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सोमवार, 5 अगस्त 2013

ए.आई.आर. 2007 सुप्रीम कोर्ट 71 एम. नागराज विरूद्ध भारतसंघ

1-        ए.आई.आर. 2007 सुप्रीम कोर्ट 71 एम. नागराज विरूद्ध भारतसंघ के मामले में 5 जजों की खण्डपीठ में इन्टरपुटेषन पर सिद्धांत अभिनिर्धारित किया है और मूल अधिकारों के संबंध में अभि निर्धारित किया है कि अधिाकर के साथ ही साथ उसको प्रदान किये जाने संबंधी प्रावधान भी दिये गये हैं और प्रस्तावना संविधान का भाग है । संविधान संषोधन की व्याख्या की जा सकती है जो मूल अधिकारों के विपरीत होने से अपास्त की जा सकती है और आरक्षण के बिन्दु पर चर्चा की गई है ।

2-        ए.आई.आर. 2007 सुप्रीम कोर्ट 861में 10 जजों की खण्डपीठ में संविधान की व्याख्या करते हुये अभिनिर्धारित कियाहै कि अनुच्छेद 32 के अंतर्गत न्यायिक पुनर्विलोपन संवैधानिक संविधान के मूल ढाचें में और इसलिए अनुच्छेद 32 में किसी प्रकार का प्रावधान कोई भी कानून नहीं किया जा सकता है। अनुच्छेद 14,19,26 में संसद के द्वारा भी उनके बेसिक संरचना को परिवर्तित नहीं किया जा सकता है ।



4-        ए.आई.आर. 2008 सुप्रीम कोर्ट 23,37 रजिस्ट्ीकरण अधिनियम की धारा-17-2-4 से संबंधित है । समझौता डिक्री से स्वत्व का अंतरण हुआ है  और कब्जा दिया जा रहा है तो उसका रजिस्ट्ेषन----

5-        ए.आई.आर. 2006 सुप्रीम कोर्ट 272 में 10 जजों की खण्ड पीठ में मामला अधिकार एंव निधिनिर्देषक तत्वों आर्टिकल 19 व 37 में अंतर को समझाया है जिसके अंतर्गत गाय के वध किये जाने वाले संेटर हाउस को पूर्णतः बंद नहीं किया जा सकता है केवल उन पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है ।

6-        ए.आई.आर. 2004 सुप्रीम कोर्ट 3366 साक्षी विरूद्ध स्वदेष के मामले में धारा7375, 376, 377, 354 यौन प्रताडना संबंधी मामले में साक्ष्य अभिलिखित किये जाने संबंधी विधि दर्षाई गई है और बलात्कार      किया गया है तो ऐसे मामले जिसमें कि प्रार्थी अवयस्क है और वह आरोपी से डरती है तो उसे पर्दे की आड में रखकर साक्ष्य अभिलिखित किये जाने तथा केमरा ट्ायल संबंधी सिद्धांत अभिनिर्धारित किया गया है ।

7-        ए.आई.आर. 1977 सुप्रीम कोर्ट 166 में 5 जजों की खण्ड पीठ में स्टेट डीकोराइजेष 1956 की धारा- 91-2 की व्याख्या की है जिसमें राज्य पुनर्गइन को अब्दुल तैयब विरूद्ध भारतसंघ के मामले मे वेधानिक ठहराया है ।

8-        ए.आई.आर. 2003 मध्य प्रदेष सरकार मानव अधिकार आयोग विरूद्ध मध्य प्रदेषषासन जिसमें ब्लांइड लोगो की सुविधा हेतु मध्य प्रदेषषासन को निर्देषित किया गया है ।

9-        ए.आई.आर. 2008 सुप्रीम कोर्ट 142 नर्बदा विरूद्ध स्टेट आफ मध्य प्रदेषषासन के मामले में भू अधि- के पालन में मान्यता दी गई है जिसमजें ओमकेषवर बांध के गु्रप में आये क्षेत्र के निवासियों ने आपत्ति प्रस्तुत की है ।

10-        ए.आई.आर. 2009 मध्य प्रदेषषासन 153 पूरण ंिसंह विरूद्ध मध्य प्रदेषषासन के मामले में अवैधानिक रूप से जेल में बंद व्यक्तियों को षासन द्वारा प्रतिकर दिये जाने के निर्देष दिये गये हैं ।

11-        ए.आई.आर. 2009 मध्य प्रदेषषासन 229 के मामले में इन्दौर नगर पालिका के पानी सप्लाई के लिएउचित मात्रा में सप्लाई के निर्देष दिये जा सकते हैं । अज्ञात्मक रूप से पानी की व्यवस्था न होने की दषा में सम्पूर्ण नगर पालिका कठोरता के द्वारा पानी सप्लाई के निर्देष दिये जा सकते हैं

आपराधिक मामले में आयु निर्धारण

                 आपराधिक मामले में आयु निर्धारण
  
                                                    किसी भी आपराधिक प्रकरण में आरोपी अथवा पीडित व्यक्ति की आयु निर्धारण का प्रश्न विचाराधीन  हो अथवा अवयस्क के साथ होने वाले अपराधों के संबंध में पीडित व्यक्ति की आयु प्रश्नगत हो अथवा बाल अपराधी की आयु प्रश्नगत हो तो ऐसे व्यक्तियों की आयु निर्धारण के निम्न लिखित तरीके हैं:-

   
    (1) ऐसे व्यक्ति के जन्म प्रमाणपत्र से आयु का निर्धारण करना ।
    (2) ऐसे व्यकित की स्कूली शिक्षा विशेषकर हाई स्कूल प्रमाणपत्र एवं              स्कूल      की प्रवेश पंजी से आयु का निर्धारण ।
    (3)  ऐसे व्यक्ति के माता पिताकी मौखिक साक्ष्य के द्वारा आयु का निर्धारण।
    (4)  ऐसे व्यक्ति के चिकित्सीय परीक्षण द्वारा आयु का निर्धारण करना ।


                                                 उक्त तरीको के साथ ही व्यक्ति की भौतिक संरचना,लंबाई,भार,शारीरिक बनावट आदि से भी उसकी आयु का अनुमान लगाया जा सकता है । यहंा अभियुक्त या पीडित व्यक्ति कि आयु निर्धारण हेतु चिकित्सीय परीक्षणकी साक्ष्य पर विचार किया जाना है । उक्त र्निर्धारण हेतु चिकित्सीय परीक्षण में मुख्यतः दंत परीक्षण,अस्थी संयोजन द्वारा आयु का अनुमान लगाया जाता है । 

                                                    इस प्रकार उपरोक्तानुसार किसी पीडित व्यक्ति या अभियुक्त व्यक्ति की आयु का निर्धारण महत्बपूर्ण है । साक्ष्य विधि में चिकित्सीय परीक्षण के आधार पर अनुमानित आयु निश्चायक साक्ष्य नहीं मानी जाती है,किंतु ऐसी साक्ष्यकी प्रकृति सुसंगत होती है ।


                                                          साक्ष्य विधि में इस प्रकार चिकित्सीय परीक्षण के आधार पर अनुमानित आयु निश्चायक साक्ष्य नहीं मानी जाती,लेकिन ऐसी साक्ष्य की प्रकृति सुसंगत होती है ।

इस संबंध में भारतीय  साक्ष्य अधिनियम की धारा 45 के अनुसार:-


                      जब न्यायालय को विदेशी विधि की या विज्ञान की या कला की किसी बात पर हस्तलेख या अंगुली चिन्हों की अनन्यता के बारे में राय बनानी हो तब उस बात पर ऐसी विदेशी विधि विज्ञान या कला में या हस्तलेख या अंगुली चिन्होें की अनन्यतः विषयक प्रश्नों में विशेष कुशल व्यक्तियों की राय सुसंगत तथ्य है तथा ऐसे व्यक्ति विशेषज्ञ कहलाते हैं । 



                                स्पष्ट तौर पर भारतीय साक्ष्य अधिनियम  45 के अनुसार किसी क्षे़त्र के विशेषज्ञ की राय सुसंगत तथ्य अवश्य हैं किंतु वह राय निश्चायक सबूत नहीं है ।

                                              तत्संबंध में अवलोकनीय न्यायदृष्टांत  रामस्वरूप वि0 उत्तर प्रदेश राज्य 1989 क्रिमिनल लाॅ जनरल 24,35 इलाहाबाद के अनुसार पीडित व्यक्ति के आयु अवधारण हेतु एक्सरे परीक्षण के माध्यम से बताई गई आयु स्वीकार किये जानने योग्य मानी जावेगी ।

                                               यहंा यह भी उल्लेखनीय है कि यदि एक्सरे परीक्षण व चिकित्सीय साक्ष्य में तथा प्रश्नगत पीडित या अभियुक्त व्यक्ति के शाला अभिलेख  या अंकसूची जो कि उचित रूपसे संधारित अभिलेख की प्रविष्टी होते है तो चिकित्सीय साक्ष्य में उसे वरीयता दी जावेगी,

                         क्योंकि वह अभिलेख धारा 35 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अनुसार किसी लोक या राजकीय पुस्तक रजिस्टर या रिकार्ड अथवा इलेक्ट्रानिक, रिकार्ड में की गई प्रविष्टी के किसी निश्चायक  साक्ष्य सुसंगत तथ्य का कथन करती और किसी लोक सेवक द्धारा अपने पदीय कर्तव्य के निर्वहन में या उस देश की जिसमें ऐसी पुस्तक रजिस्टर या रिकार्ड ,इलेक्ट्रानिक रिकार्ड रखा जाता है विधि द्वारा विशेष रूप से व्यादिष्ट  कर्तव्य के पालन में किसी अन्य व्यक्ति  द्वारा की गई है स्वंय सुसंगत  तथ्य है । 

इस संबंधमें न्यायदृष्टांत  1997 क्रिमिनल लाॅ जनरल,2842 मोहन लोहट वि0 राज्य एवं अन्य 1983 एम.पी.एल.जे. 855 अवलोकनीय है जिसमें पीडित व्यक्ति के अस्थी परीक्षण की अपेक्षा शाला अभिलेख को अधिक विश्वसनीय माना  गया है ।

                                          न्यायदृष्टांत 2008(1) एम.पी.एल.जे. (क्रिमिनल) 2004,अनुजसिंह वि0 म0प्र0राज्य  में माननीय उच्च न्यायालय द्वारा यह अवधारित  किया है कि
                                                     , जहंा घटना के समय अभियुक्त की आयु 18 वर्ष से कम या अधिक होना प्रश्नगत हो तथा स्कूल रजिस्टर में जन्मतिथी 18 वर्ष से कम आयु की प्रकट हो एवं अस्थी जंाच आसिफिकेशन टेस्ट में उसकी आयु 19 वर्ष बताई गई हो तो इस संबंध में दो दृष्टीकोण संभावित  हो जाते हैं ।

                                      यह सुस्थापित विधि सिद्धांत है कि जब दो दृष्टीकोण हो तब जो अभियुक्त के हित में हो वह दृष्टीकोण स्स्वीकार किया जाना चाहिये इस दृष्टी से आसिफिकेशन टेस्ट में अनुमानित आयु में दो वर्ष पूर्व एवं पश्चात् का अनुमान लगायाजाता है । इस कारण अभियुक्त के हित में उसे 18 वर्ष से अधिक होने का निष्कर्ष निकालना त्रुटीपूर्ण होगा  
   
                                                       इसके साथ ही  न्याय दृष्टांत दयाचंद वि0 साहिब सिंह ए.आई.आर. 1991 सु.को. 93 में यह अवधारित है कि, जहाॅं दो स्कूल के प्रमाण पत्रों मे भिन्न आयु दर्शायी हो, वहाॅं मेडीकल बोर्ड के द्वारा व रेडियोलाॅजिस्ट टेस्ट के द्वारा  बताई गई आयु को वरीयता दी जानी चाहिये ।    

                                                      आयु निर्धारण का किसी भी आपराधिक मामले में महत्बपूर्ण स्थान होता है और निम्न परिस्थितियों में आयु निर्धारण की साक्ष्य महत्बपूर्ण हो जाती है ।

    (1) आपराधिक उत्तर दायित्वः-  भारतीय दण्ड संहिता की धारा 82 में 7 वर्ष से कम आयु के बालक द्धारा किया गया कार्य अपराध नहीं माना गया है । धारा 83 में 7 से 12 वर्ष की आयु के बीच के बालक के द्वारा किया गया अपराध तभी अपराध माना गया है जब वह कार्य की प्रकृति को समझ कर अपराध करता है धारा 89 में 12 वर्ष से कम आयु का व्यक्ति सम्मति देने में समर्थ नहीं है और धारा 87 के अंतर्गत 18 वर्ष से कम आयु का व्यक्ति विधि मान्य सम्मति मृत्यु और घोर उपहति के लिए नहीं दे सकता ।

    (2) न्यायिक दण्डः- किशोर न्याय (बच्चों की देखरेख एवं संरक्षण ) अधिनियम 2000 के अनुसार किशोर की आयु 18 वर्ष से कम है तो उस पर अधिनियम के अंतर्गत प्रकरण किशोर न्यायबोर्ड के समक्ष चलेगा एवं अपराध साबित हो जाने पर उन्हे अधिकतम सुधार गृह भेजा जाता है ।

    (3) व्यपहरण :- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 361,366,369,372,373 के अंतर्गत विधिपूर्ण संरक्षण से अपहरण के अपराध हैं जिन्हे साबित करने हेतु पीडित की आयु का निर्धारण किया जाना महत्बपूर्ण है। 

    (4) बलात्संग:- धारा 375 भा.द.सं. में परिभाषित बलात्संग के अपराध में भी पीडित की आयु महत्बपूर्ण है जिसके साबित होने पर ही  अपराध की प्रकृति अनुसार दंड निर्धारित होता है । 

    (5) विवाह:- बाल विवाह निषेद्ध  अधिनियम 1929 में भी बधु की आयु 18 वर्ष तथा वर की आयु 21 वर्ष से कम न होना निर्धारित है जिसका उल्लंधन दण्डनीय अपराध  है ।

    (6) प्राप्तवय:- भारत में प्राप्त वय 18 वर्ष की आयु में होना माना जाता है । इससे कम आयु के व्यक्ति  के अवयस्क होने से संपत्ती  संबंधी कानूनों ,संरक्षता संबंधी विधि में एवं सहमति का अधिकार न होने से ऐसे अधिकार वयस्क होने पर ही प्राप्त माने जाते हैं ।
    (7) सेवा या नियोजनः-सामान्यतया18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति को शासकीय सेवा में या अन्य निकाय में नियोजन का पात्र नहीं माना जाता । 

    (8) शिशु हत्या एवं गर्भपात:- शिशु हत्या एवं गर्भपात के मामले में भी आपराधिक दायित्व के निर्धारण में शिशु या गर्भ की आयु महत्बपूर्ण है ।

    (9) व्यक्तिगत  पहचान:- किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत पहचान निर्धारित करने में भी  आयु का अनुमान महत्बपूर्ण होता है ।

                                                     निष्कर्ष स्वरूप यह कहा जा सकता है कि किसी आपराधिक मामले में पीडित व्यक्ति या अभियुक्त की आयु प्रश्नगत हो तब सर्वप्रथम उसकी आयु निर्धारण महत्बपूर्ण है  एवं आयु निर्धारण हेतु प्रत्येक प्रकरण में परिस्थिति अनुसार उपलब्ध साक्ष्य जो शाला दस्ताबेज हो अथवा चिकित्सीय साक्ष्य हो अथवा अन्य साक्ष्य हो उस साक्ष्य की विश्वसनीयता के आधार पर आयु निर्धारण किया जाना चाहिये ।

                          

मूल अधिकार व्यादेश

                       मूल अधिकार व्यादेश


                                                       भारतीय संविधान में नागरिकों को स्वतंत्र रूप से जीवन जीने, कार्य करने के  मूल अधिकार प्रदान किये गये हैं, जिनमें प्रमुख रूप से समता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरूद्ध अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार तथा संवैधानिक उपचारों का अधिकार शामिल है ।

                         समता के अधिकार में भारत में प्रत्येक व्यक्ति को विधिक के समक्ष समता और समान संरक्षण प्राप्त है तथा लोक नियोजन में अवसर की समानता, जातिगत आधार पर विभेद का प्रतिषेध आदि शामिल हैं । 

                                   स्वतंत्रता के अधिकार के अंतर्गत स्वतंत्र जीवन जीने, वाक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि के साथ वृत्ति, व्यवसाय, कारोबार की स्वतंत्रता प्रदान की गई है ।

                                 यदि किसी व्यक्ति, संस्था के द्वारा मूल अधिकारों का उल्लंघन किया जाता है तो उसके लिये भारतीय संविधान के अनुच्छेद-32 और 226 के अंतर्गत रिट याचिका क्रमशः माननीय उच्चतम न्यायालय और माननीय उच्च न्यायालय में प्रस्तुत कर सकता है । 

        इस संबंध में भारतीय संविधान अनुसार पाच प्रकार की रिट जारी की जा सकती है:-

    1.    उत्पेरषण,
    2.    बंदी प्रत्यक्षीकरण,
    3.    परमादेश,
    4.    अधिकार पृच्छा,
    5.    प्रतिषेध.

        भारतीय संविधान में प्रदत्त मूल अधिकारों को तीन प्रकार से प्राप्त किया जा सकता हैः

    1.    सिविल न्यायालय में दावा प्रस्तुत करके,

    2.    दण्ड न्यायालय में परिवाद प्रस्तुत करके, पुलिस में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करके व बचाव में संवैधानिक अधिकारों को प्रकट करके और,

    3.    माननीय उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय में रिट याचिका प्रस्तुत  करके ।  
     
                                                सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा -9 के अंतर्गत दावा पेश करके सभी प्रकार के हक व अधिकारों को प्राप्त किया जा सकता है,  ‘‘केवल ऐसे वाद की सुनवाई नहीं की जा सकती जिसके संबंध में विधि के द्वारा स्पष्ट रूप से सिविल न्यायालय की अधिकारिता वर्जित की गई है, इसके अलावा सभी प्रकार के सेवा, पद व  धन संबंधी वादों के निराकरण हेतु सिविल वाद प्रस्तुत किया जा सकता है।’’  
                                
                                               विधि का यह सुस्थापित सिद्धांत है कि ‘‘जहा अधिकार है, वहा उपचार भी है।’’ भारतीय संविधान के द्वारा हमें जो अधिकार दिये गये हैं, उनका उपचार भी न्यायालय द्वारा दिया गया है । सिविल न्यायालय में व्यवहार वाद प्रस्तुत करके भी विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा-37, 38 व 39 के अंतर्गत स्थाई, अस्थाई और आज्ञापक व्यादेश धारा-41 में वर्णित कुछ प्रतिबंधों के अधीन प्राप्त कर सकते हैं । 

                                          विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 (जिसे आगे अधिनियम से सम्बोधित किया गया है) की धारा-36 के अनुसार ‘‘निवारक अनुतोष न्यायालय के विवेकानुसार अस्थाई या शाश्वत व्यादेश द्वारा प्रदान किया जा सकता है।’’


                                         अधिनियम की धारा-37(1) के अनुसार ‘‘अस्थाई व्यादेश ऐसे होते हैं, जिन्हें विनिर्दिष्ट समय तक या न्यायालय के अतिरिक्त आदेश तक बने रहना है तथा वे वाद के किसी भी प्रक्रम में प्रदान किये जा सकते हैं और सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के द्वारा विनियमित होते हैं।’’ 

                                 अधिनियम की धारा-37(2) के अनुसार ‘‘शाश्वत व्यादेश वाद की सुनवाई पर और उसके गुणागुण के आधार पर की गई डिक्री द्वारा प्रदान किया जा सकता है, जिसके द्वारा प्रतिवादी को ऐसे कार्यों से रोका जाता है जो वादी के अधिकारों के प्रतिकूल हो ।’’

                                      अधिनियम की धारा-38 के अनुसार ‘‘शाश्वत व्यादेश वादी को उसके पक्ष में विद्यमान बाध्यता के, चाहे वह अभिव्यक्त हो या विवक्षित, उसके भंग का निवारण करने के लिये प्रदान किया जाता है । यदि ऐसी बाध्यता किसी संविदा से उत्पन्न होती है, तब न्यायालय अधिनियम के अध्याय-2 के अनुसार सहायता प्रदान करता है ।’’

                                         इस प्रकार यदि प्रतिवादी वादी की सम्पत्ति के अधिकार या उसके उपयोग पर आक्रमण करे या आक्रमण की धमकी दे तब न्यायालय शाश्वत व्यादेश दे   सकता है । हमारे मूल अधिकारों में वृत्ति,कारोबार,व्यवसाय की स्वतंत्रता का अधिकार सामिल है,जो संपत्ति से संबंधित है ।


                                             धारा-38(3) के अनुसार ‘‘सम्पत्ति पर हुये नुकसान के संबंध में याचिका दायर की जा सकती है और माननीय उच्च न्यायालय द्वारा रिट याचिका से उस पर रोक लगाई जा सकती है । धारा-39 के अंतर्गत आज्ञापक व्यादेश न्यायालय द्वारा जारी किया जा सकता है, जिसमें किसी बाध्यता के भंग का निवारण करने के लिये अथवा ऐसे कार्यों का प्रवर्तन कराने के लिये न्यायालय परमादेश, बंदी प्रत्यक्षीकरण, उत्पेरषण, अधिकार पृच्छा एवं प्रतिषेध जैसे उपचार के साथ ही  याचिकाकर्ता के मूल अधिकारों की रक्षा आज्ञापक व्यादेश जारी करके कर सकता है ।


                                                   ‘‘चेतनतिसंह विरूद्ध महर्षि दयानंद सरस्वती यूनिवर्सिटी एवं अन्य की रिट याचिका     सिविल स्पेशल अपील (रिट)नं0-1035/1997, दि0-11/09/1997’’

 में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा अनुच्छेद-14, 16 व 21 में प्रदत्त मूल अधिकारां का प्रवर्तन सिविल न्यायालय में प्राप्त किया जा सकता है, यह अभिनिर्धारित किया गया है और यह भी प्रतिपादित किया गया है कि यदि सिविल न्यायालय में दावा प्रस्तुत किया गया है तो क्षतिपूर्ति व्यवहार वाद में ही प्राप्त की जा सकती है, इस हेतु पृथक से रिट याचिका प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है । 

                                                            सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा-91 और 92 में न्यायालय की अनुमति से दो या दो से अधिक व्यक्ति लोक न्यूसेंस या पब्लिक पर प्रभाव डालने वाले दोषपूर्ण कार्य के निवारण के लिये न्यायालय की इजाजत से लोक हित संबंधी दावे प्रस्तुत कर सकते हैं । इसके लिये जरूरी नहीं है कि उच्च न्यायालय में रिट याचिका प्रस्तुत की जाये और इस संबंध में व्यादेश सभी सिविल न्यायालय द्वारा जारी किया जा सकता है । 

                                                 इस प्रकार भारतीय संविधान में प्रदत्त मूल अधिकारों के संरक्षण के लिये विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 के अंतर्गत व्यादेश के आदेश के माध्यम से सहायता प्रदान की जा सकती है ।  



संविधान और समाजिक न्याय

            भारत का संविधान और समाजिक न्याय

        सामाजिक न्याय का आशय आम तौर पर समाज में लोगो के मध्य समता, एकता, मानव अधिकार, की स्थापना करना है तथा व्यक्ति की गरीमा को विशेष महत्व प्रदान करना है । यह मानव अधिकार और समानता की अवधारणाओं पर आधारित है और प्रगतिशील कराधन, आय, सम्पत्ति के पुनर्वितरण, के माध्यम से आर्थिक समतावाद लाना सामाजिक न्याय का मुख्य उद्देश्य हैं । भारतीय समाज में सदियों से सामाजिक न्याय की लडाई आम जनता और शासक तथा प्रशासक वर्ग के मध्य होती आई है । यही कारण हेै कि इसे हम कबीर की वाणी बुद्ध की शिक्षा, महावीर की दीक्षा, गांधी की अहिंसा, सांई की सीख, ईसा की रोशनी, नानक के संदेश में पाते हैं ।

        सदियों से मानव सामाजिक न्याय को प्राप्त करने भटकता रहा है और इसी कारण दुनिया में कई युद्ध, क्रांति, बगावत, विद्रोह, हुये हैं जिसके कारण कई सत्ता परिवर्तन हुए हैं । जिन राज्यों और प्रशासकों ने सामाजिक न्याय के विरूद्ध कार्य किया उनकी सत्ता हमेशा क्रांतिकारियों के निशानों में रही है । इसलिए प्रत्येक शासक ने अपनी नीतियों मे सामाजिक न्याय को मान्यता प्रदान की है । इसे हम चाणक्य की राजनीति, अकबर की नीतियों, शेरशाह सूरी के सुधारों, में देखते हैं ।

        हमारा भारतीय समाज पहले वर्ण व्यवस्था पर आधारित था जो धीरे  धीरे बदलकर जाति व्यवस्था मंे परिवर्तित हो गया, उसके बाद असमानता, अलगाववाद, क्षेत्रवाद, रूढीवादीता, समाज में उत्पन्न हुई जिसका लाभ विदेशियों के द्वारा उठाया गया और ‘‘फूट डालो और राज्य करों’’ की नीति अपनाकर भारत को एक लम्बी अवधि तक पराधीन रखा।
        लेकिन लोगो की एकता अखण्डता और भाईचारे की भावना से आजादी की लडाई लडने पर भारत 15 अगस्त सन् 1947 को आजाद हुआ और उसके बाद भारत में सामाजिक न्याय की स्थापना, व्यक्ति का शासन, सोच की स्वतंत्रता, भाषण प्रेस की आजादी, संघ बनाने की स्वतंत्रता हो, इसके लिए सर्वोच्च कानून बनाये जाने की आवश्यकता समझी गई और डाॅ.राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में संविधान सभा का गठन किया गया जिसमें डाॅ. बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर जैसे महान् व्यक्तित्व को मसौदा समिति का अध्यक्ष मनोनीत किया गया ।
        संविधान सभा की कई बैठको के बाद भारत के संविधान की रचना की गई, जो विश्व का सबसे बडा, लिखित, अनूठा, संविधान है जिसमें सामाजिक न्याय को सर्वोच्चता प्रदान की गई है । यह दुनिया का सामाजिक न्याय को दर्शित करने वाला एक प्रमाणिक अभिलेख है ।
        हमारे संविधान मंे सामाजिक और आर्थिक न्याय की गारंटी समस्त नागरिकों को तथा जीवन जीने की गारंटी प्रत्येक व्यक्ति को दी गई है। सामाजिक न्याय का मुख्य उद्देश्य व्यक्तिगत हित और सामाजिक हित के बीच सामान्जस्य स्थापित करना है । इसलिए कल्याणकारी राज्य की कल्पना संविधान निर्माताओं ने की है। बहुजन हितांयैं, बहुजन सुखांयै को ध्यान में रखते हुये समाजवादी व्यस्था स्थापित की गई है ।
        भारतीय समाजवाद अन्य राष्ट्ों के समाजवाद से अलग है । यहां पर सत्ता समाज में निहित रहती है, परन्तु उसका उपयोग समाज के हित के लिए हो इसलिए सरकार नियंत्रण रखती है । सामाजिक न्याय के लिए संविधान में जो प्रावधान दिये गये हैं उनका मुख्य उद्देश्य वितरण की असमानता को दूर करना तथा असमानों में संव्यवहारों में असमानता को दूर करना व कानून का प्रयोग वितरण योग साधन के रूप में समाज में धन का उचित बटवारां करने में किया जाये। इसका विशेष ध्यान रखा गया है ।
         हमारे संविधान की उद्देशीयका संविधान का आधारभूत ढांचा है । जिसमें सामाजिक, आर्थिक राजनैतिक न्याय प्रदान किये जाने की गारंटी प्रदान की गई है । इसके लिए भारतीय संविधान के भाग-3 में मौलिक अधिकार दिये गये हैं । भाग-4 में राज्यों को नीतिनिदेशक तत्व बताये गये है, जो राज्य की नीति का आधारस्तम्भ बताये गये हैं ।
        मूल अधिकार सम्बंधी भाग-3 अधिकारों का घोषणा पत्र, मेग्नाकार्टा, बिल आफ राइट्स, आदेश, हैं जिसके संबंध में न्यायधिपति श्री भगवती ने मेनका गांधी बनाम भारत संघ 1979 भाग-1 उच्चतम न्यायालय निर्णय पत्रिका 243 मामले में कहा है कि‘‘इन मूल अधिकारों का गहन उद्गम स्वतंत्रता का संघर्ष है । उन्हें संविधान में इस आशा और प्रत्याशा के साथ सम्मिलित किया गया था कि एक दिन सही स्वाधीनता का वृक्ष भारत में विकसित होगा । ये उस जाति के अवचेतन मन में अमिट तौर पर अंकित थे जिन्होंने ब्रिटिश शासन से मुक्ति प्राप्त करने के लिए पूरे 30 वर्षो तक लडाई लडी और संविधान अधिनियमित किया गया तो जिन्होंने मूल अधिकारों के रूप में अभिव्यक्ति पायी । ये मूल अधिकार इस देश की जनता द्वारा वैदिक काल से संजोये गये आधारभूत मूल्यों का प्रतिनिधत्व करते हैं और वे व्यक्ति की गरिमा का संरक्षण करने और ऐसी दशांए बनाने के लिए परिकल्पित हैं जिनमें हर एक मानव अपने व्यक्त्वि का पूर्ण विकास कर सके । वे मानव अधिकारों के आधार भूत ढांचे के आधार पर गारंटी का एक ताना-बाना बुनते है और व्यक्तिगत स्वाधीनता पर इसके विभिन्न आयामों में अतिक्रमण न करने की राज्य पर नकारात्मक बाध्यता अधिरोपित करते हैं।’’
        सामाजिक न्याय प्रदान किये जाने के लिए सर्व प्रथम हमारे संविधान के भाग 4 में उल्लेखित राज्य की नीतिनिदेशक तत्व एक लोकहितकारी राज्य और समाजवादी समाज की स्थापना के संबध में महत्वपूर्ण कदम है । जिसके संबंध में डाॅ. अम्बेडकर का कहना है कि हम कल्याणकारी राज्य के नागरिक है । हमारा कर्तव्य केवल शांति व्यवस्था बनाये रखना और जनता के प्राण की स्वतंत्रता और सम्पत्ति की सुरक्षा तक ही सीमित नहीं है बल्कि जन साधारण के सुख ओर समृद्धि की अभिवृद्धि करना है । इसलिए राज्यों को नीति निर्देशक तत्व दिये गये हैं ताकि वे इनका पालन करके जनता के हित के लिए आर्थिक लोक तंत्र की स्थापना कर सकते हैं । अपनी नीतियों के निर्धारण और कानून बनाने में वह इन्हें शामिल कर सकते हैं । 
        डाॅ. अम्ब्ेाडकर के अनुसार नीति निर्देशक तत्व भारतीय संविधान की अनोखी व्यवस्था है । जिसके संबंध में उनका कहना है कि हमारा संविधान संसदीय प्रजातंत्र की स्थापना करता है ।संसदीय प्रजातंत्र से तात्पर्य है-एक व्यक्ति एक वोट । हमारा यह भी तात्पर्य है कि प्रत्येक सरकार अपने प्रतिदिन के कार्य-कलापों में तथा एक विषय के अन्त में, जब कि मतदाताओ और निर्वाचक-मण्डल की सरकार द्वारा किये गये कार्यो का मूल्यांकन करने का अवसर मिलता है, कसौटी पर कसी जायेगी ।
        राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना का उददेश्य यह है कि हम कुछ निश्चित लोगों को यह अवसर न दें कि वे निरंकुशवाद को कायम रख सकें । जब हमने राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना की है, तो हमारी यह भी इच्छा है कि आर्थिक  लोकतंत्र का आदर्श भी स्थापित करें । प्रश्न यह है कि क्या हमारे पास कोई निश्चित तरीका है जिससे हम आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना कर सकते हैं ? विभिन्न ऐसे तरीके हैं जिनमें लोगों का विश्वास है कि आर्थिक लोकतंत्र समझते हैं, और बहुत से लोग समाजवादी समाज की स्थापना को सबसे अच्छा आर्थिक लोकतंत्र मानते है, और बहुत से लोग कम्युनिज्म की स्थापना को सर्वोत्तम आर्थिक समाजवाद का रूप मानते हैं ।             इस तथ्य पर ध्यान देते हुए कि आर्थिक लोकतंत्र लाने के विभिन्न तरीके हैं, हमने जो भाषा प्रयुक्त की है, उसमें जानबूझकर नीति- निदेशक तत्वों में ऐसी चीज रखी है जो निश्चित या अनम्य नहीं है । हमनेइसीलिए विविध तरीकों से आर्थिक लोकतंत्र के आदर्श तक पहंुचने के लिए चिन्तनशील लोगों के लिए पर्याप्त स्थान छोडा है । इस संविधान की रचना में हमारे वस्तुतः दो उद्देश्य हैं-राजनीतिक लोकतंत्र का रूप निर्धारित करना, और यह स्थापित करना कि हमारा आदर्श लोकतंत्र है और इसका भी विधान करना कि प्रत्येक सरकार, जो कोई भी सत्ता में हो, आर्थिक लोकतंत्र लाने का प्रयास करेगी ।
        सामाजिक और आर्थिक न्याय प्रदान किये जाने के लिए नीति निदेशक तत्व राज्य को यह निर्देश देते है कि वे लोक कल्याण की अभिवृद्धि करके ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना का प्रयास करें जिनमें सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक न्याय प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुनिश्चित हों ।
        ये वे निदेश है जो संविधान की प्रस्तावना में अन्तर्निहित हैं, जिनके अनुसार राज्य का कर्तव्य अपने नागरिकों के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक न्याय प्रदान करना है । उन्हें विचार अभिव्यक्ति, धर्म, विश्वास, उपासना, की स्वतंत्रता प्रदान करना है । उन्हें प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्रदान करना है तथा व्यक्ति की गरीमा राष्ट् की एकता और अखण्डता और बन्धुता को बढाना है । तभी हम भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बना सकते है ।    
        नीतिनिदेशक तत्व समाजिक न्याय प्रदान किये जाने की दिशा में उठाये गये महत्वपूर्ण कदम है जिसमें सामाजिक न्याय की विवेचना विस्तार तथा व्यापक रूप से की गई है । इसलिए ग्रेनविल आॅस्टिन ने निदेशक तत्वों की महत्ता को निम्न शब्दों में व्यक्त किया है -भारतीय संविधान प्रथमतः और सर्वोपरि रूप में एक सामाजिक दस्तावेज है । इसके अधिकांश उपबन्ध या तो प्रत्यक्षतः सामाजिक क्रान्ति के उद्देश्य को पूरा करने के लिए आवश्यक दशाओं की स्थापना करते हुये सामाजिक क्रांति के लक्ष्यों को आगे बढाने के लिए या तो सीधे उपबन्धित हैं, या फिर सम्पूर्ण संविधान में राष्ट्ीय पुनर्जागरण का लक्ष्य व्याप्त होते हुए भी सामाजिक क्रान्ति के लिए वचनबद्धता का जो मर्म है, वह भाग-3 और 4 के मूल अधिकारों तथा राज्य की नीति निदेशक तत्वों में है। यह संविधान की आत्मा है।’’
        संविधान शास्त्रीयों के अनुसार नीति निर्देशक तत्व और मूल अधिकारो के बीच में कोई विरोधाभाष नहीं है । डाॅ. अम्ब्ेाडकर के अनुसार यह कहना निरर्थक है कि नीति निर्देशक तत्वों का कोई महत्व नहीं हैं । मेरे विचार के अनुसार तो निदेशक तत्व बहुत ही महत्व के हैं, क्यों कि उनसे यह प्रस्थापित होता है कि हमारा आदर्श लोकतंत्र है। हम यह नही चाहते थें कि बिना किसी ऐसे मार्ग-दशर््ान के कि हमारा आर्थिक आदर्श क्या है, हमारा सामाजिक संगठन किस प्रकार का हो मात्र एक संसदात्मक प्रकार की सरकार संविधान में उपबन्धित विविध साधनों के माध्यम द्वारा गठित करा ली जाये । अतः हम लोगों ने संविधान में जानबूझकर नीति निर्देशक तत्वों का समावेश किया है ।’’
         इन सिंद्धातों में व्यापक लोक साधारण के हितो की रक्षा की भावना सन्निहित है । इसी कारण संविधान के 25वे संशोधन द्वारा राज्यों को निर्देशक तत्वों के सबंध में विधि बनाये जाने की शक्ति प्रदान की गई । जिसमें नीति निदेशक तत्वों को मूल अधिकारो पर प्राथमिकता दी गई है । और इसके अनुसार निदेशक तत्वों को कार्यन्वित करने के लिए बनायी गई किसी भी विधि को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती थी कि वह अनुच्छेद 14 और 19 द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारो से अंसगत है या उसे छीनती है या न्यून करती है ।
        इसीलिए सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय प्रदान किये जाने अनुच्छेद 38 में नया खण्ड 2 जोडकर नीति निर्देशक तत्व भी जोडा गया है कि राज्य विशेष रूप से आय की असमानता को कम करने का प्रयास करेंगा न केवल व्यक्तियों के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुये लोगो के समूहों के बीच प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरो की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा । इस प्रकार आर्थिक असमानता दूर करने का प्रयास किया गया है ।समाज के दुर्बल वर्गो के शिक्षा और अर्थ सम्बंधी हितों की अभिवृद्धि करने के लिए अनुच्छेद 46 इस बात का आह्वान करता है कि राज्य जनता के दुर्बल वर्गो के, विशेषतया अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित आदिम जातियों की शिक्षा तथा अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा तथा सामाजिक अन्याय तथा सब प्रकार के शोषण से उनकी संरक्षा करेगा ।
        अनुच्छेद-46 राज्य को जन के दुर्बलता और विशेषतया अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित आदिम जातियों के शिक्षा तथा आर्थिक हितों की विशेष सावधानी से उन्नति करने तथा सब प्रकार के शोषण से उनका संरक्षण करने का निदेश देता है ।
        संविधान के भाग-3 में भी अल्पसंख्यकों के अधिकारों के संरक्षण के लिए अनेक उलबन्ध हैं । अनुच्छेद-14 भारत के प्रत्येक व्यक्ति को विधि के समक्ष समता ओर विधियों के समान संरक्षण की गारंटी देता है । अनुच्छेद- 15 धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर सार्वजनिक स्थानों में प्रवेश पर राज्य द्वारा भेदभाव करने का प्रतिषेध करता हैं । इस अनुच्छेद की कोई भी बात राज्य को सामाजिक और शिक्षात्मक दृष्टि से पिछडंे हए वर्गो या अनुसूचित जातियों या अनुसूचित आदिम जातियों की उन्नति के लिए विशेष उपबन्ध करने में बाधक न होगी ।   
        बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लिए अनुच्छेद 45 अशिक्षा को दूर करने के उद्देश्य से राज्य को 14 वर्ष तक की आयु तक के सभी बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए उपबन्ध करने का निदेश देता है । 14 वर्ष के बालकों को निःशुल्क शिक्षा देना राज्य का संविधानिक दायित्व माना गया है । क्यों कि अनुच्छेद 21 के अधीन शिक्षा पाने का अधिकार एक मूल अधिकार है । किन्तु उच्च शिक्षा पाने के मामले में यह अधिकार राज्य की आर्थिक क्षमता पर निर्भर करेगा ।
        समाज के दुर्बल वर्गो के शिक्षा और अर्थ सम्बंधी हितों की अभिवृद्धि करने के लिए अनुच्छेद 46 इस बात का आह्वान करता है कि राज्य जनता के दुर्बल वर्गो के, विशेषतया अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित आदिम जातियों की शिक्षा तथा अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा तथा सामाजिक अन्याय तथा सब प्रकार के शोषण से उनकी संरक्षा करेगा ।
        अनुच्छेद-46 राज्य को जन के दुर्बलता और विशेषतया अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित आदिम जातियों के शिक्षा तथा आर्थिक हितों की विशेष सावधानी से उन्नति करने तथा सब प्रकार के शोषण से उनका संरक्षण करने का निदेश देता है ।
        संविधान के भाग-3 में भी अल्पसंख्यकों के अधिकारों के संरक्षण के लिए अनेक उलबन्ध हैं । अनुच्छेद-14 भारत के प्रत्येक व्यक्ति को विधि के समक्ष समता ओर विधियों के समान संरक्षण की गारंटी देता है । अनुच्छेद- 15 धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर सार्वजनिक स्थानों में प्रवेश पर राज्य द्वारा भेदभाव करने का प्रतिषेध करता हैं । इस अनुच्छेद की कोई भी बात राज्य को सामाजिक और शिक्षात्मक दृष्टि से पिछडंे हए वर्गो या अनुसूचित जातियों या अनुसूचित आदिम जातियों की उन्नति के लिए विशेष उपबन्ध करने में बाधक न होगी ।       
        अनुच्छेद-16 सरकारी नौकरियों के लिए अवसर की समानता की गारंटी करता है और इसके संबंध में धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग उदभव, जन्मस्थान, निवास के आधार पर भेदभाव को वर्जित करता है । किन्तु राज्य उक्त वर्गो के व्यक्तियों के लिए, यदि उन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका है, नियुक्तियों या पदों पर आरक्षण का प्रावधान कर सकता है । अनुच्छेद-17 अस्पृश्यता का उन्मूलन करता है जो भारतीय समाज का एक महान कलंक था । अनुच्छेद-19-5 अनुसूचित आदिम जातियों के हितें की सरंक्षा के लिए इस अनुच्छेद के खण्ड घ, ड और च में प्रदत्त मूल अधिकारों पर निर्बन्धन लगाता है ।
        अनुच्छेद-29 से लेकर 30 तक में अल्पसंख्यकों की संस्कृति के संरक्षण के लिए उपबन्ध किया गया है । भारत में रहने वाले नागरिको के किसी वर्ग को, जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाये रखने का अधिकार प्राप्त है । सभी अल्पसंख्यक वर्गो को, चाहे वे धर्म या भाषा पर आधारित हो, अपनी रूचि की शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा । शिक्षा-संस्थाआंे को सहायता देने में राज्य किसी विद्यालय के विरूद्ध इस आधार पर विभेद न करेगा कि वह किसी अल्पसंख्यक वर्ग के प्रबंध में है ।
        अनुच्छेद-275 अनुसूचित आदिम जातियों के कल्याण हेतु राज्यों को
केन्द्र द्वारा सहायक अनुदान का उपबन्ध करता है । अनुच्छेद-325 के अनुसार निर्वाचन हेतु एक साधारण निर्वाचक-नामावली होगी तथा केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग के आधार पर कोई व्यक्ति किसी ऐसी नामावली में सम्मिलित किये जाने के लिए अपात्र न होगा ।
        अनुच्छेद-164 उडीसा, बिहार और मध्य प्रदेश राज्यों में आदिम अनुसूचित जातियों के कल्याण के लिए एक विशेष मंत्री का उपबन्ध करता है । अनुच्छेद-330 से लेकर 342 तक में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित आदिम जातियों, ऐंग्लो-इंडियन्स और पिछडे वर्गो के लिए विशेष उपबन्ध लोक सभा में सीटों के आरक्षण राज्यों में नौकरी में आरक्षण, पिछडा वर्ग नियुक्ति आयोग, अल्पसंख्यक आयुक्त की नियुक्ति आदी के प्रावधान किये गये है । अनुच्छेद- 347,350, 350क, 350ख, भाषायी अल्पसंख्यकों के संरक्षण की व्यवस्था करते हैं ।    अनुसूचित जाति, जनजाति बाहूल्य क्षेत्रों को संविधान के अंतर्गत विशेष क्षेत्र घोषित कर उसके निवासियों को विशेषाधिकार प्रदान किये गये         समान न्याय और निःशुल्क विधिक सहायता को सर्वाधिक महत्व प्रदान करते हुये अनुच्छेद 39क राज्य को यह निदेश देता है कि वह सुनिश्चित करे कि विधिक व्यवस्था इस प्रकार काम करे कि सभी को अवसर के आधार सुलभ हों और वह विशिष्टतया आर्थिक या किसी अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाये तथा उपयुक्त विधान द्वारा या किसी अन्य रीति से निः श्ुाल्क विधिक सहायता की व्यवस्था करें ।
        इस प्रकार निःशुल्क विधिक सहायता शीघ्र परीक्षण की व्यवस्था की गई है । राज्यों में विधिक सेवा प्राधिकरण बनाये गये है । लोक अदालत, सुलह, समझौते के आधार पर प्रकरणो के निपटारे का प्रयास किया जा रहा है ।
        हमारे भारतीय समाज में बहु विवाह, मानव बली, सती प्रथा, पशु हत्या, सदियों से व्याप्त है जिसे धार्मिक रंग देकर कानूनी वैद्धता अपने धर्म के नाम से प्रदान की गई है, जब कि यह सभी कार्य सामाजिक बुराई में शामिल है औरलोक आचरण के विरूद्ध है ।इसलिए संविधान निर्माताओं ने समान नागरिक संहिता की बात नीतिनिदेशक तत्वों में कही है और प्रत्येक विवाह के पंजीयन को कानूनी रूप से अनिवार्य बना दिया गया ।
        व्यक्ति के बौद्धिक, नैतिक, अध्यात्मिक, राजनीतिक, शारीरिक, मानसिक, विकास के लिए मूल अधिकार भाग-3 में प्रदान किये गये हैं जो वे आधारभूत अधिकार हैं जिनके अभाव में व्यक्ति का बहुमुखी विकास संभव नहीं है। यह अधिकार प्राकृतिक, अपर्रिहार है इसलिए इन्हें अप्रतिदेय माना गया है । यह सामाजिक न्याय के मापदण्ड और संरक्षक दोनो हैं । इनके बिना सामाजिक न्याय की प्राप्ति असंभव है ।        
        हमारे मान्नीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा केशवानंद भारती के मामले मे ंयह कहा गया कि मूल अधिकार तथा निदेशक तत्व हमारे संविधान के अन्तःकरण है । मूल अधिकार का प्रयोजन एक समतावादी समाज का निर्माण करना और समाज के उत्पीडन या बन्धनों से सब नागरिकों को मुक्त करना और सबके लिए स्वतंत्रता की उपलब्धि करना है । निदेशक तत्वों का प्रयोजन कुछ ऐसे सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को नियत करना है जो अहिंसात्मक क्रान्ति द्वारा तत्काल प्राप्त किये जा सकते हैं । मूल अधिकारों तथा निदेशक तत्वों के बीच कोई विरोध नही है । वे एक-दूसरे के पूरक हैं । इसी कारण पंडित जवाहरलाल नेहरू को कहना पडा है कि मूल अधिकार ओर नीति निदेशक तत्वो के मध्य विवाद होने पर निर्देशक तत्वों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए  क्यों कि इन सिद्धंातों में व्यापक लोक साधारण के हितों की रक्षा की भावना सन्निहित है ।
         नीति निर्देशक तत्व सामाजिक न्याय प्राप्ति के वे लक्ष्य है जो हमे प्राप्त करना है उन लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु हमे मूल अधिकारो के रूप में  वे साधन दिये गये हैं जिनके माध्यम से हमें उन लक्ष्यों की प्राप्ति करना है । आर्थिक, सामाजिक और राजनेतिक क्षेत्र में मानव के सुखी एंव उन्नत जीवन के लिए प्राकृतिक और अप्रतिदेय मूल अधिकार भाग- 3 में संविधान में दिये गये हैं ।
        जिसके संबंध में कहा गया है कि राज्य ऐसे कोई विधि नहीं बनायेगा  जो मूल अधिकारो से असंगत हो । संविधान के अनुच्छंेद 13 में  घोषित किया गया है कि भारत में  प्रदत्त कोई भी विधि जिसमें अध्यादेश, आदेश, उपनिधि, नियम, अधिसूचना, रूढियां और प्रावधान सम्मिलित है । वे मूल अधिकारों के असंगत नहीं होगी और उस मात्रा तक शून्य होगी जिस मात्रा तक वे भाग-3 के उपबंधों से अंसगत है । इसलिए कहा गया है कि राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बना सकता जो भाग-3 द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों को छीनती हो अथवा अन्यून करती हो ।
        सामाजिक न्यायप्रदान किए जाने संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 तक में प्रत्येक व्यक्ति को सम्मता का अधिकार दिया गया है और विधि के समक्ष समान संरक्षण प्रदान किया गया है । समान परिस्थिति वाले व्यक्ति के साथ समान व्यवहार किया जायेगा । इस प्रकार संविधान में समान न्याय का शासन प्रदान किया गया है क्यों कि कोई व्यक्ति कानून के उपर नहीं है । यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति चाहे किसी भी पद या अवस्था में हो देश की समान विधि के अधीन रहता है ।
        भारतीय समाज सदियों से रूढि प्रथा अन्धविश्वास सामाजिक कुरितियों से ग्रस्त रहा है । जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र के नाम पर समाज को बांटा गया है । इस सामाजिक असामनता को समाप्त करने के लिए अस्पृश्यता निवारण अधिनियम 1955 अनुच्छेद 17 के अनुसार बनाया गया है । अछूतपन के विरूद्ध गारंटी दी गई है । अछूतपन के आधार पर किसी को अयोग्य ठहराना दण्डनीय है। कोई भी व्यक्ति सार्वजनिक पूजा स्थल में जा सकता है । किसी घाट पवित्र कुओं, तालाब, जलधारा, झरने में नहा सकता है। अस्पृश्यता से उत्पन्न अयोग्यता को दण्डनीय अपराध घोषित किया गया है । जन्म रोग मृत्यु से उत्पन्न सामाजिक बुराईयों का अंत किया गया है । उपाधी तथा उपहारों पर रोक लगाई गई है । ताकि सामाजिक समानता अनुच्छेद-18 के अनुसार बनी रहे ।
        संविधान में किसी भी व्यक्ति को उसके प्राण देैहिक स्वाधीनता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जायेगा संविधान का यह अनुच्छेद 21 न सिर्फ कार्यपालिका के विरूद्ध विधिक संरक्षण प्रदान करता है बल्कि विधान मण्डल के विरूद्ध भी संरक्षण प्रदान करता है और विधान मण्डल ऐसी कोई विधि पारित नहीं कर सकता जो किसी व्यक्ति को उसके प्राण और देैहिक स्वतंत्रता से वंचित करती हो । विधान मण्डल द्वारा बनाई विधि, उचित, युक्तियुक्त, नैसर्गिक न्याय के सिंद्धातो के अनुरूप होनी चाहिए।
        एक सुव्यवस्थित समाज के लिए व्यक्तिगत स्वंतत्रता अनिवार्य है। कोई भी अधिकार आत्यन्तिक नहीं हो सकता इसलिए विधि का बंधन लगाया गया है । अनुच्छेद 21 में दैहिक स्वंतत्रता  में वे सभी तथ्य शामिल है जो व्यक्ति को पूर्ण बनाते हैं । इसके अंतर्गत अनुच्छेद 19 में प्रदत्त वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सभा करने की स्वतंत्रता, संघ बनाने की स्वंतत्रता, भ्रमण की स्वतंत्रता, आवास की स्वतंत्रता, शांतिपूर्वक और हथियारो के बिना इकट्ठा होने की स्वतंत्रता, पेशा, व्यवसाय, वार्णिज्य, एंव व्यापार की स्वतंत्रता शामिल है ।    
        दैेहिक स्वतंत्रता का अर्थ शारीरिक  स्वतंत्रता मात्र से नहीं है। इसके अंतर्गत वे सभी प्रकार के अधिकार शामिल है जो व्यक्ति को पूर्ण बनाते है और उसके अधिकारों को संरक्षण प्रदान करते है तथा सभी प्रकार के मनोवैज्ञानिक अवरोधों को हटाते हैं, व्यक्ति के निजी जीवन में किसी भी प्रकार का अप्राधीकृत हस्तक्षेप चाहे वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सभी से संरक्षण प्रदान करते है ।
        अनुच्छे 21 में प्रयुक्त प्राण शब्द का अर्थ केवल मानव जीवन नहीं है और यह न केवल शरीर के अंग भंग करने से निषेध करता है बल्कि इसके अंतर्गत एकांतता का अधिकार भी शामिल है । यह केवल भौतिक अस्तित्व तक सीमित नहींहै वरण् इसमें मानव गरिमा को बनाये रखते हुए जीने का अधिकार शामिल है । इसमें विदेश भ्रमण का अधिकार, व्यापार, व्यवसाय का अधिकार, एकांतता का अधिकार, मानव गरीमा के साथ जीने का अधिकार, न्यूनतम मजदूरी प्राप्त करने का अधिकार, जीवकोपार्जन का अधिकार प्रदूषण रहित जल और वायु के उपयोग का अधिकार, लोकहितवाद, प्रस्तुत करने का अधिकार, काम का अधिकार, वैधानिक रूप से पद मुक्ति का अधिकार, सडक पर व्यापार का अधिकार, बेगार न करने का अधिकार शामिल है ।
        अनुच्छेद 21 में प्राण दैहिक स्वतंत्रता केदियों को भी दी गई है । उन्हें निःशुल्क विधिक सहायता देना उनका शीघ्र न्याय करना शीघ्रता परीक्षण, एकांत कारावास, केदियों को लोहे की बेडिया न लगाना, जेल में अच्छा खाना देना, व्यक्ति को हथकडी न लगाना, परीक्षाणाधीन केदी को सिद्धदोष केदियों से दूर रखना । केदियों से अमानवीय व्यवहार न करना । एंकान्त वास में अधिक अवधि तक न रखना, आवश्यक सुविधाओं से वंचित न रखना । आदि अधिकार बंदियों को दिये गये है ।
        संविधान में प्रदत्त अनुच्छेद 21 को अपात्काल में भी निलंबित नहीं किया जा सकता है और संवैधानिक उपचारो का अधिकार जो डाॅ. अम्बेडकर के अनुसार जिसके बिना यह संविधान शून्य है जो संविधान की आत्मा है का प्रयोग किया जा सकता है और यह अधिकार हमें मूल अधिकारो की गारेंटी प्रदान करके सामाजिक न्याय प्रदान करता है ।
        शोषण के विरूद्ध व्यक्ति को सामाजिक, आर्थिक न्याय प्रदान करने अनुच्छेद 23 में कहा गया है कि मानव के क्रय विक्रय बेगार एंव बलात श्रम को प्रतिषेधित किया गया है । इन्हें दण्डनीय अपराध घोषित किया गया है । नारी का क्रय विक्रय रोका गया है । बेगार प्रथा को समाप्त किया गया है । स्वतंत्रता के पूर्व भारतीय समाज में यह दो महत्वपूर्ण कुरीतियां थी । भारतीय नवाब राजा, जमीदार, कमजोर वर्ग तथा गरीबों से बेगार लेते थे । उन्हें मजदूरी नहीं देते थे । गरीबी के कारण स्त्रीयों का क्रय विक्रय होता था। जिस पर रोक लगाई गई है
        संविधान में सामाजिक न्याय प्रदान किये जाने धार्मिक कट्टरता को खत्म किये जाने धर्म निरपेक्ष राज्य की परिकल्पना की है जिसका अर्थ है कि राज्य का स्वंय अपना कोई धर्म नहीं होगा और न ही अपने नागरिकों में धर्म के आधार पर राज्य भेद-भाव रख्ेागा । धर्म के मामले में तटस्थता बरती गई है । प्रत्येक धर्म को समान आधिकार प्रदान किया गया है ।
         भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय प्रदान करने हेतु जो मूल अधिकार दिये गये है उनकी सुरक्षा के लिए संवैधानिक उपचारो के अधिकार अनुच्छेद 32,226,136,141,142, आदि में दिये गये हैं और नागरिकों को मूल अधिकारों को गारंटी के साथ सुरक्षा प्रदान की गई है, जिसके लिए उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय को एक सजग प्रहरी के रूप में कार्य करते हंै ।























हिन्दु विधि

                                      हिन्दु
                                       भारत में हिन्दु विधि का संहिताकरणए हिन्दू बोर्ड विल में सहयोग डा0 अम्बेडकर के द्वारा सर्वप्रथम दिया गया था । हिन्दू शव्द किसी जाति अथवा सम्पं्रदाय का प्रतीक नहीं है और न ही यह शव्द किसी धर्म विशेष से संबंधित है । वे सभी लोग जो अपने आपको हिन्दू समझते हैं वे चाहे हिन्दुस्तान में रहे या बाहर जापानए इंग्लेंडए अमेरिका में रहे वे हिन्दुस्तानी कहलाते हैं । जो रिश्तेदार आक्रमण कारियों सिंधू नदी को पार कर भारत पर आक्रमण किया तो उनके द्वारा इस देश का नाम सिंधू नदी के नाम पर रखा गया ओर जब मुस्लिम आक्रमणकारी यहां आकर बस गये तो उन्होने यहां के निवासियों को अपने पास रखने के लिये हिन्दु शब्द का प्रयोग किया गया ।


यह मान्यता कि आर्य भारत में आने के बाद बस गये और सिंधो कहलाये और यह बाद में यही संधो शब्द हिन्दु बन गया जो किसी धर्म विशेष का संबोधन नहीं करता है । बल्कि एक भोगोलिक सीमाओं में रहने वाले व्यक्तियों को इंगित करता है ।
हिन्दू शब्द व्यापक है । इसके अंतर्गत वह सभी लोग शामिल हैं अथवा जिनके माता पिता जन्म से हिन्दू हैं या जो धर्म परिवर्तन करके हिन्दु धर्म अपनाते हैं । यह मान्यता है कि हिन्दू माता पिता से जो संतान पैदा हाती है चाहे वह धर्मज हो वह हिन्दुओं एबुद्व या सिख एआर्य ब्राहम्ण लोगो को मूल रूप से हिन्दु है परन्तु दूसरे धर्म को अपनाते हैं वे भी हिन्दु कहलाते हैं । इसी कारण यह मान्यता हिन्दु धर्म से संबंधित नहीं है ।


हिन्दु यदि धर्म परिवर्तन करके जैनए बौद्वएसिख धर्म स्वीकार कर लेता है तो भी वह हिन्दु बना रहता है क्योंकि उसका विवाह धर्म पोषण के अधिकार हिन्दु विधि से शामिल होते हैं । इस प्रकार व्यक्ति जन्म से हिन्दु होता है और धर्म परिवर्तन करके भी हिन्दु बन सकता है ।


हिन्दु शब्द की परिभाषा हिन्दु विवाह अधिनियम 1955 एहिन्दु उत्तराधिकार अधिनियम 1956ए हिन्दु संाक्षक्ता अधिनियम तथा हिन्दु दत्तकअधिनियम 1956 में दी गई है जिसके अनुसार मुस्लिमए ईसाईए पारदीए अयुद्वी धर्म छोड़कर सभी व्यक्ति हिन्दु माने जाते हैं और इन पर हिन्दु विधि ही लागू होती है ।



हिन्दु विधि जो एक पद्धति थी और अनेक शाखाओं में विभाजित थीए उत्तराधिकारए दत्तक विवाह पारिवारिक संबंधए इच्छा पत्र बटवारा भरण पोषण में व्याप्त रूणियों परम्पराऐं प्रथा में बिखरी पड़ी थी। हिन्दु विधि का मूल स्त्रोत हमारे धर्म शास्त्र हैं जिनमें सुरभि स्मृति टीका ओर निबंध से इसका विकास हुआ है
एहिन्दु धर्म एक दर्शन से प्रभावित है ।
धर्म जिसका सात्विक अर्थ है जो अच्छा गुण अथ्वा वस्तु कार्य धारण करने योग्य होती है उसे धर्म की कोटि में रखा जाता है ।
धर्म के संबंध में वेद में परिभाषा दी है। वेद में पारंगत उन विद्वानो तथा गुणवान व्यकित्यों द्वारा जो मानवीय जो घृणा आदि अवगुणों से रहित है वे धर्म है ।

मनु स्मृति के अनुसार समृतिएसदाचार जो अपने को तुष्टिकरण है यह धर्म के स्त्रोत हैं इसके अंतर्गत मनुष्य के सभी धार्मिक नैतिक सामाजिक तथा विधिक बैधानिक कर्तव्य शामिल है

वे हर तिथि कर्तव्यों को धर्म बताते हैं ।
हिन्दु विधि धर्म तथा विधि का एक मिश्रण है । धर्म के विपरीत कोई विधि नहीं हो सकती है । हिन्दू विधि इस सिद्वांत पर आधारित है ।

नैतिक्ता के समस्त सिद्वांत जो समस्या सभी बर्गो के लिये एक समान है वे हिन्दू विधि का अंग है ।
हिन्दू विधि में मुख्य रूप से वेद समृति सदाचार पर आधारित थी । लेकिन अंग्रेजी शासन काल में न्यायालय के निर्वाह में वेद स्मृति तथा पुराणों के विपरीत व्याख्याऐं दी ।

वर्तमान में हिन्दू विधि हिन्दू कोड बिल के बाद संहिता बद्व हो गई है और मुल्ला के अनुसार हिन्दू विधि धर्म की वह शाखा है जो मनुष्य के नैतिक आधार सामाजिक व विधिक कर्तव्यो को विवेचित करती है ।

हिन्दू विधि को देव ईश्वर प्रदत्त विधि माना जाताहै क्योंकि उनकी उत्पत्ती ईश्वर से हुई है व ईश्वर की वांणी है लेकिन माद की मान्यताओं के अनुसार हिन्दु विधि प्रचलित रूणियों और प्रथाओं पर आधारित विधि है ।

वर्तमान में हिन्दु विधि धार्मिक निहित रूणियों और प्रथाओं के द्वारा न्यायालय द्वारा दिये गये पहत्वपूर्ण निर्णयों पर आधारित
विधि हे जिसमें सप्तपदी में जो भी मान्यता दी गई है और क्रूरता के आधार पर तलाक भी लिया जा सकता है । वर्तमान हिन्दु विधि के सभी वर्ग पर सामान्य रूप से लागू है जिसमें वर्ण व्यवस्था पर प्राचीन कालील भेदभाव नहीं है यही कारणहै कि आदिवासी गौढ़ आदि पर उनकी व्यक्तिगत विधि लागू होती है और वह विवादतक आदि के संबंध में हिन्दु होते हुये भी अपनी प्रथाओं अनुसार कार्य कर सकते हैं । हिन्दु विधि प्राचीन काल में

विवाह को संस्कार माना जाता था लेकिन हिन्दु विवाह अधिनियम में विवाह संस्कार नहीं है सप्तपदी आवश्यक नहीं है ज
वैवाहिक अनुष्ठान पक्षकारों की रूणियों पर और प्रथाओं पर छोड़े गये हैं । हिन्दु विवाह अधिनियम की धारा.5 के विपरीत विवाह नहीं होना चाहिये ।









































     
    





लैगिक अपराधो से बालको का संरक्षण अधिनियम 2012

        लैगिक अपराधो से बालको का संरक्षण अधिनियम 2012 

                                                                      लैंगिक अपराधो से बालको का संरक्षण अधिनियम 2012 जिसे आगे अधिनियम से संबोधित किया गया है, अधिनियम में बालक से आशय ऐसा कोई  भी व्यक्ति जिसकी आयु 18 वर्ष से कम है । इस अधिनियम की धारा-8 में बालक के साथ लैंगिक हमले को दंडित किया गया है और अधिनियम की धारा-7 में लैंगिक हमले को परिभाषित किया गया है। अधिनियम की धारा-12 में लैंगिक उत्पीड़न को दंडित किया गया है और धारा 11 में लैंगिक उत्पीड़न को परिभाषित किया गया है । 

        अधिनियम की धारा 24 में बालक के कथन को अभिलिखित करने की प्रक्रिया दी गई है, अधिनियम की धारा 24 के अनुसार


    1.    बालक के कथन को बालक के निवास पर या

    2.    ऐसे स्थान पर जहां पर साधारणतया निवास करता है या 

    3.    उसकी पंसद के स्थान पर अभिलिखित किया जाएगा,

    4.    जहां तक संभव हो उप निरीक्षक की पंक्ति से अन्यून किसी स्त्री पुलिस अधिकारी द्वारा अभिलिखित किया जायेगा ।               धारा-24-1

    5.    बालको के कथन को अभिलिखित किये जाते समय पुलिस अधिकारी बर्दी में नहीं   होगा ।      धारा-24-2

     6.    अन्वेषण करते समय पुलिस अधिकारी बालक या परीक्षण करते समय यह सुनिश्चित  करेगें कि किसी भी समय पर बालक अभियुक्त के किसी भी प्रकार के सम्पर्क में न   आये।      धारा-24-3

    7.    किसी बालक को किसी भी कारण से रात्रि में किसी पुलिस स्टेशन में निरूद्व नहीं  किया जायेगा। धारा-24-4

    8.    पुलिस अधिकारी तब तक सुनिश्चित करेंगेे कि बालक की पहचान पब्लिक मीडिया  से संरक्षित है। जब तक कि बालक के हित में न्यायालय द्वारा अन्यथा निर्देशित न   किया गया होे । धारा-24-5


        अधिनियम की धारा 26 में बालक के कथन अभिलिखित किये जाने के संबंध में अतिरिक्त उपबंध किये गये हैं जो निम्नलिखित है:-


    1.    मजिस्टे्रट या पुलिस अधिकारी बालक के माता पिता या ऐसे किसी अन्य व्यक्ति की जिसमें बालक का भरोसा या विश्वास है उसकी उपस्थिति में बालक द्वारा बोले गये अनुसार कथन अभिलिखित करेगा । धारा-26-1 ()

    2.    जहा आवश्यक है वहां, यथास्थिति, मजिस्टे्रट या पुलिस अधिकारी, बालक का कथन, अभिलिखित करते समय किसी अनुवादक या किसी दुभाषिए जो ऐसी अर्हताए, अनुभव रखता हो । की सहायता ले सकेगा । 

    3.    अनुवादक या दुभाषिए को ऐसी फीस जो विहित की जाए, संदाय की जायेगी (धारा-26-2)

    4.    यदि बालक मानसिंक या शारीरिक रूप से निशक्त है तो ऐसे बालक से विशेष शिक्षक या बालक से सम्पर्क की रीति से सुपरिचित किसी व्यक्ति या उस क्षेत्र में किसी विशेषज्ञ जो ऐसी योग्यता ओर अनुभव प्राप्त हो उसकी सहायता ली जावेगी 

    5.    इस संबंध में ऐसे विशेषज्ञ व्यक्ति को फीस नियमानुसार प्रदान की जावेगी। (धारा-26-3) 

    6.    जहां आवश्यक हो मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी यह सुनिश्चित करेगें कि बालक का कथन श्रृृव्य-दृश्य इलेक्ट्रोनिक माध्यमो से भी अभिलिखित किया जाये ।(धारा-26-4)


                                                      अधिनियम के विशेष प्रावधान धारा 25-1 में दिये गये हैं । जिसके अनुसार यदि बालक का कथन दं0प्र0सं0 की धारा 164 के अतर्गत अभिलिखित किया गया है तो ऐसे कथन  का अभिलेखन मजिस्टे्रट, उसमें अंतर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी बालक द्वारा बोले गए अनुसार कथन अभिलिखित करेगा। 

                                                  अधिनियम की धारा-’25-1 के परन्तु के अनुसार दं0प्र0सं0 की धारा-164 की उपधारा-1 के प्रथम परंतुक में अंतर्विष्ट उपबंध, जहां तक वह अभियुक्त के अधिवक्ता की उपस्थिति अनुज्ञातकरता है । इस मामले में लागू नहीं होगा । अर्थात अभियुक्त के अधिवक्ता की उपस्थिति में कथन अभिलिखित नहीं किया जावेगा । धारा 164-1 दं0प्र0सं0 ऐसे मामलो में लागू नहीं होगी । 



                                         अधिनियम  की धारा-25 -2 में विशेष प्रावधान दिये गये हैं । जिसमें अभियोग पत्र की नकल चालान पेश होने पर आरोपी को धारा 207 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत प्रदान की जाती है। उसी प्रकार बालक और उसके अभिभावक या उसके प्रतिनिधि को संहिता की धारा 207 के अधीन विनिर्दिष्ट दस्तावेजो की प्रति पुलिस द्वारा अंतिम प्रतिवेदन धारा 173 दं0प्र0सं0  के अंतर्गत फाईल किये जाने पर प्रदान की जावेगी । 



                                                       अधिनियम में यह विशेष प्रावधान किया गया है कि चालान पेश होते  ही बालक को चालान की नकल दी जावे। इसके लिये आवश्यक है कि जैसे ही चालान पेश होता है इसकी सूचना बालक और उसके अभिभावक को न्यायालय के माध्यम से दी जावे ओर बालक और उसके अभिभावक के न्यायालय में उपस्थित होने पर चालान की नकल धारा 207 दं0प्र0सं0के अतंर्गत दी जावेगी । 


                                      इसके लिये यह भी प्रक्रिया अपनाई जा सकती है कि न्यायालय द्वारा विवेचक को निर्देशित किया जा सकता है कि जैसे ही चालान पेश हो वैसे ही वह बालक  और उसके अभिभाक को चालान पेश होने की सूचना दे । ताकि न्यायालय के समक्ष बालक अपने अभिभावक सहित उपस्थित होकर मजिस्ट्रेट से नकल प्राप्त कर सकता है ।  



                                               अधिनियम की धारा-25-2 में मजिस्ट्रेट द्वारा बालक और उसके अभिभावक या उसके प्रतिनिधि को अंतिम रिपोर्ट देने की जिम्मेदारी सोंपी गई है । इसलिये पुलिस थाने से बालक और उसके अभिभावक या प्रतिनिधि को चालान की नकल देेने की प्रक्रिया नहीं अपनाई जा सकती । इसके लिए आवश्यक है कि चालान पेश होने की सूचना बालक व उसके अभिभावक को दी जावे ओर चालान न्यायालय में पेश होने पर न्यायालय द्वारा सूचना दी जावे और प्रतिलिपि प्रदान की जावे ।  


        मजिस्ट्रेट द्वारा बालक के कथन का अभिलेखन:

                             -(1)यदि बालक का कथन ,प्रक्रिया संहिता 1973 (1074का 2)(जिसे इसमें पश्चात सहिता कहा गया है )की धारा 164 के अधीन अभिलिखित किया गया है, तो ऐसे कथन का अभिलेखन मजिस्ट्रेट उसमें अतंर्विष्टि किसी बात के होते हुये भी बालक द्वारा बोले गये अनुसार कथन अभिलिखित करेगा । 


                                         परन्तु संहिता की धारा 164 की उप धारा(1)के प्रथम परन्तुक में अंतविषर््िट उपबंध, जहां तक वह अभियुक्त के अधिवक्ता की उपस्थिति अनुज्ञात करता है । इस मामले में लागू नहीं होगा ।

    (2)    मजिस्ट्रेट बालक और उसके अभिभावको या प्रतिनिधि को संहिता की धारा 207 के  अधीन विनिर्दिष्ट दस्तावेजों की एक प्रति, उस संहिता की धारा 173 के अधीन पुलिस द्वारा अंतिम रिपोर्ट फाईल किये जाने पर,प्रदान करेगा ।
   
   

दण्ड विधि (संशोधन)अधिनियम 2013

            दण्ड विधि (संशोधन)अधिनियम 2013

        दण्ड विधि संशोधन अध्यादेश 2013 जो दिनांक 3.2.13 से प्रभावशील हुआ था । उसकी जगह अब दण्ड विधि संशोधन 2013 संसद द्वारा पास कर दिया गया है और जिसमें धारा 376-ई संशोधन द्वारा जोड़ी गई है जिसके अनुसार बार बार अपराध करने वालो को दंडित किया जावेगा । 

        धारा 376 के अनुसार जो भी व्यकित धारा 376-1 के अनुसार जो कोई व्यकित धारा 376-2 में दिये गये मामलो के अलावा योन हमला कारित करता है तो उसे सश्रम कारावास से दंडित किया जावेगा जिसकी अवधि सात वर्ष से कम नहीं होगी ,परन्तु जिसे कि उम्र केद तक बढ़ाया जा सकेगा ओर वह जुर्माना करने योग्य भी है । 

        दण्ड विधि संशोधन अधिनियम 2013 में धारा 376-ई में योन हमला की जगह बलात्कार शब्द जोड़ा गया है ।

        धारा-376-क में पीडिता की मृत्यु कारित करने पर अथवा पीडित को लगातार निष्क्रीय दंश तक पहुंचा देने पर दण्ड का प्रावधान किया गया है । 

        धारा 376-क में सामूहिक बलात्कार का प्रावधान किया है जिसमें पीडिता को  मुआवजा भुगतान कराये जाने जो कि उस पीडिता के चिकित्सीय खर्च एंव पुर्नवास के खर्च वहन करने हेतु युक्तियुक्त होगा । इस प्रकार धारा 376-ई में पूर्व दोषसिद्व व्यक्ति को दंडित किये जाने का प्रावधान किया गया है 
।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                      
        धारा-376-ई जिसे आगे संहिता से संबोधित किया जा रहा है, अभियुक्त को धारा 376-क, 376-ख के अंतर्गत सिद्वदोष ठहराया जा चुका होने ,उसके बाद यदि आरोपी पूर्व में उक्त धाराओं में दंडित हुआ है तो उसको  पूर्व में दंडित किये जाने उसके आधार पर दोषसिद्ध की इस संबंध में दं0 प्र0सं0 की धारा एंव मध्य प्रदेश दंड रूल्स एंव आर्डर के नियमो को ध्यान में रखते हुये आरोप लगाया जावेगा ।  
 
    देश में बालको के प्रति बढते यौन शोषण या लैंगिक शोषण के अपराधों जैसे बाल बलात्कार, अपहरण, नाबालिग लडकियों की दलाली वैश्यावृत्ति के लिए लडकियों को उकसाना, बेचना, आत्महत्या के लिए उकसाना कम उम्र की बच्चियों के साथ बलात्कार कर हत्या करने, जैसे गम्भीर अपराधो की संख्या में वृद्धि को देखते हुए समाज में आंदोलन हुए और उन आंदोलनो के असर के कारण सरकार को दण्ड विधि में संशोधन करना पडा है । 

        इसके लिए भारत सरकार के द्वारा 3 फरवरी 2013 को संसद के द्वारा दण्ड विधि संशोधन अध्यादेश 2013 पारित किया है जिसे बाद में दण्ड विधि संशोधन अधिनियम 2013 के रूप में मान्यता प्रदान की गई है । अध्यादेश में यौन हमले को दण्डित किया गया था जिसे अधिनियम में परिवर्तित कर बलात्कार कर दिया गया है । लेकिन बलात्कार की परिभाषा यौन हमले को धारा’- 375क, ख,ग,घ के रूप में शामिल किया गया है । 

        इस दण्ड विधि संशोधन अध्यादेश 2013 जिसे आगे अध्यादेश से संबोधित किया गया है । उसमें  धारा 376-ई जोडी गई है । जिसमें बलात्कार जैसे गम्भीर अपराध बार बार करने के लिए कठोर दण्ड का प्रावधान किया गया है ।

        अध्यादेश की धारा-376ई के अनुसार- जो भी व्यक्ति धारा 376 या 376-ए या धारा 376-सी अथवा धारा376-डी के अंतर्गत दंडनीय अपराध के लिये पूर्व  में दोषसिद्धि हुआ है एंव क्रमबार रूप से उक्त अपराधों में से किसी भी धारा के अंतर्गत दंडनीय अपराध के लिये दोषित सिद्ध हुआ हे तो उसे उम्र केद की सजा से दंडित किया जावेगा, इसका मतलब उस व्यक्ति के प्राकृतिक जीवन की अवधि से होगा अथवा उसे मृत्यु से दंडित किया जावेगा । 


    1-    इस प्रकार बलात्कार अंतर्गत धारा-376
    2-    मृत्यु कारित करने पर अथवा पीडित को लगातार निष्क्रिय दंश तक पहंुचा देने         पर दण्ड अंतर्गत धारा-376ए
    3-    किसी पद पर रहते हुए किसी व्यक्ति के साथ संभोग की दशा में दण्ड, अंतर्गत         धारा-376सी
    4-    दल या टोली द्वारा यौन हमला की दशा में दण्ड, अंतर्गत धारा-376डी






        के अंतर्गतं एक बार दण्डित हो जाने के बाद यदि पुनः वहीं अपराध में आरेापी दोषी ठहराया जाता है तो उसे धारा-376ई के अंतर्गत मृत्यु दण्ड अथवा ऐसी उम्र कैद की सजा से दण्डित किया जावेगा इसका मतलब उस व्यक्ति के प्राकृतिक जीवन की अवधि से होगा अतः ऐसे व्यक्ति को पूरी उम्र जेल में रहना होगा ।
धारा376 ई में आरोप की विरचना एंव प्रारूप 


        धारा-376ई पूर्व दोष सिद्धि का आरोप दं0प्र0सं0 की धारा 211-7 के अनुसार लगाया जायेगा । जिसके अनुसार यदि अभियुक्त किसी अपराध के लिए पहले दोषसिद्ध किये जाने पर किसी पश्चातवर्ती अपराध के लिए ऐसी पूर्व दोषसिद्धि के कारण वर्धित दण्ड का या भिन्न प्रकार के दण्ड का भागी है और यह आशयित है कि ऐसी पूर्व दोषसिद्धि उस दण्ड को प्रभावित करने के प्रयोजन के लिए साबित की जाये जिसे न्यायालय पश्चातवर्ती अपराध के लिए देना ठीक समझे तो पूर्व दोष सिद्धि का तथ्य तारीख और स्थान आरोप में कथित होंगे और यदि ऐसा कथन रह गया है तो न्यायालय दण्डादेश देने के पूर्व किसी समय भी उसे जोड सकेगा ।


        इस प्रकार न्यायालय द्वारा पूर्व दोष सिद्धि का आरोप लगाये जाते समय उसके तथ्य तारीख स्थान का आरोप में वर्णन करेगा। जिसका प्रारूप निम्नलिखित रहेगा


                पूर्व दोषसिद्धि के पश्चात बलात्कार के आरोप    


        मैं---------------------सत्र न्यायाधीश आप-------- अभियुक्त व्यक्ति का नाम पर निम्नलिखित आरोप लगाता हूं ।
        यह कि आपने दिनांक--------को या उसके लगभग----------- में प्रार्थीया के साथ बलात्कार का अपराध किया है । जो भारतीय दण्ड संहिता की धारा- 376/376ए /376सी/376डी के अधीन दण्डनीय है और सैशन न्यायालय के संज्ञान के अंतर्गत है और आप ------------- पर यह भी आरोप है कि आप उक्त अपराध करने के पूर्व अर्थात तारीख ------------ को-------के-------न्यायालय द्वारा भा0द0सं0 के धारा- 376/ 376ए / 376सी/376डी के अंतर्गत ------------- कठोर कारावास एंव --------अर्थ दण्ड से दोष सिद्ध किये गये थे जो दोषसिद्धि अब तक पूर्णतया प्रवृत्त और प्रभावशाली है और आप भा.द.सं. की धारा-376ई के अधीन परिवर्धित दण्ड से दण्डनीय है । और मैं इसके द्वारा निेर्देश देता हूं कि आपका विचारण धारा-376 ई भा.द.सं. में किया जाये इत्यादि । 

पूर्व दोष सिद्धि प्रमाणित करना-


        दं0प्र0सं0 की धारा-298 के अनुसार पूर्व दोषसिद्धि के तथ्य को साबित किया जायेगा। धारा-298 के अनुसार पूर्व दोष सिद्धि के तथ्य को इस संहिता के अधीन किसी जांच विचारण या अन्य कार्यवाही में किसी अन्य ऐसे ढंग के अतिरिक्त जो तत्समय प्रवृत्त किसी विधि द्वारा उपबंधित है-
    क-    ऐसे उद्धरण द्वारा जिसका उस न्यायालय के जिसमें ऐसी दोषसिद्धि हुई अभिलेखों को अभिरक्षा में रखने वाले अधिकारी के हस्ताक्षर द्वारा प्रमाणित उस दण्डादेश या आदेश की प्रतिलिपि होना है अथवा
    ख-    दोषसिद्धि की दशा में या तो ऐसे प्रमाण पत्र द्वारा जो उस जेल के भारसाधक अधिकारी द्वारा हस्ताक्षरित है जिसमें दण्ड या उसका कोई भाग भोगा गया या सुपुर्दगी के उस वारंट को पेश करके, जिसके अधीन दण्ड भोगा गया था,
        और इन दशाओ में से प्रत्येक में इस बात के साक्ष्य के साथ कि अभियुक्त व्यक्ति वहीं व्यक्ति है जो ऐसे दोष सिद्ध  किया गया, साबित किया जा सकेगा ।

        इस प्रकार पूर्व दोषसिद्धि के तथ्य को----


    1-    निर्णय की प्रतिलिपि प्रस्तुत करके अथवा
    2-    जेल वारंट प्रस्तुत करके जिसके अंतर्गत उसके द्वारा सजा भुगती गई है ।
    3-    इसके साथ ही साथ आरोपी की पहचान स्थापित कर दोषसिद्धि के तथ्य को   साबित किया जा सकता है 


        मध्य प्रदेश नियम एंव आदेश अपराधिक के नियम 175 से179 तक में पूर्व दोषसिद्धि के आरोप और प्रमाणी करण के संबंध में नियम दिये गये है । जिसके नियम 175 के नोट क्रमांक-2 के अनुसार जब कि कोई एक व्यक्ति एक ही समय पर या लगभग एक से अधिक अपराधों में दोषसिद्ध होता है तथा उन अपराधों के एकत्रित दण्ंड को भुगतने के पश्चात अन्य अपराध करता है तथा पुनः दोषसिद्ध होता है तो वर्तमान दोषसिद्धि के संबंध में प्रत्येक पूर्व दोषसिद्धि पृथक दोषसिद्धि होगी 

        इसी प्रकार नियम-178 के अनुसार यदि प्रतिलिपि प्रमाण पत्र या अधिपत्र में दिया गया दण्डादेश दिए गए व्यक्ति का नाम, पिता का नाम, और जाति का मिलान उससे होता है जो कि विचारण के अधीन अभियुक्त बताता है तो वह इकरार अभियुक्त के विरूद्ध साक्ष्य में प्रकट होने वाली परिस्थिति मानी जाना चाहिए ।

        नियम के अनुसार उससे संहिता की धारा-313 के अधीन उसके बारे में स्पष्टीकरण देने की अपेक्षा की जानी चाहिए । यदि परिक्षण करने पर वह अपनी पहचान दस्तावेज में वर्णित व्यक्ति से भिन्न होना बतावे साक्षी तब साक्षियों को जिन्हें इस बात का व्यक्तिगत ज्ञान हो कि उस अभियुक्त की पूर्व दोष सिद्धि हो चुकी है बुलाना आवश्यक होगा। 

        नियम 179 के अनुसार अंतिम वाक्य में निर्दिष्ट प्रकार के मामलो में पूर्व दोषसिद्धियां यदि वे स्वीकृत नहीं की गई है तो उन्हे औपचारिक रूप से सिद्ध कियाजाना चाहिए। उन्हें इस सीमित  अभिप्राय से प्रयोग करने में मजिस्ट्रेट को संहिता की धारा 32 के सदृश मार्ग दर्शन लेना चाहिए ।

        न्यायालय जैसे ही निर्णय में इस निष्कर्ष पर पहंुचे कि अभियुक्त दोषी है उस निर्णय को अस्थाई रूप से रोक दिया जाना चाहिए । तब आदेश पत्र में यह दर्शाना चाहिए कि अभियुक्त से कोई पूर्व दोषसिद्धियां जो कि कथित की गई है।

        परन्तु इसके पहले उस प्रक्रम तक वह साक्ष्य में ग्राहय नहीं है, जब तक कि उसके बारे में प्रश्न नहीं पूछे गए हैं । वस्तुतः प्रश्न एंव उत्तर अभियुक्त से संहिता की धारा 313 के अधीन पहिले ही किए गए परीक्षण पर ही अतिरिक्त रूप में अभिलिखित किए जावेंगे ।चाहे वे दोषसिद्धियां स्वीकृत की जावे या अस्वीकृत उनके वैध प्रमाण का गठन करने वाले दस्तावेजों की अभिलेख में फाइल किया जाएगा । निर्णय अंतिम रूप से पूर्ण किया जाना चाहिए तथा निष्कर्ष अभिलिखित किया जाना चाहिए।   
    
        इस प्रकार सर्व प्रथम आरोपी को धारा-376, 376ए,376सी, 376डी के अंतर्गत सिद्धदोष ठहराया जायेगा। उसके बाद प्रकरण दण्ड के प्रश्न पर जब सुनवाई हेतु स्थगित किया जायेगा तब उस पर पूर्व दोषसिद्धि का आरोप धारा-211-7 दं0प्र0सं0 के अनुसार लगाया जायेगा । पूर्व दोषसिद्धि का आरोप दं0प्र0सं0 की धारा-298 के अनुसार प्रमाणित हो जाने के बाद अभियुक्त परीक्षण किया जायेगा और उससे इस संबंध में प्रश्न पूछे जायेगें उसके बाद पूर्व दोषसिद्धि का आरोप प्रमाणित हो जाने के बाद पुनः निर्णय दण्ड के प्रश्न पर सुनवाई हेतु स्थगित किये जाने के बाद उभय पक्ष को दण्ड के प्रश्न पर सुनकर आरोपी को धारा-376ई भा0द0वि0 के आरोप में दण्डित किया जायेगा । 

        दण्ड विधि संशोधन अध्यादेश 2013 में धारा-376ई में धारा-376, 376ए,376सी, 376डी  में दण्डित किया गया है जबकि दण्ड विधि संशोधन अधिनियम 2013 में केवल बलात्संग के लिए दण्ड धारा-376, पीडिता की मृत्यु या लगातार विकृतशील दशा मारित करने के लिए दण्ड धारा-376क, सामूहिक बलात्कार धारा- 376घ के अंतर्गत दण्डनीय अपराधों को दण्डित किया गया है । अधिनियम लागू होने के बाद अध्यादेश के प्रावधान लागू नहीं होंगे।