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सोमवार, 19 अगस्त 2013

धारा-306 और 107 भा0द0सं0

  धारा-306 और 107 भा0द0सं0 के अंतर्गत माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित  विधिक प्रतिपादनाऐ     
                                                 दुष्प्रेरण
        भा0दं0सं0 की ़धारा-107 दुष्प्रेरण से संबंधित है । जिसके अनुसार कोई व्यक्ति किसी बात के लिये  दुष्प्रेरण करता है । 

पहला-    उस काम को करने के लिय किसी व्यक्ति को उकसाता है या 

दूसरा-    उस बात को करने के लिये किसी षडयंत्र में एक या अधिक अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों   के साथ सम्मिलित होता है । यदि उस षडयंत्र के अनुसरण में और उस बात को      करने के उददेश्य से कोई कार्य    या अवैध लोप घटित हो जाये या 

तीसरा-    उस बात के लिये किये जाने में किसी कार्य या अवैध लोप व्दारा साश्य सहायता             करता है । 

        मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा 2010 भाग 4 मनीसा पेज एक एस0एस0 चीना विरूद्ध विजय कुमार महाजन एंव अन्य में अभिनिर्धारित किया है कि दुष्प्रेरण किसी व्यक्ति को उकसाने की मानसिक प्रक्रिया या एक व्यक्ति को कोई चीज करने के लिये आशयित करने हेतु अन्तर्वलित करता है । अभियुक्त व्दारा बिना उकसाने या आत्म हत्या करने में सहायता के व्दारा कोई  सकारात्मक कार्य किये । विधान का आशय और इस न्यायालय व्दारा विनिश्चित प्रकरणों का अनुपात स्पष्ट है कि धारा 306 के तहत एक व्यक्ति को दोषसिद्ध करने के अनुसरण में अपराध कारित करने की स्पष्ट आपराधिक मन स्थिति होना चाहिये। 

.        यह एक सजीव कार्य या प्रत्यक्ष कार्य भी आवश्यक करता है , जो मृतक को आत्म हत्या करने के अलावा  कोई अन्य विकल्प  नहीं देखते हुये प्रस्तुत करता है और कार्य मृतक को ऐसी स्थिति  में ढकेलने  के लिये आशयित होना चाहिये कि वह आत्म हत्या कारित करें ।

        यदि मृृतक निःसंदेह रूप से सामान्य चिडचिडेपन मनमुटाव और मतभेदों से अति संवेदनशील था जो हमारे दिन प्रतिदिन के जीवन में होते हैं । प्रत्येक व्यक्ति की मानवीय संवेदना  एक दूसरे से अलग होती है । भिन्न भिन्न लोग समान स्थिति में भिन्न भिन्न रूप से व्यवहार करते हैं ।तब हमे सावधानी से कार्य करना चाहिए ।

        रमेश कुमार विरूद्ध छत्तीसगढ़ राज्य 2001 भाग-9 एस.एस.सी. 618 न्यायालय ने उकसाहट को परिभाषित करते हुए स्पष्ट किया है कि उकसाहट किसी कार्य को करने के लिये उत्तेजित करने, भड़काने या उत्साहित करने हेतु अंकुश होता है । उकसाहट की अपेक्षाओं को संतुष्ट करने के लिये यद्यपि यह आवश्क नहीं है कि मूल शब्द इस निमित उपयोग होना चाहिये या जो उकसाहट गठित करते है । आवश्यक रूप से और विनिर्दिष्टता पूर्वक परिणाम को सुझााते हो फिर भी भडकाने की निश्चित युक्ति युक्त परिणाम को अर्थान्वयत  किया जाना चाहिये ।

        पश्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध होरीलाल जायसवाल-1994 भाग  1   एस0एस0सी0-73 में उच्चतम न्यायालय ने चेतावनी दी कि न्यायालय को प्रत्येक प्रकरण के तथ्य एंव परिस्थितियाॅ निर्धारित करने में स्पष्टतः सावधान करना चाहिये और परीक्षण में निष्कर्ष के प्रयोजन हेतु प्रस्तुत साक्ष्य में क्या पीडित इतनी कू्ररता की शिकार थी, वस्तुतः उसको आत्म हत्या कारित करने के व्दारा जीवन का अंत करने के लिये प्रेरित किया गया ।
        यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि पीडित ने आत्महत्या  अत्यधिक संवेदनशील सामान्य चिडचिडेपन, मनमुटाव औैर घरेलू जीवन में मत भेदो से कारित की थी ओर ऐसा चिडचिडापन, मनमुटाव और मतभेद सामान्यतः आत्महत्या कारित करने के लिये समाज में व्यक्ति को उकसाने हेतु अपेक्षित नहीं थे । न्यायालय का विवेक इस निष्कर्ष पर आधारित होने के लिये संतुष्ट नहीं होना चाहिये कि दुष्प्रेरण के आरोप का अभियुक्त आत्म हत्या के आरोप का दोषी होना पाया जाना चाहिये ।

        उच्चतम न्यायालय के द्वारा चित्रेश कुमार चैपडा बनाम दिल्ली राज्य 2009 भाग-16 एस0एस0सी 605 में दुष्प्रेरण पर विचार किया है। न्यायालय ने ‘‘उकसाहट‘‘ और ‘‘प्रेरित‘‘ करना ‘‘ शब्दो के डिकशनरी अर्थ को व्यवहत किया। न्यायालय ने अभिमत दिया कि कोई आश्य पत्र व्दारा किसी कार्य को करने के लिये उकसाने, भडकाने या उत्साहित करने के लिये नहीं होना चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति के आत्म हत्या करने की विधि एक दूसरे से अलग अलग होती है। प्रत्येक व्यक्ति के पास उसकी स्वंय का स्व-आदर और स्व-प्रतिष्ठा की योजना होती है । इसलिये ऐसे प्रकरणो को व्यवहत करने के लिये कोई निश्चित सूत्र  प्रतिपादित करना असंभव है । प्रत्येक प्रकरण उसके स्वय के तथ्यों एव परिस्थितियों के आधार पर विनिश्चित होना चाहिये ।
       




       

        विधि के सुस्थापित सिंद्धात के अनुसार भा0दं0वि0 की धारा 306 के आरोप में दंडित किये जाने के लिये दो तत्व आवश्यक है:-
    1-     यह कि एक व्यक्ति व्दारा आत्महत्या कारित करने के लिये उकसाना  या  प्रताडि़त             किये जाने के फलस्वरूव आत्म हत्या की गई है ।
    2-     यह कि आरोपी ने उसे आत्म हत्या करने के लिये दुष्प्रेरित किया।
        भा0दं0वि की धारा-107 और 306 का एक साथ पठन करने  पर यह स्पष्ट होता हेै कि यदि कोई व्यक्ति अन्य किसी व्यक्ति को आत्महत्या करने  को उकसाता है और ऐसे उकसाने के परिणाम स्वरूव दूसरा व्यक्ति आत्म हत्या करता है तो उकसाने वाला व्यक्ति धारा 306 भा0दं0वि0 के अंतर्गत उकसाने हेतु उत्तरदायी होता है ।  
 
        इसके लिये आवश्यक है कि आत्म हत्या करने वाले की मनोस्थिति एंव मरने वाले के लिये आत्म हत्या करने  के अलावा ओर कोई रास्ता नही बचा है । विधि के सुस्थापित सिद्धांत अनुसार क्र्रोध ,भावनावश जल्दबाजी में उठाये गये  कदम दुष्प्रेरण की श्रेणी में नहीं आते है ।
        अमलेन्दु पाल उर्फ झंटू बनाम पश्चिमी बंगाल राज्य, ए.आईआर.2010 एस.सी.-512- 2009 ए.आई.आर.एस.सी.डव्लू. 7070 वाले मामले में मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने मत व्यक्त किया है किः-इस न्यायालय ने सतत् यह दृष्टिकोण अपनाया है कि किसी अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के अधीन अपराध का दोषी ठहराने के लिये न्यायालय को मामले के तथ्यो और परिस्थ्तिियों की अति सावधानी पूर्वक परीक्षा करनी चाहिये और उसके समक्ष प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का भी यह निष्कर्ष निकालने के लिये अवधारणा करना चाहिये कि क्या विपदग्रस्त के साथ की गई क्रूरता ओर तंग करने के कारण उसके पास अपने जीवन का अंत करने के सिवाये कोई अन्य विकल्प नहीं बचा था।

         यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिये कि अभिकथित आत्महत्या दुष्प्रेरण के मामलो में आत्महत्या करने के लिये उकसाने के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्यो का सबूत होना चाहिये ।   घटना के सन्निकट समय पर अभियुक्त की ओर से किसी ऐसे सकारात्मक कार्य, जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया का अभाव होने के कारण भ0दं0वि0 की धारा 306 के निबंधनो में की गई दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है। 


        रणधीर सिंह बनाम पंजाब राज्य ,2004-13 एस.सी.सी. 120- ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 5097 - 2004 ए.आई.आर. एस.सी.डव्ल्यू 5832 किसी मामले को भारतीय दंड संहिता की धार 306 की परिधि के अंतर्गत आने के लिये मामला आत्महत्या का होना चाहिये और उक्त अपरध कारित करने में उस व्यक्ति जिसने कथित रूप से आत्महत्या करने के लिये दुष्प्रेरित किया था, द्वारा उकसाहट के किसी कार्य द्वारा या आत्महत्या करने के कार्य को सुकर बनाने के लिये कतिपय कार्य करके सक्रिय भूमिका अदा की जानी चाहिये । इसलिये उक्त अपराध से आरोपित व्यक्ति को भा0दंवि0 की धारा 306 के अधीन दोषसिद्व करने से पूर्व अभियोजन पक्ष द्वारा उस व्यक्ति द्वारा किये गये दुष्प्रेरण के कार्य को साबित और सिद्व किया जाना आवश्यक है । ‘‘

        ं मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 306 से संबंधित विधिक स्थिति को दोहराया है जो कि पैरा-12 ओर 13 में विस्तार से स्थापित हे । पैरा 12 और 13 इस प्रकार है:-

    ‘‘ दुष्पेरण किसी व्यक्ति को उकसाने या जानबूझकर कोई कार्य करने में सहायता करने की एक मानसिंक प्रक्रिया  है । षडयंत्र के मामलों में भी उस कार्य को करने के लिये षडयंत्र करने की मानसिंक प्रक्रिया अंतर्वलित होती है । इससे पूर्व कि यह कहा जा सके कि भा0दं0सं0 की धारा 306 के अधीन दुष्प्रेरित करने का अपराध किया गया है, ऐसी अत्यधिक सक्रिय भूमिका होनी अपेक्षित है जिसे उकसाने या किसी कार्य को करने में सहायता करने के रूप में वर्णित किया जा सके ।
        पश्चिमी बंगाल राजय बनाम उड़ीलाल जायसवाल 1994 1-एस.सी.सी. 73- ए.आई.आर.1994 एस.सी. 1418- 1994 क्रिमी.लाॅ जनरल 2104 वाले  मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया है कि न्यायालयों को यह निष्कर्ष निकालने के प्रयोजन के लिये कि क्या मृतिका के साथ की गई क्रूरता ने ही वास्तव में उसे आत्महत्या करके जीवन का अंत करने के लिये उत्प्रेरित किया था । प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों तथा विचारण में प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का अवधारणा करने में अत्यधिक सावधान रहना चाहिये।

        यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि आत्महत्या करने वाला विपदग्रस्त घरेलू जीवन में ऐसी सामान्य चिड़चिड़ी बातो, कलह ओर मतभेदो के प्रति अतिसंवेदनशील था जो उस समाज के लिये एक सामान्य बात है जिसमें विपदग्रस्त रहता है और ऐसे चिड़चिड़ेपन, कलह और मतभेदो में उस समाज में के किसी व्यक्ति से उसी प्रकार की परिस्थितियों में आत्महत्या करने की प्रत्याशा नहीं थी, तब न्यायालय की अंतश्चेतना का यह निष्कर्ष निकालने के लिये समाधान नहीं  होना चाहिये कि आत्महत्या के अपराध के दुष्प्रेरण के आरोप से अभियुक्त को दोषी ठहराया जाये । ‘‘
        मान्नीय उच्चतम न्यायालय के उपर उदघृत निर्णयों का परिशीलन करने पर यह बात ध्यान में रखी जानी आवश्यक है कि अभिकथित आत्महत्या के दुष्प्रेरण के मामलों मे आत्महत्या करने के लिये उकसाने का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्यो का सबूत होना चाहिये। घटना घटने के सन्निकट समय पर अभियुक्त की और से किसी ऐसे सकारात्मक कार्य, जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया ,का अभाव होने  के कारण भा0 दं0सं. की धारा 306 के निबंधनो में की गई दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है ।        
         इसलिये अपेक्षित यह हैकि जब तक घटना के सन्निकट समय पर अभियुक्त की ओर से किया गया कोई ऐसा सकारात्क कार्य नहीं है । जिसने आत्म हत्या करने वाले व्यक्ति को आत्महत्या करने  के लिये बाध्य किया , धारा 306 के अधीन दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है । धारा-306 भा0द0सं0 के अंतर्गत माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित विधिक प्रतिपादनाऐ-   

        अमलेन्दु पाल उर्फ झंटू बनाम पश्चिमी बंगाल राज्य, ए.आईआर.2010 एस.सी.-512- 2009 ए.आई.आर.एस.सी.डव्लू. 7070 वाले मामले में मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने मत व्यक्त किया है किः-इस न्यायालय ने सतत् यह दृष्टिकोण अपनाया है कि किसी अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के अधीन अपराध का दोषी ठहराने के लिये न्यायालय को मामले के तथ्यो और परिस्थ्तिियों की अति सावधानी पूर्वक परीक्षा करनी चाहिये और उसके समक्ष प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का भी यह निष्कर्ष निकालने के लिये अवधारणा करना चाहिये कि क्या विपदग्रस्त के साथ की गई क्रूरता ओर तंग करने के कारण उसके पास अपने जीवन का अंत करने के सिवाये कोई अन्य विकल्प नहीं बचा था।

         यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिये कि अभिकथित आत्महत्या दुष्प्रेरण के मामलो में आत्महत्या करने के लिये उकसाने के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्यो का सबूत होना चाहिये ।   घटना के सन्निकट समय पर अभियुक्त की ओर से किसी ऐसे सकारात्मक कार्य, जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया का अभाव होने के कारण भ0दं0वि0 की धारा 306 के निबंधनो में की गई दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है।

        रणधीर सिंह बनाम पंजाब राज्य ,2004-13 एस.सी.सी. 120- ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 5097 - 2004 ए.आई.आर. एस.सी.डव्ल्यू 5832 किसी मामले को भारतीय दंड संहिता की धार 306 की परिधि के अंतर्गत आने के लिये मामला आत्महत्या का होना चाहिये और उक्त अपरध कारित करने में उस व्यक्ति जिसने कथित रूप से आत्महत्या करने के लिये दुष्प्रेरित किया था, द्वारा उकसाहट के किसी कार्य द्वारा या आत्महत्या करने के कार्य को सुकर बनाने के लिये कतिपय कार्य करके सक्रिय भूमिका अदा की जानी चाहिये । इसलिये उक्त अपराध से आरोपित व्यक्ति को भा0दंवि0 की धारा 306 के अधीन दोषसिद्व करने से पूर्व अभियोजन पक्ष द्वारा उस व्यक्ति द्वारा किये गये दुष्प्रेरण के कार्य को साबित और सिद्व किया जाना आवश्यक है । ‘‘

3.        ं मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 306 से संबंधित विधिक स्थिति को दोहराया है जो कि पैरा-12 ओर 13 में विस्तार से स्थापित हे । पैरा 12 और 13 इस प्रकार है:-

    ‘‘ दुष्पेरण किसी व्यक्ति को उकसाने या जानबूझकर कोई कार्य करने में सहायता करने की एक मानसिंक प्रक्रिया  है । षडयंत्र के मामलों में भी उस कार्य को करने के लिये षडयंत्र करने की मानसिंक प्रक्रिया अंतर्वलित होती है । इससे पूर्व कि यह कहा जा सके कि भा0दं0सं0 की धारा 306 के अधीन दुष्प्रेरित करने का अपराध किया गया है, ऐसी अत्यधिक सक्रिय भूमिका होनी अपेक्षित है जिसे उकसाने या किसी कार्य को करने में सहायता करने के रूप में वर्णित किया जा सके ।
        पश्चिमी बंगाल राजय बनाम उड़ीलाल जायसवाल 1994 1-एस.सी.सी. 73- ए.आई.आर.1994 एस.सी. 1418- 1994 क्रिमी.लाॅ जनरल 2104 वाले  मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया है कि न्यायालयों को यह निष्कर्ष निकालने के प्रयोजन के लिये कि क्या मृतिका के साथ की गई क्रूरता ने ही वास्तव में उसे आत्महत्या करके जीवन का अंत करने के लिये उत्प्रेरित किया था । प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों तथा विचारण में प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का अवधारणा करने में अत्यधिक सावधान रहना चाहिये।

        यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि आत्महत्या करने वाला विपदग्रस्त घरेलू जीवन में ऐसी सामान्य चिड़चिड़ी बातो, कलह ओर मतभेदो के प्रति अतिसंवेदनशील था जो उस समाज के लिये एक सामान्य बात है जिसमें विपदग्रस्त रहता है और ऐसे चिड़चिड़ेपन, कलह और मतभेदो में उस समाज में के किसी व्यक्ति से उसी प्रकार की परिस्थितियों में आत्महत्या करने की प्रत्याशा नहीं थी, तब न्यायालय की अंतश्चेतना का यह निष्कर्ष निकालने के लिये समाधान नहीं  होना चाहिये कि आत्महत्या के अपराध के दुष्प्रेरण के आरोप से अभियुक्त को दोषी ठहराया जाये । ‘‘

        मान्नीय उच्चतम न्यायालय के उपर उदघृत निर्णयों का परिशीलन करने पर यह बात ध्यान में रखी जानी आवश्यक है कि अभिकथित आत्महत्या के दुष्प्रेरण के मामलों मे आत्महत्या करने के लिये उकसाने का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्यो का सबूत होना चाहिये। घटना घटने के सन्निकट समय पर अभियुक्त की और से किसी ऐसे सकारात्मक कार्य, जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया ,का अभाव होने  के कारण भा0 दं0सं. की धारा 306 के निबंधनो में की गई दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है ।   
           इसलिये अपेक्षित यह हैकि जब तक घटना के सन्निकट समय पर अभियुक्त की ओर से किया गया कोई ऐसा सकारात्क कार्य नहीं है । जिसने आत्म हत्या करने वाले व्यक्ति को आत्महत्या करने  के लिये बाध्य किया , धारा 306 के अधीन दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है । 

दुष्प्रेरण 

        भा0दं0सं0 की ़धारा-107 दुष्प्रेरण से संबंधित है । जिसके अनुसार कोई व्यक्ति किसी बात के लिये  दुष्प्रेरण करता है ।
पहला-    उस काम को करने के लिय किसी व्यक्ति को उकसाता है या
दूसरा-    उस बात को करने के लिये किसी षडयंत्र में एक या अधिक अन्य व्यक्ति या         व्यक्तियों के साथ सम्मिलित होता है । यदि उस षडयंत्र के अनुसरण में         और उस बात को करने के उददेश्य से कोई कार्यया अवैध लोप घटित हो         जाये या
तीसरा-    उस बात के लिये किये जाने में किसी कार्य या अवैध लोप व्दारा साश्य         सहायता करता है ।
        मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा 2010 भाग 4 मनीसा पेज एक एस0एस0 चीना विरूद्ध विजय कुमार महाजन एंव अन्य में अभिनिर्धारित किया है कि दुष्प्रेरण किसी व्यक्ति को उकसाने की मानसिक प्रक्रिया या एक व्यक्ति को कोई चीज करने के लिये आशयित करने हेतु अन्तर्वलित करता है । अभियुक्त व्दारा बिना उकसाने या आत्म हत्या करने में सहायता के व्दारा कोई  सकारात्मक कार्य किये । विधान का आशय और इस न्यायालय व्दारा विनिश्चित प्रकरणों का अनुपात स्पष्ट है कि धारा 306 के तहत एक व्यक्ति को दोषसिद्ध करने के अनुसरण में अपराध कारित करने की स्पष्ट आपराधिक मन स्थिति होना चाहिये।
.        यह एक सजीव कार्य या प्रत्यक्ष कार्य भी आवश्यक करता है , जो मृतक को आत्म हत्या करने के अलावा  कोई अन्य विकल्प  नहीं देखते हुये प्रस्तुत करता है और कार्य मृतक को ऐसी स्थिति  में ढकेलने  के लिये आशयित होना चाहिये कि वह आत्म हत्या कारित करें ।
        यदि मृृतक निःसंदेह रूप से सामान्य चिडचिडेपन मनमुटाव और मतभेदों से अति संवेदनशील था जो हमारे दिन प्रतिदिन के जीवन में होते हैं । प्रत्येक व्यक्ति की मानवीय संवेदना  एक दूसरे से अलग होती है । भिन्न भिन्न लोग समान स्थिति में भिन्न भिन्न रूप से व्यवहार करते हैं ।तब हमे सावधानी से कार्य करना चाहिए ।
        रमेश कुमार विरूद्ध छत्तीसगढ़ राज्य 2001 भाग-9 एस.एस.सी. 618 न्यायालय ने उकसाहट को परिभाषित करते हुए स्पष्ट किया है कि उकसाहट किसी कार्य को करने के लिये उत्तेजित करने, भड़काने या उत्साहित करने हेतु अंकुश होता है । उकसाहट की अपेक्षाओं को संतुष्ट करने के लिये यद्यपि यह आवश्क नहीं है कि मूल शब्द इस निमित उपयोग होना चाहिये या जो उकसाहट गठित करते है । आवश्यक रूप से और विनिर्दिष्टता पूर्वक परिणाम को सुझााते हो फिर भी भडकाने की निश्चित युक्ति युक्त परिणाम को अर्थान्वयत  किया जाना चाहिये ।
        पश्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध होरीलाल जायसवाल-1994 भाग-1 एस0एस0 सी0-73 में उच्चतम न्यायालय ने चेतावनी दी कि न्यायालय को प्रत्येक प्रकरण के तथ्य एंव परिस्थितियाॅ निर्धारित करने में स्पष्टतः सावधान करना चाहिये और परीक्षण में निष्कर्ष के प्रयोजन हेतु प्रस्तुत साक्ष्य में क्या पीडित इतनी कू्ररता की शिकार थी, वस्तुतः उसको आत्म हत्या कारित करने के व्दारा जीवन का अंत करने के लिये प्रेरित किया गया।
        यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि पीडित ने आत्महत्या  अत्यधिक संवेदनशील सामान्य चिडचिडेपन, मनमुटाव औैर घरेलू जीवन में मत भेदो से कारित की थी ओर ऐसा चिडचिडापन, मनमुटाव और मतभेद सामान्यतः आत्महत्या कारित करने के लिये समाज में व्यक्ति को उकसाने हेतु अपेक्षित नहीं थे । न्यायालय का विवेक इस निष्कर्ष पर आधारित होने के लिये संतुष्ट नहीं होना चाहिये कि दुष्प्रेरण के आरोप का अभियुक्त आत्म हत्या के आरोप का दोषी होना पाया जाना चाहिये ।
        उच्चतम न्यायालय के द्वारा चित्रेश कुमार चैपडा बनाम दिल्ली राज्य 2009 भाग-16 एस0एस0सी 605 में दुष्प्रेरण पर विचार किया है। न्यायालय ने ‘‘उकसाहट‘‘ और ‘‘प्रेरित‘‘ करना ‘‘ शब्दो के डिकशनरी अर्थ को व्यवहत किया। न्यायालय ने अभिमत दिया कि कोई आश्य पत्र व्दारा किसी कार्य को करने के लिये उकसाने, भडकाने या उत्साहित करने के लिये नहीं होना चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति के आत्म हत्या करने की विधि एक दूसरे से अलग अलग होती है। प्रत्येक व्यक्ति के पास उसकी स्वंय का स्व-आदर और स्व-प्रतिष्ठा की योजना होती है । इसलिये ऐसे प्रकरणो को व्यवहत करने के लिये कोई निश्चित सूत्र  प्रतिपादित करना असंभव है । प्रत्येक प्रकरण उसके स्वय के तथ्यों एव परिस्थितियों के आधार पर विनिश्चित होना चाहिये ।
        विधि के सुस्थापित सिंद्धात के अनुसार भा0दं0वि0 की धारा 306 के आरोप में दंडित किये जाने के लिये दो तत्व आवश्यक है:-
    1-     यह कि एक व्यक्ति व्दारा आत्महत्या कारित करने के लिये उकसाना  या          प्रताडि़त  किये जाने के फलस्वरूव आत्म हत्या की गई है ।
    2-     यह कि आरोपी ने उसे आत्म हत्या करने के लिये दुष्प्रेरित किया।
        भा0दं0वि की धारा-107 और 306 का एक साथ पठन करने  पर यह स्पष्ट होता हेै कि यदि कोई व्यक्ति अन्य किसी व्यक्ति को आत्महत्या करने  को उकसाता है और ऐसे उकसाने के परिणाम स्वरूव दूसरा व्यक्ति आत्म हत्या करता है तो उकसाने वाला व्यक्ति धारा 306 भा0दं0वि0 के अंतर्गत उकसाने हेतु उत्तरदायी होता है ।   
        इसके लिये आवश्यक है कि आत्म हत्या करने वाले की मनोस्थिति एंव मरने वाले के लिये आत्म हत्या करने  के अलावा ओर कोई रास्ता नही बचा है । विधि के सुस्थापित सिद्धांत अनुसार क्र्रोध ,भावनावश जल्दबाजी में उठाये गये  कदम दुष्प्रेरण की श्रेणी में नहीं आते है ।
  धारा-306 और 107 भा0द0सं0 के अंतर्गत माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित                            विधिक प्रतिपादनाऐ                              दुष्प्रेरण
        भा0दं0सं0 की ़धारा-107 दुष्प्रेरण से संबंधित है । जिसके अनुसार कोई व्यक्ति किसी बात के लिये  दुष्प्रेरण करता है ।
पहला-    उस काम को करने के लिय किसी व्यक्ति को उकसाता है या
दूसरा-    उस बात को करने के लिये किसी षडयंत्र में एक या अधिक अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों         के साथ सम्मिलित होता है । यदि उस षडयंत्र के अनुसरण में और उस बात को             करने के उददेश्य से कोई कार्य    या अवैध लोप घटित हो जाये या
तीसरा-    उस बात के लिये किये जाने में किसी कार्य या अवैध लोप व्दारा साश्य सहायता             करता है ।
        मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा 2010 भाग 4 मनीसा पेज एक एस0एस0 चीना विरूद्ध विजय कुमार महाजन एंव अन्य में अभिनिर्धारित किया है कि दुष्प्रेरण किसी व्यक्ति को उकसाने की मानसिक प्रक्रिया या एक व्यक्ति को कोई चीज करने के लिये आशयित करने हेतु अन्तर्वलित करता है । अभियुक्त व्दारा बिना उकसाने या आत्म हत्या करने में सहायता के व्दारा कोई  सकारात्मक कार्य किये । विधान का आशय और इस न्यायालय व्दारा विनिश्चित प्रकरणों का अनुपात स्पष्ट है कि धारा 306 के तहत एक व्यक्ति को दोषसिद्ध करने के अनुसरण में अपराध कारित करने की स्पष्ट आपराधिक मन स्थिति होना चाहिये।
.        यह एक सजीव कार्य या प्रत्यक्ष कार्य भी आवश्यक करता है , जो मृतक को आत्म हत्या करने के अलावा  कोई अन्य विकल्प  नहीं देखते हुये प्रस्तुत करता है और कार्य मृतक को ऐसी स्थिति  में ढकेलने  के लिये आशयित होना चाहिये कि वह आत्म हत्या कारित करें ।
        यदि मृृतक निःसंदेह रूप से सामान्य चिडचिडेपन मनमुटाव और मतभेदों से अति संवेदनशील था जो हमारे दिन प्रतिदिन के जीवन में होते हैं । प्रत्येक व्यक्ति की मानवीय संवेदना  एक दूसरे से अलग होती है । भिन्न भिन्न लोग समान स्थिति में भिन्न भिन्न रूप से व्यवहार करते हैं ।तब हमे सावधानी से कार्य करना चाहिए ।
        रमेश कुमार विरूद्ध छत्तीसगढ़ राज्य 2001 भाग-9 एस.एस.सी. 618 न्यायालय ने उकसाहट को परिभाषित करते हुए स्पष्ट किया है कि उकसाहट किसी कार्य को करने के लिये उत्तेजित करने, भड़काने या उत्साहित करने हेतु अंकुश होता है । उकसाहट की अपेक्षाओं को संतुष्ट करने के लिये यद्यपि यह आवश्क नहीं है कि मूल शब्द इस निमित उपयोग होना चाहिये या जो उकसाहट गठित करते है । आवश्यक रूप से और विनिर्दिष्टता पूर्वक परिणाम को सुझााते हो फिर भी भडकाने की निश्चित युक्ति युक्त परिणाम को अर्थान्वयत  किया जाना चाहिये ।
        पश्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध होरीलाल जायसवाल-1994 भाग  1   एस0एस0सी0-73 में उच्चतम न्यायालय ने चेतावनी दी कि न्यायालय को प्रत्येक प्रकरण के तथ्य एंव परिस्थितियाॅ निर्धारित करने में स्पष्टतः सावधान करना चाहिये और परीक्षण में निष्कर्ष के प्रयोजन हेतु प्रस्तुत साक्ष्य में क्या पीडित इतनी कू्ररता की शिकार थी, वस्तुतः उसको आत्म हत्या कारित करने के व्दारा जीवन का अंत करने के लिये प्रेरित किया गया ।
        यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि पीडित ने आत्महत्या  अत्यधिक संवेदनशील सामान्य चिडचिडेपन, मनमुटाव औैर घरेलू जीवन में मत भेदो से कारित की थी ओर ऐसा चिडचिडापन, मनमुटाव और मतभेद सामान्यतः आत्महत्या कारित करने के लिये समाज में व्यक्ति को उकसाने हेतु अपेक्षित नहीं थे । न्यायालय का विवेक इस निष्कर्ष पर आधारित होने के लिये संतुष्ट नहीं होना चाहिये कि दुष्प्रेरण के आरोप का अभियुक्त आत्म हत्या के आरोप का दोषी होना पाया जाना चाहिये ।
        उच्चतम न्यायालय के द्वारा चित्रेश कुमार चैपडा बनाम दिल्ली राज्य 2009 भाग-16 एस0एस0सी 605 में दुष्प्रेरण पर विचार किया है। न्यायालय ने ‘‘उकसाहट‘‘ और ‘‘प्रेरित‘‘ करना ‘‘ शब्दो के डिकशनरी अर्थ को व्यवहत किया। न्यायालय ने अभिमत दिया कि कोई आश्य पत्र व्दारा किसी कार्य को करने के लिये उकसाने, भडकाने या उत्साहित करने के लिये नहीं होना चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति के आत्म हत्या करने की विधि एक दूसरे से अलग अलग होती है। प्रत्येक व्यक्ति के पास उसकी स्वंय का स्व-आदर और स्व-प्रतिष्ठा की योजना होती है । इसलिये ऐसे प्रकरणो को व्यवहत करने के लिये कोई निश्चित सूत्र  प्रतिपादित करना असंभव है । प्रत्येक प्रकरण उसके स्वय के तथ्यों एव परिस्थितियों के आधार पर विनिश्चित होना चाहिये ।
       




       
        विधि के सुस्थापित सिंद्धात के अनुसार भा0दं0वि0 की धारा 306 के आरोप में दंडित किये जाने के लिये दो तत्व आवश्यक है:-
    1-     यह कि एक व्यक्ति व्दारा आत्महत्या कारित करने के लिये उकसाना  या  प्रताडि़त             किये जाने के फलस्वरूव आत्म हत्या की गई है ।
    2-     यह कि आरोपी ने उसे आत्म हत्या करने के लिये दुष्प्रेरित किया।
        भा0दं0वि की धारा-107 और 306 का एक साथ पठन करने  पर यह स्पष्ट होता हेै कि यदि कोई व्यक्ति अन्य किसी व्यक्ति को आत्महत्या करने  को उकसाता है और ऐसे उकसाने के परिणाम स्वरूव दूसरा व्यक्ति आत्म हत्या करता है तो उकसाने वाला व्यक्ति धारा 306 भा0दं0वि0 के अंतर्गत उकसाने हेतु उत्तरदायी होता है ।   
        इसके लिये आवश्यक है कि आत्म हत्या करने वाले की मनोस्थिति एंव मरने वाले के लिये आत्म हत्या करने  के अलावा ओर कोई रास्ता नही बचा है । विधि के सुस्थापित सिद्धांत अनुसार क्र्रोध ,भावनावश जल्दबाजी में उठाये गये  कदम दुष्प्रेरण की श्रेणी में नहीं आते है ।
        अमलेन्दु पाल उर्फ झंटू बनाम पश्चिमी बंगाल राज्य, ए.आईआर.2010 एस.सी.-512- 2009 ए.आई.आर.एस.सी.डव्लू. 7070 वाले मामले में मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने मत व्यक्त किया है किः-इस न्यायालय ने सतत् यह दृष्टिकोण अपनाया है कि किसी अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के अधीन अपराध का दोषी ठहराने के लिये न्यायालय को मामले के तथ्यो और परिस्थ्तिियों की अति सावधानी पूर्वक परीक्षा करनी चाहिये और उसके समक्ष प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का भी यह निष्कर्ष निकालने के लिये अवधारणा करना चाहिये कि क्या विपदग्रस्त के साथ की गई क्रूरता ओर तंग करने के कारण उसके पास अपने जीवन का अंत करने के सिवाये कोई अन्य विकल्प नहीं बचा था।

         यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिये कि अभिकथित आत्महत्या दुष्प्रेरण के मामलो में आत्महत्या करने के लिये उकसाने के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्यो का सबूत होना चाहिये ।   घटना के सन्निकट समय पर अभियुक्त की ओर से किसी ऐसे सकारात्मक कार्य, जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया का अभाव होने के कारण भ0दं0वि0 की धारा 306 के निबंधनो में की गई दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है।
        रणधीर सिंह बनाम पंजाब राज्य ,2004-13 एस.सी.सी. 120- ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 5097 - 2004 ए.आई.आर. एस.सी.डव्ल्यू 5832 किसी मामले को भारतीय दंड संहिता की धार 306 की परिधि के अंतर्गत आने के लिये मामला आत्महत्या का होना चाहिये और उक्त अपरध कारित करने में उस व्यक्ति जिसने कथित रूप से आत्महत्या करने के लिये दुष्प्रेरित किया था, द्वारा उकसाहट के किसी कार्य द्वारा या आत्महत्या करने के कार्य को सुकर बनाने के लिये कतिपय कार्य करके सक्रिय भूमिका अदा की जानी चाहिये । इसलिये उक्त अपराध से आरोपित व्यक्ति को भा0दंवि0 की धारा 306 के अधीन दोषसिद्व करने से पूर्व अभियोजन पक्ष द्वारा उस व्यक्ति द्वारा किये गये दुष्प्रेरण के कार्य को साबित और सिद्व किया जाना आवश्यक है । ‘‘
        ं मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 306 से संबंधित विधिक स्थिति को दोहराया है जो कि पैरा-12 ओर 13 में विस्तार से स्थापित हे । पैरा 12 और 13 इस प्रकार है:-
    ‘‘ दुष्पेरण किसी व्यक्ति को उकसाने या जानबूझकर कोई कार्य करने में सहायता करने की एक मानसिंक प्रक्रिया  है । षडयंत्र के मामलों में भी उस कार्य को करने के लिये षडयंत्र करने की मानसिंक प्रक्रिया अंतर्वलित होती है । इससे पूर्व कि यह कहा जा सके कि भा0दं0सं0 की धारा 306 के अधीन दुष्प्रेरित करने का अपराध किया गया है, ऐसी अत्यधिक सक्रिय भूमिका होनी अपेक्षित है जिसे उकसाने या किसी कार्य को करने में सहायता करने के रूप में वर्णित किया जा सके ।
        पश्चिमी बंगाल राजय बनाम उड़ीलाल जायसवाल 1994 1-एस.सी.सी. 73- ए.आई.आर.1994 एस.सी. 1418- 1994 क्रिमी.लाॅ जनरल 2104 वाले  मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया है कि न्यायालयों को यह निष्कर्ष निकालनेेेेेेेेेेेेे के प्रयोजन के लिये कि क्या मृतिका के साथ की गई क्रूरता ने ही वास्तव में उसे आत्महत्या करके जीवन का अंत करने के लिये उत्प्रेरित किया था । प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों तथा विचारण में प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का अवधारणा करने में अत्यधिक सावधान रहना चाहिये।
        यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि आत्महत्या करने वाला विपदग्रस्त घरेलू जीवन में ऐसी सामान्य चिड़चिड़ी बातो, कलह ओर मतभेदो के प्रति अतिसंवेदनशील था जो उस समाज के लिये एक सामान्य बात है जिसमें विपदग्रस्त रहता है और ऐसे चिड़चिड़ेपन, कलह और मतभेदो में उस समाज में के किसी व्यक्ति से उसी प्रकार की परिस्थितियों में आत्महत्या करने की प्रत्याशा नहीं थी, तब न्यायालय की अंतश्चेतना का यह निष्कर्ष निकालने के लिये समाधान नहीं  होना चाहिये कि आत्महत्या के अपराध के दुष्प्रेरण के आरोप से अभियुक्त को दोषी ठहराया जाये । ‘‘
        मान्नीय उच्चतम न्यायालय के उपर उदघृत निर्णयों का परिशीलन करने पर यह बात ध्यान में रखी जानी आवश्यक है कि अभिकथित आत्महत्या के दुष्प्रेरण के मामलों मे आत्महत्या करने के लिये उकसाने का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्यो का सबूत होना चाहिये। घटना घटने के सन्निकट समय पर अभियुक्त की और से किसी ऐसे सकारात्मक कार्य, जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया ,का अभाव होने  के कारण भा0 दं0सं. की धारा 306 के निबंधनो में की गई दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है ।        
         इसलिये अपेक्षित यह हैकि जब तक घटना के सन्निकट समय पर अभियुक्त की ओर से किया गया कोई ऐसा सकारात्क कार्य नहीं है । जिसने आत्म हत्या करने वाले व्यक्ति को आत्महत्या करने  के लिये बाध्य किया , धारा 306 के अधीन दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है ।


























घरेलू हिंसा पर निबंध

                                                                            घरेलू हिंसा
                                   
        हमारा भारतीय समाज सदियों से पुरूष प्रधान समाज रहा है । जहां पर  महिलाओं को घर के अंदर रहकर कामकाज करने वाली और परिवार, बच्चों का भरण-पोषण करने वाली अनउपयोगी वस्तु मानते हुए अनादर की दृष्टि से देखते हुए उसे घर और परिवार के लोगो के द्वारा हमेशा से प्रताड़ित किया गया है। इनके साथ घर के अंदर ऐसी घरेलू ंिहंसा की जाती है जिसे किसी कानून में अपराध घोषित किया जाना रिश्तो की नाजुकता के कारण मुश्किल है और जिसका उनके परिवार के सदस्यों  और घर के आस-पास रहने वाले को ज्ञान भी नहीं होता है।

      ऐसी  कुटुम्ब के भीतर होने वाली घरेलू हिंसा से निपटने के लिये घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम  2005 बनाया गया है जो 26 अक्टूबर 2006 से प्रभावशील हुआ है । अधिनियम को प्रभावी ढंग में लागू किये जाने के लिए घरेलू हिंसा में महिलाओ का संरक्षण नियम 2006 के अंतर्गत नियम भी बनाये गये हैं।

        घरेलू हिंसा से तात्पर्य कोई कार्य या हरकत जो किसी पीड़ित महिला एवं बच्चों (18 वर्ष से कम उम्र के बालक एवं बालिका) के स्वास्थ्य, सुरक्षा जीवन को खतरा/संकट की स्थिति, आर्थिक नुकसान, क्षति जो असहनीय हो तथा जिससे महिला बच्चे दुखी व अपमानित हो से है । इसके अंतर्गत शारीरिक  मौखिक व भावनात्मक  लैंगिग व आर्थिक हिंसा या धमकी देना आदि शामिल है।

        घरेलू हिंसा के अंतर्गत हमला,आपराधिक अभित्रास, बल, महिला की गरिमा का दुरूपयोग ,अपमान, उपहास, तिरस्कार और विशेष रूप से संतान नर बालक के न होने के संबंध में ताना और हितबद्ध व्यक्ति को शारीरिक पीडा कारित करने की लगातार धमकिया देना, स्त्रीधन, व्यथित द्वारा संयुक्त रूप से या पृथकतः स्वामित्व वाली सम्पत्ति, साझी गृहस्थी और उसके रखरखाव से संबंधित भाटक के संदाय, से वंचित करना, स्थावर, मूल्यवान वस्तुओं, शेयरों , प्रतिभूतियों बंधपत्रों और इसके सदृश या अन्य सम्पत्ति का कोई अन्य संक्रामण, साझी गृहस्थी तक पहंुच  के लिए प्रतिषेध या निर्बन्धन आदि शामिल है ।

        अधिनियम के अंतर्गत पीडित पक्षकार में विवाहित, अविवाहित के अलावा अन्य रिश्तों में रह रही विवाहित, विधवा, मॉ, बहन, बेटी, बहूंॅ, शादी के बगैर साथ रह रही महिला या दूसरी पत्नी के रूप में रह रही या रह चुकी महिला। धोखे से किया गया विवाह/अवैध विवाह वाली महिला शामिल है।

        अधिनियम में किसी भी व्यस्क पुरुष सदस्य के खिलाफ, जिसके साथ महिला बच्चे का घरेलू रिश्ता है या था, के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई जा सकती है। घरेलू से तात्पर्य एक ही छत/घर के  नीचे संयुक्त परिवार/ एकल परिवार के पारिवारिक सदस्य जो समरक्तता/संगोत्रता/दस्तक/विवाह द्वारा बनाये गए रिश्ते के रूप में रह रहे या रह चुके महिला एंव बच्चे ।
        पूर्व में इस संबंध में मतभेद था कि क्या पति या पुरूष साथी के महिला रिश्तेदार को प्रत्यर्थी बनाया जा सकता है या नहीं और इस संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्यायदृष्टांत 2011 ए0आई0आर0 एस0सी0डब्ल्यू 1327 संध्या मनोज वानखेडे विरूद्ध मनोज वामनराव वानखेडे में यह प्रतिपादित किया गया है कि व्यथित पत्नी या विवाह के प्रकृति के संबंध में रहने वाली महिला पति या पुरूष साथी के किसी भी रिश्तेदार के विरूद्ध परिवाद ला सकती है चाहे वह रिश्तेदार महिला हो या पुरूष हो अर्थात महिला के विरूद्ध भी शिकायत की जा सकती है ।

                अधिनियम की महत्वपूर्ण विशेषताएं

01.    इस कानून के तहत् घरेलू हिंसा की रोकथाम के लिए न्यायालय को धारा 12 में आवेदन प्राप्त होने के 03 दिन के भीतर पहली सुनवाई में न्यायाधीश बचावकारी आदेश दे सकते हैं।
02.    न्यायालय प्रत्येक आवेदन की प्रथम सुनवाई की तारीख से 60 दिनों के अन्दर निपटारा करने का प्रयास करेगा।
03.    अधिनियम घरेलू रिश्तों में रहते हुए भी आपत्तिजनक व्यवहारों को सुधारने का पूरा मौका देता है।
04.    यह कानून महिलाओं बच्चों को अपने घर में स्वतंत्र व सुरक्षित रहने का अधिकार देता है, भले ही उस घर पर उनका मालिकाना हक हो या न हो।
05.    यह एक दिवानी कानून है। इस कानून में दोषी को सजा दिलाने के बजाय पीड़ित के संरक्षण एवं बचाव पर जोर दिया गया है ।
06.    न्यायालय का आदेश न मानने पर दोषी व्यक्ति को एक साल तक की अवधि की सजा या रुपये 20 हजार तक जुर्माना या दोनों हो सकते हैं।
07.    इस कानून के अनुसार महिला के साथ हुई घरेलू हिंसा के साक्ष्य के प्रमाण प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है। एकमात्र महिला द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों एवं बयानों को ही विश्वसनीय माना जावेगा तथा उस आधार पर ही न्यायाधीश आदेश दे सकते हैं कि हिंसा रोकी जावे और महिला को संरक्षण प्रदान किया जावे।
08.    पीड़िता को, न्यायालय, द्वारा पारित सभी आदेशों की प्रतियां निःशुल्क प्रदाय की जाएगी।
09.    यदि न्यायाधीश ऐसा समझते हैं कि परिस्थितियों के कारण मामले की सुनवाई बंद कमरे में किया जाना आवश्यक है तो या पीड़ित पक्ष ऐसी मांग करे तो मामले की कार्यवाही बंद कमरे में की जा सकेगी।
10.    यदि न्यायाधीश को पीड़ित व्यक्ति या दोषी से आवेदन प्राप्त होने पर यह समाधान हो जाता है कि परिस्थितियों में सुधार हुआ है तो पूर्व आदेश में परिवर्तन, संशोधन या निरस्त कर सकते हैं।
11.    पीड़िता के पूर्व में चल रहे अदालत के केस के अतिरिक्त भी इस कानून में संरक्षण एवं सहायता प्रदान की जा सकती है । घरेलू हिंसा के केस के साथ अन्य कानून के अंतर्गत चल रही कार्यवाही एक साथ चल सकती है।
12.    महिला घटना स्थल या वर्तमान में जहंा निवासरत है, वहां केस दर्ज करा सकती है। पीड़िता जहंा उचित समझे उस क्षेत्र के मजिस्टेªट को आवेदन दे सकती है। 

अधिनियम के अंतर्गत मिलने वाली सहायता एंव राहत

01.    न्यायाधीश यह समझता है कि नियम के तहत किसी पीड़ित व हिंसाकर्ता को अकेले या संयुक्त रूप से सेवा प्रदाता (पुलिस परिवार परामर्श केन्द्र) के किसी सदस्य को परामर्श देने की पात्रता और अनुभव रखते हों तो उससे परामर्श लेने का निर्देश दे सकते हैं।
02.    परामर्श में हुए समझौते की कार्यवाही अनुसार मजिस्टे््र्रट संरक्षण एवं सहायता के आदेश जारी कर सकते हैं।
03.    यदि न्यायाधीश को लगता है कि घरेलू हिंसा हुई है और पीड़ित व्यक्ति को हिंसाकर्ता से आगे भी खतरा है, ऐसी स्थिति में संरक्षण आदेश धारा-18 में दे सकता है ।
04.    संरक्षण आदेश घरेलू हिंसा करने, हिंसा में सहयोग करने या प्रेरित करने से रोकने दिये जा सकते हैं।
05.    हिंसाकर्ता को पीड़ित द्वारा उपयोग किए जाने वाले घर में प्रवेश पर रोक, लगाई जा सकती है ।
06.    अगर पीड़ित की रिपोर्ट से जज को ऐसा लगता है कि पीड़ित को हिंसाकर्ता से आगे भी खतरा है, तो हिंसाकर्ता (पुरुष) को घर के बारह रहने का आदेश भी  दिया जा सकता है या
07.    घर के जिस भाग में पीड़ित व्यक्ति का निवास है या विद्यालय/महाविद्यालय में जाने से हिंसाकर्ता को मना कर सकता है।
08.    किसी भी पुरुष से व्यक्तिगत, मौखिक, लिखित टेलीफोन या अन्य इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से सम्पर्क करने से मना किया जा सकता है ।
09.    पीड़ित पर आश्रित व्यक्ति बच्चों या सहायता करने वाले व्यक्तियों पर हिंसा से रोकना। आदेश दिया जा सकता है ।
10.    संयुक्त या जिस संपत्ति पर पीड़ित का हक बनता है ऐसी संपत्तियों का लेन-देन या संचालन पर रोक। लगाई जा सकती है ।
11.    स्त्री धन, आभूषण, कपड़ों इत्यादि पर कब्जा देना।
12.     आपसी विवाह के संबंध में बात करने या उनकी पसंद के किसी व्यक्ति से विवाह के लिए मजबूर न करना।
13.    दहेज की मांग के लिए परेशान करने से रोकना।
14.     न्यायालय के आदेश के बिना बैंक में संधारित लॉकर्स एवं संयुक्त बैंक खातों से राशि, सामग्री हिंसाकर्ता नहींे निकाल सकेगा।
15.    पीड़िता और उसके बच्चों की सुरक्षा के लिए कोई अन्य उपाय।
16.     पीड़ित को साझी गृहस्थी में रहने का आदेश दिया जा सकता है । चाहे उसमें उसका मालिकाना हक न हो।
17.    अगर जरूरत महसूस हो तो आदालत आरोपी को यह आदेश दे सकती है कि पीड़िता जैसी सुविधा में साझे रूप में निवास कर रही थी वैसा ही किराए का घर उसे रहने के लिए उपलब्ध करावें।
18.    पीड़िता एवं उसके बच्चे घर में या घर के किसी भाग में निवास करते हैं, या कर चुके हैं, तो उसे घर के उस भाग में रहने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है।
19.    हिंसाकर्ता उस मकान को न तो बेच सकता है न उस पर ऋण ले सकता है न ही किसी के नाम से हस्तांतरित कर सकता है।
20.     न्यायालय पीड़िता की मांग पर उसे उसके बच्चों को अभिरक्षा में देने का अस्थायी आदेश दे सकता है।
21.    पीड़िता की रिपार्ट से न्यायाधीश यह समझते हैं कि हिंसाकर्ता के बच्चे से मिलने/भंेट करने से खतरा उत्पन्न हो सकता है तो वह हिंसाकर्ता को कहीं भी बच्चों से नहीं मिलने का ओदश दे सकते हैं।
22.    पीड़िता और उसके बच्चों का भरण-पोषण, चिकित्सीय खर्च, कपड़े, हिंसा की वजह से हुए किसी सम्पत्ति का नुकसान या हटाए जाने के कारण हुए नुकसान का मुआवजा देने का ओदश देगा।
23.    अदालत मानसिक यातना और भावनात्मक पीड़ा जो रिस्पॉडेंट द्वारा घरेलू हिंसा के कृत्यों द्वारा पहुंचायी गई है उसकि क्षतिपूर्ति और जीविका की क्षतिपूर्ति का भुगतान करने के लिए दोषी को आदेश दे सकेगी।
24.    सुरक्षा की दृष्टि से या अन्य कारणों से यदि पीड़िता अपने परिवार के साथ रहना नहीं चाहती है, तो ऐसी स्थिति में राज्य शासन निःशुल्क आश्रय की सुविधा उपलब्ध करायेगा।
25.    शासन द्वारा अधिकृत चिकित्सा सुविधा प्रदाता पीड़िता की प्रार्थना/आवेदन पर चिकित्सा सहायता उपलब्ध करायेगा
26.    घरेलू हिंसा की रिपोर्ट न दर्ज होने पर भी चिकित्सा सहायता या परीक्षण के लिए चिकित्सक मना नहीं करेगा और उसकी रिपोर्ट स्थानीय पुलिस थाना एवं संरक्षण अधिकारी (परियोजना अधिकारी, महिला एवं बाल विकास) को भेजेगा।
27.    ’’घरेलू हिंसा’’ का अर्थ मामले के सम्पूर्ण तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करके निकाला जाएगा ।
28.    अधिनियम के अंतर्गत एक पक्षीय अंतरिम आदेश न्यायालय तत्काल पारित कर सकता है ।
29.    अधिनियम के अंतर्गत पारित आदेश के विरूद्ध 30 दिन के अंदर व्यथित पक्षकार सत्र न्यायालय में अपील कर सकता है ।
30.    अधिनियम के अंतर्गत अपराध सज्ञेय एंव अजामनतीय है ।
31.     अधिनियम के अंतर्गत पारित आदेश के पालन हेतु पुलिस सहायता दी जा सकती है ।
32.    पुलिस में घरेलू हिंसा की रिपोर्ट किये जाने पर यदि भारतीय दण्ड संहिता या अन्य विधि के अधीन किया गया अपराध प्रकट होता है तो नियमानुसार पुलिस द्वारा कार्यवाही की जाएगी ।
33.    यदि पुलिस को घरेलू ंिहंसा की जानकारी मिलती है तो वे तत्काल घटना स्थल पर जाएगें और घरेलू दुर्घटना की रिपोर्ट तैयार करेगें ।
34.     इस अधिनियम के अधीन समुचित आदेश प्राप्त करने के लिए उस रिपोर्ट को पुलिस द्वारा अविलम्ब मजिस्ट्रेट को भेजी जाएगी ।
35.    संरक्षण अधिकारी के द्वारा कर्तव्य का निर्वाहन न करने पर उसे दण्डित किये जाने के प्रावधान है ।
36.    अधिनियम में पीडिता को निःशुल्क विधिक सहायता दिलाये जाने का प्रावधान भी किया गया है ।
37.    अधिनियम के प्रावधान प्रचलित विधियो के अतिरिक्त होगे उनके अन्यूनीकरण नहीं करेंगे ।
                सरकार के कर्तव्य
        इस अधिनियम में न केवल पुलिस अधिकारी, सरंक्षण अधिकारी, सेवा प्रदाता, मजिस्ट्रेट पर कर्तव्य अधिरोपित किये गये हैं । बल्कि राज्य सरकार और केन्द्र सरकार पर भी कर्तव्य अधिरोपित किये गये है ।जो निम्नलिखित है-
01.    ऐसे उपाय करना जिससे इस अधिनियम के उपबंधो का जन संचार के माध्यम से व्यापक प्रचार हो सके जैसे टेलीविजन, रेडियों और प्रिंट मिडिया के माध्यम से नियमित अंतराल में प्रचार करना ।
02.    पुलिस अधिकारी और न्यायिक सेवा के सदस्यों को जो इस अधिनियम से संबंधित है उन्हें समय समय पर प्रशिक्षण देना ताकि वे अधिनियम से संबंधित विषयो की जानकारी और उनके बारे में संवेदनशील हो सके ।
03.    विभिन्न मंत्रालयों के बीच प्रभावी समन्वय स्थापित करना जो कि इस अधिनियम से संबंध रखते है ।
04.    यह देखना की महिलाओ को इस अधिनियम के अधीन उपलब्ध सेवाएं मिल सके इसके लिए विभिन्न मंत्रालयों में प्रोटोकाल की व्यवस्था और न्यायालय स्थापित करना शामिल है ।
        मध्य प्रदेश शासन के द्वारा महिला एंव बाल विकास विभाग मंत्रालय, भोपाल ने दिनांक 09 जनवरी 2007 के आदेश द्वारा विकास खण्ड/परियोजन स्तर पर शहरी और ग्रामीण आदिवासी परियोजनाओ के बाल विकास परियोजना अधिकारियों को संरक्षण अधिकारी नियुक्त किया है जहां बाल विकास परियोजना स्वीकृत नहीं है उन क्षेत्रो में जिला कार्यक्रम अधिकारी/जिला महिला एंव बाल विकास अधिकारी को संरक्षण अधिकारी नियुक्त किया है ।
        घरेलू हिंसा में महिलाओ का संरक्षण नियम 2006 के अंतर्गत बनाये गये नियम में संरक्षण अधिकारी के निम्नलिखित कर्तव्य बताये गये है-
01.    पीडिता की ओर से घरेलू हिंसा की रिपोर्ट प्रारूप 1 मे तैयार करना और स्थानीय पुलिस थाना सेवा प्रदाता, विधिक सहायता अधिकारी एंव मजिस्ट्रेट को भेजना ।
02.    पीडित व्यक्ति के अनुरोध पर आश्रय गृह एंव चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करवाना।
03.    कोर्ट आने जाने, आश्रय गृह आदि के लिए परिवहन की निःशुल्क व्यवस्था उपलब्ध करवाना ।
04.    न्यायालय में आवेदन फाईल करने के लिए भारत सरकार के निर्धारित प्रारूप 2,3, एंव 5 में आवेदन तैयार करने में सहयोग करना ।
05.    पीडित व्यक्ति को राज्य विधिक सहायता प्राधिकरण द्वारा निःशुल्क सहायता उपलब्ध करवाना ।
06.    न्यायालय के संमस/नोटिस तामील करवाना।
07.    मजिस्ट्रेट के निर्देश पर घरेलू हिंसा की घटना की जांच कर रिपोर्ट देना ।
        इस प्रकार संरक्षण अधिकारी मजिस्ट्रेट और पीडिता के बीच की कडी के रूप में कार्य करेगा और उसकी जिम्मेदारी है कि वह सभी कानूनी सहायता निःशुल्क पीडित महिला और उसके बच्चो को प्रदान करे एंव उनकी सुरक्षा का भी ध्यान रखे ।
        अधिनियम के अंतर्गत पीडिता शिकायत सीधे क्षेत्रीय मजिस्ट्रेट के पास, स्थानीय पुलिस थाना, संरक्षण अधिकारी परियोजना अधिकारी, महिला एंव बाल विकास विभाग, सेवा प्रदाता-पुलिस परिवार परामर्श केन्द्र एंव पंजीकृत आश्रय गृह में कर सकती है।
                उषा किरण योजना
        मध्य प्रदेश शासन के द्वारा घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम  2005 एंव घरेलू हिंसा में महिलाओ का संरक्षण नियम 2006 के अंतर्गत  एक नये विश्वास की किरण जगाते हुए उषा किरण योजना पारित हुई है जिसमें पीडिता को अधिनियम एंव नियमो के प्रावधान के तहत सभी सहायता निःशुल्क उपलब्ध कराई जाएगी ।

        अब कानून से सुरक्षा शोषण के विरूद्ध और चुप्पी तोडो घरेलू हिंसा के खिलाफ अपनी आवाज उठाओ । जैसे नारे बुलन्द करते हुए मध्य प्रदेश सरकार के द्वारा 1091 टोल फ्री नंबर पर घरेलू हिंसा की तत्काल शिकायत किये जाने की सलाह देते हुए उषा किरण योजना बनाई गई है । जिसमें निःशुल्क विधिक सहायता पीडिता को हर प्रकार की दी गई है ।
                         उमेश कुमार गुप्ता
                   


रविवार, 18 अगस्त 2013

सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय

                             सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय
                                                                  

                                             सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय  का आशय आम तौर पर समाज में लोगो के मध्य समता, एकता, मानव अधिकार, की स्थापना करना है तथा व्यक्ति की गरीमा को विशेष महत्व प्रदान करना है ।

                                          यह मानव अधिकार और समानता की अवधारणाओं पर आधारित है और प्रगतिशील कराधन, आय, सम्पत्ति के पुनर्वितरण, के माध्यम से आर्थिक समतावाद लाना सामाजिक न्याय का मुख्य उद्देश्य हैं ।
                          भारतीय समाज में सदियों से सामाजिक न्याय की लडाई आम जनता और शासक तथा प्रशासक वर्ग के मध्य होती आई है । यही कारण हे कि इसे हम कबीर की वाणी बुद्ध की शिक्षा, महावीर की दीक्षा, गांधी की अहिंसा, सांई की सीख, ईसा की रोशनी, नानक के संदेश में पाते हैं ।

        सदियों से मानव सामाजिक न्याय को प्राप्त करने भटकता रहा है और इसी कारण दुनिया में कई युद्ध, क्रांति, बगावत, विद्रोह, हुये हैं जिसके कारण कई सत्ता परिवर्तन हुए हैं ।
                                   जिन राज्यों और प्रशासकों ने सामाजिक न्याय के विरूद्ध कार्य किया उनकी सत्ता हमेशा क्रांतिकारियों के निशानों में रही है । इसलिए प्रत्येक शासक ने अपनी नीतियों मे सामाजिक न्याय को मान्यता प्रदान की है । इसे हम चाणक्य की राजनीति, अकबर की नीतियों, शेरशाह सूरी के सुधारों, में देखते हैं ।
 
        हमारा भारतीय समाज पहले वर्ण व्यवस्था पर आधारित था जो धीरे  धीरे बदलकर जाति व्यवस्था मं परिवर्तित हो गया, उसके बाद असमानता, अलगाववाद, क्षेत्रवाद, रूढीवादीता, समाज में उत्पन्न हुई जिसका लाभ विदेशियों के द्वारा उठाया गया और ‘‘फूट डालो और राज्य करों’’ की नीति अपनाकर भारत को एक लम्बी अवधि तक पराधीन रखा। 

        लेकिन लोगो की एकता अखण्डता और भाईचारे की भावना से आजादी की लडाई लडने पर भारत 15 अगस्त सन् 1947 को आजाद हुआ और उसके बाद भारत में सामाजिक न्याय की स्थापना, व्यक्ति का शासन, सोच की स्वतंत्रता, भाषण प्रेस की आजादी, संघ बनाने की स्वतंत्रता हो, इसके लिए सर्वोच्च कानून बनाये जाने की आवश्यकता समझी गई और डाॅ.राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में संविधान सभा का गठन किया गया जिसमें डा. बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर जैसे महान् व्यक्तित्व को मसौदा समिति का अध्यक्ष मनोनीत किया गया । 

        संविधान सभा की कई बैठको के बाद भारत के संविधान की रचना की गई, जो विश्व का सबसे बडा, लिखित, अनूठा, संविधान है जिसमें सामाजिक न्याय को सर्वोच्चता प्रदान की गई है । यह दुनिया का सामाजिक न्याय को दर्शित करने वाला एक प्रमाणिक अभिलेख है ।

        हमारे संविधान मं सामाजिक और आर्थिक न्याय की गारंटी समस्त नागरिकों को तथा जीवन जीने की गारंटी प्रत्येक व्यक्ति को दी गई है। सामाजिक न्याय का मुख्य उद्देश्य व्यक्तिगत हित और सामाजिक हित के बीच सामान्जस्य स्थापित करना है । इसलिए कल्याणकारी राज्य की कल्पना संविधान निर्माताओं ने की है। बहुजन हितांयैं, बहुजन सुखांयै को ध्यान में रखते हुये समाजवादी व्यस्था स्थापित की गई है ।

        भारतीय समाजवाद अन्य राष्ट् के समाजवाद से अलग है । यहां पर सत्ता समाज में निहित रहती है, परन्तु उसका उपयोग समाज के हित के लिए हो इसलिए सरकार नियंत्रण रखती है । सामाजिक न्याय के लिए संविधान में जो प्रावधान दिये गये हैं उनका मुख्य उद्देश्य वितरण की असमानता को दूर करना तथा असमानों में संव्यवहारों में असमानता को दूर करना व कानून का प्रयोग वितरण योग साधन के रूप में समाज में धन का उचित बटवारां करने में किया जाये। इसका विशेष ध्यान रखा गया है ।

         हमारे संविधान की उद्देशीयका संविधान का आधारभूत ढांचा है । जिसमें सामाजिक, आर्थिक राजनैतिक न्याय प्रदान किये जाने की गारंटी प्रदान की गई है । इसके लिए भारतीय संविधान के भाग-3 में मौलिक अधिकार दिये गये हैं । भाग-4 में राज्यों को नीतिनिदेशक तत्व बताये गये है, जो राज्य की नीति का आधारस्तम्भ बताये गये हैं ।

                                       लेकिन सामाजिक, आथर्क और राजनीतिक न्याय प्रदान किये जाने संबंधी उपरोक्त संवैधानिक उपबंध केवल संविधान के ‘‘आइना’’ में छबि बनकर रह गये हैं। लोगो का जीवन स्तर निम्न है, गरीबी, बेकारी, भुखमरी, अशिक्षा, अज्ञानता व्याप्त है । आर्थिक सामनता, सामाजिक न्याय आम जनता से कोसो दूर है ।  

                                           आज हमारे देश में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय प्राप्त करना आम जनता के लिए परीलोक की कहानी है। सामाजिक न्याय चुनावी मरूस्थल में मृगतृष्णा के रूप में जनता को दिखाया जाता है ।सभी राजनैतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्र सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय प्रदान किये जाने के नारे से भरे रहते हैं, लेकिन कोई भी दलगत जातिगत, व्यक्तिगत राजनीति से उठकर देशहित में न्याय प्रदान नहीं कर पाता है ।

                                             देश की अधिकाशं जनता, गांव में रहती है । गांव में आज भी आजादी के 65 साल बाद भी बिजली, पानी, सडक, की सुविधाओं का अभाव हैं । देश की आधी आबादी लगभग अशिक्षित अल्पशिक्षित, अर्द्धशिक्षित है । 30 प्रतिशत लोग गरीबी का जीवन जी रहे हैं । एक समय का भोजन भी उनके लिए नसीब नहीं है । आज भी गावं की अधिकाश आबादी दिशा मैदान को जाती है । 

                                          गांव में स्वास्थ्य, शिक्षा, जैसी बुनियादी सुवधिओं का अभाव है । देश के गावों में लोगो का जीवन स्तर निम्न है मनोरंजन साधनो का  अभाव है, अधिकांश लोग गांव में आज भी जुआ, शराब, को मनोरंजन का साधन समझते हैं । गांव में पानी लाने आज भी मीलो जाना पडता है । घरों में फ्लेैश लेट्र्नि नहीं है लोग खुले आम जानवरों की तरह निस्तार करने मजबूर है ।

                                                  देश के ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का अभाव है ।  लोगो को पढने के लिए कोसो मील दूर जाना पडता है । बीमार पडने पर घंटो बाद शहरो में स्वास्थ्य सुविधाएं मिलती है तब तक अनेक लोग रास्ते में दम तोड चुके होते हैं । 

                                                           देश में अधिकाशं गांव को जोडने वाली पक्की सडक नहीं है शहर में सडक की यह स्थिति है कि मर्द को भी प्रसुति दर्द का एहसास करा देती है। बिजली नाम के लिए आती है केवल मोहनी के रूप में दर्शन देकर चली जाती है जिसके कारण लाखों हेक्टेयर खेती असिंचित रह जाती है । किसानों को समय पर बिजली, खाद, बीज, पानी नहीं मिलता है उसके उपर से प्राकृतिक आपदा भी सहन करनी पडती है । जिसके कारण कई किसान कर्ज न चुका पाने के कारण आत्म हत्या करते है ।        

                                                   देश में आर्थिक न्याय का यह हाल है कि गरीब और गरीब अमीर और अमीर होता जा रहा है । शेयर बाजार, देश के व्यापार, व्यवसाय पर बडे व्यापारी    उद्योगपति औद्योगिक घरानो का राज्य है । सरकार का अतिआवश्यक वस्तुओ दाल, शक्कर, आटा के बाजार भाव  नियंत्रण नहीं है । महगाई आसमान छू रही है । पेट्ोल, डीजल, जैसे अति आवश्यक वस्तुओ के दाम सरकार के नियंत्रण के बाहर है । 

                                          शेयर बाजार में कम दाम पर कम्पनी के आई.पी.ओ. निकाले जाते हैं बाद में उनकी कीमते बढा दी जाती है । जब उन शेयरों की कीमत बढ जाती है तो वहीं कम्पनियां दूसरो से खरीदवाकर उन्हें बाद में बेचकर अधिक पंूजी जुटाकर कर शेयरों की कीमत कम कर देती है । जिससे लोगों की मेहनत मजदूरी की पूंजी डूब जाती है जिस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है ।

   

                            उमेश कुमार गुप्ता

                  

बुधवार, 14 अगस्त 2013

भारत में निम्न दो विधि पुस्तके प्रकाशित हुई.
1 ब्वदेपमतंजपवद वद भ्पदकन स्ंू य1824द्ध इल थ्तंदबपे डंमबदंहजपवदण्
2 क्पेेमतजंजपवद वद डवींउउमकंद स्ंू य1825द्ध इल ॅपससपंउ डंमबदंनहीजपवद
भारत में प्रतिवेदनों को निम्न प्रकार से उल्लिखित किया जा सकता है.
1ण् डवतजवदे त्मचवतजे 1774ण्1781
2ण् ठपहदमससे त्मचवतजे 1830ण्1831
3ण् थ्ंनसजवदे त्मचवतजे 1842ण्1844
4ण् डवदजतपवनश्े त्मचवतजे 1846
5ण् ठवनसदपवने त्मचवतजे 1853ण्1859
6ण् ळंेचमतश्े ब्वउउमतबपंस ब्ंेमे 1851ण्1860
7ण् ळमवतहम ज्ंलसवतश्े त्मचवतज व िब्ंेमे 1847ण्1848
8ण् ळंेचमतश्े त्मचवतजे व िैउंसस बंनेमे
9ण् च्मततल व्तपमदजंस ब्ंेमे क्मबपेवदे व िठवउइंल भ्पही ब्वनतजण्
10ण् डवतजमलश् क्पहमेजण्



विभाजन संबंधी दावो में प्रारंभिक आज्ञप्ति - अंतिम आज्ञप्ति

        विभाजन संबंधी दावो में प्रारंभिक आज्ञप्ति पारित होने  के पश्चात से अंतिम आज्ञप्ति पारित होने तक की कार्यवाही

                                                               सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा-2-की उपधारा-2 जिसे आगे संहिता से संबोधित किया गया है, उसके अनुसार डिक्री से अभिप्राय ऐसे न्याय निर्णयन की प्ररूपित अभिव्यक्ति है जो जहां तक कि वह उसे अभिव्यक्त करने वाले न्ययालय से संबंधित है । वाद में के सभी या किन्हीं विवादग्रस्त विषयों के संबंध में पक्षकारो के अधिकारों का निश्चायक रूप से अवधारण करता है और वह या तो प्रारंभिक या अंतिम हो सकेगी ।

                                             डिक्री तब प्रारंभिक होती हे जब वाद के पूर्ण रूप से निपटा दिए जा सकने से पहले आगे और कार्यवाहियां की जानी है वह तब अंतिम होती है जब कि ऐसा न्यायनिर्णयन वाद को पूर्ण रूप से निपटा देता है । 

                                          डिक्री अपील योग्य होती है । अतः संहिता की धारा-97 के अनुसार जहां इस संहिता के प्रारंभ के पश्चात पारित प्रारम्भिक डिक्री से व्यक्ति केाई पक्षकार ऐसी डिक्री की अपील नहीं करता है वहां वह उसकी शुद्धता के बारे में अंतिम डिक्री के विरूद्ध की गई अपील में विवाद करने से प्रवारित रहेगा ।

                                          विभाजन संबंधी दावो में प्रारंभिक आज्ञप्ति पारित होने की स्थिति- संहिता के आदेश 20 नियम 18 के अनुसार जब न्यायालय सम्पत्ति के विभाजन के लिए या उनमें के अंश पर पृथक कब्जे के लिए वाद में डिक्री पारित करता है तब सम्पत्ति के भेद के आधार पर डिक्री पारित करता है ।
   
   1.    वह सम्पत्ति जिस पर सरकार द्वारा राजस्व निर्धारित किया गया है
    2.    वह सम्पत्ति जिस पर विभाजन बिना अतिरिक्त जांच के नहीं किया     जा सकता । 


        यदि सम्पत्ति का राजस्व निर्धारित किया गया है तो न्यायालय डिक्री की सम्पत्ति में हितबद्ध पक्षकार के अधिकारो की घोषणा डिक्री में करेगा, और यह निर्देश दिया जायेगा कि धारा-54 के प्रावधानोे के अनुसार सम्पत्ति का विभाजन या पृथककरण कलेक्टर द्वारा या उसके द्वारा प्रतिनियुक्त राजपत्रित  अधीनस्थ अधिकारी के द्वारा किया जाएगा ।

        इस संबंध में संहिता की धारा-54 अवलोकनीय है जिसके अनुसार -जहां डिक्री किसी ऐसी अविभक्त सम्पदा के विभाजन के लिए है, जिस पर सरकार को दिए जाने के लिए राजस्व निर्धारित है, या ऐसी सम्पदा के अंश के पृथक कब्जे के लिए है वहां सम्पदा का विभाजन या अंश का पृथक्करण कलेक्टर के ऐसे किसी राजपत्रिक अधीनस्थ द्वारा जिसे उसने इस निमित्त प्रति नियुक्त किया हो ऐसी सम्पदाओ के विभाजन या अंशों के पृथक् कब्जे से संबंधित  तत्समय प्रवृत्त विधि यदि कोई हो के अनुसार किया जाएगा । 

        दूसरी दशा में अन्य स्थावर या  सम्पत्ति के संबंध में जिसका विभाजन या पृथककरण सुविधापूर्वक नहंी किया जा सकता है। वहा पर न्यायालय का कर्तव्य है कि वह-

    1    उस सम्पत्ति से संबंधित पक्षकारो के अधिकारो की घोषणा करने वाली प्रारंभिक डिक्री पारित की जायेगी जिसमें
    2    अतिरिक्त जांच करने के लिए या जो अपेक्षित हो वैसे निर्देश दिये जावेगें ।
       
न्यायालय आदेश 26 नियम 13 के अंतर्गत स्थावर सम्पत्ति के विभाजन अथवा पृथककरण के लिए कमीशन निकाल सकता है । जिसके संबंध में प्रावधान निम्नलिखित है - 

1-    जहां विभाजन करने के लिए प्रारंभिक डिक्री पारित की गई है वहां न्यायालय किसी भी मामले में जिसके लिए धारा 54 द्वारा उपबन्ध नहीं किया गया है, ऐसी डिक्री में घोषित अधिकारो के अनुसार विभाजन या पृथककरण करने के लिए ऐसे व्यक्ति के नाम जिसे वह ठीक समझे कमीशन निकाल सकेगा ।
2-    न्यायालय द्वारा कमीशन निकाले जाने के बाद कमीश्नर आदेश 26 नियम 14 के अनुसार जांच की प्रक्रिया अपनायेगा जो निम्नलिखित है । 

आदेश 26 नियम 14 उपनियम 1 के अनुसार

    1    कमिश्नर ऐसी जांच करने के पश्चात जो आवश्यक हो, सम्पत्ति को उतने अंशो में विभाजित करेगा जितने उस आदेश द्वारा निर्दिष्ट हो जिसके अधीन  कमीशन निकाला गया था ।
    2    ऐसे अंशो का पक्षकारो में आवंटन कर देगा
    3    और यदि उसे उक्त आदेश द्वारा ऐसा करने के लिए प्राधिकृत किया जाता है तो वह अशों के मूल्य को बराबर करने के प्रयोजन के लिए दी जाने वाली राशियां अधिनिर्णीत कर सकेगा ।

आदेश 26 नियम 14 उपनियम 2 के अनुसार-

    1    तब हर एक पक्षकार का अंश नियत करके और यदि उक्त आदेश द्वारा ऐसा करने के लिए निर्देश दिया जाता है तो हर एक अंश को माप और सीमांकन करके कमिश्नर अपनी रिपोर्ट तैयार और हस्ताक्षरित करेगा ।
       2    या जहां कमीशन एक से अधिक व्यक्तियों के नाम निकाला गया था और वे परस्पर सहमत नहीं हो सके है वहां कमिश्नर पृथक पृथक रिपोर्ट तैयार करेगे और हस्ताक्षरित करेंगे ।
    3    ऐसी रिपोर्ट या ऐसी रिपोर्टे कमीशन के साथ उपाबंध की जाएगी और न्यायालय को प्रस्तुत की जाएगी।
    4    और पक्षकार जो कोई आक्षेप रिपोर्ट या रिपोर्टो पर करे न्यायालय उन्हे सुनने के पश्चात से या उन्हें पृष्ट करेगा उसमें या उनमें फेरफार  करेगा या उसे या उन्हे अपास्त करेगा ।

आदेश 26 नियम 14-उप नियम-3 के अनुसार

    1    जहां न्यायालय रिपोर्ट या रिपोर्टो को पुष्ट करता है ।
    2    या उसमें या उनमें फेरफार करता है ।
    3    वहां वह उसके पुष्ट या फेरफार किए गए रूप के अनुसार डिक्री पारित करेगा ।
    4    किन्तु जहां न्यायालय रिपोर्ट या रिपोर्टो को अपास्त कर देता है वहां वह या तो नया कमीशन निकालेगा
    5    या ऐसा अन्य आदेश करेगा जो वह ठीक सकझे । 


                                            इस प्रकार किसी भी विभाजन के बाद में दी गई  प्रारम्भिक डिक्री में घोषित अधिकारों के अनुसार विभाजन या पृथक्करण के लिए न्यायालय जिसे उचित समझे, आयुक्त नियुक्त कर सकेगा, जो नियम 14 के अनुसार कार्यवाही करेगा । उसकी रिपोर्ट में परिवर्तन या पुष्टि करने के बाद अंतिम डिक्री पारित की जावेगी।

                            आयुक्त के प्रस्ताव उसी रूप में पक्षकारो पर बाध्य कर नही है। आदेश 26 नियम 10 तथा 12 के विपरीत नियम 14 में इसलिए इस बात पर जोर नहीं दिया गया है कि आयुक्त की रिपोर्ट वाद में स्वतः ही साक्ष्य के एक भाग का रूप बन जाएगी और इसी कारण नियम 14 न्यायालय को आयुक्त की रिपोर्ट को पुष्ट करने, बदलने या अपास्त करने और नया आयुक्त भी जारी करने की विशिष्ट शक्ति प्रदान करता है 

न्यायालय का कर्तव्य और कार्य है कि

1-.    यदि किसी पक्षकार के अधिकार और हिस्से की बावत प्रारंभिक             डिक्री     में घोषणा नहीं की जाती हे तो ऐसी दशा में आयुक्त वादगत         सम्पत्ति में     से ऐेसे पक्षकार के हिस्से का विभाजन या पृथक् रूप         से आवंटन करने के     लिए तब तक सक्षम नहीं होगा जब तक कि         अपील या पुनर्विलोकन में     प्रारंभिक डिक्री में उस आशय का             विनिर्दिष्ट रूप से उपान्तरण ना कर दिया     गया हो ।

2-     यदि पक्षकारो के अंशो को     घोषित करते हुये प्रारभिक डिक्री पारित         की गई । विभाजन आयुक्त को     उक्त संपति कापक्षकारों के वीच         करार के आधार पर विभाजन बंटवारा करने के लिये आवश्यक             कदम उठाने के लिये कहा गया। ऐसे करार पर     ध्यान दिये बिना         आयुक्त की  रिपोर्ट  शून्य व अकृत है,
3-    विभाजन आयुक्त   न्यायालय की इच्छाओं के विपरीत रिपोर्ट प्रस्तुत         करता है तो ऐसी रिपोर्ट पर  अंतिम डिक्री पारित नहीं कि जा             सकती।

अंतिम डिक्री पारित करनेके पूर्व न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह देखेकि-

1-    जब तक पक्षकारो के स्थल पर अधिकारो का अवधारण निर्णय करने         वाली     डिक्री     पारित नहीं हो जाती और वह स्टांप पेपर पर नहीं         बन जाती तब तक कोई निष्पादन योग्य डिक्री अस्तित्व में नहीं             आती ।            
2-    बिना स्टांप पेपर के अंतिम     डिक्री नहीं बन सकती ।
3- उपरोक्त दोनों शर्ते पुरी होने पर आदेश 20 उपनियम 18 के अर्तंगत         अंतिम  डिग्री पारित होती है।
4- परिसीमा अंतिम डिक्री स्टांप पेपर पर बल जाने के बाद ही प्रारंभ             होती है ।
          मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा ए0आई0आर0  सु0को0 1211 श्ंाकर बलवंत लोखण्डे मृतक विरूद्ध एल0आर0 एस0चन्द्रकांन्त शंकर लोखण्डे व अन्य  में अभिनिर्धारित किया है कि यही दोनो कार्य एक         अंतिम डिक्री का गठन करते हैं ।
5-    यदि विभाजन के बाद में इच्छापत्र के अधीन सम्पत्ति का व्ययन         किया जाता है तो इच्छा पत्र के वैधता की जांच उसी न्यायालय         द्वारा की जाएगी
6-    जहां कृषि भूमि का अन्य सम्पत्तियों के विभाजन के लिए वाद लाया         जाता है, वहां डिक्री को तब तक प्रारंभिक डिक्री समझी जाएगी,         जब तक कि उस कृषि भूमि का विभाजन करके कब्जा न दे दिया         जाये ।

 7-    जब एक बार प्रारंभिक डिक्री पारित कर दी गई, तो न्यायालय उस         वाद को व्यतिक्रम के कारण खारिज नहीं कर सकता।
    8-    यदि वादी प्रारंभिक डिक्री पारित करने के बाद कोई कदम नहीं             उठाता है तो न्यायालय अनिश्चितकाल के लिए कार्यवाही को             स्थगित कर     सकता है और संबंधित पक्षकारों को यह छूट दे             सकता है कि वे उचित कार्यवाही कर उस वाद को सक्रिय करें ।
    9-    विभाजन वाद में प्रारंभिक डिक्री द्वारा निर्णीत बातों पर पक्षकारों को         विबन्ध का सिद्धांत लागू होगा और वे किसी दूसरे वाद में उन             बिन्दुओं को     पूर्व न्याय के सिद्धांत से वर्जित होने के कारण नही         उठा सकेंगे ।
    10-    सम्पत्ति में वादी को उसके अंश भाग का कब्जा देने के लिए             भुगतान करने की शर्त प्रांम्भिक डिक्री में दी गई थी । अतः जब         तक सम्पत्ति के विभाजन की अंतिम डिक्री पारित नहीं हो जाती,         इस शर्त के अनुसार     प्रारंम्भिक डिक्री का निष्पादन नहीं हो सकता
    11-    प्रारंम्भिक डिक्री की शर्त के अनुसार अंतिम डिक्री पारित करने के         लिए देरी से किया गया आवेदन वर्जित नहीं है ।
    12-    एक विभाजन वाद में पक्षकारो के अंशों का निर्धारण उस दिनांक         को किया जावेगा, जिस दिनांक को प्रारंम्भिक डिक्री पारित की गई         है ।
    13-    यदि उस दिनांक को एक सहदायिकी का आधा अंश एक नीलाम         क्रेत द्वारा खरीद लिया गया तो वह नीलाम क्रेता उस आधे अंश के         लिए     डिक्री अपने पक्ष में करवाने का हकदार होगा ।
  14-.    विभाजन वाद में अंतिम डिक्री प्रारंभिक डिक्री में संशोधन नहीं कर         सकती और न उसकी पृष्ठभूमि में जा सकती है , जो मामले उस         प्रारंभिक डिक्री में तय किये जा चुके है उन पर पुनः विचार नहीं         किया जा सकता ।
    यह सिद्वांत ए0आई0आर0 1977 सु0को0 292 एम0अययना बनाम         एम0जुग्गारा में अभिनिर्धारित किया गया है।
    15-    यदि .विभाजन वाद में प्रारंम्भिक डिक्री अंतः कालीन लाभों के बारे में         शांत     है, फिर भी अंतिम डिक्री तैयार करते समय अन्तः कालीन         लाभो के बारे में निर्देश दिया जा सकता है यद्यपि वाद पत्र में             इसके लिए कोई प्रार्थना ना की गई हो।
    16-    .सम्पत्ति के अंग भागीदारो की अपनी सम्पत्ति है और वे उन अंशों         को वादी के पक्ष में अभ्यर्पित कर सकते है । अतः जहां एक वाद में         भागीदारो ने अपने अंशों का अभ्यर्पण कर दिया तो न्यायालय को         विभाजन वाद के विचारण में उसे प्रभावशील करना होगा । यह             सिद्वंात ए0आई0आर0 1977 सु0को02027 अनार कुमारी बनाम जमुना         प्रसाद में अभिनिर्धारित किया गया है।
     17-    .वादी एक हिन्दू संयुक्त कुटुम्ब के सदस्य के रूप में प्रतिवादियों
        द्वारा     प्राप्त किये गये लाभों के बारे मंे जांच करने के लिए अंतिम         डिक्री की तैयारी के प्रक्रम पर पर आवेदन करने के लिए हकदार         होगा, क्योंकि विभाजन के लिए प्रत्येक वाद उसके संस्थित करने के         दिनांक को लेखे के लिए वाद भी होता है ।

   18-.    ऐसी जांच की मांग करना पक्षकारो के बीच समस्याआंे के समाधान         के लिए आवश्यक है । अतः यह न्यायालय के विवेकाधिकार के             भीतर है कि प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर         ऐसी प्रार्थना की अनुमति दे ।
    19-    विभाजन वाद में पारित की गई अंतिम डिक्री का निष्पादन होगा ।         समझौता कर लेने से पक्षकार अंतिम डिक्री के निष्पादन से और         सम्पत्ति पर कब्जे के परिदान से वंचित नहीं हो जाते ।
     20-    .प्रारंभिक डिक्री पारित करने के बाद अपील का केवल लंबित             रहना विचारण न्यायालय को पक्षकारों के पक्षान्तरण तथा व्यक्तिगत         अंशों के निर्धारण करने के लिए आवेदन ग्रहण करने के लिए कोई         बाधा नहीं करेगा।
      21-    .आवेदन परिसीमा अधिनियम के किसी उपंबध से शासित             नहीं होता । ऐसा आवेदन  लंबित वाद मंे एक आवेदन के रूप             में जाना जाएगा इसलिए, परिसीमा का कोई प्रावधान  लागू नहीं         होगा।
     22-     यदि संयुक्त परिवार की संपति में दो भाईयों का बराबर हिस्सा है         और विभाजन इस शर्त पर होगा कि इस बंधक का मोचन करवाया         जावेगा ।अतः पहले     प्रारंभिक डिक्री दो हिस्सो के विभाजन की             होगी और अंतिम डिक्री पारित करने से पहले वाला ऋृण चुका कर         बन्धक का मोचन करवा सकेगा।

 23-    यदि परिवार की संपतियों के विभाजन के समय अवयस्क रहे सदस्य         ने वयस्क होने पर विभाजन के लिये और अपने हिस्से की संपति         का अलग से     कब्जा दिलाने के लिये वाद किया, परन्तु आवश्यक         न्यायालय फीस देकर विभाजन प्रलेख को रद्द करवाने की प्राथर््ाना         नहीं की ऐसी     स्थिति में विभाजन प्रलेख को अभिखडिंत नहीं किया         जा सकता ।
    24-     विभाजन के बाद का किरायेदार पर कोई प्रभाव नहीं पडता है यदि         वाद में किरायेदार को भी पक्षकार बनाया जाए     परन्तु विभाजन         डिक्री     पारित करने के बाद भी किरायेदार के कब्जे में हस्तक्षेप नहीं         किया जा सकता । इसके लिये किराया नियेत्रण विधि के अधीन         बेदखली की     कार्यवाही फाइल करनी होगी ।
    25-     यदि यह साबित नहीं किया गया कि अवयस्क की संपत्ति             उसके कल्याणके लिये या संयुक्त कुटुम्ब की विधिक आवश्यक्ता के         लिये     निधि फण्ड बनाने के लिये काम में ली गई । ऐसी स्थिति में         अवयस्क वादियों की और से उनकी माता द्वारा फाइल किया गया         विभाजन वाद     संधारणीय है ।
    26-    यदि संयुक्त     परिवार की     संपत्ति का कुछ भाग अनुसूचि में             शामिल नहीं किया गया ऐसा वाद खारिज किये जाने योग्य है।
        इस प्रकार प्रारभिंक डिक्री से अंतिम डिक्री पारित होने के मध्य सहिंता के आदेश 20 नियम 18 आदेश 26 नियम 13, 14 और धारा 54 के प्रावधानो के अनुसार कार्यवाही की जाती है

                                उमेश कुमार गुप्ता