस संबंध में पहले निर्णय हो चुका है और न्यायालय अब उस पर निर्णय नहीं दे सकता है तो धारा 40 लागू होगी और सक्षम न्यायालय द्वारा पहले किये गये निर्णय में उस तथ्य को बताने के लिये पहले दिया गया निर्णय एक विशेष प्रकार का सुसंगत तथ्य है । 
 
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 298 के अंतर्गत पूर्व दोषसिद्धि या दोषमुक्ति साबित किये जाने के लिये दंडादेश की प्रतिलिपि प्रस्तुत की जावेगी और धारा 300 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत एक बार दोषसिद्धि या दोषमुक्ति किये गये व्यक्ति का पुनः उसी अपराध के लिये विचारण नहीं किया जावेगा । यह बात पूर्व के निर्णय से साबित की जावेगी 






 
                                                           सी.पी.सी की धारा 11 के अंर्तगत पूर्व न्याय के सिद्धांत के अनुसार सिविल वाद वर्जित होने पर और आदेश -2 नियम-2 सी.पी.सी के अंतर्गत दावे के भाग का त्याग किये जाने पर पुनः वाद नहीं लाया जावेगा तथा धारा 10 पूर्व मे विचारण हो जाने पर बाद का वाद रोक दिया जावेगा और धारा 12 सी.पी.सी के अंतर्गत किसी विशिष्ट वाद हेतुक, के संबंध में अतिरिक्त वाद वर्जित होगा आदि तथ्य साबित किये जाने के लिये पूर्व का निर्णय सुसंगत भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 40 में माना गया है ।



भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 41 प्रोबेट, विवाह, नावधिकरण, दिवाला, विषयक अधिकारिता के प्रयोग में सक्षम न्यायालय द्वारा किये गये अंतिम निर्णय की सुसंगति के संबंध में→जिसके अनुसार कोई भी निर्णय, आदेश या डिक्री जो किसी व्यक्ति को या से कोई विधिक हेसियत प्रदान करती है या ले लेती है या जो सर्वतः न किसी विनिदिष्ट व्यक्ति के विरूद्ध किसी व्यक्ति को ऐसी किसी हेसियत का हकदार या किसी विनिदिष्ट चीज का हकदार या किसी ऐसी चीज पर किसी ऐसे व्यक्ति का हक का अस्तित्व सुसंगत है । 
 
ऐसा निर्णय आदेश या डिक्री इस बात का निश्चायक सबूत है कि कोई विधिक हेसियत जो वह प्रदत्त करती है उस समय प्रोदभूत हुई जब ऐसा निर्णय आदेश या डिक्री प्रवर्तन में आई या कि कोई विधिक हेसियत जिसे वह ऐसे किसी व्यक्ति से ले लेती है उस समय खत्म हुई जो उस समय ऐसे निर्णय आदेश या डिक्रीद्वारा घोषित है कि उस समय से वह हेसियत खत्म हो गई थी या खत्म होना चाहिये ओर कि कोई चीज जिसके
लिये वह किसी व्यक्ति को ऐसा हकदार घोशित करती है उस व्यक्ति की उस समय संपत्ति थी जो समय ऐसे निर्णय आदेश या डिक्री घोशित है कि उस समय से वह चीज उसकी सम्पत्ति थी या होनी चाहिये ।

विधि का यह सुस्थापित सिद्धांत है कि किसी भी व्यक्ति को बिना सुने उसके विरूद्ध निर्णय नहीं दिया जावेगा । इसके लिये आवश्यक है कि पक्षकार को दावे प्रस्तुति की सूचना हो और वह अपना पक्ष प्रस्तुत कर सके परंतु न्यायालय द्वारा कुछ निर्णय ऐसे पारित किये जाते है जो पक्षकार नहीं होते हुए भी लोगो पर बंधनकारी होते है । यह निर्णय दो प्रकार के होते हैं
1. सर्वसंबंधी निर्णय
2. व्यक्तिसंबंधी निर्णय

सर्वसंबंधी निर्णय:- सर्व संबंधी निर्णय ऐसा निर्णय है जो किसी विशिष्ट बातों की स्थिति पर, इस प्रयोजन के लिये सक्षम प्राधिकार रखने वाले किसी अधिकरण द्वारा, सब व्यक्तियों पर, चाहे वे मामले में पक्षकार हो या न हो, आबद्धकर होता है । अर्थात अपरिचित व्यक्ति भी ऐसे निर्णय के लिये बाध्यकारी होते हैं । यह संपूर्ण विश्व के विरूद्ध निश्चायक होता है । अर्थात केवल पक्षकारों के बीच ही नहीं अपितु पूरे संसार पर बाध्यकारी होते हैं ।

व्यक्ति बंधी निर्णय:- व्यक्ति बंधी निर्णय सक्षम न्यायालय द्वारा दिया गया ऐसा निर्णय है जो पश्चातवर्ती कार्यवाहियों में उन्हीं पक्षकारों के अथवा उनके बीच विनिश्चय मामलों के संबंध में और साथ ही साथ विनिश्चय के आधारों के संबंध में निश्चयात्मक साक्ष्य होती है ऐसे निर्णय लोक प्रकृति के मामलों में ग्राहय है और कपट होने की दशा में उनका प्रयोग अपरिचित व्यक्तियों के लिये नहीं हो सकता है । नातेदारी, के मामलों में नातेदारी, की सीमा तक किया जा सकता है ।

सर्वबंधी निर्णय - सर्वबंधी निर्णय धारा 41 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के प्रथम भाग क अंतर्गत उस दशा में सुसंगत होते हैं जबकि अंतिम निर्णय का आशय है कि:-
//// किसी सक्षम न्यायालय के प्रोबेट, विषयक, विवाह विषयक नावधिकरण विषयक या दिवाला विषयक अधिकारिता के प्रयोग में दिया गया है
//// किसी व्यक्ति को कोई विधिक हेसियत प्रदान करता है अथवा उसको ऐसे स्वरूप से वंचित करता है ।
//// यह घोषित करता है कि कोई व्यक्ति इस प्रकार की प्रास्थिति का अधिकारी है यह घ ोषित करता है कि कोई व्यक्ति किसी वस्तु विशेष का पूर्ण अधिकारी है और
//// इस प्रकार की विधिक हेसियत हो कि व्यक्ति विशेष का पूर्ण अधिकार अवश्य विवाद्यक या सुसंगत हो ।
इस धारा का दूसरा भाग नीचे लिखी बातों को दर्शित करने के लिये सर्वबंधी निर्णय को निश्चायक सबूत घोेषित करता है:-
//1// ऐसे निर्णय से किसी व्यक्ति को कोई विधिक
हेसियत उस समय से प्राप्त हुई जबकि निर्णय प्रवर्तन में आया ।
//2// ऐसे निर्णय से किसी व्यक्ति की कोई विधिक हेसियत उस समय से जो कि निर्णय में उल्लेखित है घोषित हुई ।
//3// ऐसे निर्णय से किसी व्यक्ति को उसकी विधिक हेसियत से वंचित उस समय से किया गया है जो कि निर्णय में घोषित हो ।
//4// किसी व्यक्ति को जिस वस्तु का हकदार घोषित किया जाता है वह वस्तु निर्णय में उल्लेखित तारीख से उस व्यक्ति की सम्पत्ति है या रहेगी
धारा-41 की महत्वपूर्ण षर्त सक्षम न्यायालय द्वारा किया गया निर्ण है । सक्षम न्यायालय ऐसा न्यायालय है जिसे पक्षकारो और विषयवस्तु पर निर्णय की अधिकारीता प्राप्त है ।
विदेषी निर्णय भी सक्षम न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय होने की दषा निष्चायक है बषर्त कि वह न्यायालय अंतर्राष्ट्रीय अर्थ में सक्षम न्यायालय हो { कृप्या देखे ए.आई.आर. 1963 एस.सी.1 आर. विष्वनाथ बनाम रूख-उल-मुल्क सैयद अब्दुल वजीद}
साक्ष्य अधिनियम की धारा 42 के अनुसार वह निर्णय या आदेश या डिक्री जो धारा 41 में वर्णित से भिन्न है यदि वे जांच में सुसंगत, लोकप्रकृति की बातों से संबंधित है तो वह सुसंगत है किन्तु ऐसे निर्णय या आदेश या डिक्रीया उन बातों का निश्चायक स्वरूप नहीं है जिनका वे कथन करती है । वे रूढि, चिरभोग, न्यास अदि मामलो से संबंधित पूर्ववर्ती निर्णय चाहे पक्षकारों के बीच हो, या अन्य पक्षकारों के बीच हो लोक अधिकारों के साधारण हित मामलों में साक्ष्य के रूप में ग्राहय है ।
साक्ष्य अधिनियम की धारा 43 के अनुसार धारा 40, 41 और 42 में वर्णित से अलग निर्णय आदेश या डिक्रीयां विसंगत है, जब तभी ऐसे निर्णय, आदेश या डिक्री का अस्तित्व विवाद्यक न हो या वह इस अधिनियम के निर्णय अन्य उपबंध के अंतर्गत सुसंगत न हो ।
इस प्रकार के निर्णय हेतु, रूढि़ पूर्व दोशसिद्धि को सिद्ध करने के लिये संसुगत है ।
साक्ष्य अधिनियम की धारा 44 के अनुसार वादी या अन्य कार्यवाही का कोई भी पक्षकार यह दर्शित कर सकेगा कि कोई निर्णय, आदेश या डिक्री जो धारा 40, 41, या 42 के अधीन सुसंगत है और जो प्रतिपक्षी द्वारा साबित की जा चुकी है, ऐसे न्यायालय द्वारा दी गई थी जो उसे देने के लिये अक्षम था या कपट या दुरभिसंधि द्वारा अभिप्राप्त की गई थी ।
जब कोई वाद में धारा 40, 41, 42, के अंतर्गत निर्णायक आदेश या डिक्री साक्ष्य में पेश करता है तो विपक्षी उसके प्रमाण से इस आधार पर बच सकता है कि:-
/1/ निर्णय देने वाले न्यायालय में अधिकारिता का अभाव था ।
/2/ निर्णय कपट से प्राप्त किया गया क्योंकि कपट और न्याय साथ-साथ नहीं रह सकते ।
/3/ पक्षकारों के मध्य दुरभीसंधि है ।
इस प्रकार भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 40, 41, 42, 43, 44 निर्णय के सुसंगति के संबंध में है ।















बाल मजदूरी


                                                        बाल मजदूरी
                                                                     मरे देश में बाल मजदूरी आम बात है । देश में करोडो बच्चे पढने की उम्र में बोझा ढोते हैं । कारखाना, फैक्ट्री, में खतरनाक काम करते हैं । जबकि बाल मजदूरी को बालक श्रम प्रतिषेध और विनियमन अधिनियम 1986 की धारा-14 में अपराध घोषित कर उसे दण्डित किया गया है ।
                                                                    इस अधिनियम के अंतर्गत बच्चो को 15वां साल लगने से पहले किसी भी फेक्ट्री में काम पर नहीं रखा जा सकता । उनसे रेलवे स्टेशन, बंदरगाह, कारखाने, उद्योग धंधे जहां पर खतरनाक रसायन और कीटनाशक निकलते हैं । वहा पर उन्हें काम पर नहीं लगाया जा सकता है ैकेवल 14 से 18 साल की उम्र के बच्चे को ही फैक्ट्रियो मंे 6 घंटे काम पर लगाया जा सकता है ।

                                                              जिसमें उनसे एक बार में चार घंटे से ज्यादा काम नहीं लिया जा सकता है । रात के 10 बजे से लेकर सुबह 8 बजे के बीच में उनसे कोई भी काम नहीं करवाया जायेगा । उन्हें सप्ताह में एक दिन छुटटी अवश्य दी जायेगी । उनकी सुरक्षा के विशेष इंतजाम कारखाना अधिनियम 1948 के अनुसार किये जाएगें ।जब से बच्चो को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार दिया गया है तब से 18 साल से कम उम्र के किसी भी बच्चे को काम करने की इजाजत नही ंदी जानी चाहिए

किशोर न्याय


                                                                 किशोर न्याय


                                            विधि के साथ संघर्षरत किशोरो को शीघ्र न्याया प्रदान करने हेतु किशोर न्याय ( बालकों की देख-रेख तथा संरक्षण) अधिनियम 2000 की रचना की गई है । जिसमें 18 साल से कम आयु के वे बच्चे जिन्होने कानून का उल्लंघन किया हो । उनका किशोर न्याय बोर्ड के द्वारा निराकरण किया जाता है । ऐसे किशोर को गिरफतारी के 24 घंटे के अंदर किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष पेश किया जाता है ।

                              बोर्ड को मामले की जांच अधिकतम चार माह मे पूर करनी चाहिए । बोर्ड 14 वर्ष की आयु से बडे कामकाजी बच्चे को जुर्माना लगाने का आदेश देता है । विवाहित किशोर को अधिकतम तीन वर्ष की अवधि के लिए विशेष गृह/सुधार गृह भेजने का आदेश दिया जाता है ।

                                                 कानून विवादित किशोर को सामूहिक गतिविधियों तथा सामुदायिक सेवा कार्यो में भाग लेने का आदेश दिया जाता है । बोर्ड को मुफ्त कानूनी सेवाएं उपलब्ध कराना राज्य विधिक सेवाए प्राधिकरण और जिला बाल संरक्षण इकाई के कानूनी अधिकारी की जिम्मेदारी है ।


                                                                        अधिनियम में बाल कल्याण हेतु बालगृह बनाने की व्यवस्था है । इसके अंतर्गत बच्चो को अस्थाई रूप से रखने के लिए निरीक्षण गृह, विशेष गृह आफटर केयर गृह की स्थापना की जायेगी जिसमें किशोरो को ईमानदारी, मेहनत और आत्मसम्मान के साथ जीवन जीने की शिक्षा और प्रशिक्षण दिया जाएगा । 



                                                        अनाथ शोषित, उपेक्षित, परित्यक्त बच्चो के पुनर्वास की व्यवस्था की गई है । ऐसे बाल गृहोे में बच्चो के स्वास्थ शिक्षा पोषण सुरक्षा का विशेष ध्यान रखा जाएगा इसके लिए बाल कल्याण समिति चाइल्ड हेल्प लाइन 1098 की स्थापना की गई है ।





बाल विवाह बाल विवाह निषेध अधियिम 2006


                                                                 बाल विवाह

                 बाल विवाह निषेध अधियिम 2006 

 
                                                        हमारे देश में बच्चो की कम उम्र में शादी की परम्परा है । जिसके कारण बच्चें कम उम्र में मां बाप बन जाते हैं । गर्भवती महिलाओ को मृत्यु और गर्भपात में वृद्धि होती है । शिशु मृत्यु दर बढती है ।

                         बच्चो को बाल मजदूरी अवैध व्यापार या वैश्या वृत्ति में लगा दिया जाता है भारत में बाल विवाह को दण्डित किया गया है जिसके संबंध में बाल विवाह निषेध अधियिम 2006 की रचना की गई है ।

                                                              अधिनियम के अनुसार एक ऐसी लडकी का विवाह जो 18 साल से कम की है या ऐेसे लडके का विवाह जो 21 साल से कम का है । बाल विवाह कहलाता है


                                   ।जिसके लिए 18 साल से अधिक लेकिन 21 साल से कम उम्र का बालक जो विवाह करता है । उसे और उसके मिाता पिता संरक्षक अथवा वे व्यक्ति जिनके देखरेख बाल विवाह सम्पन्न होता है । बाल विवाह में शामिल होने वाले व्यक्तियों को भी दण्डित किया जाता है ।

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                                                                         बाल विवाह के आरोपियों को दण्डित किया गया है । उन्हें दो साल तक का कठोर कारावास या एक लाख रूपये तक का जुर्माना अथवा दोनो से दण्डित किया जा सकता है ।

                                                इसके अलावा बाल विवाह कराने वाले माता पिता, रिश्तेदार, विवाह कराने वाला पंडित, काजी को भी तीन महीने तक की कैद और जुर्माना हो सकता है ।

                                    किन्तु बाल विवाह कानून के अंतर्गत किसी महिला को न ही माता पालक अथवा बालक या बालिका जिसका विवाह हुआ है उसे कारावास की सजा नहीं दी जाएगी। 

 
                                                बाल विवाह की शिकायत कोई भी व्यक्ति निकटतम थाने में कर सकता है । इसके लिए सरकार के द्वारा प्रत्येक जिले में जिला कलेक्टर बाल विवाह निषेध अधिकारी की शक्तियां दी गई है ।

                                            जिसका काम उचित कार्यवाही से बाल विवाह रोकना है । उनकी अभिरक्षा भरण पोषण की जिम्मेदारी उसकी है । उसका काम समुदाय के लोगो में जागरूकता पैदा करना है । वह बाल विवाह से संबंधित मामलो में जिला न्यायालय में याचिका प्रस्तुत करवायेगा ।


                                                      बाल विवाह को विवाह बंधन में आने के बाद किसी भी बालक या बालिका की आनिच्छा होने पर उसे न्यायालय द्वारा वयस्क होने के दो साल के अंदर अवैध घोषित करवाया जा सकता है ।

                                        जिला न्यायालय भरण पोषण दोनो पक्षों को विवाह में दिए गए गहने कीमती वस्तुएंे और धन लौटाने के आदेश पुनर्विवाह होने तक उसके निवास का आदेश कर सकेगा।

रविवार, 4 अगस्त 2013

सूचना क्रांति

                                         सूचना क्रांति    
                           सूचना पाने का अधिकार अधि., 2005                                                                           भारत के संविधान मं लोकतंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना की गई है, जिसमें जनता में से, जनता के द्वारा, जनता के लिए, चुने प्रतिनिधियों द्वारा राज्य किया जाता है । इस प्रकार जनता का राज्य होता है । ऐसे राज्य मंे प्रत्येक नागरिक, वर्ग, को वाक् एंव अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की गई है जिससे उसे यह जानने का अधिकार है कि उसके खून-पसीने की कमाई से एकत्र किये गये लोकधन का सरकार लोक  प्राधिकारी, लोक संस्थाएं किस प्रकार उपयोग कर रही है। ऐसी सूचना की पारदर्शिता की अपेक्षा प्रत्येक व्यक्ति सरकार से करता है । जो उसका मूल अधिकार है । इसी पारदर्शिता को लागू और प्रदर्शित करने के लिए सूचना अधिकार अधिनियम 2005 की स्थापना की गई है । जिसे आगे संक्षिप्त में आर.टी.आई. कानून या अधिनियम कहा गया है ।    

                          अधिनियम के उपबंधों के अधीन रहते हुए, सभी नागरिकों को सूचना का अधिकार होगा । सूचना के अधिकार को अधिनियम की धारा-2आई में परिभाषित किया गया है ।जिसके अनुसार सूचना का अधिकार से अभिप्रेत है। इस अधिनिमय के अधीन पहंुच योग्य सूचना का जो किसी लोक प्राधिकारी द्वारा या उसके नियंत्रणाधीन धारित है, अधिकार अभिप्रेत है । उसकी प्रमाणित प्रतिलिपि लेना, अभिलेखों की जॉंच पड़ताल करना तथा ऑंकड़ों की प्रति प्राप्त करना भी सूचना प्राप्त करने के अधिकार में शामिल है।



    सूचना पाने का अधिकार अधि., 2005 सूचना की स्वतंत्रता अधि., 2002 के स्थान पर लाया गया है जो एक कमजोर तथा निष्प्रभावी कानून सिद्ध हुआ है. नए अधिनियम के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-


1      सभी नागरिकों को सूचना तक पहॅंच का अधिकार स्पष्टतया प्रदान करना।
2     सभी लोक अधिकारियों के लिए इस प्रकार की सूचना के प्रसार को एक बाध्यता बनाया     जाना.
3     केन्द्र एवं राज्य स्तर पर एक उच्च-स्तरीय स्वतंत्र निकाय के रूप में सूचना आयोगों की स्थापना करना ।
4      सूचना आयोग सूचना प्राप्त करने के अधिकार को प्रोन्नत करेंगे तथा अधिनियम के प्रावधानों को लागू करेंगे. ये निकाय अपीलीय अधिकरण के रूप में कार्य करेंगे तथा इन्हें दीवानी न्यायालय के अधिकार प्राप्त होंगे।
5      अधिनियम में सूचना आयोग को ऐसी शक्तियॉं प्रदान की गई हैं जो लोक अधिकारियों को सूचना देने से मना करने से हतोत्साहित करेंगी।


 अधिनियम के अधिकार क्षेत्र में आने वाली विषय वस्तु

      1. केन्द्र एवं राज्य सरकारों के सभी मन्त्रालय तथा विभाग सुरक्षा एवं इंटेलीजेन्स संगठनों   को छोड़कर।
2. पंचायती राज संस्थाएं तथा स्थानीय नगर निकाय।
3. सरकार से वित्तपोषित गैर-सरकारी संगठन।
      4. केन्द्र एवं राज्य सरकारों के स्वामित्व वाले निगम तथा कंम्पनियॉं।  

 
    अधिनियम के विशेष प्रावधान

1.    सूचना प्राप्त करने के लिए लिखित मे  अनुरोध किया जाएगा । अनुरोध प्राप्ति के 30 दिन के भीतर ऐसी फीस संदाय किये जाने पर सूचना उपलब्ध कराई जाएगी ।
2.    यदि जानकारी किसी व्यक्ति के जीवन या स्वतंत्रता से संबंधित है तो वह 48   घंटे के अंदर उपलब्ध कराई जायेगी ।
3.    सूचना न दिये जाने के आदेश के विरूद्ध 30 दिन के अंदर अपील की जाएगी। दूसरी अपील 90 दिन के अंदर केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग को दी जाएगी।
4.    कानून के मुताबिक सूचना प्रदान करने में असफल रहने पर दण्ड का प्रावधान।
5.    बिना किसी युक्तियुक्त कारण के सूचना न देने पर कोई आवेदन प्राप्त किये जाने पर निश्चित समय पर सूचना न दिये जाने पर असदभावना पूर्वक सूचना दिये जाने पर, जानबूझकर गलत, अपूर्ण या भ्रामक सूचना दिये जाने पर जुर्माने का प्रावधान किया गया है ।
6.    यदि उस सूचना को नष्ट कर दिया है, जो अनुरोध का विषय थी या किसी रीति से सूचना देने में बाधा डाली है तो वह ऐसे प्रत्येक दिन के लिए जब तक आवेदन प्राप्त किया जाता है या सूचना दी जाती है, ऐसा करने पर जुर्माने का प्रावधान किया गया है ।
7.    यह जुर्माने की रकम दो सौ पचास रूपये से पच्चीस हजार रूपये तक होगी ।
8.    अधिनियम को अध्यारोही प्रभाव दिया गया है । अन्य न्यायालय की अधिकारिता वर्जित की गई है ।
9.    आम व्यक्ति को लोकहित में सूचना का अधिकार प्रदान किया गया है । जो विषय वस्तु लोकहित से संबंधित है । वह सूचना के अधिकार में शामिल है । 
10.    यदि किसी स्तर पर सूचना पाने के अधिकार अधिनियम-2005 तथा ऑफीशियल सीक्रेट्स अधिनियम, 1923 के प्रावधानों के बीच टकराव की स्थिति आती है, तो सूचना पाने के अधिकार अधिनियम-2005 के प्रावधानों को ही प्रमुखता प्राप्त होगी। 

        सूचना के अधिकार से लाभ

1.    सूचना के अधिकार से आम जनता को यह लाभ प्राप्त है कि लोक प्राधिकारी जो कार्य करेंगे उसकी जानकारी रहेगी । यदि वह मनमाने तौर पर काम करते है तो उस पर रोक लगाई जा सकेगी ।

2.    यदि लोक प्राधिकारी द्वारा सरकारी कार्य करने में हीला हवाला किया जाता है, वे कार्य में उपेक्षा बरतते है, जिससे शासकीय कार्य में मनमानी, भ्रष्टाचार, लालफीताशाही, भाई-भतीजावाद को बढावा देते है तो उन पर रोक लगाई जा सकेगी । 
       
3.    आर.टी.आई एक्ट से यह भी लाभ है कि लोकहित के कार्यो की सुनवाई समय पर हो सकेगी ।
4.     समुचित राहत आम नागरिकों को समय पर प्राप्त होगी।
5.     सराकरी सेवको में कर्तव्य परायणता, जनसेवा की भावना जागृत होगी । जो इस अधिनियम का मूल्य उददेश्य है।
6.    सूचना के अधिकार से देश को यह लाभ है कि लोक प्राधिकारी के कृत्यों में पारदर्शिता आएगी तथा नागरिकों के प्रति जवाबदेही बढेगी ।उचित ढंग से कार्य करने की भावना/मानसिकता विकसित होगी ।   
7.    देश को स्वच्छ प्रशासन सुशासन प्राप्त होगा ।
8.    नागरिकों की सामान्य सुविधाए प्राप्त करने के लिए ज्यादा प्रयास नहीं करना पडेगा
9.    लोकहित में मानक स्तर के कार्य होंगे ।
10.    घटिया निर्माण कार्य पर रोक लगेगी ।

                                     इन्ही सब बातो को देखते हुए सूचना का अधिकार ’’सुशासन की कुंजी’’ माना गया है   परन्तु इसके लिए आवश्यक है कि सरकारी रिकार्ड चुस्त दुरूस्त सूची बद्ध कम्प्यूटरीकृत रखे जावे।


                                        आजादी के 58 वर्षों बाद विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में सूचना का अधिकार कानून निर्वाचित प्रतिनिधियों को जवाबदेही और पारदर्शी बनाने के लिए लाया गया और इसने 8 वर्षों में जो लोकप्रियता हासिल की है, संभवतः वह किसी अन्य कानून ने हासिल नहीं की है। प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॅानिक मीडिया में इस कानून के उपयोग के बाद निकलने वाली जानकारियों ने भ्रष्टाचार करने वाले देशद्रोहियों को बेनकाब किया है। 

                         आर.टी.आई. कानून लागू होने के बाद सरकारी विभागों से मांगी जा रही सूचनाओं के कारण अनेक घोटालों का पर्दाफास हुआ है। घोटालो में  फसने वाले नेताओं और अफसरों की नींद हराम हुई है । इस कानून ने भ्रष्ट नेता और अफसरों की नाक में दम कर रखा है । राष्ट्रपति भवन में बहुमूल्य गिफ्टों की अव्यवस्थित प्रबंधन की बात हो, स्पैक्ट्रम घोटाला, कॉनवेल्थ गेम्स घोटाला, कोल ब्लॉक घोटाला,  सब जगह सूचना का अधिकार ने अपने उद्देश्य को सार्थक किया है।

                         आर.टी.आई. की सूचना जुटाकर घोटालों का भंडफोड करने में अनेक लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पडा है । पुलिस प्रशासन द्वारा उन्हें समय-समय पर डराया धमकाया, सताया जाता है । ऐसी दशा में समाज के लिए काम करने वाले ऐसे आर.टी.आई. कार्यकताओं को सरकार द्वारा सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए ।इसके लिए  अधिनियम में संशोधन द्वारा दण्ड का प्रावधान अलग से जोडा जाना चाहिए । जिसके अनुसार यदि आर0टी0आई0 एक्ट के अंतर्गत सूचना मांगे जाने का डराया,धमकाया जाता है तो उस कार्य को अपराध घोषित कर दण्डित किया जाना चाहिए। 



                                          सूचना का अधिकार कानून जैसे-जैसे सशक्त बन कर उभर रहा है । वैसे-वैसे इसके विरोधियों की संख्या दिन पर दिन बढती जा रही है । जो इसे ब्लेकमेलिंग कर बता रहे हैं।राजनीतिक दल का आरोप है कि इस अधिकार का दुरूपयोग हो रहा है । इसके द्वारा सरकारी और राजनीतिक लोगो को जबरन परेशान किया जा रहा है । जबकि आर0टी0आई0 कार्यकर्ता इसे राजनीतिक साजिश और लोक अभिकर्ताओ का षडयंत्र बता रहे हैं । उनका कहना है कि सरकार की पोल खुलने के कारण इस अधिकार को कम करने और उसे जनता से छीनने का प्रयास किया जा रहा है । जो अब समय नहीं है क्यों कि सूचना के अधिकार को मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने हमे मूल अधिकार घोषित कर दिया है ।


                                                सूचना के अधिकार के लिए कई लोगों की हत्या की गई है । लोगो को डराया धमकाया जाता है । लेकिन इससे सूचना के अधिकार की ज्वाला बुझने वाली नहीं है । इसने समाज में एक नयी रोशनी उम्मीद, आशा की किरण जगाई है । इसलिए जरूरत है कि ऐसे लोगों का साथ दिया जाये और प्रशासन पर दबाव बनाया जाये कि वह भ्रष्ट नेता, अफसरों, के प्रभाव में आकर ऐसा कोई काम न करे जिससे कानून मजाक बनकर

                       केन्द्रीय सूचना आयुक्त नें एक महत्वपूर्ण फैसले में राजनीतिक दल को भी आर0टी0आई कानून के अंतर्गत शामिल कर लिया है । उनका अभिमत है कि राजनीतिक दल सरकार से सुविधाएं लेते है । सरकार उन्हें वित्तीय मदद देती है । इसलिए वह सार्वजनिक प्राधिकारी है । 


                                            सूचना के अधिकार को प्राइवेट संस्थाओ में भी लागू किया जाना चाहिए । प्राइवेट संस्थाओ लोकहित में कार्य करती है और उनके कार्य से लोकहित स्वास्थ, प्रभावित होते है। इसलिए यह आवश्यक है कि सभी प्राइवेट संस्थाओ जो कि लोकहित संबधी कार्य कर रही है उनमें भी अधिनियम के प्रावधान लागू किये जाये । 

                              सूचना का अधिकार कानून की धारा 26 के तहत जनता को जागरूक करने की जिम्मेदारी सरकार की है, उसका कर्तव्य है कि इस कानून का प्रचार-प्रसार करें । इसके लिए उसे राज्य के स्कूल शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए । 


                         इसके अलावा प्रत्येक विभाग की वेबसाइड बनाकर सारी जानकारी प्रतिदिन उस पर अपलोड कर दी जानी चाहिए । ताकि सरकारी संस्थाओ पर सूचना दिये जाने का अतिरिक्त कार्य बोझ न बने । आज प्रत्येक सरकारी कार्यालय में सूचना देने के लिए अलग से विभाग और कर्मचारियों की आवश्यकता पड रही है । जिसे खुद सूचना सार्वजनिक कर इस कार्य को आसान बनाया जा सके । 

                                           मध्य प्रदेश सरकार के द्वारा अधिनियम की धारा- 27 के अंतर्गत सूचना अधिकार फीस और लागत या विनियमन नियम 2005 बनाया गया है । जिसके अंतर्गत 10 रूपये आवेदन के साथ फीस नगद मांग देय, ड्राफट या बैंकर चैक के रूप में लोक प्राधिकरण के लेखाधिकारी को संदेय किये जाने पर सूचना प्राप्त की जा सकती है ।    
                                                         

                                                       उमेश कुमार गुप्ता