अफसरों के खिलाफ बिना मंजूरी चार्जशीट
सीबीआई का गठन पहले 1941 में स्पेशल पुलिस एस्टेब्लशमेंट एक्ट के नाम से हुआ था उसके बाद सीबीआई 1946 के दिल्ली पुलिस एक्ट के तहत काम करती है । सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के सिंगल डायरेक्टिव को खारिज किया तो वर्ष 2003 में सेन्टल विजिलेंस एक्ट के माध्यम से पुलिस एक्ट में धारा 6-ए जोडी गई ।
जिसे सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने ऐसे नौकरशाहों की जांच के लिए सरकार की अनुमति लेने संबंधी कानूनी प्रावधान को अमान्य और असंवैधानिक बताया है । साथ ही कहा कि सीबीआई आपराधिक मामलों में अफसरों के खिलाफ बिना मंजूरी चार्जशीट फाईल कर सकती है । अब सीबीआई को भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे किसी भी वरिष्ठ नौकरशाह के खिलाफ बिना सरकार की अनुमति लिए कार्यवाही करने का अधिकार दे दिया ।
इस संबंध में पहली याचिका सुब्रहाण्यम स्वामी ने 1997में दायल की थी और बाद में 2004 में गैर-सरकारी संगठन सेन्टर फार पब्लिक इंटरेस्ट लिटीगेशंस ने याचिका दायर की थी ।
सीबीआई अदालतों में 6894 मामले जनवरी 2013 तक अनुमति न मिलने के कारण लंबित थे, जिसमें 950 मामले राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के थे, 23 मामले 20 वर्ष पुराने और 166 मामले दस वर्ष पुराने हैं । फरवरी 2014 तक सीबीआई को 2071 शिकायतें मिली, जिसमें से 2055 का निराकरण हुआ । 28 मामले चार माह से लंबित थे । 53 अधिकारियों के खिलाफ अभियोजन स्वीकृति के लिए केन्द्रीय सतर्कता आयोग से अनुमति मांगी गई ।
प्रधान न्यायाधीश श्री आर.एम. लोढा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ ने दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टेबिलशमेंट एक्ट की धारा 6-ए के प्रावधान पर यह व्यवस्था दी ।
अदालत ने अपने फैसले में कहा -
1. भ्रष्टचार देश का दुश्मन है, भ्रष्टचारियों को अलग-अलग वर्गों मंे बांटना सही नहीं है । यह भ्रष्टचार के खिलाफ बने कानून की भी अवहेलना है ।
2. भ्रष्ट अधिकारी चाहे वे बडे ओहदे पर हों या निचले पायदान पर, सब एक जैसा अपराध करते हैं । कानून को भी उनसे एक जैसा सलूक करना चाहिए ।
3. डीएसपीईए की धारा 6ए के तहत भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही से पहले मंजूरी लेना जांच में बांधा पहंुचाने जैसा ही है ।
4. धारा 6-ए संविधान के अनुच्छेद 14 के प्रावधानों के खिलाफ भी है । अनुच्छेद 14 के मुताबिक कानून के सामने सब बराबर हैं ।
5. आपराधिक न्याय व्यवस्था में अपराध की जांच निष्पक्ष और कानून के अनुसार होनी चाहिए । यह भी देखना जरूरी है कि हितबद्ध प्रभावशाली लोग जांच को प्रभावित कर अपराधी को बचाने में सफल नहीं हो पाऐं । ऐसा होना अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार के खिलाफ है इसलिए अनुच्छेद 14 के पैमाने पर दिल्ली पुलिस एक्ट की धारा 6 ए फेल हो जाती है ।
6. स्वामी और टेलकाॅम वाचडाॅग जैसे अनेक याचिकाओं में बताए गए तथ्य स्पष्ट कर रहे हैं कि धारा 6-ए के तहत किया गया भेद खतरनाक तो है ही पीसी एक्ट 1988 के उददेश्य के भी उलट है ।
7. दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 155-156 के तहत पुलिस स्टेशन के इन्चार्ज को जांच का अधिकार दिया गया है, वह जांच कर सकता है लेकिन धारा 6 ए के कारण सी.बी.आई. नहीं कर सकती ।
8. विनीत नारायण के मामले में सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि एक अपराध के लिए दोषी सभी लोगों के साथ कानून के अनुसार एक जैसा व्यवहार किया जाना चाहिए, यह धारा 6-ए के संबंध में लागू है ।
सीबीआई का गठन पहले 1941 में स्पेशल पुलिस एस्टेब्लशमेंट एक्ट के नाम से हुआ था उसके बाद सीबीआई 1946 के दिल्ली पुलिस एक्ट के तहत काम करती है । सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के सिंगल डायरेक्टिव को खारिज किया तो वर्ष 2003 में सेन्टल विजिलेंस एक्ट के माध्यम से पुलिस एक्ट में धारा 6-ए जोडी गई ।
जिसे सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने ऐसे नौकरशाहों की जांच के लिए सरकार की अनुमति लेने संबंधी कानूनी प्रावधान को अमान्य और असंवैधानिक बताया है । साथ ही कहा कि सीबीआई आपराधिक मामलों में अफसरों के खिलाफ बिना मंजूरी चार्जशीट फाईल कर सकती है । अब सीबीआई को भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे किसी भी वरिष्ठ नौकरशाह के खिलाफ बिना सरकार की अनुमति लिए कार्यवाही करने का अधिकार दे दिया ।
इस संबंध में पहली याचिका सुब्रहाण्यम स्वामी ने 1997में दायल की थी और बाद में 2004 में गैर-सरकारी संगठन सेन्टर फार पब्लिक इंटरेस्ट लिटीगेशंस ने याचिका दायर की थी ।
सीबीआई अदालतों में 6894 मामले जनवरी 2013 तक अनुमति न मिलने के कारण लंबित थे, जिसमें 950 मामले राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के थे, 23 मामले 20 वर्ष पुराने और 166 मामले दस वर्ष पुराने हैं । फरवरी 2014 तक सीबीआई को 2071 शिकायतें मिली, जिसमें से 2055 का निराकरण हुआ । 28 मामले चार माह से लंबित थे । 53 अधिकारियों के खिलाफ अभियोजन स्वीकृति के लिए केन्द्रीय सतर्कता आयोग से अनुमति मांगी गई ।
प्रधान न्यायाधीश श्री आर.एम. लोढा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ ने दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टेबिलशमेंट एक्ट की धारा 6-ए के प्रावधान पर यह व्यवस्था दी ।
अदालत ने अपने फैसले में कहा -
1. भ्रष्टचार देश का दुश्मन है, भ्रष्टचारियों को अलग-अलग वर्गों मंे बांटना सही नहीं है । यह भ्रष्टचार के खिलाफ बने कानून की भी अवहेलना है ।
2. भ्रष्ट अधिकारी चाहे वे बडे ओहदे पर हों या निचले पायदान पर, सब एक जैसा अपराध करते हैं । कानून को भी उनसे एक जैसा सलूक करना चाहिए ।
3. डीएसपीईए की धारा 6ए के तहत भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही से पहले मंजूरी लेना जांच में बांधा पहंुचाने जैसा ही है ।
4. धारा 6-ए संविधान के अनुच्छेद 14 के प्रावधानों के खिलाफ भी है । अनुच्छेद 14 के मुताबिक कानून के सामने सब बराबर हैं ।
5. आपराधिक न्याय व्यवस्था में अपराध की जांच निष्पक्ष और कानून के अनुसार होनी चाहिए । यह भी देखना जरूरी है कि हितबद्ध प्रभावशाली लोग जांच को प्रभावित कर अपराधी को बचाने में सफल नहीं हो पाऐं । ऐसा होना अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार के खिलाफ है इसलिए अनुच्छेद 14 के पैमाने पर दिल्ली पुलिस एक्ट की धारा 6 ए फेल हो जाती है ।
6. स्वामी और टेलकाॅम वाचडाॅग जैसे अनेक याचिकाओं में बताए गए तथ्य स्पष्ट कर रहे हैं कि धारा 6-ए के तहत किया गया भेद खतरनाक तो है ही पीसी एक्ट 1988 के उददेश्य के भी उलट है ।
7. दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 155-156 के तहत पुलिस स्टेशन के इन्चार्ज को जांच का अधिकार दिया गया है, वह जांच कर सकता है लेकिन धारा 6 ए के कारण सी.बी.आई. नहीं कर सकती ।
8. विनीत नारायण के मामले में सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि एक अपराध के लिए दोषी सभी लोगों के साथ कानून के अनुसार एक जैसा व्यवहार किया जाना चाहिए, यह धारा 6-ए के संबंध में लागू है ।