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बुधवार, 7 अगस्त 2013

विधि के इतिहास



                   विधि के इतिहास

                                                           किसी भी देश के इतिहास  मानने के लिये वहां के विधि के इतिहास का अध्ययन किया जाना आवश्यक है । विधि के विकास एंव पतन से समाज जुड़ा हुआ है ।

             किसी भी देश में विधि का विकास एक दिन में नहीं होता है,बल्कि कई काल और परिवर्तन के बाद विधि का विकास होता है विधि के इतिहास के अंतर्गत न्यायालय का नियम एंव उसमें प्रतिपादित एंव लागू होने वाले सिद्वांतों अध्ययन से न्याय व्यवस्था को माना जा सकता है । 

                                                      भारतीय दंड सहिता ,भारतीय संविदा अधिनियम,व्यवहार प्रक्रिया सहिता, दण्ड प्रक्रिया संहिता, आदि का विकास सन् 1858 के बाद हुआ 

              ।भारत में न्याय व्यवस्था के संबंधमें लिखित मं जानकारी ईस्ट इंडिया कम्पनी के जन्म के साथ मिलती है । ईस्ट इंडिया कम्पनी लंदन के व्यापारियों की एक संस्था थी जिसका उद्वेश्य व्यापार करना था इसकी स्थापना इंग्लेंड की सम्राज्ञी द्वारा एक विशेष चार्टर जारी करके की जिसमें कम्पनी अपने कर्मचारियों पर अनुशासन बनाये रखने के लिये कानून बना सकती थी

         लेकिन वे कानून इंग्लेड के विपरीत नहीं हो सकते थे । इस प्रकार भारत में सर्वप्रथम किसी लिखित कानून की व्यवस्था सन् 1600 में लागू हुई है । 

                                              दि गवर्नर एण्ड कम्पनी मर्चेन्टस आफ लंदन ट्रेडिंग इन टू द ईस्ट के नाम से अर्थात ईस्ट इंडिया कम्पनी के नाम से भारत में आने तक मुगलो को शासन था।

                                      कम्पनी ने सर्वप्रथम सूरत में अपनी एक फेक्ट्री स्थापित की और सन् 1615 में सर टामस रो ने मुगल बादशाह से धर्म पालन और अपने कानून को लागू करने की अनुमति प्राप्त कर ली इसके बाद अंग्रेजो ने काजियों के अधिकार को भी समाप्त कर दिया और उनकी परिषद के द्वारा न्याय व्यवस्था लागू की ।

                                              इस प्रकार सर्वप्रथम भारत में अंगेरजी न्याय व्यवस्था सूरत में जूरी पद्वति के रूप में अंग्रेजो के द्वारा इंग्लेड के कानून के अनुसार कर दिया जाता था । जबकि यहां के भारतीयो पर मुस्लिम अपराध कानून लागू होता था । 

                                                            इस प्रकार भारत में पहली न्यायिक प्रणाली सूरत में लागू हुई थी । इसके बाद भी अग्रेजो ने मद्रास में दूसरी फेक्ट्री स्थापित की जहां पर भारतीय बस्ती काला नगर और अंग्रेज बस्ती श्वेत नगर कहलाती थी ।

             श्वेत नगर में अंग्रेज एजेन्ट एंव उनकी परिषद न्याय व्यवस्था इंग्लेड के कानून अनुसार लागू थी । दीवानीए फौजदारी विवाद का निराकरण करती थी ।

                   काले नगर में भारतीय का अपना न्यायालय था जिसे चाउल्ट्री न्यायालय कहते थे । इसके पदाधिकारी आदिगार कहलाते थे ।जघन्य अपराध की दशा में जिन राजाओं की अनुमति इंग्लेड के कानून में दंडित कर दिया जाता था ।

                                                   सन् 1666  में जब मद्रास प्रसीडेंसी नगर बना। तब भारतीय न्यायालय में इंग्लेड का कानून लागू होने लगा । समुद्र संबंधी विवादको के लिये एडमिरल्टी कोर्ट बनाया गया । 

                                                  सन् 1688 में कम्पनी नं अंतिम चार्टर जारी कर न्याय व्यवस्था हेतु एक निगम स्थापित किया । जिसमें एक मैयर होता थाए12 एल्डरमैन होते थे 

               60 से अधिक अन्य सदस्य होते थे। निगम का मैयर तथा एल्डरमैन मिलकर मैयर न्यायालय की स्थापना करते थे । यह कोर्ट आफ रिकार्ड अभिलेख न्यायालय थी जो दोनो विवाद सुनती थी। इसमें जूरी पद्धति लागू थी। इसके विरूद्ध विरूद्व एडमिरल्टी कोर्ट में अपील होती थी । 

                                                             1726 में बम्बई ईस्ट इंडिया कम्पनी को प्राप्त होने पर एक चारटर जारी कर बम्बई, कल्कत्ता, मद्रास के विरूद्ध एक  निगम की स्थापना की गई। जिसमें एक मेयरए 9 एलडर मैन होते थे । जो न्याय प्रशासन करते थे और मेयर न्यायालय कहा जाता था। 

                                                       मेयर न्यायालय में इंग्लेण्ड का कानून लागू होता था। यह अभिलेख न्यायालय था। यह केवल सिविल कोर्ट थी । इसके निर्णय के विरूद्ध इग्लेण्ड के सम्राट के सम्मुख अपील होती थी। इसमें जूरी पद्धति लागू होती थी। इसमें तीन सदस्य होते थे । इस प्रकार पहली बार भारत में इग्लेण्ड का कानून लागू किया गया । 

                                                             सन् 1753 में चार्टर के द्वारा सर्व प्रथम सत्र न्यायालयों की स्थापना की गई । भारतीय स्वेच्छया से अपना विवाद इस न्यायालय को सौंप सकते थे। प्रसीडेंसी नगरो में एक निवेदन न्यायालय कोर्ट आफ रिक्वेस्ट लघु वादो के निराकरण के लिए स्थापित की गई ।

                 पहली बार प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत लागू किया गया । एल्डरमैन जिसमें पक्षकार होता था उसमें न्यायाधीश के तरह कार्य नहीं कर सकता था। न्यायालय पर सरकारी नियंत्रण स्थापित किया गया । 

                                                   सन् 1765 में पहली बार बंगाल,बिहार, उडीसा, की दीवानी शाह आलम के द्वारा कम्पनी दिये जाने पर कम्पनी के द्वारा लगान वसूली और व्यवहार वादो में न्याय निर्णय का काम किया गया । निजाम अपराधिक मुकदमो का काम करता था यह काम भी कम्पनी के द्वारा किया जाने लगा ।

                                            इसके पूर्व बंगाल, बिहारए,उडीसा में जमीदार न्याय प्रदान करते थे। यदि वह मृत्यु दण्ड देता था तो नवाब की पूर्व अनुमति ली जाती थी। जमीदार अदालत व्यवहार मुकदमा में कार्य करती थी । धार्मिक मुकदमो को हल करने के लिए धार्मिक अदालते होती थी। जमीदार के निर्णय के विरूद्ध मुर्शिदाबाद में अपील होती थी।

                                                          सन् 1772 में वारेन हेस्टिग्स के द्वाराअदालत पद्धति का पुनर्गठन किया गया । बंगालए बिहारए उडीसा के प्रत्येक जिले में एक कलेक्टर की नियुक्ति मालगुजारी वसूली के लिए की जाती थी तथा दीवानी एंव फौजदारी अदालते स्थापित हुई।

                जिले का कलेक्टर मुफ्सिल दीवानी अदालत का अधिकारी होता था। जो पांच सौ रूपये तक के विवादो को सुनती थी। जिसमें सम्पत्ति संबंधी विवादए उत्तराधिकार संबंधी विवाद सम्मिलित थे। इनके निर्णय की प्रतिलिपियां प्राप्त की जा सकती है । 

                                                               मुफ्सिल दीवानी अदालतो के उपर सदर दीवानी अदालत थी । जिसमें एक गवर्नर उसके परिषद के दो सदस्य होते थे।
             इस अदालत में ट्रेजरी का दीवानए मुख्य कानूनगो तथा कचहरी के अन्य अधिकारी भी उपस्थित रहते थे।
                     सदर दीवानी अदालत 500 रूपये से अधिक विवादो को और मुफ्सिल अदालतो के मुकदमे सुनती थी। कलकत्ता महानगर को छोडकर शेष क्षेत्र मुफ्सिल क्षेत्र कहलाता था। परगने के मुखिया को दस रूपये के विवाद तक की सुनवाई का क्षेत्राधिकार प्राप्त था । 


                                       1774 की योजना में फौजदारी अदालत स्थापित की गई । काजी तथा मुफ्ती की सहायता के लिए मौलवी भी नियुक्त किये जाते थे । इनका कार्य कानून का उद्घोषण करना था। मौलवी दण्डाधिकारी नहीं होते थे।


                                                     प्रत्येक जिले के कलेक्टर का कर्तव्य था कि वह फौजदारी अदालत के सम्मुख गवाहों को पेश करें । अतः कलेक्टर प्रशासी कार्य भी करता था।

                     अपराधियों का परीक्षण खुली अदालतो में होता था। 

                                                               डकैती, हत्या , छल.कपट.शांति भंग इत्यादि के मुकदमें इन मुफ्सिल फौजदारी अदालतो द्वारा परीक्षित किये जाते थे ।यह अदालतें दण्ड में कोडे लगवाती थी तथा कारावास की सजा भी देती थी। दोषी व्यक्तियों अर्थात् अपराधियों को सडको पर दंड स्वरूप कार्य भी करना पडता था।

                                                      मुफ्सिल फौजदारी अदालतें अपराधी को मृत्यु दण्ड नहीं दे सकती थी। यदि मृत्यु दण्ड देना होता था । तो वह मुकदमा साक्ष्य के साथ सदर निजामत अदालत के अनुमोदन हेतु भेज दिया जाता था।

                                                          प्रत्येक मुफ्सिल निजामत अथवा फौजदारी अदालत को अपने प्रलेख सुरक्षित रखने पडते थे तथा निरीक्षण हेतु सदर निजामत अदालत भेजने पडते थे। इस प्रकार सदर निजामत अदालत का मुफ्सिल फौजदारी अदालतों पर नियंत्रण रहता था। 

                                                         जिलों की फौजदारी अदालतों के उपर एक सदर फौजदारी अदालत स्थापित की गई थी। इस अदालत के अधिकारी की नियुक्ति नाजिम द्वारा की जाती थी तथा इसे दरोगा अदालत कहा जाता था। दरोगा.अदालत की सहायता के लिये मुख्य काजी को नियुक्त किया जाता था। मुख्य काजी न्यायालय का मुख्य कानून उद्घोषक होता था। परन्तु वह मुख्य न्यायाधीश नहीं था।


                                         सदर फौजदारी अदालत जिले की फौजदारी अदालतो पर नियंत्रण रखती थी तथा मृत्यु दण्ड का अनुमोदन भी करती थी । गवर्नर.जनरल तथा उसकी परिषद् को सदर फौजदारी अदालत के प्रलेखों के निरीक्षण का अधिकार था।


                                           रेगुलेटिंग एक्ट 1773 ने न्याय व्यवस्था में अमूलचूल परिवर्तन किये । कलकत्ता में मेयर न्यायालय की जगह सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था की गई। सुप्रीम कोर्ट में एक मुख्य न्यायाधीश एंव एक न्यायाधीश होते थे। जो बेरिस्टर होते थे ।गवर्नर जनरल एंव उसकी परिषद को छोडकर सबके विरूद्ध क्षेत्राधिकार था । यह धार्मिक. एडमिरल्टी ,लेख क्षेत्राधिकार रखता था।

                                                       कलकत्ता में गर्वनर जनरल तथा चार सलाहकार बनाये गये । गवर्नर जनरल की परिषद बंगालए बिहारए उडीसा में कानून बना सकती थी। राजाज्ञाये जारी कर सकती थी । विधायनी शक्ति इग्लेण्ड के कानून के अंतर्गत प्रदान की गई थी। जिन्हें रेगुलेशन कहा जाता था। इस प्रकार इग्लेण्ड की संसद का कानून पहली बार कम्पनी में लागू होता था। बनारस और उसके क्षेत्र गाजीपुरए मिर्जापुरए जोनपुरए में रेगुलेटिंग एक्ट लागू किया गया ।


                                             1861 में भारतीय उच्च न्यायालय के अंतर्गत उच्च न्यायालयों की स्थापना की गई । उच्च न्यायालय मद्रासए कलकत्ता मुम्बई की गई ।एक न्यायाधीश तथा 15 से अधिक न्यायाधीश होते थे । सम्राट के द्वारा की जाती थी। जो जिला न्यायालय के विरूद्ध अपील सुनते थ् । तथा निम्न न्यायालयों में नियंत्रण रखती थी। 


                                                                 राजा नंद कुमार, कासी जुरा. पटनाकेस, कमालुद्दीन, के मामले से रेगुलेटिंग एक्ट की कमी उजागर होने पर 1881 बन्दोबस्त अधिनियम पारित किया गया । जिसमें कलकत्ता के बाहर भी कानून बनाने का अधिकार दिया गया । और सदर अदालतो को सुप्रीम कोर्ट के बराबर मानयता दी गई । 


                                                         1935 में भारत सरकार अधिनियम पारित हुआ । जिसमें दिल्ली में संघ न्यायालय फेडरल कोर्ट की स्थापना की गई। जो भारतीय उच्च न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध अपील सुनता था ।
                      यह सवैधानिक न्यायालय था। जिसके निर्णय के विरूद्ध प्रिवीकोंसिल इग्लेण्ड में अपील होती थी। 1950 में इसे समाप्त कर उच्चतम न्यायालय के रूप में इसकी स्थापना की गई ।

                     सुप्रीम कोर्ट की स्थापना के पहले प्रिवीकोसिल में अपील होती थी जो सम्राट की परिषद थी और इग्लेण्ड के परिषद को परामर्श देती थी तथा उसकी तरफ से न्याय करती थी।यह दुनिया की सबसे बडी अदालत थी। 


                                                                1726 के चाटर्स से स्थापित मेयर न्यायालय की पहली अपील गवर्नर परिषद को और दूसरी अपील इग्लैण्ड के सम्राट के सम्मुख अर्थात प्रिवीकौंसिल होती थी।
        1773 में बम्बईए कलकत्ताए मद्रास में स्थापित सुप्रीम कोर्ट की अपील प्रिवीकौंसिल में होती थी। पण्डितए दिनिशाए मुल्ला को हिन्दू विधि के लिए और फैजी को मुस्लिम विधि के लिए प्रिवीकौंसिल में नियुक्त किया गया ।


                                                                 भारत में प्रचलित कानूनो का संहिताकरण किया गया । 1833 में अखिल भारतीय व्यवस्थापिका की स्थापना की गई थी। 1835 में प्रथम विधि आयोग बनाया गया । 1853 में द्वितीय विधि आयोग के सुझाव पर भारतीय दण्ड संहिता 1860    , दं0प्र0सं0 1861     , व्य0प्र0सं0 1871ए,    बनाई गई तथा तृतीय आयोग के सुझाव पर भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम   ,भारतीय संविदा अधिनियम,                 पराक्रम लिखित अधिनियम, 1881   ,      संविदा का विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम,      भारतीय साक्ष्य अधिनियमए,     सम्पत्ति अंतरण अधिनियम,    कम्पनी अधिनियम,    साधारण खण्ड अधिनियमए,   तलाक अधिनियम, की संरचना की गई ।

                                                    भारत में प्रारंभ में हिन्दू विधि लागू होती थी। मुगल शासनकाल के बाद मुस्लिम अपराध कानून लागू हुआ लेकिन हिन्दूओ पर हिन्दू विधि और मुस्लिमो पर मुस्लिम विधि व्यवहार प्रकरणो में लागू होती थी। भारत में इग्लैण्ड की तरह अंग्रेजी शासन काल में सामान्य विधि  कामन ला  लागू होती थी।

बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006

                  बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006

                                              बाल विवाह वह है जिसमें लडके या लडकी की कम उम्र में शादी की जाती है । यह प्रथा पुराने जमाने से हमारे देश में चली आ रही है । बच्चा एक ऐसा व्यक्ति है जो अभी 18 साल का नहीं हुआ है । 

                                             एक ऐसी लडकी का विवाह जो 18 साल से कम की है या ऐेसे लडके का विवाह जो 21 साल से कम का है । बाल विवाह कहलाएगा ओर इसे बाल विवाह निषेध अधियिम 2006 द्वारा प्रतिबंधित किया गया है ।

बाल विवाह के लिए दोषी-

                                                 18 साल से अधिक लेकिन 21 साल से कम उम्र का बालक जो विवाह करता है । जिस बालक या बालिका का विवाह हो उसके माता पिता संरक्षक अथवा वे व्यक्ति जिनके देखरेख में बालक/बालिका है। वह व्यक्ति जो बाल विवाह को सम्पन्न संचालित करे अथवा दुष्प्रेरित करे । जैसे बाल विवाह कराने वाला पंडित आदि । वह व्यक्ति जो बाल विवाह कराने में शामिल हो या ऐसे विवाह करने के लिए प्रोत्साहित करे निर्देश दे या बाल विवाह को रोकने में असफल रहे अथवा उसमें सम्मिलित हो । जैसे बाल विवाह में शामिल बाराती, रिश्तेदार आदि। वह व्यक्ति जो मजिस्ट्रेट के विवाह निषेध संबंधी आदेश की अवहेलना करे ।

बाल विवाह के लिए दण्ड-


        बाल विवाह के आरोपियों को दो साल तक का कठोर कारावासए या एक लाख रूपये तक का जुर्माना अथवा दोनो एक साथ हो सकते हैं । बाल विवाह कराने वाले माता पिता, रिश्तेदार, विवाह कराने वाला पंडित, काजी आदि भी हो सकता है । जिसको तीन महीने तक की कैद और जुर्माना हो सकता है ।

        बाल विवाह कानून के तहत किसी महिला को कारावास की सजा नहीं दी जा सकती। माता पालक को भी इस जुर्म में कैद नहीं किया जा सकता केवल जुर्माना भरना पडेगा ।बालक या बालिका जिसका विवाह हुआ हो और चाहे इसमें उसकी सहमति हो या न हो ।

बाल विवाह की शिकायत-

        जिस व्यक्ति का बाल विवाह करवाया जा रहा हो उसका कोई रिश्तेदार दोस्त या जानकार बाल विवाह के बारे में थाने जाकर पूरी जानकारी दे सकता है।
 इस परपुलिस पूछताछ करके मजिस्टे्रट के पास रिपोर्ट भेजेगी । मजिस्टे्रट के कोर्ट मंे केस चलेगा औरबाल विवाह साबित होने पर अपराधी व्यक्तियों को सजा दी जाएगी ।

बाल विवाह निषेध अधिकारी-

        इस कानून के तहत राज्य सरकार द्वारा नियुक्त अधिकारी, अक्षय तृतीया जैसे सामूहिक बाल विवाहो के अवसर पर जिला मजिस्टेरट के पास बाल विवाह निषेध अधिकारी की शक्तियां दी जायेगी ।
 आवश्यकता पडने पर राज्य सरकार द्वारा अधिसूचना जारी करके बाल विवाह निषेध अधिकारी को पुलिस अधिकारी की शक्तियां दी जायेगी । 
बाल विवाह निेषेध कानून का पालनकरने के उद्देश्य से उठाये गये किसी कदम के लिए बाल विवाह निषेध अधिकारी के खिलाफ कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती ।

बाल विवाह निषेध अधिकारी के कर्तव्य-


        उचित कार्यवाही से बाल विवाह रोकना।
 कानून का उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों के विरूद्ध प्रकरण के लिए प्रमाण इकटठे करना ।
 समुदाय में लोगो से सलाह मशवरा करना ।
 समुदाय के लोगो में जागरूकता पैदा करना । 
बाल विवाह निषेध अधिकारी के पास बच्चो की अभिरक्षा भरण पोषण और न्यायिक मजिस्ट्रे से की गई शिकायत के संदर्भ में न्यायालय में आवेदन करने की शक्ति होगी । 

बाल विवाह निषेध अधिकारी के सहायक-

        प्रत्ये राज्य सरकार निम्नलिखित को नियुक्त कर सकती है । कोई भी सम्मानित व्यक्ति जिसको सामाजिक कार्य करने का अनुभव हो ।   ग्राम पंचायत या नगर पालिका का कोई अधिकारी। किसी सरकारी या गैर सरकारी संस्थ में अधिकारी ।

        विवाह बंधन में आने के बाद किसी भी बालक या बालिका की आनिच्छा होने पर उस बाल विवाह को न्यायालय द्वारा अवैध घोषित करवायाजा सकता है । बाल विवाह के बंधन में बालक बालिका वयस्क होने के दो साल के अंदर जिला न्यायालय में अर्जीदायर कर सकते हैं ।

        यदि विवाह के लिए बालक/बालिकाको उसके कानूनी अभिरक्षक से दूर ले जाया जाए या उसे किसी दूसरे स्थान पर जाने के लिए मजबूर किया जाए। या विवाह के लिए बेचा जाए या विवाह के बाद मानव तस्करी की जाए । या न्यायिक आदेश का उल्लंघन करके बाल विवाह आयोजित करवाया जाये । 

        जिला न्यायालय उसके पति को भरण पोषण देने का आदेश देगा, यदि वह वयस्क है । यदि विवाह बंधन में लडका नाबालिग है तो न्यायालय उसके मां बाप या अभिरक्षक को यह आदेश देगा । जिला न्यायालय दोनो पक्षों को विवाह में दिए गए गहने कीमती वस्तुएंे और धन लौटाने के आदेश देगा ।यदि याचिका/आवेदन बालिका द्वारा दायर की गई है तो न्यायालय उसके पुनर्विवाह होने तक उसके निवास के लिए भी आदेश देगा ।

बाल विवाह से संबंधित मामलो में याचिका-

        बाल विवाह कानून के तहत किसी भी राहत के लिए संबधित निम्नलिखित जिला न्यायालय में अर्जी दी जा सकती है-
        प्रतिवादी के निवास स्थान से संबंधित जिला न्यायालय । बाल विवाह के स्थान पर । जिस  जगह पर दोनो पक्ष पहले एक साथ रह रहे थे। याचिकाकर्ता वर्तमान मे जहां रह रहा हो उससे संबंधित जिला न्यायालय।

बाल विवाह के कुप्रभाव-

        कम उम्र में गर्भाधान के मामलो में वृद्धि ।
 समय से पहले प्रसव की अधिक घटनाये । 
माताओ की मृत्यु दर में वृद्धि, गभर््ापात और मृत प्रसव की उंची दर ।
 शिशु मृत्यु दर औरअस्वस्थता दर में वृद्धि । 
घरेलू हिंसा औरलिंग आधारित हिंसा ।
 बच्चो के अवैध व्यापार और लडकियों की बिक्रीमें वृद्धि । 
 बच्चो द्वारापढाई छोडने की घटनाओ में वृद्धि ।
 बाल मजदूरी और कामकाजी बच्चो का शोषण ।
 लडकियों पर समय से पहले घरेलू कामकाज की जिम्मेदारी ।

बाल विवाह को रोका जाना-

        समय रहते शिकायत स्वयं करने या रिश्तेदार दोस्त आदि द्वारा मजिस्ट्रेट के पास दर्ज करने पर आदेश मिलने पर पुलिस ऐसे विवाह को रोकने की कार्यवाही करेगी और दोषी को सजा या जुर्माना हेतु केस दर्ज किया जाएगा ।

               



व्यस्क मताधिकार उमेश कुमार गुप्ता

                व्यस्क मताधिकार
उमेश कुमार गुप्ता
                                                                 भारतीय संबिधान के अनुच्छेद 325 के अनुसार कोई भी व्यक्ति केवल धर्म मूलबंश जाति लिंग या इनमें से किसी भी आधार पर नामावली में सम्मलित होने से अपात्र नहीं समझा जावेगा । संविधान के अनुच्छेद 326 के अनुसार 18 वर्ष की अवस्था से कमनहीं है । निर्वाचक मतदाता के रूप में शामिल होने का हकदार है,। व्यस्क मताधिकार एक विधि द्वारा प्रदत्त कानूनी अधिकार है। जो मूल अधिकार से अलग है इस पर विधि अनुसार मानसिंक चित्त विकृति , अपराध ,भ्रष्ट आचरण,या अबैध आचरण के आधार पर रोक लगाई जा सकती है । इसी कारण जेल में सजा भुगत रहे केदी अथवा पुलिस अभिरक्षा में रह रहे व्यकित लोक प्रतिविधिक अधिनियम की धारा 62-5 के अंतर्गत रोक लगाई जा सकती है । 
 
                                                                 मान्नीय सर्वोच्य न्यायालय के द्वारा प्रत्याशी के पूर्व चरित्र जानने का अधिकार मतदाता को प्रदान किया गया है और प्रत्येक प्रत्याशी को अपना नामांकन भरते समय अपना रिकार्ड ,संपति ओर शैक्षणिक योग्यता के संबंध में जानकारी देने का पूर्ण अधिकार बना दिया है ।

                                                           मान्नीय सर्वोच्य न्यायालय के द्वारा मतदाता को सूचना का अधिकार संबिधान के अनुच्छेद 19 में प्रदत्त अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के मूल अधिकार का एक अभिन्न अंग है । प्रत्याशी को नामांकन भरते समय निम्नलिखित पांच सूचनाऐं देना अनिवार्य किया गया है:-
1- क्या प्रत्याशी को पहले किसी आपराधिक मामले में दोषी ठहराया गया है ,दोषमुक्त किया गया है,अथवा बरी किया यदि ऐसा है तो क्या उसे जेल की सजा या जुर्माना किया गया है ।
2- नामांकन पत्र भरने से 6मास पहले क्या प्रत्याशी किसी ऐसे अपराध के मामले मेे आरोपी ठहराया गया है जिसमंे दो या दो से अधिक वर्ष के कारावास की सजा का प्रावधान है और जिसमें आरोप तय किये गये हो या न्यायालय द्वारा संज्ञान लिया गया हो यदि ऐसा है तो उसका विवरण ।
3- प्रत्याशी या उसके पति या पत्नि तथा आश्रितों की परिसंपतियाॅ चल,अचल,बैंक बेलेन्स आदि । 
 
4- प्रत्याशियों की दैनदारियाॅ और विशेषकर क्या किसी सार्वजनिक वित्तीय संस्थान अथवा सरकार की देनदारियाॅ बाकी हैं ।
5- प्रत्याशियों के शैक्षणिक योग्यता की जानकारी ।

                                                                    लोगो का मानना है कि भारत में भीड़तंत्र है, यहां पर भीड़ के द्वारा भीड़ में से भीड़ जैसे लोग दंबगता के आधार पर चुने जाते हैं । अधिकांश मतदाता अशिक्षित हैं । इसलिये प्रत्येक व्यक्ति के मतदान का उसकी शिक्षा के आधार पर मूल्यांकन होने पर ही बेदाग छबि वाले लोग चुने जा सकते हैं । दागदार छबि वाले लोग बाहूबल, धनबल, गनबल के आधार पर चुनकर आते हैं । जिसके कारण स्वच्छ और निर्मल छबि वाले लोग उनका सामना चुनाव में नहीं कर पाते इस कारण स्वच्छ छवि वाले लोग चुनकर नहीं आते हैं । 

 
                                                भारतीय संबिधान में समानता का अधिकार दिया गया है ओर वर्ग विशेष के व्यक्तियों के मध्य समानता के आधार पर भेदभाव किया जा सकता है । भारतीय संबिधान में शिक्षा के आधार पर विभेद बिहार राज्य विरूद्व बिहार राज्य प्रवकता संघ ए0आई0आर0 2007 एस0सी0 1948 जे0के0 मोहन विरूद्व भारत संघ एवं ए0आई0आर0 2008 एस0सी0-308 के अनुसार शिक्षा के आधार पर विभेद किया जाना युक्तियुक्त है वह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लघंन नहीं करता है । 
 
                                                                           ऐसी स्थिति मंे यदि भारतीय संबिधान में संशोधन द्वारा शिक्षा के आधार पर विभेद करते हुये बोट की गिनती की जाये तो भीड़तंत्र को लोकतंत्र में बदला जा सकता हे । हमारे संबिधान में राष्टृपति के चुनाव के लिये अप्रत्यक्ष प्रक्रिया अपनाई जाती है जिसमें
वोट विधान सभा, संसद के निर्वाचित सदस्य और जन संख्या के आधार पर विभेद करते हुये राष्टृपति का चुनाव किया जाता है । 
 
                                                         भारतीय सबिधान में ऐसे कई उदाहरण है जहां शिक्षा और शिक्षा के आधार पर विभेद किया जाता है यदि बोट की गिनती भी शिक्षा के आधार पर की जावे तो बेदाग छबि वाले लोग सामने आयेगें और लोगो का शिक्षा के प्रति रूझान बड़ेगा । लोग अपने वोट के महत्व को समझते हुये अधिक से अधिक शिक्षा प्राप्ति का प्रयास करेंगे । लंेकिन इसके लिये एक लम्बी कानूनी बहस और कानूनी जंग की आवश्यक्ता है ।

2004 भाग-6 सुप्रीमकोर्ट केसेज 485 307ipc

               2004 भाग-6 सुप्रीमकोर्ट केसेज 485धारा 307

                                                            न्यायालय को यह देखना चाहिये कि क्या प्रश्नगत कृत्य, इसके परिणाम को विचार में लिये बिना आशय या ज्ञान के स्थान किया गया था और धारा 307 में उल्लंखित परिस्थितियों के अधीन किया गया था । यह धारा 307 के तहत दोषसिद्वी को न्याय संगत ठहराने के लिये पर्याप्त है । यदि यह पाई जाती है और जांच में जिनके निष्पादन में कोई खुला कृत्य पाया जाता है 
 
                                             यह आवश्यक नहीं है कि मृत्यु कारित करने में समर्थ शारीरिक क्षति की प्रकृति को वास्तव में कारित की गई थी , अभियुक्त के आशय केबारे में निष्कर्ष पर पहुंचने में पर्याप्त सहायता,अवसर दे सकेगी । ऐसा आशय अन्य परिस्थितियों में भी निकाला जा सकेगा और जहां तक कि कुछ मामलों में समस्त वास्तविक उपहतियों के किसी संदर्भ के बिना अभिनिश्चित किया जा सकेगा

बौद्धिक संपदा

                      बौद्धिक संपदा


                                                                      बौद्धिक संपदा एक व्यक्तिगत विचार एवं बुद्धि से सृजित कोई कृति है तथा बौद्धिक संपदा अधिकार किसी सृजक के, वे बौद्धिक कार्य या विचार हैं, जो उसे संगीत, कला आदि के क्षेत्र में नवीन सृजन अथवा खोज (अन्वेषण) के लिये व्यापार संव्यवहार हेतु प्रयुक्त करने के लिये प्राप्त है ।

                                                  बौद्धिक संपदा अधिकार के रूप में कापीराइट, पेटेंट, ट्रेडमार्क, भौगोलिक संकेत, औद्योगिक / लेआउट डिजाइन आते हैं । उक्त बौद्धिक संपदा के संरक्षण का विश्व स्तर पर प्रयास किया जा रहा है, जो कि विश्व व्यापार एवं अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में उद्यमों एवं उत्पादों की प्रतिस्पर्धा को सुनिश्चित एवं संरक्षित करने के लिये आवश्यक है । 

                                            अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इन अधिकारों को विश्व बौद्धिक संपदा संगठन ;ूपचवद्ध द्वारा संरक्षित किया जाता है, जिसका मुख्यालय जेनेवा में है । भारत भी इस संगठन का सदस्य देश है । अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बौद्धिक संपदा अधिकारों को संरक्षित करने हेतु ट्रिप्स समझौता किया गया है । प्रत्येक सदस्य देश में ऐसे अधिकारों के मानको के संरक्षण के लिये विभिन्न विधियाॅं अधिनियमित की गई हैं । 

 
भारत में बौद्धिक संपदा अधिकार के संरक्षण हेतु अधिनियमित विधियों में मुख्यतः निम्न विधिया हैंः-

01- कापीराइट अर्थात् प्रतिलिप्याकार अधिनियम, 1957 (संशोधित अधिनियम, 1999)
02- माल के भौगोलिक संकेत (पंजीकरण एवं संरक्षण) अधिनियम, 1999
03- ट्रेडमार्क एक्ट, 1958 (संशोधित अधिनियम,1999)
04- पेटेंट एक्ट, 1970 (संशोधित अधिनियम, 1999, 2002एवं 2005)
05. डिजाइन अधिनियम, 1911 (संशोधित अधिनियम, 1999)


                                                ‘‘कापीराइट अर्थात् प्रतिलिप्याकार’’ का अर्थ है किसी रचनाकार द्वारा रचित मौलिक साहित्यिक नाटक, संगीतात्मक और कलात्मक कृति अर्थात् चलचित्र, फिल्म, ध्वनि रिकार्डिंग आदि के मौलिक स्वरूप में उस रचनाकार का प्रथम स्वत्व है तथा बिना अनुमति या प्राधिकार के उस कृति को अन्य व्यक्ति द्वारा पुर्नउत्पादित अथवा पुर्नप्रसारित नहीं किया जा सकता ।


                                              ऐसी कृति हेतु उक्त अधिकार को सृजक अथवा अनुज्ञप्तिधारी विधिवत् पंजीकृत कराकर प्रमाण-पत्र प्राप्त कर सकता है । कापीराइट एक्ट, 1957 के अंतर्गत इस अधिकार के उल्लंघन होने पर ऐसे अधिकार का धारक व्यक्ति धारा-55 के अंतर्गत सिविल उपचार जैसे- व्यादेश, क्षतिपूर्ति प्राप्त करने का अधिकारी होता है । आपराधिक उपचार के अंतर्गत अतिलंघनकर्ता को धारा-63 से 68 के अंतर्गत भिन्न-भिन्न अपराधों में न्यूनतम छः माह एवं अधिकतम तीन वर्ष के कारावास या पचास हजार रूपये से दो लाख रूपये तक के अर्थदण्ड से दंडित किया जाना प्रावधानित है । 

 
                                          ‘‘माल के भौगोलिक संकेत’’ से आशय किसी विशिष्ट क्षेत्र में विशेषतः निर्मित उत्पाद या उस स्थान की गुणवत्ता का उत्पाद जो कृषि वस्तु या प्राकृतिक या प्रसंस्करित उत्पाद के उत्पादन या प्रसंस्करण की पहचान के संकेत से है । इस हेतु सामान्य शर्तों के अंतर्गत ऐसे विशिष्ट उत्पादों का पंजीकरण कराया जाता है जो आरंभ में दस वर्ष के लिये होता है, जिसे दो वर्ष तक विस्तारित किया जा सकता है ।

                                        भारत में माल के भौगोलिक संकेत (पंजीकरण एवं संरक्षण) अधिनियम, 1999 क्ष्ळमवहतंचीपबंस प्दकपबंजपवदे व िळववके;त्महपेजतंजपवद - च्तवजमबजपवदद्ध ।बजए 1999द्व में विधि अधिनियमित है, जिसमें उल्लंघनकर्ता के विरूद्ध सिविल उपचार में व्यादेश तथा क्षतिपूर्ति पाने का अधिकार है । आपराधिक उपचार में छः माह से तीन वर्ष तक का कारावास एवं पचास हजार रूपये से दो लाख रूपये तक अर्थदण्ड प्रावधानित है, जिसे न्यायालय से अतिलंघनकर्ता के विरूद्ध प्राप्त किया जा सकता है ।

                                                                        ‘‘ट्रेडमार्क’’से आशय किसी विशिष्ट वस्तु या माल या सेवा के संबंध में पैकेजिंग या आकार अथवा रंग संयोजन के संबंध में एक विशिष्ट प्रतिनिधित्व चिंह से है ऐसे व्यापार चिंह को ऐसे माल का धारक स्वामी उसकी विशेषता हेतु पंजीकरण करा सकता है ।
                                   ऐसे पंजीकृत व्यापार चिन्ह के संबंध में अधिनियमित विधि व्यापार एवं पण्य चिन्ह अधिनियम, 1958 को ट्रेडमार्क अधिनियम, 1999 के अंतर्गत संशोधित किया गया है । किसी व्यक्ति द्वारा पंजीकृत व्यापार चिन्ह संबंधी विधि का उल्लंघन करने पर धारा 103 के अंतर्गत छःमाह से तीन वर्ष तक का कारावास एवं 50,000 रूपये से 2,00,000 रूपये तक का अर्थदण्ड अधिरोपित किया जा सकता है।
                       धारा-104 से 106 तक अन्य दांडिक प्रावधान है । परिवेदित व्यक्ति जिला न्यायाधीश के न्यायालय में सिविल उपचार हेतु व्यादेश, नुकसानी तथा व्यय हेतु दावा कर उपच.ार प्राप्त कर सकता है ।

                                             ‘‘पेटेंट’’ एक ऐसा अनन्य विशेषाधिकार है, जो किसी आविष्कारक या सृजक को उसके अविष्कार, लेख, संनिर्माण, संरचना अथवा कृति हेतु सीमित अवधि आरंभ में बीस वर्ष तक के लिए प्रदान किया जाता है । प्राचीन काल से ही पेटेंट के संबंध में विश्व के विभिन्न देशों में संधियंाॅ -समझौते होकर विधियंाॅ निर्मित हुई हैं ।

                       पेटेंट अधिकार की घोषणा हेतु पेटेंट अधिनियम, 1970 (संशोधित अधिनियम, 2005) में पेटेंट अधिकार का उल्लंघन होने पर धारा-105 तथा 106 के अंतर्गत व्यादेश एवं धारा-110 के अंतर्गत क्षतिपूर्ति जिला न्यायाधीश के न्यायालय में वाद प्रस्तुत कर प्राप्त की जा सकती है ।

                                          ‘‘डिजाइन’’ का आशय किसी वस्तु के दृश्यमान आकार विन्यास, आभूषण, सौन्दर्य विन्यास या लाईन या रंगयुक्त दो या तीन आयामी संरचना है, जो ऐसी वस्तु के औद्योगिक उत्पाद हस्तकला के रूप में मुद्रित या उत्पादित की जा सकती है । पूर्व में डिजाइन के अधिकार को संरक्षित करने केे लिए डिजाइन एक्ट, 1911 उपबंधित किया गया, जो वर्तमान में डिजाइन अधिनियम, 2000 के रूप में प्रवर्तित है ।

                                           किसी डिजाइन के सृजक द्वारा सृजित कृति को पंजीकरण कराये जाने पर उस पंजीकृत उद्योग अथवा लेआउ्ट डिजाइन का अवैध उपयोग कर विधि का उल्लघंन करने पर अतिलंघनकारी से 25000 रूपये तक की क्षतिपूर्ति संविदा में दिये ऋण की वसूली के रूप में की जा सकती है । सिविल उपचार हेतु जिला न्यायाधीश के न्यायालय में सिविल वाद प्रस्तुत कर व्यादेश के अनुतोष के साथ हानि प्रतिपूर्ति 50,000 रूपये तक प्राप्त की जासकती है ।
                                                                इस प्रकार न्यायालयों द्वारा उपरोक्त वर्णित विधियों के द्वारा वौद्धिक संपदा अधिकार को संरक्षित किया जाता है । इसके साथ ही भारत शासन द्वारा विश्व बौद्धिक संपदा के संरक्षण हेतु कई प्रोजेक्ट विश्व वौद्धिक संपदा संगठन एवं यूनाईटेड नेश्ंास के साथ विभिन्न संधियों तथा समझौतों के द्वारा किये जा रहे हैं, जिनसे विश्व बौद्धिक संपदा का संरक्षण हो सके ।



ए.आई.आर. 2003 सुप्रीम कोर्ट 189

                        ए.आई.आर. 2003 सुप्रीम कोर्ट 189

        ए.आई.आर. 2003 सुप्रीम कोर्ट 189 में 3 जजों की खण्डपीठ में सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा-27, 89, 100ए आदेष 7 नियम 11, आदेष 18 नियम 4, आदेष 41 नियम 9, संषोधित प्रावधानों की व्याख्या की है ।

 इसके अनुसार धारा-27 में 30 दिन का जो समय दिया गया है

 उसके अतिरिक्त संमंस तामीली के 30 दिन के अंदर वादोत्तर की तैयारी करने की नहीं बल्कि वाद प्रस्तुति की दिनांक से 30 दिन के अंदर जितने कदम उठाये जा सकते है

 उतने प्रतिरक्ष के संबंध में प्रतिवादी को उठाये जाने चाहिए इस बात की व्याख्या की है ।

 धारा-89 के अंतर्गत न्यायालय के द्वारा कमेटी अथवा संस्था को सलाह हेतु मामला भेजा जा सकता है ।

        धारा‘100ए के सवेधानिक  माना है ।

 आदेष 7 नियम 11 के अंतर्गत द्वितीय प्रतिलिपि प्रस्तुत किये जाने पर न मंजूरी का प्रावधान अप्रचलनषील हो जाता है। 

आदेष 18 नियम 4-1 के प्रावधान संमंस पर बुलाये गये गवाहों पर लागू नहीं होता है । 

न्यायालय द्वरा आधी साक्ष्य खुद और आधी साक्ष्य कमिषनर से अभिलिखित नहीं कराया जा सकता है ।

 न्यायालय को ख् द निर्धारित करना पडेगा कि गवाह उसको खुद लाना है अथवा कमिषनर से लाना है ।

 आदेष 18 नियम 17 के अंतर्गत अतिरिक्त गवाहों की अनुमति नहीं दी गई है । यह प्रावधान विलोपित कर दिया गया है। 

आदेष 41 नियम 9 के अंतर्गत मेमो फाइलिंग----

राजस्थान राज्य विरूद्ध भारत संघ 2012 भाग-6 एस.एस.सी. पेज-1 में दिनाॅक-04.12.12

                                6 वर्ष की आयु से 14 वर्ष की आयु के बालकों के माता-पिता संरक्षकों का यह कर्तव्य होगा कि शिक्षा प्रदान करें इसलिए शिक्षा को मूल अधिकार बना दिया। बालकों के लिये अनिवार्य शिक्षा के लिये कानून बनाया गया है। 
 
                                                        माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा अधिनियम-2009 को चुनौती देने वाली याचिका राजस्थान राज्य विरूद्ध भारत संघ 2012 भाग-6 एस.एस.सी. पेज-1 में दिनाॅक-04.12.12 को इस अधिनियम को वैघ ठहराया था एवं निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा के संबंध में दिशा-निर्देश दिये गये।

             इसके बाद पुनः माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा शिक्षा-दिक्षा स्कूल में स्थिति में सुधार-के मामले में पर्यावरण एवं उपभोक्ता संरक्षण फांउण्डेशन वि0 दिल्ली राज्य सि0 रिट याचिका 631/2004 में दिनाॅक-10.03.2012 को मान0 उच्चतम न्यायालय ने दिशा-निर्देश जारी किये 

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1. सरकार केन्द्र और राज्य स्तर पर बच्चों के अधिकारों की जांच हेतु बाल अधिकार संरक्षण आयोग की स्थापना करेगी। 
 
2. बाल संरक्षण अधिकार आयोग मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के लिये बच्चों के अधिकार से संबंधित शिकायतों की जाॅच करेगा।
3. बाल अधिकार संरक्षण आयोग बच्चों के अधिकारों की सुरक्षा उपायों की समीक्षा करेगी और उनके प्रभावी कार्यान्वयन हेतु सिफारिश करेगी। 
 
4. प्रत्येक स्कूल में पानी की सुविधा पर्याप्त क्लास रूम लड़के- लड़कियों के लिये अलग-अलग शौचालय संबंधी दिशा निर्देश दिये गये। 
 
5. यह दिशा निर्देश राज्य के स्वामित्व, निजि, स्वामित्व, सहायता प्राप्त, गैर सहायता प्राप्त, अल्पसंख्यक, गैर अल्पसंख्यक सभी स्कूलों पर लागू होंगे।