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गुरुवार, 19 सितंबर 2013

सामान्य उददेश्य

                                           सामान्य उददेश्य
        धारा-149 प्रतिनिधिक एंव आन्वयिक दाण्डिक दायितत्व विधि विरूद्ध जमाव के प्रत्येक सदस्य हेतु विहित करती है,जहां अपराध उस जमाव के सामान्य उददेश्य के अग्रसरण में ऐसे विधि विरूद्ध जमाव के किसी सदस्य द्वारा कारित किया गया हो या उस जमाव के सदस्यों का उस उददेश्य के अग्रसरण में कारित किया जाना जानते हुए किया हो ।

        विधि के सुस्थापित सिद्धांतो के अनुसार जब कभी न्यायलाय किसी व्यक्ति या व्यक्तियों को धारा-149 की सहायता से अपराध हेतु दोषसिद्ध करती है । जमाव के सामान्य उददेश्य के संबंध में स्पष्ट निष्कर्ष दिया जाना चाहिए एंव चर्चा किया गया साक्ष्य न केवल सामान्य उददेश्य की प्रकृति दर्शाना चाहिए । बल्कि यह भी कि उददेश्य विधि विरूद्ध था। भा.द.सं. की धारा-149 के तहत दोषसिद्धि अभिलिखित करने के पूर्व, भा.द.सं. की धारा-141 के आवश्यक संघटक स्थापित किये जाने चाहिए ।   

    141 विधिविरूद्ध जमाव- पांच याअधिक व्यक्तियों का जमाव विधिविरूद्ध जमाव कहा जाता है यदि उन व्यक्तियों का जिनसे वह जमाव गठित हुआ है, सामान्य उददेश्य हो-

    पहला-    केन्द्रीय सरकार को या किसी राज्य सरकार को संसद को या किसी राज्य के विधान मंडल को या किसी लोक सेवक को जब कि वह ऐसे लोक सेवक की विधिपूर्ण शक्ति का प्रयोग कर रहा हो, आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा आतंकित करना अथवा

    दूसरा-    किसी विधि के या किसी वैध आदेशिका के निष्पादन का  प्रतिशेध करना अथवा

    तीसरा-    किसी रिष्टि या आपराधिक अतिचार या अन्य अपराध का रना अथवा

    चैथा-        किसी व्यक्ति पर आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा किसी सम्पत्ति का कब्जा  लेना या अभिप्राप्त करना या किसी व्यक्ति को किसी मार्ग के अधिकार के उपभोग से या जल का उपभोग करने के अधिकार या अन्य अमूर्त अधिकार से जिसका वह कब्जा रखता हो, या उपभोग करता हो, वंचित करना या किसी अधिकार या अनुमति अधिकार को प्रवर्तित करना अथवा

    पांचवा-    आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा किसी व्यक्ति को वह करने के लिए जिसे करने के लिए वह वैध रूप से आबद्ध न हो या उसका लोप करने के लिए जिसे करने का वह वैध रूप से हकदार हो विवश करना ।

    स्पष्टीकरण-    कोई जमाव जो इकट्ठा होते समय विधि विरूद्ध नहीं था बाद को विधि विरूद्ध जमाव हो सकेगा ।

        यह इस प्रकार अवेक्षित किया जाना चाहिए कि धारा-149 के आवश्यक संघटको में से एक है कि अपराध विधि विरूद्ध जमाव के किसी सदस्य द्वारा कारित किया जाना चाहिए और धारा-149 यह स्पष्ट करती है कि यह केवल वहां होता, जहंा पांच या अधिक व्यक्ति ने जमाव गठित किया, जो एक विधिविरूद्ध जमाव होता है, उक्त धारा की अन्य आवश्यकतांए स्पष्टतः, यथा उस जमाव को करते हुए व्यक्तियों का सामान्य उददेश्य पूर्ण हो । अन्य शब्दों में, विधिविरूद्ध जमाव की एक आवश्यक शर्त है कि इसकी सदस्यता पांच या अधिक होना चाहिए । जो प्रस्तुत प्रकरण में पूरी होती है। धारा-149 द्वारा विनिर्दिष्ट अपराध के आवश्यक संघटकों के संबंध में सही विधिक स्थिति शंका में नहीं है। 

        यदि जमाव की सदस्यता पांच से कम हो तो धारा-141 लागू नहीं होती है । इसलिए धारा-149 का अवलम्ब नहीं लिया जा सकता । यदि पंाच या अधिक व्यक्ति विधिविरूद्ध जमाव गठित करने के रूप में आरोपित हैं और अभियोजन द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य उन समस्त के विरूद्ध आरोप साबित करता है, यह एक स्पष्ट प्रकरण होता है, जहां धारा- 149 अवलम्ब ली जा सकती है । यह परन्तु आवश्यक नहीं है कि पांच या अधिक व्यक्ति धारा-149 के तहत आरोप के पूर्व दोषसिद्ध किये जाने चाहिए, विधि विरूद्ध जमाव के किसी सदस्य के विरूद्ध सफलतापूर्वक लगाया जा सकता है । यह हो सकेगा कि पांच व्यक्तियों से कम धारा-302/149 के तहत आरोपित एंव दोष सिद्ध किये जा सकेंगे, यदि आरोप है कि न्यायालय के समक्ष व्यक्ति अन्य के साथ विधिविरूद्ध जमाव गठित करते, ऐसे नामित अन्य व्यक्ति परीक्षण हेतु उनके साथियों के साथ उपलब्ध नहीं हो सकेंगे, इस कारण से उदाहरण हेतु कि वह फरार हो गये हो ।

        ऐसे प्रकरण मंे, तथ्य कि पांच से कम व्यक्ति न्यायालय के समक्ष हैं,   धारा-149 को इस साधारण कारण से अप्रयोज्य नहीं बनाता है कि आरोप एंव साक्ष्य दोनो साबित किये जाना ईप्सित है कि न्यायालय के समक्ष व्यक्ति और पांच से अधिक संख्या में एंव इस प्रकार, वे एक साथ विधिविरूद्ध जमाव गठित करते । इसलिए, धारा-149 के तहत आरोप लगाने के अनुसरण मंे, यह आवश्यक नही है कि पांच या अधिक व्यक्ति न्यायालय के समक्ष आवश्यक रूप से लाये जाने चाहिए और दोषसिद्ध किये जाने चाहिए ।

        उपर्युक्त उपबन्ध यह स्पष्ट करता है कि भा.द.सं. की धारा-149 की सहायता से अभियुक्त को दोषसिद्ध करने के पूर्व, न्यायालय को सामान्य उददेश्य और यह कि उददेश्य विधिविरूद्ध था की प्रकृति के बारे में स्पष्ट निष्कर्ष देना चाहिए । ऐसे निष्कर्ष साथ ही अभियुक्तगण द्वारा किसी ओर कार्य के अभाव में भी, मात्र तथ्य कि वे लैस थे सामान्य उददेश्य साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा ।धारा-149 एक विनिर्दिष्ट अपराध सृजित करती है और उस अपराध हेतु दण्ड व्यवहत करती है । 

        जब कभी न्यायलाय किसी व्यक्ति या व्यक्तियों को धारा-149 की सहायता से अपराध हेतु दोषसिद्ध करती है । जमाव के सामान्य उददेश्य के संबंध में स्पष्ट निष्कर्ष दिया जाना चाहिए एंव चर्चा किया गया साक्ष्य न केवल सामान्य उददेश्य की प्रकृति दर्शाना चाहिए । बल्कि यह भी कि उददेश्य विधि विरूद्ध था । भा.द.सं. की धारा-149 के तहत दोषसिद्धि अभिलिखित करने के पूर्व, भा.द.सं. की धारा-141 के आवश्यक संघटक स्थापित किये जाने चाहिए ।

        विधान का धारा-149 अधिनियमित करने में विधिविरूद्ध जमाव के प्रत्येक सदस्य केा इसके एक या अधिक सदस्यों द्वारा कारित किये प्रत्येक अपराध के लिए दण्डित किये जाने का उत्तरदायी बनाने का आशय नहीं है । धारा-149 आकर्षित करने के अनुसरण में, यह देखा जाना चाहिए कि फंसाने वाला कृत्य विधि विरूद्ध जमाव के सामान्य उददेश्य को पूर्ण करने के लिए किया या था और यह अन्य सदस्यों के ज्ञान में होना चाहिए यथा सामान्य उददेश्य के अग्रसरण में कारित किया होना चाहिए । यदि जमाव के सदस्य जानते या सामान्य उददेश्य के अग्रसरण में कारित होते हुए विशिष्ट अपराध की सम्भावना से अवगत थे, वे भा.दं.सं. की धारा-149 के तहत इसके लिए उत्तरदायी होगे ।

        यदि परिवादी और अभियुक्त स्वयं खुली लडाई में संलग्न थे, इसलिए भा.द.सं. की धारा-149 के तत्व आकर्षित नहीं होगे क्यों कि अपराध की सदोषता अपीलार्थीगण को व्यक्तिगत रूप से अन्तर्वलित करेगा, के विरूद्ध दूसरे दाण्डिक प्रकरण के लम्बान का तथ्य स्वीकार किया है जो वर्तमान अपीलार्थीगण की प्रेरणा पर संस्थित किया गयाथा ।
        उच्चतम न्यायालय के ए0आई0आर. 1976 एस0सी0 912 पूरणबनाम राजस्थान राज्य  में सम्प्राशित निर्णय की ओर यह दर्शाने के लिए आकर्षित किया कि अचानक दो पक्षकारो के मध्य पारस्परिक लडाई के मामले मंे, भा0द0सं0 की धारा 149 आन्वयिक दाण्डिक दायित्व अधिरोपित करने के प्रयोजन हेतु अवलम्ब नहीं ली जा सकती और अभियुक्तगण व्यक्तिगत रूप से उनके द्वारा कारित क्षतियों के लिए दोषसिद्ध किये जायगे । इस प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने सम्प्रेक्षित किया है कि पक्षकारो के मध्य अचानक पारस्परिक लडाई के मामले में, भा.0द0सं0 की धारा-149 की सहायता का अवलम्ब लेने के प्रश्न आन्वयिक दाण्डिक दायित्व अधिरोपित करने के प्रयोजन हेतु नहीं होगा और अभियुक्त केवल उसके द्वारा उसके वयैक्तिक कार्य द्वारा कारित क्षतियां के लिए दोषसिद्धि किया जा सकता था ।
        उच्चतम न्यायालय के द्वारा मरियादासन और अन्य बनाम तमिलनाडू राज्य ए0आई0आर0 1980 एस0सी0 573 में अभिनिर्धारित किया है कि अपराध कारित करने के सामान्य उददेश्य से किसी अवैध सभा का गठन साबित करने के लिए संतोष जनक साक्ष्य के अभाव में और जब सम्पूर्ण लडाई अचानक आवेश के क्षण प्रारम्भ हुई हो, तब अभियुक्त अकेला उनके वैयक्तिक कार्याे के लिए उत्तरदायी हो सकता है और भा0द0सं0 की धारा-149 के तहत दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता 

        उच्चतम न्यायालय के ए0आई0आर0 1991 एस0सी0 339 अब्दुल हमीद और अन्य बनाम उ0प्र0 राज्य  में सम्प्रकाशित अन्य निर्णय को समान साम्यानुमान दोहराने के लिए अवलम्बित किया कि खुली लडाई में, अभियुक्त उसके वैयक्ति कार्य हेतु उत्तरदायी होगा । 

        अब्दल हमीद बनाम उ0प्र0 राज्य 1991 भाग 1 एस0सी0सी0 339 गजानन्द बनाम उ0प्र0 राज्य ए0आई0आर0 1954 एस0सी0 695 के मामले में यह ठहराया गया है कि एक खुली लडाई परिभाषा    के अनुसार है जब दोनो तरफ से लडाई प्रारम्भ होना अर्थ है, खुली होती है और एक अवस्था की लडाई होती है प्रश्न ऐसी लडाई में कोैन हमला करता है और कौन बचाव पूर्णतः अतात्विक होता है प्रतिद्वंद्वी कमाण्डर द्वारा अपनाई गयी चालाकियों पर निर्भर करता है।

        द्वारका प्रसाद बनाम उ0प्र0 राज्य 1993 सप्ली 3 एस0सी0सी0 141 में यह ठहराया गया है कि -  
    एक खुली लडाई होती है जब दोनो तरफ से लडाई प्रारंभ होना अर्थ   
    है । प्रश्न ऐसी लडाई में कौन हमला करता है और कौन बचाव,     पूर्णतः अतात्विक होता है, प्रतिद्वंद्वी पक्षकारो द्वारा अपनाई गयी     चालाकियों पर निर्भर करता है । पारस्परिक लडाई के ऐसे मामलो में 

    दोनो उनके वैयक्तिक कार्यो के लिए दोषसिद्ध किये जा सकते है ।

    यह स्थिति गजानन्द बनाम उ.प्र.राज्य कानबी नानजी वीरजी बनाम गुजरात राज्य, पूरण बनाम राजस्थान राज्य, विश्वास अबा कुराने बनाम महाराष्ट्र, के मामलो में स्थापित की गई है। यथा एक बार अभियोजन द्वारा यह स्थापित होता है कि प्रश्नगत घटना खुली लडाई के परिणामस्वरूप है, तब सामान्यतः प्रायवेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार किसी भी पक्षकार को उपलब्ध नहीं होता है और वे क्रमशः उनके कार्यो हेतु दोषी होंगे ।

    केवल सिंह बनाम पंजाब राज्य 2003 भाग-12 एस0सी0सी0 369 में  यह सम्प्रकाशित में यह ठहराया गया है कि दोनो पक्षकारगण सशस्त्र आए और खुली लडाई में हुए, जिसके परिणामस्वरूप दोनो     पक्षकारो को क्षतियां हुई ।    चूंकि दोनो पक्षकारगण लडाई के लिए तैयारी से आए थे इस प्रश्न में जाना अनावश्यक है कि क्या उनमें से किसी ने प्रायवेट प्रतिरक्षा के     अधिकार का अनुप्रयोग किया और इसलिए अभियुक्त की सदोषता उनके वैयक्तिक कार्यो हेतु निर्देशन द्वारा विनिश्चित की जानी चाहिए।इसलिए ऐसी स्थिति में भा0द0सं0 की धाराओ 147,148 और 149 के सिद्धांतो को लागू करने हेतु न्यायालय के लिए सुरक्षित नही ंहोगा ।
  
      


                      

सोमवार, 26 अगस्त 2013

विधि संबंधी लेख

                                                    विधि संबंधी लेख 

                            विधिक प्रतिपादनाएं


1 ----भ्रष्टाचार निवारण अधनियम
2----प्रतिरक्षा का अधिकार
3----धारा-24 हिन्दूु विवाह अधिनियम
4----अभियोजन चलाने की अनुमति
5----धारा-27 साक्ष्य अधिनियम
6===अचानक लडाई में धारा-34 और 149 आई0पी0सी0 का लागू न होना
7===सामान्य आशय    
8===धारा-306 और 107 भा0द0सं0
9---आपराधिक षडयंत्र
10---दान
11----पराक्रम्य लिखत अधिनियम 1881
12---सामान्य उददेश्य
13-----धारा-306 भा0द0सं0 के अंतर्गत माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित विधिक प्रतिपादनाऐ-   
14---धारा-311 दं0प्र0सं0 न्यायालय द्वारा साक्ष्य बुलाये जाने की अनुमति देना
15---ले जाना और बहलाकर ले जाना तथा चले जाना
16-----------बलात्कार एंव नापुन्सकता
17------------सहमति
18------------पराक्रम्य लिखत अधिनियम
19---------परिस्थितिजन्य साक्ष्य
20--------------सम्पत्ति अंतरण अधिनियम की धारा-3
21-----------धारा-149
22--------------सूचना का अधिकार अधिनियम-2005-एक परिचय             
23-------------टी0पी0एक्ट
24--------कौटुम्बिक प्रबंध आपसी तथ्य -



                     न्याय व्यवस्था


1--भारतीय न्याय व्यवस्था-समस्या और समाधान

2---न्याय तक पहुंच-कितने दूर कितने पास
3---भारत में अधिवक्ता व्यवसाय

4--भारतकासंविधानऔरपर्यावरणसंरक्षण   

          विधि संबंधी लेख 
1--सामान्य आशय    
2--सामान्य आशय, सामान्य उद्देश्य और खुली अथवा अचानक लडाई
3-----खुली अथवा अचानक लडाई
4---इलेक्ट्रानिक साक्ष्य
5--सरकार द्वारा या उसके विरूद्व वाद
6---आचरण की साक्ष्य
7--क्रूरता   
8--लोक न्यास
9--जाली लाइसेंस एंव बीमा कम्पनी का क्षति पूर्ति हेतु उत्तरदायित्व
10--मृत्यु कालीन कथन
                                          लेख
1-------व्यस्क मताधिकार
2------भारत का संविधान और समाजिक न्याय
3-----भारत में चुनाव सुधार और चुनाव आयोग के सामने चुनौतियां

                         बाबा अम्बेडकर

1--भारत के संविधान निर्माण में बाबा अम्बेडकर का योगदान   
2--डाॅ. भीमराव आम्बेडकर का जीवन और लक्ष्य
3--बाबा आम्बेडकर और नारी उत्थान


                     विधि संबधी समस्याएं
1--मूल अधिकारों का संरक्षण ...... व्यादेश के द्वारा
2---आपराधिक मामले...... आयु निर्धारण
3---बौद्धिक संपदा अधिकार
4---साक्ष्य अधिनियम ............निर्णयों की सुसंगता
5--संविदा के विनिर्दिष्ट अनुपालन ............ आधिपत्य का अनुतोष एवं
6-आज्ञप्ति के निष्पादन में विक्रय के संबध में सामान्य प्रक्रिया
7-गर्भपात से संबंधित विधि................ महिला भ्रूण हत्या ’’
8--दण्ड विधि (संशोधन)अध्यादेशए 2013................ धारा 376-ई
9--गौ वंश
10-गनशाट इन्जुरी

                                                बालक संबंधी विधि

1---संविधान में बच्चों से संबंधित विशेष प्रावधान
2--निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम
3---बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006
4--बाल मजदूरी
5--बालक अधिकार संरक्षण आयोग अधिनियम 2005
6-किशोर न्याय ( बालकों की देख-रेख तथा संरक्षण) अधिनियम 2000 एंव मध्य प्रदेश किशोर न्याय (बालको की देखरेख और संरक्षण) नियम, 2003 में बालको के कल्याण संबंधी दिये गये विशेष प्रावधान-
7---लापता बच्चों के संबंध में मान्नीय उच्चतम न्यायालय के दिशा निर्देश
8---किशोर न्याय
9--किशोर न्याय (बालकों की देख-रेख तथा संरक्षण)  अधिनियम 2000 एंव उसके नियमों के अधीन आयु निर्धारण


                                   महिलाओं संबंधी विधि 

1--संविधान में स्त्रीयों से संबंधित विशेष प्रावधान
2--देश मंे महिलाओं की स्थिति
3-महिलाओं की जन भागीधारी में संबिधान की भूमिका
4--दुष्कर्म क्रूरता की जांच के संबंध मे दिशा निर्देश
5--लैगिक अपराधो से बालको का संरक्षण अधिनियम 2012
6--महिला एंव बच्चो से संबधित कानून के क्र्रियान्वयन में आने वाली कठिनाई

        महिलाओ एव बच्चो संबंधी महत्वपूर्ण विधि

1--सूचना क्रांति   
2--घरेलू हिंसा
3-ग्राम न्यायालय
4--मोटर यान अधिनियम 1988
5-विवाह का रजिस्ट्र्ेशन
6--मानव अधिकार एंव आयोग

















 





मंगलवार, 20 अगस्त 2013

चिकित्सीय उपेक्षा के मामले में आपराधिक दायित्व की सीमा ?

चिकित्सीय उपेक्षा के मामले में आपराधिक दायित्व की सीमा ?

                                                माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा अनेक मामलों में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जब तक डाक्टर के द्वारा घोर उपेक्षा जानबूझकर घोर लापरवाही न की जाए तब तक उसके काम को अपराध की श्रेणी में नहीं माना जा सकता है।

                                                            घोर उपेक्षा को भा0दं0सं0 में परिभाषित नहीं किया गया है माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा इसे चिकित्सीय उपेक्षा के मामले में परिभाषित किया गया है। सामान्य अर्थ में उपेक्षा का अर्थ उस सतर्कता का अभाव है जिसको कि उन विशिष्ट परिस्थितियों में प्रयुक्त करना विधिक कत्र्तव्य होता है। उपेक्षा आशय के विपरीत एक मानसिक अवस्था को प्रदर्शित करती है जिसमें कि किसी विशिष्ट परिणाम कारित करने की इच्छा का अभाव रहता है। इसका अर्थ प्रमाद अथवा असावधानी ही है।

                                                  उपेक्षा मंे वह परिणाम की इच्छा नहीं की जाती है न ही उसके उत्पन्न करने के लिए कार्य कियाजाता है जो परिणाम उत्पन्न होते है संक्षेप में उपेक्षा का अर्थ दोषपूर्ण असावधानी है। उपेक्षा के मामले में पक्षकार वह कार्य नहीं करता है जिसके करने के लिए वह सक्षम है वह एक निश्चात्मक कत्र्तव्य का उल्लघन करता है यहां वह उस कार्य की ओर ध्यान नहीं देता है जिसको करनाउसका कत्र्तव्य है।

                                     इसलिए अनुचित चिकित्सा उपचार जिसमें कि सामान्य ज्ञान और कुशलता का अभाव होगा और जो सद्भावना पूर्वक नहीं किया गया हो वही चिकित्सीय उपचार उपेक्षा की श्रेणी में आता है। यदि कोई डाक्टरद्वारा अनुचित अशुद्ध उपचार सद्भावनापूर्वक सामान्य ज्ञान तथा कुशलतापूर्वक किया गया है तो वह कार्य अपराध की श्रेणी में नहीं आता है और केवल सिविल दायित्व ही उत्पन्न करता है।

                                      भा0दं0वि0 की धारा -88 92 93 में चिकित्सक द्वारा उनके समान अंन्य प्रोफेशनल व्यक्तियां को विशेष परिस्थितियों में कार्य किए जाने के लिए संरक्षण प्रदान किया गया है।

                             माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा चिकित्सक के कार्य को तब तक अपराधिक कार्य नहीं माना जा सकता है जब तक उसके द्वारा इलाज करने में तीव्र उपेक्षा व उच्च स्तर की लापरवाही नहीं बरती गयी है।

                                     माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा सुरेश गुप्ता बनाम राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली (2004)6 एस0सी0सी0-422 मे पारित दिशा निर्देशों के अनुसार चिकित्सीय उपचार के दौरान प्रत्येक दुर्घटना या मृत्यु के लिए चिकित्सीय व्यक्ति के खिलाफ सजा के लिए कार्यव्राही नहीं की जा सकती। उनके दोष को इंगित करते हुए पर्याप्त चिकित्सीय अभिमत के बिना चिकित्सगण का दांडिक अभियोजन समुदाय में आम जनता की गलत सेवा होगी, क्योंकि यदि न्यायालयें, अस्पतालों और चिकित्सकों पर प्रत्येक बात जो गलत होती है, के लिए दांडिक दायित्व अधिरोपित किया जाता है, तो चिकित्सकगण उनके रोगियों का सर्वोत्तम उपचार करने की अपेक्षा उनके स्वयं की सुरक्षा के बारे में अधिक चितिंत होगें। यह चिकित्सक और रोगी के मध्य आपसी विश्वास हिल जाने में परिणित होगा।



                                             चिकित्सक के अस्पताल या दवाखाना में प्रत्येक दुर्घटना या दुर्भाग्य उसका सदोष उपेक्षा के अपराध के लिए परीक्षण करने के लिए उपेक्षा का घोर कृत्य नहीं है। ृ इसी प्रकार माननीय उच्चतम न्यायालयेद्वारा जैकब मैथ्यु बनाम स्टेट आॅफ पंजाब, ए0आई0आर0 2005, सु0को0-3180 में यह अभिनिर्धारित किया है कि प्रोफेशनल व्यक्ति को उपेक्षा के लिए दो आधारों पर दायी माना जा सकता है। या तो उसके पास वह अपेक्षित कौशल न हो जिसके होने के संबंध में वह दर्शाता है अथवा उसके द्वारा युक्तियुक्त सक्षमता से कौशल न किया गया हो। यह निर्णीत करने के लिए कि व्यक्ति उपेक्षा का दोषी था अथवा नहीं मानक यह होगा कि क्या साधारण सक्षम व्यक्ति की तरह उस पेशे के साधारण कौशल काउपयोग किया गया था। यह स्पष्ट किया गया कि प्रत्येक प्रोफेशनल के लिए उस ब्रांच मे जिसमें कि वह प्रेक्टिस करता है उच्च स्तर की विशेषज्ञता को धारण करना अथवा कौशल को धारण करना संभव नहीं होता है।

                                              इसी प्रकरण में माननीय उच्चतम न्यायालयद्वारा आगे यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जब मरीज चिकित्सीय इलाज अथवा सर्जिकल आॅपरेशन के लिए सहमत होता है तो मेडिकल मेन के प्रत्येक उपेक्षावान कृत्य को आपराधिक होना नहीं कहा जा सकता है। इसे उसदशा में ही आपराधिक होना कहा जा सकता है जबकि चिकित्सकीय व्यक्ति घोर अक्षमता वाला प्रदर्शित करे अथवा उसके द्वारा घोर लापरवाही की गयी हो। मात्र अनवधानता अथवा कतिपय डिग्री की पर्याप्त केयर एवं सर्तकता का अभाव होने पर सिविल दायित्व ही सृजित होगां। इस आधार पर आपराधिक दायित्व सृजित नहीं होगा।

डा0 उषा बाधवा बनाम स्टेट आॅफ एम0पी0 2003(2)एम0पी0डब्ल्यु0एन0 -92,
 रूपलेखा बनाम स्टेट आॅफ एम0पी0 2006 (3) एम0पी0एल0जे0- 120 
डा0 अशोक लोधा बनाम स्टेट आॅफ एम0 पी0 2005 (3) एम0पी0एल0जे0-281
हसमुख बनाम स्टेट आॅफ एम0पी0-2005 क्रि0लाॅ0रि0-844 खुशलदास बनाम स्टेट 1959 एम0पी0एल0जे0-966 म0प्र0 1959 जे0एल0जे0-602 म0प्र0 ए0आई0आर0-1960 म0प्र0-50 आादि मामले में

                                        म0प्र0 उच्च न्यायालय द्वारा उपरोक्त अभिनिर्धारित सिद्धांतों के आधार पर चिकित्सीय उपेक्षा को वर्णित किया है।इस प्रकार चिकित्सीय कार्य तभी आपराधिक उपेक्षा की श्रेणी में आएगा:-

1 जब चिकित्सीय व्यक्ति घोर अक्षमता प्रदर्शित करें।

2 जब चिकित्सीय व्यक्ति द्वारा घोर उच्च स्तर की लापरवाही बरती जाए।

3 जब चिकित्सक के द्वारा युक्तियुक्त सक्षमता से उस कौशल का उपयोग न किया गया हो, जिसे वह धारण करता है।

4 जब चिकित्सक के द्वारा किए गए कार्य और निकाले गए इलाज केे परिणाम का प्रत्यक्ष निकटतम संबंध हो।

5 जब उसके द्वारा साधारण व्यक्ति की तरह अपने पेशे में धारण कौशल का साधारण तरीके से उपयोग किया गया है।

6 जब चिकित्सीय रिपोर्ट या अन्य चिकित्सक कीयह राय हो कि उचित इलाज नहीं हुआ है और चिकित्सक की राय के अनुसार कार्य तीव्रतापूर्वक अथवा अत्यधिक उपेक्षापूर्ण कृत्य की कोटि में आता है।

7 चिकित्सीय उपेक्षा में आपराधिक दायित्व के लिए रे ईप्सा लाक्यूटर (घटना स्वयं बोलती है) का सिद्धांत लागू नहीं होता है। क्योंकि यह नियम साक्ष्य की विषय वस्तु है और इसके आधार पर केवल सिविल दायित्व अपेक्षित किया जा सकता है

8 चिकित्सीय उपेक्षा का टेस्ट बाॅलम टेस्ट बोलम बनाम फीयर अस्पताल प्रबंधन समिति 1957 (2) आॅल0ई0आर0 118 में निर्धारित मानकों के अनुसार करना चाहिए अर्थात यदि कोई व्यक्ति चिकित्सीय विज्ञान से अथवा सर्जरी की प्रेक्टिस से पूरी तरह अनभिज्ञ हो ओैर वह इलाज करे अथवा आॅपरेशन करे तो उसके इस कृत्य के संबंध में गंभीर उपेक्षा अथवा तीव्रता का अनुमान
लगाया जा सकता है।

9 सिविल दायित्व और आपराधिक दायित्व में अंतर होता है कोई उपेक्षा सिविल दायित्व उत्पन्न कर सकती है, जरूरी नहीं कि वह आपराधिक दायित्व उत्पन्न करे। कतिपय डिग्री की पर्याप्त केयर एवं सर्तकता का अभाव होने पर सिविल दायित्व होता है। मात्र आवश्यक सर्तकता ध्यान देने या कोैशल अपनाने की मात्र कमी होने पर सिविल दायित्व उत्पन्न होताहै।

उपरोक्त दशाओं में चिकित्सक का कार्य अपराध की श्रेणी में आता है।

                                            यही कारण है कि माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा जैकब मैथ्यू के मामले में देश में बढ़ते डाक्टरों के विरूद्ध आपराधिक मामलों की संख्या को देखते हुए तथा ऐसे मामले मे डाक्टरों की अकारण गिरफतारी तथा डाक्टरों एवं मरीजों के बीच बढ़ते अविश्वास को देखते हुए सरकार को नियम बनाने निर्देशित किया गया है कि मेडिकल कौसिंल आफ इंडिया के साथ मिलकर उसेनियम बनाना चाहिए और मानक निर्धारित किया जाना चाहिए कि किस स्तर की उपेक्षा एवं लापरवाही अपराध दायित्व की श्रेणी में आती है।

इस संबंध में डाक्टरों की ऐसे मामलों में अकारणगिरफतारी न की जाए ऐसे दिशा निर्देश भी दिए गए है

सोमवार, 19 अगस्त 2013

धारा-306 और 107 भा0द0सं0

  धारा-306 और 107 भा0द0सं0 के अंतर्गत माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित  विधिक प्रतिपादनाऐ     
                                                 दुष्प्रेरण
        भा0दं0सं0 की ़धारा-107 दुष्प्रेरण से संबंधित है । जिसके अनुसार कोई व्यक्ति किसी बात के लिये  दुष्प्रेरण करता है । 

पहला-    उस काम को करने के लिय किसी व्यक्ति को उकसाता है या 

दूसरा-    उस बात को करने के लिये किसी षडयंत्र में एक या अधिक अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों   के साथ सम्मिलित होता है । यदि उस षडयंत्र के अनुसरण में और उस बात को      करने के उददेश्य से कोई कार्य    या अवैध लोप घटित हो जाये या 

तीसरा-    उस बात के लिये किये जाने में किसी कार्य या अवैध लोप व्दारा साश्य सहायता             करता है । 

        मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा 2010 भाग 4 मनीसा पेज एक एस0एस0 चीना विरूद्ध विजय कुमार महाजन एंव अन्य में अभिनिर्धारित किया है कि दुष्प्रेरण किसी व्यक्ति को उकसाने की मानसिक प्रक्रिया या एक व्यक्ति को कोई चीज करने के लिये आशयित करने हेतु अन्तर्वलित करता है । अभियुक्त व्दारा बिना उकसाने या आत्म हत्या करने में सहायता के व्दारा कोई  सकारात्मक कार्य किये । विधान का आशय और इस न्यायालय व्दारा विनिश्चित प्रकरणों का अनुपात स्पष्ट है कि धारा 306 के तहत एक व्यक्ति को दोषसिद्ध करने के अनुसरण में अपराध कारित करने की स्पष्ट आपराधिक मन स्थिति होना चाहिये। 

.        यह एक सजीव कार्य या प्रत्यक्ष कार्य भी आवश्यक करता है , जो मृतक को आत्म हत्या करने के अलावा  कोई अन्य विकल्प  नहीं देखते हुये प्रस्तुत करता है और कार्य मृतक को ऐसी स्थिति  में ढकेलने  के लिये आशयित होना चाहिये कि वह आत्म हत्या कारित करें ।

        यदि मृृतक निःसंदेह रूप से सामान्य चिडचिडेपन मनमुटाव और मतभेदों से अति संवेदनशील था जो हमारे दिन प्रतिदिन के जीवन में होते हैं । प्रत्येक व्यक्ति की मानवीय संवेदना  एक दूसरे से अलग होती है । भिन्न भिन्न लोग समान स्थिति में भिन्न भिन्न रूप से व्यवहार करते हैं ।तब हमे सावधानी से कार्य करना चाहिए ।

        रमेश कुमार विरूद्ध छत्तीसगढ़ राज्य 2001 भाग-9 एस.एस.सी. 618 न्यायालय ने उकसाहट को परिभाषित करते हुए स्पष्ट किया है कि उकसाहट किसी कार्य को करने के लिये उत्तेजित करने, भड़काने या उत्साहित करने हेतु अंकुश होता है । उकसाहट की अपेक्षाओं को संतुष्ट करने के लिये यद्यपि यह आवश्क नहीं है कि मूल शब्द इस निमित उपयोग होना चाहिये या जो उकसाहट गठित करते है । आवश्यक रूप से और विनिर्दिष्टता पूर्वक परिणाम को सुझााते हो फिर भी भडकाने की निश्चित युक्ति युक्त परिणाम को अर्थान्वयत  किया जाना चाहिये ।

        पश्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध होरीलाल जायसवाल-1994 भाग  1   एस0एस0सी0-73 में उच्चतम न्यायालय ने चेतावनी दी कि न्यायालय को प्रत्येक प्रकरण के तथ्य एंव परिस्थितियाॅ निर्धारित करने में स्पष्टतः सावधान करना चाहिये और परीक्षण में निष्कर्ष के प्रयोजन हेतु प्रस्तुत साक्ष्य में क्या पीडित इतनी कू्ररता की शिकार थी, वस्तुतः उसको आत्म हत्या कारित करने के व्दारा जीवन का अंत करने के लिये प्रेरित किया गया ।
        यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि पीडित ने आत्महत्या  अत्यधिक संवेदनशील सामान्य चिडचिडेपन, मनमुटाव औैर घरेलू जीवन में मत भेदो से कारित की थी ओर ऐसा चिडचिडापन, मनमुटाव और मतभेद सामान्यतः आत्महत्या कारित करने के लिये समाज में व्यक्ति को उकसाने हेतु अपेक्षित नहीं थे । न्यायालय का विवेक इस निष्कर्ष पर आधारित होने के लिये संतुष्ट नहीं होना चाहिये कि दुष्प्रेरण के आरोप का अभियुक्त आत्म हत्या के आरोप का दोषी होना पाया जाना चाहिये ।

        उच्चतम न्यायालय के द्वारा चित्रेश कुमार चैपडा बनाम दिल्ली राज्य 2009 भाग-16 एस0एस0सी 605 में दुष्प्रेरण पर विचार किया है। न्यायालय ने ‘‘उकसाहट‘‘ और ‘‘प्रेरित‘‘ करना ‘‘ शब्दो के डिकशनरी अर्थ को व्यवहत किया। न्यायालय ने अभिमत दिया कि कोई आश्य पत्र व्दारा किसी कार्य को करने के लिये उकसाने, भडकाने या उत्साहित करने के लिये नहीं होना चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति के आत्म हत्या करने की विधि एक दूसरे से अलग अलग होती है। प्रत्येक व्यक्ति के पास उसकी स्वंय का स्व-आदर और स्व-प्रतिष्ठा की योजना होती है । इसलिये ऐसे प्रकरणो को व्यवहत करने के लिये कोई निश्चित सूत्र  प्रतिपादित करना असंभव है । प्रत्येक प्रकरण उसके स्वय के तथ्यों एव परिस्थितियों के आधार पर विनिश्चित होना चाहिये ।
       




       

        विधि के सुस्थापित सिंद्धात के अनुसार भा0दं0वि0 की धारा 306 के आरोप में दंडित किये जाने के लिये दो तत्व आवश्यक है:-
    1-     यह कि एक व्यक्ति व्दारा आत्महत्या कारित करने के लिये उकसाना  या  प्रताडि़त             किये जाने के फलस्वरूव आत्म हत्या की गई है ।
    2-     यह कि आरोपी ने उसे आत्म हत्या करने के लिये दुष्प्रेरित किया।
        भा0दं0वि की धारा-107 और 306 का एक साथ पठन करने  पर यह स्पष्ट होता हेै कि यदि कोई व्यक्ति अन्य किसी व्यक्ति को आत्महत्या करने  को उकसाता है और ऐसे उकसाने के परिणाम स्वरूव दूसरा व्यक्ति आत्म हत्या करता है तो उकसाने वाला व्यक्ति धारा 306 भा0दं0वि0 के अंतर्गत उकसाने हेतु उत्तरदायी होता है ।  
 
        इसके लिये आवश्यक है कि आत्म हत्या करने वाले की मनोस्थिति एंव मरने वाले के लिये आत्म हत्या करने  के अलावा ओर कोई रास्ता नही बचा है । विधि के सुस्थापित सिद्धांत अनुसार क्र्रोध ,भावनावश जल्दबाजी में उठाये गये  कदम दुष्प्रेरण की श्रेणी में नहीं आते है ।
        अमलेन्दु पाल उर्फ झंटू बनाम पश्चिमी बंगाल राज्य, ए.आईआर.2010 एस.सी.-512- 2009 ए.आई.आर.एस.सी.डव्लू. 7070 वाले मामले में मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने मत व्यक्त किया है किः-इस न्यायालय ने सतत् यह दृष्टिकोण अपनाया है कि किसी अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के अधीन अपराध का दोषी ठहराने के लिये न्यायालय को मामले के तथ्यो और परिस्थ्तिियों की अति सावधानी पूर्वक परीक्षा करनी चाहिये और उसके समक्ष प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का भी यह निष्कर्ष निकालने के लिये अवधारणा करना चाहिये कि क्या विपदग्रस्त के साथ की गई क्रूरता ओर तंग करने के कारण उसके पास अपने जीवन का अंत करने के सिवाये कोई अन्य विकल्प नहीं बचा था।

         यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिये कि अभिकथित आत्महत्या दुष्प्रेरण के मामलो में आत्महत्या करने के लिये उकसाने के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्यो का सबूत होना चाहिये ।   घटना के सन्निकट समय पर अभियुक्त की ओर से किसी ऐसे सकारात्मक कार्य, जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया का अभाव होने के कारण भ0दं0वि0 की धारा 306 के निबंधनो में की गई दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है। 


        रणधीर सिंह बनाम पंजाब राज्य ,2004-13 एस.सी.सी. 120- ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 5097 - 2004 ए.आई.आर. एस.सी.डव्ल्यू 5832 किसी मामले को भारतीय दंड संहिता की धार 306 की परिधि के अंतर्गत आने के लिये मामला आत्महत्या का होना चाहिये और उक्त अपरध कारित करने में उस व्यक्ति जिसने कथित रूप से आत्महत्या करने के लिये दुष्प्रेरित किया था, द्वारा उकसाहट के किसी कार्य द्वारा या आत्महत्या करने के कार्य को सुकर बनाने के लिये कतिपय कार्य करके सक्रिय भूमिका अदा की जानी चाहिये । इसलिये उक्त अपराध से आरोपित व्यक्ति को भा0दंवि0 की धारा 306 के अधीन दोषसिद्व करने से पूर्व अभियोजन पक्ष द्वारा उस व्यक्ति द्वारा किये गये दुष्प्रेरण के कार्य को साबित और सिद्व किया जाना आवश्यक है । ‘‘

        ं मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 306 से संबंधित विधिक स्थिति को दोहराया है जो कि पैरा-12 ओर 13 में विस्तार से स्थापित हे । पैरा 12 और 13 इस प्रकार है:-

    ‘‘ दुष्पेरण किसी व्यक्ति को उकसाने या जानबूझकर कोई कार्य करने में सहायता करने की एक मानसिंक प्रक्रिया  है । षडयंत्र के मामलों में भी उस कार्य को करने के लिये षडयंत्र करने की मानसिंक प्रक्रिया अंतर्वलित होती है । इससे पूर्व कि यह कहा जा सके कि भा0दं0सं0 की धारा 306 के अधीन दुष्प्रेरित करने का अपराध किया गया है, ऐसी अत्यधिक सक्रिय भूमिका होनी अपेक्षित है जिसे उकसाने या किसी कार्य को करने में सहायता करने के रूप में वर्णित किया जा सके ।
        पश्चिमी बंगाल राजय बनाम उड़ीलाल जायसवाल 1994 1-एस.सी.सी. 73- ए.आई.आर.1994 एस.सी. 1418- 1994 क्रिमी.लाॅ जनरल 2104 वाले  मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया है कि न्यायालयों को यह निष्कर्ष निकालने के प्रयोजन के लिये कि क्या मृतिका के साथ की गई क्रूरता ने ही वास्तव में उसे आत्महत्या करके जीवन का अंत करने के लिये उत्प्रेरित किया था । प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों तथा विचारण में प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का अवधारणा करने में अत्यधिक सावधान रहना चाहिये।

        यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि आत्महत्या करने वाला विपदग्रस्त घरेलू जीवन में ऐसी सामान्य चिड़चिड़ी बातो, कलह ओर मतभेदो के प्रति अतिसंवेदनशील था जो उस समाज के लिये एक सामान्य बात है जिसमें विपदग्रस्त रहता है और ऐसे चिड़चिड़ेपन, कलह और मतभेदो में उस समाज में के किसी व्यक्ति से उसी प्रकार की परिस्थितियों में आत्महत्या करने की प्रत्याशा नहीं थी, तब न्यायालय की अंतश्चेतना का यह निष्कर्ष निकालने के लिये समाधान नहीं  होना चाहिये कि आत्महत्या के अपराध के दुष्प्रेरण के आरोप से अभियुक्त को दोषी ठहराया जाये । ‘‘
        मान्नीय उच्चतम न्यायालय के उपर उदघृत निर्णयों का परिशीलन करने पर यह बात ध्यान में रखी जानी आवश्यक है कि अभिकथित आत्महत्या के दुष्प्रेरण के मामलों मे आत्महत्या करने के लिये उकसाने का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्यो का सबूत होना चाहिये। घटना घटने के सन्निकट समय पर अभियुक्त की और से किसी ऐसे सकारात्मक कार्य, जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया ,का अभाव होने  के कारण भा0 दं0सं. की धारा 306 के निबंधनो में की गई दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है ।        
         इसलिये अपेक्षित यह हैकि जब तक घटना के सन्निकट समय पर अभियुक्त की ओर से किया गया कोई ऐसा सकारात्क कार्य नहीं है । जिसने आत्म हत्या करने वाले व्यक्ति को आत्महत्या करने  के लिये बाध्य किया , धारा 306 के अधीन दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है । धारा-306 भा0द0सं0 के अंतर्गत माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित विधिक प्रतिपादनाऐ-   

        अमलेन्दु पाल उर्फ झंटू बनाम पश्चिमी बंगाल राज्य, ए.आईआर.2010 एस.सी.-512- 2009 ए.आई.आर.एस.सी.डव्लू. 7070 वाले मामले में मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने मत व्यक्त किया है किः-इस न्यायालय ने सतत् यह दृष्टिकोण अपनाया है कि किसी अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के अधीन अपराध का दोषी ठहराने के लिये न्यायालय को मामले के तथ्यो और परिस्थ्तिियों की अति सावधानी पूर्वक परीक्षा करनी चाहिये और उसके समक्ष प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का भी यह निष्कर्ष निकालने के लिये अवधारणा करना चाहिये कि क्या विपदग्रस्त के साथ की गई क्रूरता ओर तंग करने के कारण उसके पास अपने जीवन का अंत करने के सिवाये कोई अन्य विकल्प नहीं बचा था।

         यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिये कि अभिकथित आत्महत्या दुष्प्रेरण के मामलो में आत्महत्या करने के लिये उकसाने के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्यो का सबूत होना चाहिये ।   घटना के सन्निकट समय पर अभियुक्त की ओर से किसी ऐसे सकारात्मक कार्य, जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया का अभाव होने के कारण भ0दं0वि0 की धारा 306 के निबंधनो में की गई दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है।

        रणधीर सिंह बनाम पंजाब राज्य ,2004-13 एस.सी.सी. 120- ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 5097 - 2004 ए.आई.आर. एस.सी.डव्ल्यू 5832 किसी मामले को भारतीय दंड संहिता की धार 306 की परिधि के अंतर्गत आने के लिये मामला आत्महत्या का होना चाहिये और उक्त अपरध कारित करने में उस व्यक्ति जिसने कथित रूप से आत्महत्या करने के लिये दुष्प्रेरित किया था, द्वारा उकसाहट के किसी कार्य द्वारा या आत्महत्या करने के कार्य को सुकर बनाने के लिये कतिपय कार्य करके सक्रिय भूमिका अदा की जानी चाहिये । इसलिये उक्त अपराध से आरोपित व्यक्ति को भा0दंवि0 की धारा 306 के अधीन दोषसिद्व करने से पूर्व अभियोजन पक्ष द्वारा उस व्यक्ति द्वारा किये गये दुष्प्रेरण के कार्य को साबित और सिद्व किया जाना आवश्यक है । ‘‘

3.        ं मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 306 से संबंधित विधिक स्थिति को दोहराया है जो कि पैरा-12 ओर 13 में विस्तार से स्थापित हे । पैरा 12 और 13 इस प्रकार है:-

    ‘‘ दुष्पेरण किसी व्यक्ति को उकसाने या जानबूझकर कोई कार्य करने में सहायता करने की एक मानसिंक प्रक्रिया  है । षडयंत्र के मामलों में भी उस कार्य को करने के लिये षडयंत्र करने की मानसिंक प्रक्रिया अंतर्वलित होती है । इससे पूर्व कि यह कहा जा सके कि भा0दं0सं0 की धारा 306 के अधीन दुष्प्रेरित करने का अपराध किया गया है, ऐसी अत्यधिक सक्रिय भूमिका होनी अपेक्षित है जिसे उकसाने या किसी कार्य को करने में सहायता करने के रूप में वर्णित किया जा सके ।
        पश्चिमी बंगाल राजय बनाम उड़ीलाल जायसवाल 1994 1-एस.सी.सी. 73- ए.आई.आर.1994 एस.सी. 1418- 1994 क्रिमी.लाॅ जनरल 2104 वाले  मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया है कि न्यायालयों को यह निष्कर्ष निकालने के प्रयोजन के लिये कि क्या मृतिका के साथ की गई क्रूरता ने ही वास्तव में उसे आत्महत्या करके जीवन का अंत करने के लिये उत्प्रेरित किया था । प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों तथा विचारण में प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का अवधारणा करने में अत्यधिक सावधान रहना चाहिये।

        यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि आत्महत्या करने वाला विपदग्रस्त घरेलू जीवन में ऐसी सामान्य चिड़चिड़ी बातो, कलह ओर मतभेदो के प्रति अतिसंवेदनशील था जो उस समाज के लिये एक सामान्य बात है जिसमें विपदग्रस्त रहता है और ऐसे चिड़चिड़ेपन, कलह और मतभेदो में उस समाज में के किसी व्यक्ति से उसी प्रकार की परिस्थितियों में आत्महत्या करने की प्रत्याशा नहीं थी, तब न्यायालय की अंतश्चेतना का यह निष्कर्ष निकालने के लिये समाधान नहीं  होना चाहिये कि आत्महत्या के अपराध के दुष्प्रेरण के आरोप से अभियुक्त को दोषी ठहराया जाये । ‘‘

        मान्नीय उच्चतम न्यायालय के उपर उदघृत निर्णयों का परिशीलन करने पर यह बात ध्यान में रखी जानी आवश्यक है कि अभिकथित आत्महत्या के दुष्प्रेरण के मामलों मे आत्महत्या करने के लिये उकसाने का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्यो का सबूत होना चाहिये। घटना घटने के सन्निकट समय पर अभियुक्त की और से किसी ऐसे सकारात्मक कार्य, जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया ,का अभाव होने  के कारण भा0 दं0सं. की धारा 306 के निबंधनो में की गई दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है ।   
           इसलिये अपेक्षित यह हैकि जब तक घटना के सन्निकट समय पर अभियुक्त की ओर से किया गया कोई ऐसा सकारात्क कार्य नहीं है । जिसने आत्म हत्या करने वाले व्यक्ति को आत्महत्या करने  के लिये बाध्य किया , धारा 306 के अधीन दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है । 

दुष्प्रेरण 

        भा0दं0सं0 की ़धारा-107 दुष्प्रेरण से संबंधित है । जिसके अनुसार कोई व्यक्ति किसी बात के लिये  दुष्प्रेरण करता है ।
पहला-    उस काम को करने के लिय किसी व्यक्ति को उकसाता है या
दूसरा-    उस बात को करने के लिये किसी षडयंत्र में एक या अधिक अन्य व्यक्ति या         व्यक्तियों के साथ सम्मिलित होता है । यदि उस षडयंत्र के अनुसरण में         और उस बात को करने के उददेश्य से कोई कार्यया अवैध लोप घटित हो         जाये या
तीसरा-    उस बात के लिये किये जाने में किसी कार्य या अवैध लोप व्दारा साश्य         सहायता करता है ।
        मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा 2010 भाग 4 मनीसा पेज एक एस0एस0 चीना विरूद्ध विजय कुमार महाजन एंव अन्य में अभिनिर्धारित किया है कि दुष्प्रेरण किसी व्यक्ति को उकसाने की मानसिक प्रक्रिया या एक व्यक्ति को कोई चीज करने के लिये आशयित करने हेतु अन्तर्वलित करता है । अभियुक्त व्दारा बिना उकसाने या आत्म हत्या करने में सहायता के व्दारा कोई  सकारात्मक कार्य किये । विधान का आशय और इस न्यायालय व्दारा विनिश्चित प्रकरणों का अनुपात स्पष्ट है कि धारा 306 के तहत एक व्यक्ति को दोषसिद्ध करने के अनुसरण में अपराध कारित करने की स्पष्ट आपराधिक मन स्थिति होना चाहिये।
.        यह एक सजीव कार्य या प्रत्यक्ष कार्य भी आवश्यक करता है , जो मृतक को आत्म हत्या करने के अलावा  कोई अन्य विकल्प  नहीं देखते हुये प्रस्तुत करता है और कार्य मृतक को ऐसी स्थिति  में ढकेलने  के लिये आशयित होना चाहिये कि वह आत्म हत्या कारित करें ।
        यदि मृृतक निःसंदेह रूप से सामान्य चिडचिडेपन मनमुटाव और मतभेदों से अति संवेदनशील था जो हमारे दिन प्रतिदिन के जीवन में होते हैं । प्रत्येक व्यक्ति की मानवीय संवेदना  एक दूसरे से अलग होती है । भिन्न भिन्न लोग समान स्थिति में भिन्न भिन्न रूप से व्यवहार करते हैं ।तब हमे सावधानी से कार्य करना चाहिए ।
        रमेश कुमार विरूद्ध छत्तीसगढ़ राज्य 2001 भाग-9 एस.एस.सी. 618 न्यायालय ने उकसाहट को परिभाषित करते हुए स्पष्ट किया है कि उकसाहट किसी कार्य को करने के लिये उत्तेजित करने, भड़काने या उत्साहित करने हेतु अंकुश होता है । उकसाहट की अपेक्षाओं को संतुष्ट करने के लिये यद्यपि यह आवश्क नहीं है कि मूल शब्द इस निमित उपयोग होना चाहिये या जो उकसाहट गठित करते है । आवश्यक रूप से और विनिर्दिष्टता पूर्वक परिणाम को सुझााते हो फिर भी भडकाने की निश्चित युक्ति युक्त परिणाम को अर्थान्वयत  किया जाना चाहिये ।
        पश्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध होरीलाल जायसवाल-1994 भाग-1 एस0एस0 सी0-73 में उच्चतम न्यायालय ने चेतावनी दी कि न्यायालय को प्रत्येक प्रकरण के तथ्य एंव परिस्थितियाॅ निर्धारित करने में स्पष्टतः सावधान करना चाहिये और परीक्षण में निष्कर्ष के प्रयोजन हेतु प्रस्तुत साक्ष्य में क्या पीडित इतनी कू्ररता की शिकार थी, वस्तुतः उसको आत्म हत्या कारित करने के व्दारा जीवन का अंत करने के लिये प्रेरित किया गया।
        यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि पीडित ने आत्महत्या  अत्यधिक संवेदनशील सामान्य चिडचिडेपन, मनमुटाव औैर घरेलू जीवन में मत भेदो से कारित की थी ओर ऐसा चिडचिडापन, मनमुटाव और मतभेद सामान्यतः आत्महत्या कारित करने के लिये समाज में व्यक्ति को उकसाने हेतु अपेक्षित नहीं थे । न्यायालय का विवेक इस निष्कर्ष पर आधारित होने के लिये संतुष्ट नहीं होना चाहिये कि दुष्प्रेरण के आरोप का अभियुक्त आत्म हत्या के आरोप का दोषी होना पाया जाना चाहिये ।
        उच्चतम न्यायालय के द्वारा चित्रेश कुमार चैपडा बनाम दिल्ली राज्य 2009 भाग-16 एस0एस0सी 605 में दुष्प्रेरण पर विचार किया है। न्यायालय ने ‘‘उकसाहट‘‘ और ‘‘प्रेरित‘‘ करना ‘‘ शब्दो के डिकशनरी अर्थ को व्यवहत किया। न्यायालय ने अभिमत दिया कि कोई आश्य पत्र व्दारा किसी कार्य को करने के लिये उकसाने, भडकाने या उत्साहित करने के लिये नहीं होना चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति के आत्म हत्या करने की विधि एक दूसरे से अलग अलग होती है। प्रत्येक व्यक्ति के पास उसकी स्वंय का स्व-आदर और स्व-प्रतिष्ठा की योजना होती है । इसलिये ऐसे प्रकरणो को व्यवहत करने के लिये कोई निश्चित सूत्र  प्रतिपादित करना असंभव है । प्रत्येक प्रकरण उसके स्वय के तथ्यों एव परिस्थितियों के आधार पर विनिश्चित होना चाहिये ।
        विधि के सुस्थापित सिंद्धात के अनुसार भा0दं0वि0 की धारा 306 के आरोप में दंडित किये जाने के लिये दो तत्व आवश्यक है:-
    1-     यह कि एक व्यक्ति व्दारा आत्महत्या कारित करने के लिये उकसाना  या          प्रताडि़त  किये जाने के फलस्वरूव आत्म हत्या की गई है ।
    2-     यह कि आरोपी ने उसे आत्म हत्या करने के लिये दुष्प्रेरित किया।
        भा0दं0वि की धारा-107 और 306 का एक साथ पठन करने  पर यह स्पष्ट होता हेै कि यदि कोई व्यक्ति अन्य किसी व्यक्ति को आत्महत्या करने  को उकसाता है और ऐसे उकसाने के परिणाम स्वरूव दूसरा व्यक्ति आत्म हत्या करता है तो उकसाने वाला व्यक्ति धारा 306 भा0दं0वि0 के अंतर्गत उकसाने हेतु उत्तरदायी होता है ।   
        इसके लिये आवश्यक है कि आत्म हत्या करने वाले की मनोस्थिति एंव मरने वाले के लिये आत्म हत्या करने  के अलावा ओर कोई रास्ता नही बचा है । विधि के सुस्थापित सिद्धांत अनुसार क्र्रोध ,भावनावश जल्दबाजी में उठाये गये  कदम दुष्प्रेरण की श्रेणी में नहीं आते है ।
  धारा-306 और 107 भा0द0सं0 के अंतर्गत माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित                            विधिक प्रतिपादनाऐ                              दुष्प्रेरण
        भा0दं0सं0 की ़धारा-107 दुष्प्रेरण से संबंधित है । जिसके अनुसार कोई व्यक्ति किसी बात के लिये  दुष्प्रेरण करता है ।
पहला-    उस काम को करने के लिय किसी व्यक्ति को उकसाता है या
दूसरा-    उस बात को करने के लिये किसी षडयंत्र में एक या अधिक अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों         के साथ सम्मिलित होता है । यदि उस षडयंत्र के अनुसरण में और उस बात को             करने के उददेश्य से कोई कार्य    या अवैध लोप घटित हो जाये या
तीसरा-    उस बात के लिये किये जाने में किसी कार्य या अवैध लोप व्दारा साश्य सहायता             करता है ।
        मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा 2010 भाग 4 मनीसा पेज एक एस0एस0 चीना विरूद्ध विजय कुमार महाजन एंव अन्य में अभिनिर्धारित किया है कि दुष्प्रेरण किसी व्यक्ति को उकसाने की मानसिक प्रक्रिया या एक व्यक्ति को कोई चीज करने के लिये आशयित करने हेतु अन्तर्वलित करता है । अभियुक्त व्दारा बिना उकसाने या आत्म हत्या करने में सहायता के व्दारा कोई  सकारात्मक कार्य किये । विधान का आशय और इस न्यायालय व्दारा विनिश्चित प्रकरणों का अनुपात स्पष्ट है कि धारा 306 के तहत एक व्यक्ति को दोषसिद्ध करने के अनुसरण में अपराध कारित करने की स्पष्ट आपराधिक मन स्थिति होना चाहिये।
.        यह एक सजीव कार्य या प्रत्यक्ष कार्य भी आवश्यक करता है , जो मृतक को आत्म हत्या करने के अलावा  कोई अन्य विकल्प  नहीं देखते हुये प्रस्तुत करता है और कार्य मृतक को ऐसी स्थिति  में ढकेलने  के लिये आशयित होना चाहिये कि वह आत्म हत्या कारित करें ।
        यदि मृृतक निःसंदेह रूप से सामान्य चिडचिडेपन मनमुटाव और मतभेदों से अति संवेदनशील था जो हमारे दिन प्रतिदिन के जीवन में होते हैं । प्रत्येक व्यक्ति की मानवीय संवेदना  एक दूसरे से अलग होती है । भिन्न भिन्न लोग समान स्थिति में भिन्न भिन्न रूप से व्यवहार करते हैं ।तब हमे सावधानी से कार्य करना चाहिए ।
        रमेश कुमार विरूद्ध छत्तीसगढ़ राज्य 2001 भाग-9 एस.एस.सी. 618 न्यायालय ने उकसाहट को परिभाषित करते हुए स्पष्ट किया है कि उकसाहट किसी कार्य को करने के लिये उत्तेजित करने, भड़काने या उत्साहित करने हेतु अंकुश होता है । उकसाहट की अपेक्षाओं को संतुष्ट करने के लिये यद्यपि यह आवश्क नहीं है कि मूल शब्द इस निमित उपयोग होना चाहिये या जो उकसाहट गठित करते है । आवश्यक रूप से और विनिर्दिष्टता पूर्वक परिणाम को सुझााते हो फिर भी भडकाने की निश्चित युक्ति युक्त परिणाम को अर्थान्वयत  किया जाना चाहिये ।
        पश्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध होरीलाल जायसवाल-1994 भाग  1   एस0एस0सी0-73 में उच्चतम न्यायालय ने चेतावनी दी कि न्यायालय को प्रत्येक प्रकरण के तथ्य एंव परिस्थितियाॅ निर्धारित करने में स्पष्टतः सावधान करना चाहिये और परीक्षण में निष्कर्ष के प्रयोजन हेतु प्रस्तुत साक्ष्य में क्या पीडित इतनी कू्ररता की शिकार थी, वस्तुतः उसको आत्म हत्या कारित करने के व्दारा जीवन का अंत करने के लिये प्रेरित किया गया ।
        यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि पीडित ने आत्महत्या  अत्यधिक संवेदनशील सामान्य चिडचिडेपन, मनमुटाव औैर घरेलू जीवन में मत भेदो से कारित की थी ओर ऐसा चिडचिडापन, मनमुटाव और मतभेद सामान्यतः आत्महत्या कारित करने के लिये समाज में व्यक्ति को उकसाने हेतु अपेक्षित नहीं थे । न्यायालय का विवेक इस निष्कर्ष पर आधारित होने के लिये संतुष्ट नहीं होना चाहिये कि दुष्प्रेरण के आरोप का अभियुक्त आत्म हत्या के आरोप का दोषी होना पाया जाना चाहिये ।
        उच्चतम न्यायालय के द्वारा चित्रेश कुमार चैपडा बनाम दिल्ली राज्य 2009 भाग-16 एस0एस0सी 605 में दुष्प्रेरण पर विचार किया है। न्यायालय ने ‘‘उकसाहट‘‘ और ‘‘प्रेरित‘‘ करना ‘‘ शब्दो के डिकशनरी अर्थ को व्यवहत किया। न्यायालय ने अभिमत दिया कि कोई आश्य पत्र व्दारा किसी कार्य को करने के लिये उकसाने, भडकाने या उत्साहित करने के लिये नहीं होना चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति के आत्म हत्या करने की विधि एक दूसरे से अलग अलग होती है। प्रत्येक व्यक्ति के पास उसकी स्वंय का स्व-आदर और स्व-प्रतिष्ठा की योजना होती है । इसलिये ऐसे प्रकरणो को व्यवहत करने के लिये कोई निश्चित सूत्र  प्रतिपादित करना असंभव है । प्रत्येक प्रकरण उसके स्वय के तथ्यों एव परिस्थितियों के आधार पर विनिश्चित होना चाहिये ।
       




       
        विधि के सुस्थापित सिंद्धात के अनुसार भा0दं0वि0 की धारा 306 के आरोप में दंडित किये जाने के लिये दो तत्व आवश्यक है:-
    1-     यह कि एक व्यक्ति व्दारा आत्महत्या कारित करने के लिये उकसाना  या  प्रताडि़त             किये जाने के फलस्वरूव आत्म हत्या की गई है ।
    2-     यह कि आरोपी ने उसे आत्म हत्या करने के लिये दुष्प्रेरित किया।
        भा0दं0वि की धारा-107 और 306 का एक साथ पठन करने  पर यह स्पष्ट होता हेै कि यदि कोई व्यक्ति अन्य किसी व्यक्ति को आत्महत्या करने  को उकसाता है और ऐसे उकसाने के परिणाम स्वरूव दूसरा व्यक्ति आत्म हत्या करता है तो उकसाने वाला व्यक्ति धारा 306 भा0दं0वि0 के अंतर्गत उकसाने हेतु उत्तरदायी होता है ।   
        इसके लिये आवश्यक है कि आत्म हत्या करने वाले की मनोस्थिति एंव मरने वाले के लिये आत्म हत्या करने  के अलावा ओर कोई रास्ता नही बचा है । विधि के सुस्थापित सिद्धांत अनुसार क्र्रोध ,भावनावश जल्दबाजी में उठाये गये  कदम दुष्प्रेरण की श्रेणी में नहीं आते है ।
        अमलेन्दु पाल उर्फ झंटू बनाम पश्चिमी बंगाल राज्य, ए.आईआर.2010 एस.सी.-512- 2009 ए.आई.आर.एस.सी.डव्लू. 7070 वाले मामले में मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने मत व्यक्त किया है किः-इस न्यायालय ने सतत् यह दृष्टिकोण अपनाया है कि किसी अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के अधीन अपराध का दोषी ठहराने के लिये न्यायालय को मामले के तथ्यो और परिस्थ्तिियों की अति सावधानी पूर्वक परीक्षा करनी चाहिये और उसके समक्ष प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का भी यह निष्कर्ष निकालने के लिये अवधारणा करना चाहिये कि क्या विपदग्रस्त के साथ की गई क्रूरता ओर तंग करने के कारण उसके पास अपने जीवन का अंत करने के सिवाये कोई अन्य विकल्प नहीं बचा था।

         यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिये कि अभिकथित आत्महत्या दुष्प्रेरण के मामलो में आत्महत्या करने के लिये उकसाने के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्यो का सबूत होना चाहिये ।   घटना के सन्निकट समय पर अभियुक्त की ओर से किसी ऐसे सकारात्मक कार्य, जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया का अभाव होने के कारण भ0दं0वि0 की धारा 306 के निबंधनो में की गई दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है।
        रणधीर सिंह बनाम पंजाब राज्य ,2004-13 एस.सी.सी. 120- ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 5097 - 2004 ए.आई.आर. एस.सी.डव्ल्यू 5832 किसी मामले को भारतीय दंड संहिता की धार 306 की परिधि के अंतर्गत आने के लिये मामला आत्महत्या का होना चाहिये और उक्त अपरध कारित करने में उस व्यक्ति जिसने कथित रूप से आत्महत्या करने के लिये दुष्प्रेरित किया था, द्वारा उकसाहट के किसी कार्य द्वारा या आत्महत्या करने के कार्य को सुकर बनाने के लिये कतिपय कार्य करके सक्रिय भूमिका अदा की जानी चाहिये । इसलिये उक्त अपराध से आरोपित व्यक्ति को भा0दंवि0 की धारा 306 के अधीन दोषसिद्व करने से पूर्व अभियोजन पक्ष द्वारा उस व्यक्ति द्वारा किये गये दुष्प्रेरण के कार्य को साबित और सिद्व किया जाना आवश्यक है । ‘‘
        ं मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 306 से संबंधित विधिक स्थिति को दोहराया है जो कि पैरा-12 ओर 13 में विस्तार से स्थापित हे । पैरा 12 और 13 इस प्रकार है:-
    ‘‘ दुष्पेरण किसी व्यक्ति को उकसाने या जानबूझकर कोई कार्य करने में सहायता करने की एक मानसिंक प्रक्रिया  है । षडयंत्र के मामलों में भी उस कार्य को करने के लिये षडयंत्र करने की मानसिंक प्रक्रिया अंतर्वलित होती है । इससे पूर्व कि यह कहा जा सके कि भा0दं0सं0 की धारा 306 के अधीन दुष्प्रेरित करने का अपराध किया गया है, ऐसी अत्यधिक सक्रिय भूमिका होनी अपेक्षित है जिसे उकसाने या किसी कार्य को करने में सहायता करने के रूप में वर्णित किया जा सके ।
        पश्चिमी बंगाल राजय बनाम उड़ीलाल जायसवाल 1994 1-एस.सी.सी. 73- ए.आई.आर.1994 एस.सी. 1418- 1994 क्रिमी.लाॅ जनरल 2104 वाले  मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया है कि न्यायालयों को यह निष्कर्ष निकालनेेेेेेेेेेेेे के प्रयोजन के लिये कि क्या मृतिका के साथ की गई क्रूरता ने ही वास्तव में उसे आत्महत्या करके जीवन का अंत करने के लिये उत्प्रेरित किया था । प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों तथा विचारण में प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का अवधारणा करने में अत्यधिक सावधान रहना चाहिये।
        यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि आत्महत्या करने वाला विपदग्रस्त घरेलू जीवन में ऐसी सामान्य चिड़चिड़ी बातो, कलह ओर मतभेदो के प्रति अतिसंवेदनशील था जो उस समाज के लिये एक सामान्य बात है जिसमें विपदग्रस्त रहता है और ऐसे चिड़चिड़ेपन, कलह और मतभेदो में उस समाज में के किसी व्यक्ति से उसी प्रकार की परिस्थितियों में आत्महत्या करने की प्रत्याशा नहीं थी, तब न्यायालय की अंतश्चेतना का यह निष्कर्ष निकालने के लिये समाधान नहीं  होना चाहिये कि आत्महत्या के अपराध के दुष्प्रेरण के आरोप से अभियुक्त को दोषी ठहराया जाये । ‘‘
        मान्नीय उच्चतम न्यायालय के उपर उदघृत निर्णयों का परिशीलन करने पर यह बात ध्यान में रखी जानी आवश्यक है कि अभिकथित आत्महत्या के दुष्प्रेरण के मामलों मे आत्महत्या करने के लिये उकसाने का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्यो का सबूत होना चाहिये। घटना घटने के सन्निकट समय पर अभियुक्त की और से किसी ऐसे सकारात्मक कार्य, जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया ,का अभाव होने  के कारण भा0 दं0सं. की धारा 306 के निबंधनो में की गई दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है ।        
         इसलिये अपेक्षित यह हैकि जब तक घटना के सन्निकट समय पर अभियुक्त की ओर से किया गया कोई ऐसा सकारात्क कार्य नहीं है । जिसने आत्म हत्या करने वाले व्यक्ति को आत्महत्या करने  के लिये बाध्य किया , धारा 306 के अधीन दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है ।


























घरेलू हिंसा पर निबंध

                                                                            घरेलू हिंसा
                                   
        हमारा भारतीय समाज सदियों से पुरूष प्रधान समाज रहा है । जहां पर  महिलाओं को घर के अंदर रहकर कामकाज करने वाली और परिवार, बच्चों का भरण-पोषण करने वाली अनउपयोगी वस्तु मानते हुए अनादर की दृष्टि से देखते हुए उसे घर और परिवार के लोगो के द्वारा हमेशा से प्रताड़ित किया गया है। इनके साथ घर के अंदर ऐसी घरेलू ंिहंसा की जाती है जिसे किसी कानून में अपराध घोषित किया जाना रिश्तो की नाजुकता के कारण मुश्किल है और जिसका उनके परिवार के सदस्यों  और घर के आस-पास रहने वाले को ज्ञान भी नहीं होता है।

      ऐसी  कुटुम्ब के भीतर होने वाली घरेलू हिंसा से निपटने के लिये घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम  2005 बनाया गया है जो 26 अक्टूबर 2006 से प्रभावशील हुआ है । अधिनियम को प्रभावी ढंग में लागू किये जाने के लिए घरेलू हिंसा में महिलाओ का संरक्षण नियम 2006 के अंतर्गत नियम भी बनाये गये हैं।

        घरेलू हिंसा से तात्पर्य कोई कार्य या हरकत जो किसी पीड़ित महिला एवं बच्चों (18 वर्ष से कम उम्र के बालक एवं बालिका) के स्वास्थ्य, सुरक्षा जीवन को खतरा/संकट की स्थिति, आर्थिक नुकसान, क्षति जो असहनीय हो तथा जिससे महिला बच्चे दुखी व अपमानित हो से है । इसके अंतर्गत शारीरिक  मौखिक व भावनात्मक  लैंगिग व आर्थिक हिंसा या धमकी देना आदि शामिल है।

        घरेलू हिंसा के अंतर्गत हमला,आपराधिक अभित्रास, बल, महिला की गरिमा का दुरूपयोग ,अपमान, उपहास, तिरस्कार और विशेष रूप से संतान नर बालक के न होने के संबंध में ताना और हितबद्ध व्यक्ति को शारीरिक पीडा कारित करने की लगातार धमकिया देना, स्त्रीधन, व्यथित द्वारा संयुक्त रूप से या पृथकतः स्वामित्व वाली सम्पत्ति, साझी गृहस्थी और उसके रखरखाव से संबंधित भाटक के संदाय, से वंचित करना, स्थावर, मूल्यवान वस्तुओं, शेयरों , प्रतिभूतियों बंधपत्रों और इसके सदृश या अन्य सम्पत्ति का कोई अन्य संक्रामण, साझी गृहस्थी तक पहंुच  के लिए प्रतिषेध या निर्बन्धन आदि शामिल है ।

        अधिनियम के अंतर्गत पीडित पक्षकार में विवाहित, अविवाहित के अलावा अन्य रिश्तों में रह रही विवाहित, विधवा, मॉ, बहन, बेटी, बहूंॅ, शादी के बगैर साथ रह रही महिला या दूसरी पत्नी के रूप में रह रही या रह चुकी महिला। धोखे से किया गया विवाह/अवैध विवाह वाली महिला शामिल है।

        अधिनियम में किसी भी व्यस्क पुरुष सदस्य के खिलाफ, जिसके साथ महिला बच्चे का घरेलू रिश्ता है या था, के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई जा सकती है। घरेलू से तात्पर्य एक ही छत/घर के  नीचे संयुक्त परिवार/ एकल परिवार के पारिवारिक सदस्य जो समरक्तता/संगोत्रता/दस्तक/विवाह द्वारा बनाये गए रिश्ते के रूप में रह रहे या रह चुके महिला एंव बच्चे ।
        पूर्व में इस संबंध में मतभेद था कि क्या पति या पुरूष साथी के महिला रिश्तेदार को प्रत्यर्थी बनाया जा सकता है या नहीं और इस संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्यायदृष्टांत 2011 ए0आई0आर0 एस0सी0डब्ल्यू 1327 संध्या मनोज वानखेडे विरूद्ध मनोज वामनराव वानखेडे में यह प्रतिपादित किया गया है कि व्यथित पत्नी या विवाह के प्रकृति के संबंध में रहने वाली महिला पति या पुरूष साथी के किसी भी रिश्तेदार के विरूद्ध परिवाद ला सकती है चाहे वह रिश्तेदार महिला हो या पुरूष हो अर्थात महिला के विरूद्ध भी शिकायत की जा सकती है ।

                अधिनियम की महत्वपूर्ण विशेषताएं

01.    इस कानून के तहत् घरेलू हिंसा की रोकथाम के लिए न्यायालय को धारा 12 में आवेदन प्राप्त होने के 03 दिन के भीतर पहली सुनवाई में न्यायाधीश बचावकारी आदेश दे सकते हैं।
02.    न्यायालय प्रत्येक आवेदन की प्रथम सुनवाई की तारीख से 60 दिनों के अन्दर निपटारा करने का प्रयास करेगा।
03.    अधिनियम घरेलू रिश्तों में रहते हुए भी आपत्तिजनक व्यवहारों को सुधारने का पूरा मौका देता है।
04.    यह कानून महिलाओं बच्चों को अपने घर में स्वतंत्र व सुरक्षित रहने का अधिकार देता है, भले ही उस घर पर उनका मालिकाना हक हो या न हो।
05.    यह एक दिवानी कानून है। इस कानून में दोषी को सजा दिलाने के बजाय पीड़ित के संरक्षण एवं बचाव पर जोर दिया गया है ।
06.    न्यायालय का आदेश न मानने पर दोषी व्यक्ति को एक साल तक की अवधि की सजा या रुपये 20 हजार तक जुर्माना या दोनों हो सकते हैं।
07.    इस कानून के अनुसार महिला के साथ हुई घरेलू हिंसा के साक्ष्य के प्रमाण प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है। एकमात्र महिला द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों एवं बयानों को ही विश्वसनीय माना जावेगा तथा उस आधार पर ही न्यायाधीश आदेश दे सकते हैं कि हिंसा रोकी जावे और महिला को संरक्षण प्रदान किया जावे।
08.    पीड़िता को, न्यायालय, द्वारा पारित सभी आदेशों की प्रतियां निःशुल्क प्रदाय की जाएगी।
09.    यदि न्यायाधीश ऐसा समझते हैं कि परिस्थितियों के कारण मामले की सुनवाई बंद कमरे में किया जाना आवश्यक है तो या पीड़ित पक्ष ऐसी मांग करे तो मामले की कार्यवाही बंद कमरे में की जा सकेगी।
10.    यदि न्यायाधीश को पीड़ित व्यक्ति या दोषी से आवेदन प्राप्त होने पर यह समाधान हो जाता है कि परिस्थितियों में सुधार हुआ है तो पूर्व आदेश में परिवर्तन, संशोधन या निरस्त कर सकते हैं।
11.    पीड़िता के पूर्व में चल रहे अदालत के केस के अतिरिक्त भी इस कानून में संरक्षण एवं सहायता प्रदान की जा सकती है । घरेलू हिंसा के केस के साथ अन्य कानून के अंतर्गत चल रही कार्यवाही एक साथ चल सकती है।
12.    महिला घटना स्थल या वर्तमान में जहंा निवासरत है, वहां केस दर्ज करा सकती है। पीड़िता जहंा उचित समझे उस क्षेत्र के मजिस्टेªट को आवेदन दे सकती है। 

अधिनियम के अंतर्गत मिलने वाली सहायता एंव राहत

01.    न्यायाधीश यह समझता है कि नियम के तहत किसी पीड़ित व हिंसाकर्ता को अकेले या संयुक्त रूप से सेवा प्रदाता (पुलिस परिवार परामर्श केन्द्र) के किसी सदस्य को परामर्श देने की पात्रता और अनुभव रखते हों तो उससे परामर्श लेने का निर्देश दे सकते हैं।
02.    परामर्श में हुए समझौते की कार्यवाही अनुसार मजिस्टे््र्रट संरक्षण एवं सहायता के आदेश जारी कर सकते हैं।
03.    यदि न्यायाधीश को लगता है कि घरेलू हिंसा हुई है और पीड़ित व्यक्ति को हिंसाकर्ता से आगे भी खतरा है, ऐसी स्थिति में संरक्षण आदेश धारा-18 में दे सकता है ।
04.    संरक्षण आदेश घरेलू हिंसा करने, हिंसा में सहयोग करने या प्रेरित करने से रोकने दिये जा सकते हैं।
05.    हिंसाकर्ता को पीड़ित द्वारा उपयोग किए जाने वाले घर में प्रवेश पर रोक, लगाई जा सकती है ।
06.    अगर पीड़ित की रिपोर्ट से जज को ऐसा लगता है कि पीड़ित को हिंसाकर्ता से आगे भी खतरा है, तो हिंसाकर्ता (पुरुष) को घर के बारह रहने का आदेश भी  दिया जा सकता है या
07.    घर के जिस भाग में पीड़ित व्यक्ति का निवास है या विद्यालय/महाविद्यालय में जाने से हिंसाकर्ता को मना कर सकता है।
08.    किसी भी पुरुष से व्यक्तिगत, मौखिक, लिखित टेलीफोन या अन्य इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से सम्पर्क करने से मना किया जा सकता है ।
09.    पीड़ित पर आश्रित व्यक्ति बच्चों या सहायता करने वाले व्यक्तियों पर हिंसा से रोकना। आदेश दिया जा सकता है ।
10.    संयुक्त या जिस संपत्ति पर पीड़ित का हक बनता है ऐसी संपत्तियों का लेन-देन या संचालन पर रोक। लगाई जा सकती है ।
11.    स्त्री धन, आभूषण, कपड़ों इत्यादि पर कब्जा देना।
12.     आपसी विवाह के संबंध में बात करने या उनकी पसंद के किसी व्यक्ति से विवाह के लिए मजबूर न करना।
13.    दहेज की मांग के लिए परेशान करने से रोकना।
14.     न्यायालय के आदेश के बिना बैंक में संधारित लॉकर्स एवं संयुक्त बैंक खातों से राशि, सामग्री हिंसाकर्ता नहींे निकाल सकेगा।
15.    पीड़िता और उसके बच्चों की सुरक्षा के लिए कोई अन्य उपाय।
16.     पीड़ित को साझी गृहस्थी में रहने का आदेश दिया जा सकता है । चाहे उसमें उसका मालिकाना हक न हो।
17.    अगर जरूरत महसूस हो तो आदालत आरोपी को यह आदेश दे सकती है कि पीड़िता जैसी सुविधा में साझे रूप में निवास कर रही थी वैसा ही किराए का घर उसे रहने के लिए उपलब्ध करावें।
18.    पीड़िता एवं उसके बच्चे घर में या घर के किसी भाग में निवास करते हैं, या कर चुके हैं, तो उसे घर के उस भाग में रहने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है।
19.    हिंसाकर्ता उस मकान को न तो बेच सकता है न उस पर ऋण ले सकता है न ही किसी के नाम से हस्तांतरित कर सकता है।
20.     न्यायालय पीड़िता की मांग पर उसे उसके बच्चों को अभिरक्षा में देने का अस्थायी आदेश दे सकता है।
21.    पीड़िता की रिपार्ट से न्यायाधीश यह समझते हैं कि हिंसाकर्ता के बच्चे से मिलने/भंेट करने से खतरा उत्पन्न हो सकता है तो वह हिंसाकर्ता को कहीं भी बच्चों से नहीं मिलने का ओदश दे सकते हैं।
22.    पीड़िता और उसके बच्चों का भरण-पोषण, चिकित्सीय खर्च, कपड़े, हिंसा की वजह से हुए किसी सम्पत्ति का नुकसान या हटाए जाने के कारण हुए नुकसान का मुआवजा देने का ओदश देगा।
23.    अदालत मानसिक यातना और भावनात्मक पीड़ा जो रिस्पॉडेंट द्वारा घरेलू हिंसा के कृत्यों द्वारा पहुंचायी गई है उसकि क्षतिपूर्ति और जीविका की क्षतिपूर्ति का भुगतान करने के लिए दोषी को आदेश दे सकेगी।
24.    सुरक्षा की दृष्टि से या अन्य कारणों से यदि पीड़िता अपने परिवार के साथ रहना नहीं चाहती है, तो ऐसी स्थिति में राज्य शासन निःशुल्क आश्रय की सुविधा उपलब्ध करायेगा।
25.    शासन द्वारा अधिकृत चिकित्सा सुविधा प्रदाता पीड़िता की प्रार्थना/आवेदन पर चिकित्सा सहायता उपलब्ध करायेगा
26.    घरेलू हिंसा की रिपोर्ट न दर्ज होने पर भी चिकित्सा सहायता या परीक्षण के लिए चिकित्सक मना नहीं करेगा और उसकी रिपोर्ट स्थानीय पुलिस थाना एवं संरक्षण अधिकारी (परियोजना अधिकारी, महिला एवं बाल विकास) को भेजेगा।
27.    ’’घरेलू हिंसा’’ का अर्थ मामले के सम्पूर्ण तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करके निकाला जाएगा ।
28.    अधिनियम के अंतर्गत एक पक्षीय अंतरिम आदेश न्यायालय तत्काल पारित कर सकता है ।
29.    अधिनियम के अंतर्गत पारित आदेश के विरूद्ध 30 दिन के अंदर व्यथित पक्षकार सत्र न्यायालय में अपील कर सकता है ।
30.    अधिनियम के अंतर्गत अपराध सज्ञेय एंव अजामनतीय है ।
31.     अधिनियम के अंतर्गत पारित आदेश के पालन हेतु पुलिस सहायता दी जा सकती है ।
32.    पुलिस में घरेलू हिंसा की रिपोर्ट किये जाने पर यदि भारतीय दण्ड संहिता या अन्य विधि के अधीन किया गया अपराध प्रकट होता है तो नियमानुसार पुलिस द्वारा कार्यवाही की जाएगी ।
33.    यदि पुलिस को घरेलू ंिहंसा की जानकारी मिलती है तो वे तत्काल घटना स्थल पर जाएगें और घरेलू दुर्घटना की रिपोर्ट तैयार करेगें ।
34.     इस अधिनियम के अधीन समुचित आदेश प्राप्त करने के लिए उस रिपोर्ट को पुलिस द्वारा अविलम्ब मजिस्ट्रेट को भेजी जाएगी ।
35.    संरक्षण अधिकारी के द्वारा कर्तव्य का निर्वाहन न करने पर उसे दण्डित किये जाने के प्रावधान है ।
36.    अधिनियम में पीडिता को निःशुल्क विधिक सहायता दिलाये जाने का प्रावधान भी किया गया है ।
37.    अधिनियम के प्रावधान प्रचलित विधियो के अतिरिक्त होगे उनके अन्यूनीकरण नहीं करेंगे ।
                सरकार के कर्तव्य
        इस अधिनियम में न केवल पुलिस अधिकारी, सरंक्षण अधिकारी, सेवा प्रदाता, मजिस्ट्रेट पर कर्तव्य अधिरोपित किये गये हैं । बल्कि राज्य सरकार और केन्द्र सरकार पर भी कर्तव्य अधिरोपित किये गये है ।जो निम्नलिखित है-
01.    ऐसे उपाय करना जिससे इस अधिनियम के उपबंधो का जन संचार के माध्यम से व्यापक प्रचार हो सके जैसे टेलीविजन, रेडियों और प्रिंट मिडिया के माध्यम से नियमित अंतराल में प्रचार करना ।
02.    पुलिस अधिकारी और न्यायिक सेवा के सदस्यों को जो इस अधिनियम से संबंधित है उन्हें समय समय पर प्रशिक्षण देना ताकि वे अधिनियम से संबंधित विषयो की जानकारी और उनके बारे में संवेदनशील हो सके ।
03.    विभिन्न मंत्रालयों के बीच प्रभावी समन्वय स्थापित करना जो कि इस अधिनियम से संबंध रखते है ।
04.    यह देखना की महिलाओ को इस अधिनियम के अधीन उपलब्ध सेवाएं मिल सके इसके लिए विभिन्न मंत्रालयों में प्रोटोकाल की व्यवस्था और न्यायालय स्थापित करना शामिल है ।
        मध्य प्रदेश शासन के द्वारा महिला एंव बाल विकास विभाग मंत्रालय, भोपाल ने दिनांक 09 जनवरी 2007 के आदेश द्वारा विकास खण्ड/परियोजन स्तर पर शहरी और ग्रामीण आदिवासी परियोजनाओ के बाल विकास परियोजना अधिकारियों को संरक्षण अधिकारी नियुक्त किया है जहां बाल विकास परियोजना स्वीकृत नहीं है उन क्षेत्रो में जिला कार्यक्रम अधिकारी/जिला महिला एंव बाल विकास अधिकारी को संरक्षण अधिकारी नियुक्त किया है ।
        घरेलू हिंसा में महिलाओ का संरक्षण नियम 2006 के अंतर्गत बनाये गये नियम में संरक्षण अधिकारी के निम्नलिखित कर्तव्य बताये गये है-
01.    पीडिता की ओर से घरेलू हिंसा की रिपोर्ट प्रारूप 1 मे तैयार करना और स्थानीय पुलिस थाना सेवा प्रदाता, विधिक सहायता अधिकारी एंव मजिस्ट्रेट को भेजना ।
02.    पीडित व्यक्ति के अनुरोध पर आश्रय गृह एंव चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करवाना।
03.    कोर्ट आने जाने, आश्रय गृह आदि के लिए परिवहन की निःशुल्क व्यवस्था उपलब्ध करवाना ।
04.    न्यायालय में आवेदन फाईल करने के लिए भारत सरकार के निर्धारित प्रारूप 2,3, एंव 5 में आवेदन तैयार करने में सहयोग करना ।
05.    पीडित व्यक्ति को राज्य विधिक सहायता प्राधिकरण द्वारा निःशुल्क सहायता उपलब्ध करवाना ।
06.    न्यायालय के संमस/नोटिस तामील करवाना।
07.    मजिस्ट्रेट के निर्देश पर घरेलू हिंसा की घटना की जांच कर रिपोर्ट देना ।
        इस प्रकार संरक्षण अधिकारी मजिस्ट्रेट और पीडिता के बीच की कडी के रूप में कार्य करेगा और उसकी जिम्मेदारी है कि वह सभी कानूनी सहायता निःशुल्क पीडित महिला और उसके बच्चो को प्रदान करे एंव उनकी सुरक्षा का भी ध्यान रखे ।
        अधिनियम के अंतर्गत पीडिता शिकायत सीधे क्षेत्रीय मजिस्ट्रेट के पास, स्थानीय पुलिस थाना, संरक्षण अधिकारी परियोजना अधिकारी, महिला एंव बाल विकास विभाग, सेवा प्रदाता-पुलिस परिवार परामर्श केन्द्र एंव पंजीकृत आश्रय गृह में कर सकती है।
                उषा किरण योजना
        मध्य प्रदेश शासन के द्वारा घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम  2005 एंव घरेलू हिंसा में महिलाओ का संरक्षण नियम 2006 के अंतर्गत  एक नये विश्वास की किरण जगाते हुए उषा किरण योजना पारित हुई है जिसमें पीडिता को अधिनियम एंव नियमो के प्रावधान के तहत सभी सहायता निःशुल्क उपलब्ध कराई जाएगी ।

        अब कानून से सुरक्षा शोषण के विरूद्ध और चुप्पी तोडो घरेलू हिंसा के खिलाफ अपनी आवाज उठाओ । जैसे नारे बुलन्द करते हुए मध्य प्रदेश सरकार के द्वारा 1091 टोल फ्री नंबर पर घरेलू हिंसा की तत्काल शिकायत किये जाने की सलाह देते हुए उषा किरण योजना बनाई गई है । जिसमें निःशुल्क विधिक सहायता पीडिता को हर प्रकार की दी गई है ।
                         उमेश कुमार गुप्ता