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सोमवार, 5 अगस्त 2013

मानव अधिकार एंव आयोग


मानव अधिकार एंव आयोग


                                               मानव अधिकार वे अधिकार हैं जो मानव को मानव होने का बोध कराते हैं। इसमें वे सभी अधिकार शामिल हैं जिनका संबंध व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता, समानता व प्रतिष्ठा से है।भारत के संविधान में प्रत्येक व्यक्ति को मूल अधिकार दिए गए हैं । जो उसके जीवन स्वास्थ्य, रहन-सहन आदि बातों से संबंधित हैं । इन मूल अधिकारों की गारंटी माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गई है ।


                                  मानव अधिकार स्त्री, पुरुष, बच्चे और वृद्ध सभी लोगों को समान रूप से प्राप्त हैं। इन अधिकारों का हनन, जाति, वर्ण, धर्म, भाषा, लिंग के आधार पर नहीं किया जा सकता। मानव अधिकार सभी के जन्मजात अधिकार हैं।




                                                     इसके अलावा मानव अधिकार में वे अधिकार भी शामिल हैं जिनका भारत के कानून में उल्लेख है। इसके साथ ही ऐसी अंतर्राष्ट्रीय सर्वमान्य घोषणाओं को भी मानव अधिकार माना गया है । जिन्हें भारत के न्यायालयों में लागू किया जा सकता है। मानव अधिकार किसी विचाराधीन बन्दी या अपराधियों से संबंधित नहीं है । बल्कि आम आदमी से संबंधित है। प्रत्येक व्यक्ति को पीने का स्वच्छ पानी ें, स्वास्थ्य शिक्षा, रोजगार, आवास, प्राप्त हो, सार्वजनिक विवरण प्रणाली का सही उपयोग हो, आदि मूल-भूत बातंे इसमें शामिल हंै, परन्तु मानव अधिकारों का भी प्रचार प्रसार न होने के कारण हम इन्हें अपराधियों, अंातकवादियों, देशद्रोहियों की लाश में तलाशते हैं और वे ही सबसे ज्यादा इनका रोना रोते हैं । 


                                                       हमें इस बात पर पुर्नविचार करना चाहिए कि किस सीमा तक देश के विरूद्ध हथियार उठाने वाले देश द्रोहियों आतंकवादियो को मानव अधिकार प्राप्त होना चाहिए क्योंकि राष्ट्र् हित मानव हित से सर्वोपरि है । इनसे देश की एकता , अखण्डता सम्प्रभूता प्रभावित होती है ।
                                              मानव अधिकार की रक्षा के लिए मानव अधिकार आयोग की रचना की गई है । जिसमें व्यक्तियों के बीच मानव अधिकार लागू करने के विषय पर कार्य किया जाता है । मानव अधिकार के उल्लंघनों के प्रकरण न्यायालय के विषय हैं, किन्तु मानव अधिकार आयोग की कार्यप्रणाली न्यायालय से भिन्न है। आयोग निर्णय पारित करने वाला न्यायालय नहीं है। आयोग का अधिकार क्षेत्र वहीं तक है जहंा मानव अधिकार के उल्लंघन के मामलों में शासन के लोकसेवक सहायता करने के बजाय स्वयं ही मानव अधिकारों का उल्लंघन करते हैं।


                                            मानव आधिकार आयोग द्वारा केवल उन्हीं शिकायतों पर संज्ञान लिया जाता है जिनमें लोक सेवक मानव अधिकारों के उल्लंघन पर कार्यवाही नहीं करते। यानी आरोपी की परोक्ष या अपरोक्ष रूप से मदद करते हैं। ऐसी शिकायतों पर आयोग को निर्देश या सिफारिश करता है।
                                      मानव अधिकार आयोग का कार्य देश में प्रचलित शासकीय , अशासकीय कार्यालयों , दफ्तरों और आॅफिसों में यह देखना है कि लोक सेवकों के द्वारा देश के नागरिकों के मानव अधिकारों का हनन तो नहीं किया जा रहा है। संविधान के द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों की गारंटी नागरिकों से प्रदान कराना है ।


                                          मानव अधिकार आयोग का कार्य में कानून में पारित रक्षा उपायों का क्रियान्वयन कराना जेल में बंदियों की दशा सुधारने के कार्य करना उन्हें संरक्षण प्रदान करना, इस संबंध में मार्गदर्शन सिद्धांत बनाना है और उसकी सतह में उत्पन्न समस्याओं को दूर करना है । जिसके कारण देश में जेलों की नरकीय स्थिति सुधरी है , आज वे सुधार गृह हो गए हैं । मानव अधिकारों की रक्षा के लिए मानव अधिकार आयोग का गठन राष्ट्र्ीय और प्रदेश स्तर पर किया गया है ।


 
मानव अधिकार आयोग का कार्य क्षेत्र



1- प्रशासन के अधिकारी, कर्मचारी, पुलिस और अर्ध शासकीय संस्थाओं में कार्यरत व्यक्ति यदि


 कानून में दी गई शक्तियों का दुरु


पयोग कर मानव अधिकारों का हनन करते हैं तब आयोग राहत दिलाने का कार्य करता है। 

 
2- मानव अधिकारों का उल्लंघन होने पर जनता को राहत दिलाना आयोग का प्रमुख कार्य एवं 



उत्तदायित्व है और यही उसके गठन का प्रयोजन भी है।

3- आयोग का कार्य मानव अधिकारों के प्रति लोगों को जाग्रत करने का है। इसके लिए समय-समय 



पर आयोग मित्रों और प्रशासन के सहयोग से प्रदेश भर में सम्मेलन, कार्यशालायें और विशेष 


आयोजन किये जाते हैं। 

 
4- मानव अधिकारों के संबंध में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हुए समझौते के बाद जारी किये गये घोषणा 


पत्रों के प्रावधानों को कानून में शामिल करने के लिए प्रयत्न करना भी आयोग का महत्वपूर्ण कार्य


 है। 

 
5- इसके लिए आयोग द्वारा आवश्यक मार्गदर्शन व दिशा-निर्देश कार्यपालिका और विधायिका को दिये 

जाते हैं।

6- यद्यपि आयोग एक न्यायालय नहीं है तथापि आयोग अपनी अनुशंसाओं के माध्यम से मानव 


अधिकारों का संरक्षण करने के लिए विद्यमान कानूनों को अमल में लाने के संबंध में दिशा-निर्देश



 एवं सुझाव शासन को दें सकता है। 


 
7- आयोग द्वारा शासन को की गई सिफारिशें निर्धारित अवधि में पालन किये जाने की अपेक्षा


आयोग की रहती है। अनुशंसाओं की अवज्ञा या उपेक्षा अनपेक्षित है।


8- मानव अधिकार संबंधी जिन विषयों पर कोई भी कानून नहीं हैं। उन पर भी आयोग शासन को 
दिशा-निर्देश देता है। 

 
9- आयोग द्वारा चाहे अपराधी हो, पीडि़त हो, देशी या विदेशी हो, उसका उत्पीड़न और अनादर 


न होने देने के लिए कार्यवाही कर आवश्यक निर्देश दिये जाते हैं। 



 
10- आयोग द्वारा उन सभी स्थानों पर मानव संबंधी सभी मूलभूत व्यवस्थाओं को सुनिश्चित किया 

जाता है । जहां व्यक्तियों को आश्रय दिया जाता है, कार्य पर रखा जाता है अथवाा निरुद्ध किया 

जाता है।

11- आयोग अपराधों पर तभी संज्ञान लेता है जब अपराध की प्रथम सूचना दर्ज नहीं की जाती या 



दर्ज कराने के बाद भी पुलिस द्वारा कार्यवाही नहीं की जाती अथवा विवेचना और अनुसंधान में 


किन्हीं कारणों से जानबूझकर छेड़छाड़ या लापरवाही बरती जाती है। 

 
12- आयोग के कार्यक्षेत्र में नौकरी कर रहे व्यक्तियों के सेवा संबंधी विवादों में सीधा हस्तक्षेप करना नहीं है। सेवा संबंधी विवादों के संबंध में कर्मचारियों को पहले सक्षम प्राधिकारियों से ही सहायता प्राप्त करना चाहिये।

13- आयोग का कार्य पुलिस थानों, अस्पताल, जेल और स्कूलों का आकस्मिक निरीक्षण।


14- आयोग का कार्य विप्लव तथा आतंकवाद से ग्रस्त क्षेत्रों में मानव अधिकारों का संरक्षण।


15- आयोग का कार्य बलात्कार, उत्पीड़न से प्रभावितों और अभिरक्षा तथा जेल में मृत्यु होने पर 

  मदद दिलाने का कार्य। 


 
16- आयोग का कार्य शिक्षण संस्थाओं में रैगिंग रोकने का प्रयास।


17- आयोग का कार्य स्कूलों में शुद्ध पेयजल, साफ-सुथरे प्रसाधनगृहों और बस्ते का बोझ कम करने का प्रयास।


18- आयोग का कार्य मानव अधिकारों के संरक्षण के लिये कार्यरत गैर सरकारी संगठनों को प्रोत्साहन को शोध अध्ययन के अवसर उपलब्ध कराना।

आयोग की कार्य प्रणाली

1- आयोग का स्वयं का अन्वेषण दल है, जिसका प्रमुख पुलिस महानिरीक्षक स्तर का अधिकारी होता है।

2- आयोग किसी विशिष्ट मामले में अन्वेषण कार्य के लिए उपयुक्त संख्या में अन्वेषक या पर्यवेक्षक नियुक्त कर सकता है। 

 
3- आयोग व्यापक लोक हित के मामलों में अनुशंसा करने के पूर्व विशेषज्ञों की समिति गठित कर सुझाव भी ले सकता है।

4- आयोग में व्यक्ति स्वयं उपस्थित होकर या अपने प्रतिनिधि अथवा डाक या फैक्स के माध्यम से आयोग को सीधे शिकायत पत्र प्रस्तुत कर सकता है। इसके लिए किसी वकील की आवश्यकता नहीं है।
5- शिकायत भेजने के लिए कोई निर्धारित प्रारूप नहीं है, शिकायत साधारण कागज पर लिखकर भेजी जा सकती है।

6- शिकायत भेजने के लिए आयोग द्वारा हाल ही में ई-मेल के माध्यम से भी नई सुविधा शुरू की गयी है। इसके लिए मध्यप्रदेश शासन के पोर्टल एम. पी. आॅनलाइन के किसी भी सेंटर से शिकायत भेजी जा सकती है।
7- समाचार पत्रों में प्रकाशित व्यापक जनहित अथवा व्यक्तिगत मामलों में मानव अधिकार के हनन की खबरों पर भी संज्ञान लेकर आयोग द्वारा कार्यवाही की जाती है।
8- आयोग द्वारा घटनाएं घटित होने के एक साल बाद की जाने वाली शिकायतो पर कार्यवाही नहीं की जाती ।
9- आयोग द्वारा किसी अन्य न्यायालय या आयोग के समक्ष विचाराधीन प्रकरण पर कार्यवाही नहीं की जाती ।

10- आयोग द्वारा समझ में न आने वाली शिकायतों पर कार्यवाही नहीं की जाती।


11- आयोग द्वारा ऐसी शिकायतें जो आयोग के विचार क्षेत्र से बाहर हैं और वे जिनमें ओछापन दिखता हो पर कार्यवाही नहीं की जाती है ।


                                                         हमारे देश में शिक्षा की कमी के कारण अधिकारों के प्रति जागरूकता नहीं है जिसके कारण समाज में अपराध बढ़ते हैं । इसलिए यदि हम अधिकारों के प्रति सचेत रहे तो प्रत्येक बुराई का तत्परता से विरोध कर उसका दमन कर सकते हैं और इस कार्य एंव में मानव अधिकार आयोग आपकी सहायता करने पूरी तरह कटिबद्ध है । प्रत्येक जिले में माननीय जिला एवं सत्र न्यायाधीश महोदय को मानव अधिकार के हनन के संबंध में सुनवाई का क्षेत्राधिकार प्रदाय किया है जहाॅ पर परिवाद प्रस्तुत कर सहायता प्राप्त की जा सकती है ।
उमेश कुमार गुप्ता



















विवाह का रजिस्ट्र्ेशन


                                                 विवाह का रजिस्ट्र्ेशन




माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा सीमा बनाम अश्विनी कुमार के 

मामले 


में सभी धर्मो के लिये शादी का रजिस्टे्र्ेशन अनिवार्य कर 


दिया गया

 है । माननीय उच्चतम न्यायालय ने 2006 में सभी धर्मो के लिये 


विवाह 

पंजीकरण कानून बनाने के निर्देश दिये थे । पक्षकार किसी भी धर्म

 से




 संबंधित हो सभी का विवाह पंजीयन अनिवार्य किया गया । इसके

 लिए 


केन्द्र सरकार ने जन्म एवं मृत्यु पंजीकरण कानून में संसोधन के 


द्वारा 


इसे 



शामिल किया है

नये कानून के आने पर सभी धर्मोके लोगों के लिए एक ही कानून 


जन्म,



 मृत्यु एवं विवाह पंजीयन अधिनियम के तहत्शादी पंजीकृत की 


जाएगी 



।इससे उनके धार्मिक अधिकारों और प्रक्रियाओं पर कोई प्रभाव


 नहीं 


पडेगा ।शादी संबंधी किसी भी विवाद का निपटारा अपने अपने


धर्मो क 



विवाह कानूनों के तहत्ही होगा ।



शादी के रजिस्ट्र्ेशन से यह लाभ होगा कि:-




1- वैवाहिक मामलों में महिलाओं को उत्पीडन से बचाया


 जा सकेगा ।

2- बाल विवाह जैसी समस्याओं से भी निजात मिलेगी । 

 
3- संबंधित पक्षों को अंधेरे में रख कर होने वाली शादियों पर


 पावंदी लगेगी


4- गैर कानूनी बहुविवाह पर रोक लगाने में मदद मिलेगी ।


5- विवाह के लिए न्यूनतम आयु की पावंदी लागू की जा सकेगी ।



6- विवाहित स्त्रियों को अपने ससुराल में रखने का हक हांसिल 

करने में आसानी होगी । 

 
7- महिलाओं को विवाह का सबूत देने के लिए भटकना नहीं होगा । 

 
8- देश में समान अचारसंहिता कि संविधान कि उपधारणा को े

 बढ़ावा मिलगा। 



                                                             इस संबंध 

में म0प्र0 सरकार ने म0प्र0 विवाहों का अनिवार्य रजिस्ट्रीकरण


 नियम, 2008 कि रचना कि 


है जो 23.01.2008 से प्रभावशील है। इसके नियम 3 के अनुसार 


इन नियमों के प्रारंभ होने पर, 0प्र



 के राज्य क्षेत्र के भीतर ऐसे विवाहों को प्रशासित करने वाली


 किसी विधि या रूढि़ के अधीन



 भारत के नागरिकों के बीच अनुष्ठापित तथा संविदाकृत विवाह


 और इन नियमों के उपबंधों के 



राज्य सरकार इसके लिए एक रजिस्ट्रार कि नियुक्ति करेगी। जब 


तक रजिस्ट्रार कि नियुक्ति नहीं 



होती है।




 जन्म तथा मृत्यु रजिस्ट्रीकृत करने के लिए सक्षम व्यक्ति व्यवहार 


रजिस्ट्रार समझा जाएगा। 

 
नियम 7 के अनुसार विवाह का रजिस्ट्रीकरण प्रारूप 1 में ज्ञापन


 प्रस्तुत करने पर विवाह की तारीख

 से 30 दिन के भीतर दो प्रतियों अथवा रजिस्टर डाॅक से भेजे 


जाने पर विवाह रजिस्टर में प्रविष्टि

 करेगा। रजिस्ट्रार दस्तावेजों कि जांच भी कर सकता है, आयु का


 सबूत मांग सकता है। उसके 


आदेश के विरूद्ध नियम 9 में जिला न्यायाधीश द्वारा 30 दिन में


 अपील होगी।



 
नियम 10 के अनुसर रजिस्ट्रीकरण के सबंध में 30 रू. का


 भुगतान 


किए जाने का प्रारूप क्र 3 में


 प्रमाण पत्र दिया जाएगा।

धारा-89 सिविल प्रक्रिया संहिताadr

धारा-89 सिविल प्रक्रिया संहिता के अनुसार जहां न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि प्रकरण में किसी ऐसे समझौते के तत्व विद्यमान है जो दोनो पक्षकारो को स्वीकार्य हो सकता है वहां न्यायालय समझौते के निबंधन बनाएगा और उन्हें पक्षकारों को उनकी टीका टिप्पणी के लिए देगा और पक्षकारों की टीका टिप्पणी प्राप्त करने के पश्चात न्यायालय संभव समझौते के निबंधनपुनः तैयार कर सकेगा और उन्हें निम्न लिखित के लिए निर्दिष्ट करें-
- माध्यस्थम्,
- सुलह,
- न्यायिक समझौते,जिसके अंतर्गत लोक अदालत के माध्यम से समझौता भी
शामिल है,
- बीच-बचाव,
वैकल्पिक न्यायिकेतर उपाय के सबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 10 में नियम 1, 1, और 1ग जोडे गये है जो इस प्रकार है-
आदेश 10-1----वैकल्पिक विवाद प्रस्ताव का कोई एक तरीका अपनाने का न्यायालय का निर्देश-स्वीकृति और इन्कार को लेखबद्ध करने के बाद न्यायालय वाद से संबंधित पक्षकारो को धरा-89 की उपधारा 1 में उल्लिखित न्यायाल से बाहर सुलह समझौता के किसी तरीके का विकल्प देने का निर्देश देगा । पक्षकारो के विकल्प देने पर, न्यायालय ऐसे न्यायमंच फोरम या प्राधिकारी के समक्ष उपस्थिति की तारीख नियत करेगा, जैसा पक्षकारों ने विकल्प दिया है ।
आदेश 10-1----सुलह/समझौता न्यायमंच या प्राधिकारी के समक्ष उपस्थिति-जहंा नियम 1क के अधीन किसी वाद को संदर्भित किया गया हो तो उस वाद में सुलह करने के लिए पक्षकार उस अधिकरण न्यायमंच या प्राधिकारी के समक्ष उपस्थित होगे।
आदेश 10-1----सुलह के प्रयासो के असफल होने के परिणामस्वरूप न्यायालय के समक्ष उपस्थिति- जहां नियम जहंा नियम 1क के अधीन किसी वाद को संदर्भित किया गया है और उस सुलह न्यायमंच या प्राधिकारी का समाधान हो जाता है कि न्याय के हित में उस मामले में आगे बढना उचित नहीं होगा, तो वह उस मामले को वापस उस न्यायालय को संदर्भित करेगा और पक्षकारो को उसके द्वारा नियत दिनाक को न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने का निर्देश देगा ।
- माध्यस्थम्- जहां कोई मामला कोई माध्यस्थ् या सुलह के लिए निर्दिष्ट किया गया है वहां माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम 1996 का 26 के उपबंध ऐसे लागू होंगे मानो माध्यस्थम् या सुलह के लिए कार्यवाहिया उस अधिनियम के उपबंधों के अधीन समझौते के लिए निर्दिष्ट की गई थीं, इस अधिनियम की धारा-73 के अनुसार निपटारे के तथ्य विद्यमान होने पर करार का निष्पादन किया जायेगा ।
- सुलह- सुलह के अंतर्गत कोई करार न होने की दशा में मामला किसी तीसरे पक्षकार के समक्ष सुलह हेतु भेजा जायेगा । इसके लिए आवश्यक है कि एक पक्षकार के निमंत्रण पर दूसरा पक्षकार लिखित में आमंत्रण स्वीकार करना चाहिए । सुलाह कर्ता का नियुक्ति सहमति से की जायेगी ।सुलहकर्ता विवादो को मेत्री पूर्ण ढंग से स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से निपटाने में सहयोग प्रदान करेगा ।
- न्यायिक समझौते जिसमें लोक अदालत भी शामिल है- न्यायालय प्रकरण को विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 का 39 की धारा-20 की उपधारा- 1 के उपबंधों के अनुसार लोक अदालत को निर्दिष्ट करेगा और उस अधिनियम के सभी अन्य उपबंध लोक अदालतों को इस प्रकार निर्दिष्टि किए गए विवाद के संबंध में लागू होंगे, जहां न्यायिक समझौते के लिए निर्दिष्ट किया गया है, वहां न्यायालय उसे किसी उपयुक्त संस्था या व्यक्ति को निर्दिष्ट करेगा और ऐसी संस्था या व्यक्ति लोक अदालत समझा जाएगा तथा विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 का 39 के सभी उपबंध ऐसे लागू होंगे मानो वह विवाद लोक अदालत को उस अधिनियम के उपबंधों के अधीन निर्दिष्ट किया गया था,
लोक अदालत का प्रत्येक अधिनिर्णय विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 का 39 अधिनियम की धारा-21 के अंतर्गत किसी सिविल न्यायालय की एक डिक्री माना जायेगा ।
- बीच-बचाव-बीच बचाव के लिए निर्दिष्ट किया गया है, वहां न्यायालय पक्षकारो के बीच समझौता राजीनामा कराएगा और ऐसी प्रक्रिया का पालन करेगा जो विहित की जाए।
इस प्रकार धारा-89 सहपठित आदेश 10 नियम 1, 1, 1, मंे न्यायालय के बाहर समझौता या राजीनामा के आधार पर विवाद निपटाने की नवीन व्यवस्था की गई है जिसमें मुकदमे बाजी को कम समय में आपसी मेल जोल के वातावरण में सद्भावना पूर्वक विवाद को निपटाया जाता है । धारा-89 के अंतर्गत राजीनामा समझौते से जो मामले निपटते है उनमें वादी को पूरी न्यायशुल्क की पूरी राशि वापिस की जाती है । इस संबंध में विधिक सेवा प्राधिकरण 1987 की धारा-20-1 के अनुसार किसी लोक अदालत में द्वारा कोई समझौता या परिनिर्धारण कियाजाता है तो ऐसे मामले में संदत्त न्यायालय फीस, न्यायालय फीस अधिनियम 1870 का 7 के अधिन उपबंधित रीति में वापस की जायेगी । इस संबंध में न्यायालय जिला कलेक्टर को प्रमाण पत्र जारी करेगा।
मध्यस्थता धारा-89 के अंतर्गत सुलाह समझौते का एक महत्वपूर्ण आधार है । जिसके संबंध में मान्नीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा एस.एल.पी.नंबर-6000/2010 सी नंबर-760/2007 एफकाॅम इन्फ्रास्ट््रेेक्चर लिमि. विरूद्ध चेरियर वारके कार्पोरेशन प्राईवेट लिमि.2010 भाग-8 एस.एस.सी.24 के मामले में अभिनिर्धारित किया है कि यह एक महत्वपूर्ण न्यायिक प्रक्रिया है जिसका पालन कराया जाना राजीनामा वाले मामलो में अनिवार्य है । इस मामले में भी ऐसे मामलो की सूचि दी गई है जिनमें मध्यस्थ के मामले की प्रक्रिया का पालन कराया जाना चाहिए और यह भी बताया गया कि किन मामलो में इसका पालन आवश्यक नही है ।
मध्यस्थता के लिए उपयुक्त मामलो में जैसे
1. दीवानी मामले, निषेधादेश या समादेश, विशिष्ट निष्पादन, दीवानी वसूली, मकान मालिक किरायेदार के मामले, बेदखली के मामले,
2. श्रमिक विवाद
3. मोटर दुर्घटना दावे,
4. वैवाहिक मामले, बच्चो की अभिरक्षा के मामले, भरण-पोषण के मामले,
5. अपराधिक मामले, जिनमें धारा-406,498ए भा..वि. एंव. पराक्रम लिखत अधि नियम की धारा-138 के मामले, धारा-125 दं.प्र.. भरण-पोषण के
मामले,
निम्नलिखित मामले मध्यस्थता हेतु उपयुक्त नहीं पाये गयेः-
1. लोकहित मामले,
2. ऐसे मामले जिनमें शासन एक तरफ से पक्षकार है ।
3. आराजीनामा योग्य धारा-320 .प्र.सं. के अवर्णित मामले
प्रत्येक प्रकरण में मध्यस्थ की प्रक्रिया अनिवार्य है लेकिन यदि आवश्यक तत्व न हो तो मध्यस्थ को भेजा जाना प्रकरण को आवश्यक नहीं है । इसमें पक्षकारो के मध्य विभिन्न कोर्ट में लंबित सभी मामले एक साथ निपटते हैं । कोर्ट फीस वापिस होती है । आदेश की अपील नहीं होती है ।
मध्य प्रदेश शासन के द्वारा इस सबंध में 30.082006 के राजपत्र मंे नियम प्रकाशित किये गये हैं । दोनो पक्ष आपसी सहमति से एक मध्यस्थ को नियुक्त कर सकते है या मध्यस्थ द्वारा एक मध्यस्थ विचाराधीन वाद के लिए नियुक्त किया जा सकता है। मध्यस्थता हमेशा निर्णय लेने की क्षमता दोनो पक्षों को सौंप देती है ।
सर्व प्रथम प्रत्येक जिले में एक मध्यस्थ केन्द्र की स्थापना की जायेगी । जिसका प्रभारी अधिकारी ए.डी.जे. स्तर का होगा । मध्यस्थ के लिए उपर्युक्त मामला पाये जाने पर संबंधित न्यायाधीश एक संक्षिप्त जानकारी सहित मामला मध्यस्थ जिले मे स्थापित मध्यस्थ केन्द्र के प्रभारी अधिकारी को भेजेगा । प्रभारी अधिकारी राष्ट््रीय विधिक सेवा प्राधिकरण के द्वारा नियुक्त एंव मान्यता प्राप्त मध्यस्थ को मामला सुपुर्द करेगा ।
पक्षकारों को मध्यस्थ केन्द्र में उपस्थित होने की तारीख संबंधित न्यायाधीश द्वारा दी जायेगी । मध्यस्थ द्वारा 60 के अंदर मामले को निराकृत करने का प्रयास किया जायेगा। पक्षकारो के विशेष अनुरोध पर 30 दिन ओर समयावधि बढाई जा सकती है । 90 दिन से ज्यादा समय मध्यस्थ कार्यवाही हेतु नहीं दिया जायेगा ।
समझौता होने पर ज्ञापन मध्यस्थ कार्यालय में अभिलिखित किया जायेगा जिस पर केस नंबर, मध्यस्थ केन्द्र का केस नंबर, पक्षकारो के नाम, शर्तो का उल्लेख होगा और उस पर मध्यस्थ सहित सभी पक्षकार अधिवक्ताओ के हस्ताक्षर होगें । एक-एक प्रतिलिपि दोनो पक्षकारो को दी जायेगी । जो न्यायालय में प्रस्तुत करेंगे । तथा मध्यस्थ भी समझौते की एक प्रति न्यायालय को सीधे भेजेगी । न्यायालय विधि अनुसार समझौते के अनुसरण में समझौता डिक्री पारित करेगा । जिसकी अपील नही होगी ।




जगदीश प्रसाद विरूद्ध संगम लाल आई.एल.आर. 2011 मध्य प्रदेश 3011 में अभिनिर्धारित किया गया है कि प्रत्येक लोक अदालत का अधिनिर्णय लिगल सर्विस अधार्टी एक्ट 1987 की धारा-20 और 21 के अंतर्गत सिविल न्यायालय की डिक्री की श्रेणी में आता है ।
रमेशचंद विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी. आई एल.आर. 2012 मध्य प्रदेश 320 में अभिनिर्धारित कियागयाहै कि धारा-35 कोर्ट फीस अधिनियम के अंतर्गत लोक अदालत में राजी नामा होने पर सम्पूर्ण राशि वापिस की जायेगी और लोक अदालत का निर्णय धारा-21 के अंतर्गत डिक्री की श्रेणी में आता है ।