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सोमवार, 5 अगस्त 2013

मध्यस्थता







मध्यस्थता
(उमेश कुमार गुप्ता

मध्यस्थता सुलह कि वह अबाद्धकारी, गोपनीय, सस्ती, अनऔपचारिक, किफायती प्रक्रिया है । जिसमें मध्यस्थ, तटस्थ, निष्पक्ष होकर गोपनीय तथ्यों को गोपनीय रखते हुए विवाद को हल करने का आधार भूत रास्ता उपलब्ध कराता है । इसमें पक्षकारो के द्वारा सुझाये गये रास्तो से ही विवाद का हल निकाला जाता है। मध्यस्थ के द्वारा उन पर समझौता आरोपित नहीं किया जाता है। इसमें दोनो पक्षकारो की जीत होती है । कोई भी पक्षकार अपने को हारा हुआ या ठगा महसूस नहीं करता है।
मध्यस्थता बातचीत की एक प्रक्रिया है जिसमें एक निष्पक्ष मध्यस्थता अधिकारी विवाद और झगडे में लिप्त पक्षांे के बीच सुलह कराने में मदद करता है । यह मध्यस्थता अधिकारी बातचीत की विशेष शैली और सूचना विधि का प्रयोग करते हुए समझौते का आधार तैयार करता है तथ वादी और प्रतिवादी को समझौते के द्वारा विवाद समाप्त करने के लिए प्रेरित करता है।
मध्यस्थता विवादो को निपटाने के लिए मुकदमेबाजी की तुलना में कहीं अधिक संतोषजनक तरीका है । जिसके माध्यम से निपटाये गए मामलो में अपील और पुनर्विचार की आवश्यकता नहीं होती है और सभी विवाद पूरी तरह निपट जाते हैं। इस पद्धति के द्वारा विवादोें का जल्द से जल्द निपटारा होता है जो कि खर्च रहित है । यह मुकदमो के झंझटो से मुक्त है । साथ ही साथ न्यायालयों पर बढते मुकदमों का बोझ भी कम होता है ।
मध्यस्थता विवादो को निपटाने की सरल एव् निष्पक्ष आधुनिक प्रक्रिया है। इसके द्वारा मध्यस्थ अधिकारी दबावरहित वातावरण में विभिन्न पक्षों के विवादो का निपटारा करते है। सभी पक्ष अपनी इच्छा से सद्भावपूर्ण वातावरण में विवाद का समाधान निकालते हैं। उसे स्वेच्छा से अपनाते है । मध्यस्थता के दौरान विभिन्न पक्ष अपने विवाद को जिस तरीके से निपटाते हैं वह सभी पक्षों को मान्य होता है, वे उसे अपनाते है ।
मध्यस्थता में मामले सुलाह, समझौते, समझाइश, सलाह के आधार पर निपटते हैं दोनो पक्ष जिस ढंग से विवाद सुलझाना चाहते है उसी ढंग से विवाद का निराकरण किया जाता है। इसमें विवाद की जड तक पहंुचकर विवाद के कारणों का पता लगाकर विवाद का हल निकाला जाता है ।
मध्यस्थता माध्यस्थम् से अलग है । माध्यस्थम् में दोनो पक्षकार को सुनकर विवाद का हल निकाला जाता है । इसके लिए करार में माध्यस्थम् की शर्त होना अनिवार्य है। माध्यस्थम् में विवाद से बाहर की विषय वस्तु पर विचार नहीं किया जाता है और न ही उसके आधार पर विवाद का निराकरणा किया जा सकता है ।
मध्यस्थता पंचायत से भी अलग है। पंचायत में समाज में व्याप्त रूढियों, प्रथाओं, मान्यताओं, को ध्यान में रखते हुए निर्णय जबरदस्ती पक्षकारो पर थोपे जाते हैं। पंचायत में सामाजिक प्रथाओ को ध्यान मंे रखकर दबाव वश निर्णय लिये जाते हैं । समस्या की जड तक पहंुचकर समस्या को जड से समाप्त नहीं किया जाता है ।
मध्यस्थता लोक अदालत से भी अलग है । लोक अदालत में कानून के अनुसार केवल राजीनामा योग्य मामले रखे जाते हैं । इसमे पक्षकारो का सामाजिक आर्थिक हित होते हुए भी कानून में प्रावधान न होने के कारण कोई सहायता प्रदान नहीं की जा सकती। केवल कानून के दायरे में रहते ही लोक अदालत में निर्णय पारित किया जाता है ।
मध्यस्थता न्यायिक सुलह से भी अलग है ।न्यायिक सुलह में सुलहकर्ता न्यायिक दायरे मंे रहते हुए दोनो पक्षकारो को सुनकर विवाद का हल बताता है । जो प्रचलित कानून की सीमा के अंतर्गत होता है ।
मध्यस्थता समझौते से भी अलग है। समझौते में किसी पक्षकार को कुछ मिलता है । किसी को कुछ त्यागना पडता है । किसी को परिस्थितिवश समझौता करना पडता है । इसमें दोनो पक्षकार संतुष्ट नहीं होते है । एक न एक पक्षकार असंतुष्ट बना रहता है ।
मध्यस्थता में जो रास्ते उपलब्ध है उन्हीं रास्ते में समस्या का हल निकाला जाता है। मध्यस्थता में व्यक्तिगत राय मध्यस्थ नही थोपता है । न ही कानून बताकर कानून के अनुसार कानून के दायरे में रहकर समस्या का हल निकालने को कहा जाता है । इसमें वैकल्पिक न्यायिक उपचार निकाले जाते है जो विवाद से संबंधित भी हो सकते हैं और विवाद की विषय वस्तु से अलग भी हो सकते हैं । इसमें वैचारिक मत भेद समाप्त कर दोनो पक्षकारो को पूर्ण संतोष एंव पूर्ण संतुष्टि प्रदान की जाती है ।
मध्यस्थता में मध्यस्थ तठस्थ रहकर विवादों का निराकरण करवाता है । इसमें गोपनीयता महत्वपूर्ण है । किसी भी पक्षकार की गोपनीय तथ्य बिना उसकी सहमति के दूसरे पक्ष को नहीं बताये जाते हैं । इसमें तठस्थता भी महत्वपूर्ण है । तठस्थ रहकर बिना किसी पक्षकार का पक्ष लिए समझौते का हल निकाला जाता है । इसमें मध्यस्थ के द्वारा कोई पहल नही की जाती है, कोई सुझाव नही दिया जाता है। दोनो पक्षों की बातचीत के आधार पर हल निकाला जाता है।
मध्यस्थता के निम्नलिखित चार चरण हैंः-
1. परिचय- मध्यस्थता में सर्व प्रथम पक्षकारो का परिचय लिया जाता है । परिचय के दौरान पक्षकारो को मध्यस्थता के आधारभूत सिद्धात बताये जाते है जिसमें मध्यस्थता के फायदे, गोपनीय तथ्यों को गोपनीय रखे जाने, सस्ता सुलभ शीघ्र न्याय प्राप्त होने, न्यायशुल्क की वापसी होने आदि बाते बताई जाती है ।
2. संयुक्त सत्र-परिचय के बाद संयुक्त सत्र में दोनो पक्षों को उनके अधिवक्ताओ के साथ आमने सामने बैठाकर क्रम से उनका पक्ष सुना जाता है। इसमें पक्षकारो कोआपस में वाद विवाद करने, लडने की मनाही रहती है। स्वस्थ वातावरण में दोनो पक्षों की बातचीत मध्यस्थ सुनता है । इसमें बिना मध्यस्थ की अनुमति के दोनो पक्षकार आपस में वाद विवाद नहीं कर सकते है जो भी बात कहनी है वह मध्यस्थ के माध्यम से कही जायेगी। इसमें विवाद के प्रति जानकारी प्राप्त की जाती है एंव विवाद के निपटारे के लिए अनुकूल वातावरण तैयार किया जाता है ।
3. पृथक सत्र- संयुक्त सत्र के बाद अलग सत्र होता है जिसमें एक एक पक्षकार को उनके अधिवक्ताओ के साथ अलग-अलग सुना जाता है । इसमें मध्यस्थ तथ्यों की जानकारी एकत्र करता है । पक्षकारो की गोपनीय बाते सुनता समझता है ।झगडे के कारणो से अवगत होता है । समस्या का यदि कोई हल हो तो वह खुद पक्ष्कार मध्यस्थ को बताते है । इस सत्र में मध्यस्थ अधिकारी विवाद की जड तक पहुंचता हैं ।
4. समझौता-विवाद के निवारण उपरांत मध्यस्थ अधिकारी सभी पक्षों से समझौते की पुष्टि करवाता है तथा उसकी शर्ते स्पष्ट करवाता है । इस समझौते को लिखित रूप से अंकित किया जाता है ।जिस पर सभी पक्ष अधिवक्ताओं सहित हस्ताक्षर करते हैं ।
मध्यस्थ अधिकारी की भूमिका और कार्य
मध्यस्थ अधिकारी विवादित पक्षों के बीच समझौते की आधार भूमि तैयार करता है। पक्षकारो के बीच आपसी बातचीत और विचारो का माध्यम बनता है । समझौते के दौरान आने वाली बाधाओं का पता लगाता है । बातचीत से उत्पन्न विभिन्न समीकरणों को पक्षों के समक्ष रखता है ।सभी पक्षों के हितों की पहचान करवाता है । समझौते की शर्ते स्पष्ट करवाता है तथा ऐसी व्यवस्था करता है कि सभी पक्ष स्वेच्छा से समझौते को अपना सके ।
एक मध्यस्थ फैसला नहीं करता क्या न्याससंगत और उपयुक्त है, संविभाजित निन्दा नहीं करता, ना ही किसी गुण या सफलता को संभावना की राय देता है ।
एक मध्यस्थ उत्प्रेरक की तरह दोनो पक्षों को एक साथ लाकर परिणामों की व्याख्या करके एंव बाधाओ को सीमित करते हुए विचार विमर्श द्वारा समझौता कराने का कार्य करता है।
इस प्रकार मध्यस्थ का कर्तव्य है कि वह पक्षकारो को इस गलत फहमी से निकाले की
भूल में गालिब, जिन्दगी भर करता रहा ।
धूल चेहरे पर थी, आएना साफ करता रहा ।।
मध्यस्थता के संबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा-89 में विशेष प्रावधान दिये गये है । जिसमें न्यायालय के बाहर विवादो का निपटारा किया जाता है ।

(उमेश कुमार गुप्ता)
प्रथम अपर जिला एंव सत्र न्याया.
रायसेन म.प्र.

नोट- लेखक उमेश कुमार गुप्ता के द्वारा 14.07.2012 से 19.07.2012 तक विदिशा में आयोजित थ्वनदकंजपवद ज्तंपदपदह वद ज्मबीदपुनमे व िडमकपंजपवद में भाग लिया है ।















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मध्यस्थता
(उमेश कुमार गुप्ता)

मध्यस्थता सुलह कि वह अबाद्धकारी, गोपनीय, सस्ती, अनऔपचारिक, किफायती प्रक्रिया है । जिसमें मध्यस्थ, तटस्थ, निष्पक्ष होकर गोपनीय तथ्यों को गोपनीय रखते हुए विवाद को हल करने का आधार भूत रास्ता उपलब्ध कराता है । इसमें पक्षकारो के द्वारा सुझाये गये रास्तो से ही विवाद का हल निकाला जाता है। मध्यस्थ के द्वारा उन पर समझौता आरोपित नहीं किया जाता है। इसमें दोनो पक्षकारो की जीत होती है । कोई भी पक्षकार अपने को हारा हुआ या ठगा महसूस नहीं करता है।
मध्यस्थता बातचीत की एक प्रक्रिया है जिसमें एक निष्पक्ष मध्यस्थता अधिकारी विवाद और झगडे में लिप्त पक्षांे के बीच सुलह कराने में मदद करता है । यह मध्यस्थता अधिकारी बातचीत की विशेष शैली और सूचना विधि का प्रयोग करते हुए समझौते का आधार तैयार करता है तथ वादी और प्रतिवादी को समझौते के द्वारा विवाद समाप्त करने के लिए प्रेरित करता है।
मध्यस्थता विवादो को निपटाने के लिए मुकदमेबाजी की तुलना में कहीं अधिक संतोषजनक तरीका है । जिसके माध्यम से निपटाये गए मामलो में अपील और पुनर्विचार की आवश्यकता नहीं होती है और सभी विवाद पूरी तरह निपट जाते हैं। इस पद्धति के द्वारा विवादोें का जल्द से जल्द निपटारा होता है जो कि खर्च रहित है । यह मुकदमो के झंझटो से मुक्त है । साथ ही साथ न्यायालयों पर बढते मुकदमों का बोझ भी कम होता है ।
मध्यस्थता विवादो को निपटाने की सरल एव् निष्पक्ष आधुनिक प्रक्रिया है। इसके द्वारा मध्यस्थ अधिकारी दबावरहित वातावरण में विभिन्न पक्षों के विवादो का निपटारा करते है । सभी पक्ष अपनी इच्छा से सद्भावपूर्ण वातावरण में विवाद का समाधान निकालते हैं। उसे स्वेच्छा से अपनाते है । मध्यस्थता के दौरान विभिन्न पक्ष अपने विवाद को जिस तरीके से निपटाते हैं वह सभी पक्षों को मान्य होता है, वे उसे अपनाते है ।
मध्यस्थता में मामले सुलाह, समझौते, समझाइश, सलाह के आधार पर निपटते हैं दोनो पक्ष जिस ढंग से विवाद सुलझाना चाहते है उसी ढंग से विवाद का निराकरण किया जाता है । इसमें विवाद की जड तक पहंुचकर विवाद के कारणों का पता लगाकर विवाद का हल निकाला जाता है ।
मध्यस्थता माध्यस्थम् से अलग है । माध्यस्थम् में दोनो पक्षकार को सुनकर विवाद का हल निकाला जाता है । इसके लिए करार में माध्यस्थम् की शर्त होना अनिवार्य है। माध्यस्थम् में विवाद से बाहर की विषय वस्तु पर विचार नहीं किया जाता है और न ही उसके आधार पर विवाद का निराकरणा किया जा सकता है ।
मध्यस्थता पंचायत से भी अलग है। पंचायत में समाज में व्याप्त रूढियों, प्रथाओं, मान्यताओं, को ध्यान में रखते हुए निर्णय जबरदस्ती पक्षकारो पर थोपे जाते हैं। पंचायत में सामाजिक प्रथाओ को ध्यान मंे रखकर दबाव वश निर्णय लिये जाते हैं । समस्या की जड तक पहंुचकर समस्या को जड से समाप्त नहीं किया जाता है ।
मध्यस्थता लोक अदालत से भी अलग है । लोक अदालत में कानून के अनुसार केवल राजीनामा योग्य मामले रखे जाते हैं । इसमे पक्षकारो का सामाजिक आर्थिक हित होते हुए भी कानून में प्रावधान न होने के कारण कोई सहायता प्रदान नहीं की जा सकती। केवल कानून के दायरे में रहते ही लोक अदालत में निर्णय पारित किया जाता है ।
मध्यस्थता न्यायिक सुलह से भी अलग है ।न्यायिक सुलह में सुलहकर्ता न्यायिक दायरे मंे रहते हुए दोनो पक्षकारो को सुनकर विवाद का हल बताता है । जो प्रचलित कानून की सीमा के अंतर्गत होता है ।
मध्यस्थता समझौते से भी अलग है। समझौते में किसी पक्षकार को कुछ मिलता है । किसी को कुछ त्यागना पडता है । किसी को परिस्थितिवश समझौता करना पडता है । इसमें दोनो पक्षकार संतुष्ट नहीं होते है । एक न एक पक्षकार असंतुष्ट बना रहता है ।
मध्यस्थता में जो रास्ते उपलब्ध है उन्हीं रास्ते में समस्या का हल निकाला जाता है । मध्यस्थता में व्यक्तिगत राय मध्यस्थ नही थोपता है । न ही कानून बताकर कानून के अनुसार कानून के दायरे में रहकर समस्या का हल निकालने को कहा जाता है । इसमें वैकल्पिक न्यायिक उपचार निकाले जाते है जो विवाद से संबंधित भी हो सकते हैं और विवाद की विषय वस्तु से अलग भी हो सकते हैं । इसमें वैचारिक मत भेद समाप्त कर दोनो पक्षकारो को पूर्ण संतोष एंव पूर्ण संतुष्टि प्रदान की जाती है ।
मध्यस्थता में मध्यस्थ तठस्थ रहकर विवादों का निराकरण करवाता है । इसमें गोपनीयता महत्वपूर्ण है । किसी भी पक्षकार की गोपनीय तथ्य बिना उसकी सहमति के दूसरे पक्ष को नहीं बताये जाते हैं । इसमें तठस्थता भी महत्वपूर्ण है । तठस्थ रहकर बिना किसी पक्षकार का पक्ष लिए समझौते का हल निकाला जाता है । इसमें मध्यस्थ के द्वारा कोई पहल नही की जाती है, कोई सुझाव नही दिया जाता है। दोनो पक्षों की बातचीत के आधार पर हल निकाला जाता है।
मध्यस्थता के निम्नलिखित चार चरण हैंः-
1. परिचय- मध्यस्थता में सर्व प्रथम पक्षकारो का परिचय लिया जाता है । परिचय के दौरान पक्षकारो को मध्यस्थता के आधारभूत सिद्धात बताये जाते है जिसमें मध्यस्थता के फायदे, गोपनीय तथ्यों को गोपनीय रखे जाने, सस्ता सुलभ शीघ्र न्याय प्राप्त होने, न्यायशुल्क की वापसी होने आदि बाते बताई जाती है ।
2. संयुक्त सत्र-परिचय के बाद संयुक्त सत्र में दोनो पक्षों को उनके अधिवक्ताओ के साथ आमने सामने बैठाकर क्रम से उनका पक्ष सुना जाता है। इसमें पक्षकारो कोआपस में वाद विवाद करने, लडने की मनाही रहती है। स्वस्थ वातावरण में दोनो पक्षों की बातचीत मध्यस्थ सुनता है । इसमें बिना मध्यस्थ की अनुमति के दोनो पक्षकार आपस में वाद विवाद नहीं कर सकते है जो भी बात कहनी है वह मध्यस्थ के माध्यम से कही जायेगी। इसमें विवाद के प्रति जानकारी प्राप्त की जाती है एंव विवाद के निपटारे के लिए अनुकूल वातावरण तैयार किया जाता है ।
3. पृथक सत्र- संयुक्त सत्र के बाद अलग सत्र होता है जिसमें एक एक पक्षकार को उनके अधिवक्ताओ के साथ अलग-अलग सुना जाता है । इसमें मध्यस्थ तथ्यों की जानकारी एकत्र करता है । पक्षकारो की गोपनीय बाते सुनता समझता है ।झगडे के कारणो से अवगत होता है । समस्या का यदि कोई हल हो तो वह खुद पक्ष्कार मध्यस्थ को बताते है । इस सत्र में मध्यस्थ अधिकारी विवाद की जड तक पहुंचता हैं ।
4. समझौता-विवाद के निवारण उपरांत मध्यस्थ अधिकारी सभी पक्षों से समझौते की पुष्टि करवाता है तथा उसकी शर्ते स्पष्ट करवाता है । इस समझौते को लिखित रूप से अंकित किया जाता है ।जिस पर सभी पक्ष अधिवक्ताओं सहित हस्ताक्षर करते हैं ।
मध्यस्थ अधिकारी की भूमिका और कार्य
मध्यस्थ अधिकारी विवादित पक्षों के बीच समझौते की आधार भूमि तैयार करता है। पक्षकारो के बीच आपसी बातचीत और विचारो का माध्यम बनता है । समझौते के दौरान आने वाली बाधाओं का पता लगाता है । बातचीत से उत्पन्न विभिन्न समीकरणों को पक्षों के समक्ष रखता है ।सभी पक्षों के हितों की पहचान करवाता है । समझौते की शर्ते स्पष्ट करवाता है तथा ऐसी व्यवस्था करता है कि सभी पक्ष स्वेच्छा से समझौते को अपना सके ।
एक मध्यस्थ फैसला नहीं करता क्या न्याससंगत और उपयुक्त है, संविभजित निन्दा नहीं करता, ना ही किसी गुण या सफलता को संभावना की राय देता है ।
एक मध्यस्थ उत्प्रेरक की तरह दोनो पक्षों को एक साथ लाकर परिणामों की व्याख्या करके एंव बाधाओ को सीमित करते हुए विचार विमर्श द्वारा समझौता कराने का कार्य करता है।
इस प्रकार मध्यस्थ का कर्तव्य है कि वह पक्षकारो को इस गलत फहमी से निकाले की
भूल में गालिब, जिन्दगी भर करता रहा ।
धूल चेहरे पर थी, आएना साफ करता रहा ।।
मध्यस्थता के संबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा-89 में विशेष प्रावधान दिये गये है । जिसमें न्यायालय के बाहर विवादो का निपटारा किया जाता है ।
1- धारा-89 सिविल प्रक्रिया संहिता के अनुसार जहां न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि प्रकरण में किसी ऐसे समझौते के तत्व विद्यमान है जो दोनो पक्षकारो को स्वीकार्य हो सकता है वहां न्यायालय समझौते के निबंधन बनाएगा और उन्हें पक्षकारों को उनकी टीका टिप्पणी के लिए देगा और पक्षकारों की टीका टिप्पणी प्राप्त करने के पश्चात न्यायालय संभव समझौते के निबंधनपुनः तैयार कर सकेगा और उन्हें निम्न लिखित के लिए निर्दिष्ट करें-
- माध्यस्थम्,
- सुलह,
- न्यायिक समझौते,जिसके अंतर्गत लोक अदालत के माध्यम से समझौता भी
शामिल है,
- बीच-बचाव,
वैकल्पिक न्यायिकेतर उपाय के सबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 10 में नियम 1, 1, और 1ग जोडे गये है जो इस प्रकार है-
आदेश 10-1----वैकल्पिक विवाद प्रस्ताव का कोई एक तरीका अपनाने का न्यायालय का निर्देश-स्वीकृति और इन्कार को लेखबद्ध करने के बाद न्यायालय वाद से संबंधित पक्षकारो को धरा-89 की उपधारा 1 में उल्लिखित न्यायाल से बाहर सुलह समझौता के किसी तरीके का विकल्प देने का निर्देश देगा । पक्षकारो के विकल्प देने पर, न्यायालय ऐसे न्यायमंच फोरम या प्राधिकारी के समक्ष उपस्थिति की तारीख नियत करेगा, जैसा पक्षकारों ने विकल्प दिया है ।
आदेश 10-1----सुलह/समझौता न्यायमंच या प्राधिकारी के समक्ष उपस्थिति-जहंा नियम 1क के अधीन किसी वाद को संदर्भित किया गया हो तो उस वाद में सुलह करने के लिए पक्षकार उस अधिकरण न्यायमंच या प्राधिकारी के समक्ष उपस्थित होगे।
आदेश 10-1----सुलह के प्रयासो के असफल होने के परिणामस्वरूप न्यायालय के समक्ष उपस्थिति- जहां नियम जहंा नियम 1क के अधीन किसी वाद को संदर्भित किया गया है और उस सुलह न्यायमंच या प्राधिकारी का समाधान हो जाता है कि न्याय के हित में उस मामले में आगे बढना उचित नहीं होगा, तो वह उस मामले को वापस उस न्यायालय को संदर्भित करेगा और पक्षकारो को उसके द्वारा नियत दिनाक को न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने का निर्देश देगा ।
- माध्यस्थम्- जहां कोई मामला कोई माध्यस्थ् या सुलह के लिए निर्दिष्ट किया गया है वहां माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम 1996 का 26 के उपबंध ऐसे लागू होंगे मानो माध्यस्थम् या सुलह के लिए कार्यवाहिया उस अधिनियम के उपबंधों के अधीन समझौते के लिए निर्दिष्ट की गई थीं, इस अधिनियम की धारा-73 के अनुसार निपटारे के तथ्य विद्यमान होने पर करार का निष्पादन किया जायेगा ।
- सुलह- सुलह के अंतर्गत कोई करार न होने की दशा में मामला किसी तीसरे पक्षकार के समक्ष सुलह हेतु भेजा जायेगा । इसके लिए आवश्यक है कि एक पक्षकार के निमंत्रण पर दूसरा पक्षकार लिखित में आमंत्रण स्वीकार करना चाहिए । सुलाह कर्ता का नियुक्ति सहमति से की जायेगी ।सुलहकर्ता विवादो को मेत्री पूर्ण ढंग से स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से निपटाने में सहयोग प्रदान करेगा ।
- न्यायिक समझौते जिसमें लोक अदालत भी शामिल है- न्यायालय प्रकरण को विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 का 39 की धारा-20 की उपधारा- 1 के उपबंधों के अनुसार लोक अदालत को निर्दिष्ट करेगा और उस अधिनियम के सभी अन्य उपबंध लोक अदालतों को इस प्रकार निर्दिष्टि किए गए विवाद के संबंध में लागू होंगे, जहां न्यायिक समझौते के लिए निर्दिष्ट किया गया है, वहां न्यायालय उसे किसी उपयुक्त संस्था या व्यक्ति को निर्दिष्ट करेगा और ऐसी संस्था या व्यक्ति लोक अदालत समझा जाएगा तथा विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 का 39 के सभी उपबंध ऐसे लागू होंगे मानो वह विवाद लोक अदालत को उस अधिनियम के उपबंधों के अधीन निर्दिष्ट किया गया था,
लोक अदालत का प्रत्येक अधिनिर्णय विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 का 39 अधिनियम की धारा-21 के अंतर्गत किसी सिविल न्यायालय की एक डिक्री माना जायेगा ।
- बीच-बचाव-बीच बचाव के लिए निर्दिष्ट किया गया है, वहां न्यायालय पक्षकारो के बीच समझौता राजीनामा कराएगा और ऐसी प्रक्रिया का पालन करेगा जो विहित की जाए।
इस प्रकार धारा-89 सहपठित आदेश 10 नियम 1, 1, 1, मंे न्यायालय के बाहर समझौता या राजीनामा के आधार पर विवाद निपटाने की नवीन व्यवस्था की गई है जिसमें मुकदमे बाजी को कम समय में आपसी मेल जोल के वातावरण में सद्भावना पूर्वक विवाद को निपटाया जाता है । धारा-89 के अंतर्गत राजीनामा समझौते से जो मामले निपटते है उनमें वादी को पूरी न्यायशुल्क की पूरी राशि वापिस की जाती है । इस संबंध में विधिक सेवा प्राधिकरण 1987 की धारा-20-1 के अनुसार किसी लोक अदालत में द्वारा कोई समझौता या परिनिर्धारण कियाजाता है तो ऐसे मामले में संदत्त न्यायालय फीस, न्यायालय फीस अधिनियम 1870 का 7 के अधिन उपबंधित रीति में वापस की जायेगी । इस संबंध में न्यायालय जिला कलेक्टर को प्रमाण पत्र जारी करेगा।
मध्यस्थता धारा-89 के अंतर्गत सुलाह समझौते का एक महत्वपूर्ण आधार है । जिसके संबंध में मान्नीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा एस.एल.पी.नंबर-6000/2010 सी नंबर-760/2007 एफकाॅम इन्फ्रास्ट््रेेक्चर लिमि. विरूद्ध चेरियर वारके कार्पोरेशन प्राईवेट लिमि.2010 भाग-8 एस.एस.सी.24 के मामले में अभिनिर्धारित किया है कि यह एक महत्वपूर्ण न्यायिक प्रक्रिया है जिसका पालन कराया जाना राजीनामा वाले मामलो में अनिवार्य है । इस मामले में भी ऐसे मामलो की सूचि दी गई है जिनमें मध्यस्थ के मामले की प्रक्रिया का पालन कराया जाना चाहिए और यह भी बताया गया कि किन मामलो में इसका पालन आवश्यक नही है ।
मध्यस्थता के लिए उपयुक्त मामलो में जैसे
1. दीवानी मामले, निषेधादेश या समादेश, विशिष्ट निष्पादन, दीवानी वसूली, मकान मालिक किरायेदार के मामले, बेदखली के मामले,
2. श्रमिक विवाद
3. मोटर दुर्घटना दावे,
4. वैवाहिक मामले, बच्चो की अभिरक्षा के मामले, भरण-पोषण के मामले,
5. अपराधिक मामले, जिनमें धारा-406,498ए भा..वि. एंव. पराक्रम लिखत अधि नियम की धारा-138 के मामले, धारा-125 दं.प्र.. भरण-पोषण के
मामले,
निम्नलिखित मामले मध्यस्थता हेतु उपयुक्त नहीं पाये गयेः-
1. लोकहित मामले,
2. ऐसे मामले जिनमें शासन एक तरफ से पक्षकार है ।
3. आराजीनामा योग्य धारा-320 .प्र.सं. के अवर्णित मामले
प्रत्येक प्रकरण में मध्यस्थ की प्रक्रिया अनिवार्य है लेकिन यदि आवश्यक तत्व न हो तो मध्यस्थ को भेजा जाना प्रकरण को आवश्यक नहीं है । इसमें पक्षकारो के मध्य विभिन्न कोर्ट में लंबित सभी मामले एक साथ निपटते हैं । कोर्ट फीस वापिस होती है । आदेश की अपील नहीं होती है ।
मध्य प्रदेश शासन के द्वारा इस सबंध में 30.082006 के राजपत्र मंे नियम प्रकाशित किये गये हैं । दोनो पक्ष आपसी सहमति से एक मध्यस्थ को नियुक्त कर सकते है या मध्यस्थ द्वारा एक मध्यस्थ विचाराधीन वाद के लिए नियुक्त किया जा सकता है। मध्यस्थता हमेशा निर्णय लेने की क्षमता दोनो पक्षों को सौंप देती है ।
सर्व प्रथम प्रत्येक जिले में एक मध्यस्थ केन्द्र की स्थापना की जायेगी । जिसका प्रभारी अधिकारी ए.डी.जे. स्तर का होगा । मध्यस्थ के लिए उपर्युक्त मामला पाये जाने पर संबंधित न्यायाधीश एक संक्षिप्त जानकारी सहित मामला मध्यस्थ जिले मे स्थापित मध्यस्थ केन्द्र के प्रभारी अधिकारी को भेजेगा । प्रभारी अधिकारी राष्ट््रीय विधिक सेवा प्राधिकरण के द्वारा नियुक्त एंव मान्यता प्राप्त मध्यस्थ को मामला सुपुर्द करेगा ।
पक्षकारों को मध्यस्थ केन्द्र में उपस्थित होने की तारीख संबंधित न्यायाधीश द्वारा दी जायेगी । मध्यस्थ द्वारा 60 के अंदर मामले को निराकृत करने का प्रयास किया जायेगा। पक्षकारो के विशेष अनुरोध पर 30 दिन ओर समयावधि बढाई जा सकती है । 90 दिन से ज्यादा समय मध्यस्थ कार्यवाही हेतु नहीं दिया जायेगा ।
समझौता होने पर ज्ञापन मध्यस्थ कार्यालय में अभिलिखित किया जायेगा जिस पर केस नंबर, मध्यस्थ केन्द्र का केस नंबर, पक्षकारो के नाम, शर्तो का उल्लेख होगा और उस पर मध्यस्थ सहित सभी पक्षकार अधिवक्ताओ के हस्ताक्षर होगें । एक-एक प्रतिलिपि दोनो पक्षकारो को दी जायेगी । जो न्यायालय में प्रस्तुत करेंगे । तथा मध्यस्थ भी समझौते की एक प्रति न्यायालय को सीधे भेजेगी । न्यायालय विधि अनुसार समझौते के अनुसरण में समझौता डिक्री पारित करेगा । जिसकी अपील नही होगी ।



जगदीश प्रसाद विरूद्ध संगम लाल आई.एल.आर. 2011 मध्य प्रदेश 3011 में अभिनिर्धारित किया गया है कि प्रत्येक लोक अदालत का अधिनिर्णय लिगल सर्विस अधार्टी एक्ट 1987 की धारा-20 और 21 के अंतर्गत सिविल न्यायालय की डिक्री की श्रेणी में आता है ।


रमेशचंद विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी. आई एल.आर. 2012 मध्य प्रदेश 320 में अभिनिर्धारित कियागयाहै कि धारा-35 कोर्ट फीस अधिनियम के अंतर्गत लोक अदालत में राजी नामा होने पर सम्पूर्ण राशि वापिस की जायेगी और लोक अदालत का निर्णय धारा-21 के अंतर्गत डिक्री की श्रेणी में आता है । न्यायालय-उमेश कुमार गुप्ता प्रथम अपर सत्र न्यायाधीश रायसेन म0प्र0
मध्यस्थ निर्देशन आदेश
प्रकरण क्रमांक-

आवेदक अनावेदक
क्रमांक-1. नाम क्रमांक-1. नाम
पता विरूद्व पता

क्रमांक-2 नाम क्रमांक-2. नाम
पता पता
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विषयः--------------------------------------------

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01. यह कि न्यायालय के समक्ष पक्षकारो ने धारा 89 आदेश-1 नियम-10ए व्य0प्र0सं0 के अंतर्गत प्रकरण मध्यस्थ केन्द्र में मध्यस्था हेतु भेजने में अपनी सहमति व्यक्त की है ।
02. यह कि आवेदक ------एंव अनावेदक---------अपने अधिवक्ताओं सहित मध्यस्थ केन्द्र रायसेन में सुसंगत दस्तावेज एंव सामग्री सहित दिनांक------ को उपस्थित होगें जहां पर उन्हें बताया जावेगा कि उनके प्रकरण में कौन मध्यस्था करेगा ।
03. यह कि सुनवाई प्रशिक्षित एडवोकेट/जज मध्यस्थ द्वारा की जावेगी। जिसका इस कार्यवाही की मैरिट पर कोई प्रभाव नही पड़ेगा । मध्यस्थ के दौरान जो बाते पक्षकारो द्वारा प्रकट की जावेगी वह सर्वथा गोपनीय रखी जावेगी । उन बातो को मध्यस्थ कार्यवाही समाप्त होने पर किसी भी न्यायालय अथवा अन्य कार्यवाही में प्रश्नगत नहीं किया जावेगा ।
04. यह कि मध्यस्थ के पक्षकारो सहित उनके अधिवक्ता गोपनीय रूप से कार्य करने की शपथ लेते हैं । यदि गोपनीयता भंग की जाती है तो वह धारा-89 आदेश-1 नियम-10ए सी0पी0सी0 धारा 126 भारतीय साक्ष्य अधिनियम सहपठित धारा-35 अधिवक्ता अधिनियम 1961 का उल्लघंन माना जावेगा । इस संबंध में अनुशासनात्मक कार्यवाही की जा सकेगी ।
05. यह कि मध्यस्थ कार्यवाही के दौरान जो भी हल दोनो की सहमति से निकलेगा वह संयुक्त रूप से हस्ताक्षरित दिनांकित कर इस न्यायालय को अंतिम आदेश पारित करने के लिये भेजा जावेगा ।
06. यह कि मध्यस्थ कार्यवाही के लिए 60 दिन नियत किये जाते हैं । यदि 60 दिन में कार्यवाही पूरी नहीं होती है तो पक्षकारों द्वारा इस न्यायालय के समक्ष आवेदन किये जाने पर 30 दिन की म्याद ओर बढ़ाई जा सकेगी ।

दिनांक-
स्थान- रायसेन ।

हस्ताक्षर/-
मध्यस्थ निर्देशन न्यायाधीश


हस्ताक्षर/- हस्ताक्षर/-
नाम नाम
आवेदक अनावेदक


हस्ताक्षर/- हस्ताक्षर/-
नाम नाम-
आवेदक अधिवक्ता अनावेदक अधिवक्ता


प्रतिलिपिः-
2- सचिव विधिक सेवा प्राधिकरण रायसेन ।






न्यायिककैतर वैकल्पिक उपचार 


 
न्यायिककैतर वैकल्पिक उपचार के संबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा-89 में विशेष प्रावधान दिये गये है । जिसमें न्यायालय के बाहर विवादो का निपटारा किया जाता है ।
धारा-89 सिविल प्रक्रिया संहिता के अनुसार जहां न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि प्रकरण में किसी ऐसे समझौते के तत्व विद्यमान है जो दोनो पक्षकारो को स्वीकार्य हो सकता है वहां न्यायालय समझौते के निबंधन बनाएगा और उन्हें पक्षकारों को उनकी टीका टिप्पणी के लिए देगा और पक्षकारों की टीका टिप्पणी प्राप्त करने के पश्चात न्यायालय संभव समझौते के निबंधनपुनः तैयार कर सकेगा और उन्हें निम्न लिखित के लिए निर्दिष्ट करें-
- माध्यस्थम्,
- सुलह,
- न्यायिक समझौते,जिसके अंतर्गत लोक अदालत के माध्यम से समझौता भी
शामिल है,
- बीच-बचाव,
वैकल्पिक न्यायिकेतर उपाय के सबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 10 में नियम 1, 1, और 1ग जोडे गये है जो इस प्रकार है-
आदेश 10-1----वैकल्पिक विवाद प्रस्ताव का कोई एक तरीका अपनाने का न्यायालय का निर्देश-स्वीकृति और इन्कार को लेखबद्ध करने के बाद न्यायालय वाद से संबंधित पक्षकारो को धरा-89 की उपधारा 1 में उल्लिखित न्यायाल से बाहर सुलह समझौता के किसी तरीके का विकल्प देने का निर्देश देगा । पक्षकारो के विकल्प देने पर, न्यायालय ऐसे न्यायमंच फोरम या प्राधिकारी के समक्ष उपस्थिति की तारीख नियत करेगा, जैसा पक्षकारों ने विकल्प दिया है ।
आदेश 10-1----सुलह/समझौता न्यायमंच या प्राधिकारी के समक्ष उपस्थिति-जहंा नियम 1क के अधीन किसी वाद को संदर्भित किया गया हो तो उस वाद में सुलह करने के लिए पक्षकार उस अधिकरण न्यायमंच या प्राधिकारी के समक्ष उपस्थित होगे।
आदेश 10-1----सुलह के प्रयासो के असफल होने के परिणामस्वरूप न्यायालय के समक्ष उपस्थिति- जहां नियम जहंा नियम 1क के अधीन किसी वाद को संदर्भित किया गया है और उस सुलह न्यायमंच या प्राधिकारी का समाधान हो जाता है कि न्याय के हित में उस मामले में आगे बढना उचित नहीं होगा, तो वह उस मामले को वापस उस न्यायालय को संदर्भित करेगा और पक्षकारो को उसके द्वारा नियत दिनाक को न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने का निर्देश देगा ।


- माध्यस्थम्- जहां कोई मामला कोई माध्यस्थ् या सुलह के लिए निर्दिष्ट किया गया है वहां माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम 1996 का 26 के उपबंध ऐसे लागू होंगे मानो माध्यस्थम् या सुलह के लिए कार्यवाहिया उस अधिनियम के उपबंधों के अधीन समझौते के लिए निर्दिष्ट की गई थीं, इस अधिनियम की धारा-73 के अनुसार निपटारे के तथ्य विद्यमान होने पर करार का निष्पादन किया जायेगा ।
- सुलह- सुलह के अंतर्गत कोई करार न होने की दशा में मामला किसी तीसरे पक्षकार के समक्ष सुलह हेतु भेजा जायेगा । इसके लिए आवश्यक है कि एक पक्षकार के निमंत्रण पर दूसरा पक्षकार लिखित में आमंत्रण स्वीकार करना चाहिए । सुलाह कर्ता का नियुक्ति सहमति से की जायेगी ।सुलहकर्ता विवादो को मेत्री पूर्ण ढंग से स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से निपटाने में सहयोग प्रदान करेगा । 

 
- न्यायिक समझौते जिसमें लोक अदालत भी शामिल है- न्यायालय प्रकरण को विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 का 39 की धारा-20 की उपधारा- 1 के उपबंधों के अनुसार लोक अदालत को निर्दिष्ट करेगा और उस अधिनियम के सभी अन्य उपबंध लोक अदालतों को इस प्रकार निर्दिष्टि किए गए विवाद के संबंध में लागू होंगे, जहां न्यायिक समझौते के लिए निर्दिष्ट किया गया है, वहां न्यायालय उसे किसी उपयुक्त संस्था या व्यक्ति को निर्दिष्ट करेगा और ऐसी संस्था या व्यक्ति लोक अदालत समझा जाएगा तथा विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 का 39 के सभी उपबंध ऐसे लागू होंगे मानो वह विवाद लोक अदालत को उस अधिनियम के उपबंधों के अधीन निर्दिष्ट किया गया था,
लोक अदालत का प्रत्येक अधिनिर्णय विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 का 39 अधिनियम की धारा-21 के अंतर्गत किसी सिविल न्यायालय की एक डिक्री माना जायेगा ।
- बीच-बचाव-बीच बचाव के लिए निर्दिष्ट किया गया है, वहां न्यायालय पक्षकारो के बीच समझौता राजीनामा कराएगा और ऐसी प्रक्रिया का पालन करेगा जो विहित की जाए।
इस प्रकार धारा-89 सहपठित आदेश 10 नियम 1, 1, 1, मंे न्यायालय के बाहर समझौता या राजीनामा के आधार पर विवाद निपटाने की नवीन व्यवस्था की गई है जिसमें मुकदमे बाजी को कम समय में आपसी मेल जोल के वातावरण में सद्भावना पूर्वक विवाद को निपटाया जाता है । 

 
धारा-89 के अंतर्गत राजीनामा समझौते से जो मामले निपटते है उनमें वादी को पूरी न्यायशुल्क की पूरी राशि वापिस की जाती है । इस संबंध में विधिक सेवा प्राधिकरण 1987 की धारा-20-1 के अनुसार किसी लोक अदालत में द्वारा कोई समझौता या परिनिर्धारण कियाजाता है तो ऐसे मामले में संदत्त न्यायालय फीस, न्यायालय फीस अधिनियम 1870 का 7 के अधिन उपबंधित रीति में वापस की जायेगी । इस संबंध में न्यायालय जिला कलेक्टर को प्रमाण पत्र जारी करेगा।

 
जगदीश प्रसाद विरूद्ध संगम लाल आई.एल.आर. 2011 मध्य प्रदेश 3011 में अभिनिर्धारित किया गया है कि प्रत्येक लोक अदालत का अधिनिर्णय लिगल सर्विस अथार्टी एक्ट 1987 की धारा-20 और 21 के अंतर्गत सिविल न्यायालय की डिक्री की श्रेणी में आता है।


रमेशचंद विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी. आई एल.आर. 2012 मध्य प्रदेश 320 में अभिनिर्धारित कियागयाहै कि धारा-35 कोर्ट फीस अधिनियम के अंतर्गत लोक अदालत में राजी नामा होने पर सम्पूर्ण राशि वापिस की जायेगी और लोक अदालत का निर्णय धारा-21 के अंतर्गत डिक्री की श्रेणी में आयेगा ।



मध्यस्थता धारा-89 के अंतर्गत सुलाह समझौते का एक महत्वपूर्ण आधार है । जिसके संबंध में मान्नीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा एस.एल.पी.नंबर-6000/2010 सी नंबर-760/2007 एफकाॅम इन्फ्रास्ट््रेेक्चर लिमि. विरूद्ध चेरियर वारके कार्पोरेशन प्राईवेट लिमि.2010 भाग-8 एस.एस.सी.24 के मामले में अभिनिर्धारित किया है कि यह एक महत्वपूर्ण न्यायिक प्रक्रिया है जिसका पालन कराया जाना राजीनामा वाले मामलो में अनिवार्य है । इस मामले में भी ऐसे मामलो की सूचि दी गई है जिनमें मध्यस्थ के मामले की प्रक्रिया का पालन कराया जाना चाहिए और यह भी बताया गया कि किन मामलो में इसका पालन आवश्यक नही है ।

 
मध्यस्थता के लिए उपयुक्त मामलो में जैसे



1. दीवानी मामले, निषेधादेश या समादेश, विशिष्ट निष्पादन, दीवानी वसूली, मकान मालिक किरायेदार के मामले, बेदखली के मामले,
2. श्रमिक विवाद
3. मोटर दुर्घटना दावे,
4. वैवाहिक मामले, बच्चो की अभिरक्षा के मामले, भरण-पोषण के मामले,
5. अपराधिक मामले, जिनमें धारा-406,498ए भा..वि. एंव पराक्रम लिखत अधि नियम की धारा-138 के मामले, धारा-125 दं.प्र.. भरण-पोषण के मामले, निम्नलिखित मामले मध्यस्थता हेतु उपयुक्त नहीं पाये गयेः-
1. लोकहित मामले,
2. ऐसे मामले जिनमें शासन एक तरफ से पक्षकार है ।
3. आराजीनामा योग्य धारा-320 .प्र.सं. के अवर्णित मामले
प्रत्येक प्रकरण में मध्यस्थ की प्रक्रिया अनिवार्य है लेकिन यदि आवश्यक तत्व न हो तो मध्यस्थ को भेजा जाना प्रकरण को आवश्यक नहीं है । इसमें पक्षकारो के मध्य विभिन्न कोर्ट में लंबित सभी मामले एक साथ निपटते हैं । कोर्ट फीस वापिस होती है । आदेश की अपील नहीं होती है ।
मध्य प्रदेश शासन के द्वारा इस सबंध में 30.082006 के राजपत्र मंे नियम प्रकाशित किये गये हैं । दोनो पक्ष आपसी सहमति से एक मध्यस्थ को नियुक्त कर सकते है या मध्यस्थ द्वारा एक मध्यस्थ विचाराधीन वाद के लिए नियुक्त किया जा सकता है। मध्यस्थता हमेशा निर्णय लेने की क्षमता दोनो पक्षों को सौंप देती है ।
सर्व प्रथम प्रत्येक जिले में एक मध्यस्थ केन्द्र की स्थापना की जायेगी । जिसका प्रभारी अधिकारी ए.डी.जे. स्तर का होगा । मध्यस्थ के लिए उपर्युक्त मामला पाये जाने पर संबंधित न्यायाधीश एक संक्षिप्त जानकारी सहित मामला मध्यस्थ जिले मे स्थापित मध्यस्थ केन्द्र के प्रभारी अधिकारी को भेजेगा । प्रभारी अधिकारी राष्ट््रीय विधिक सेवा प्राधिकरण के द्वारा नियुक्त एंव मान्यता प्राप्त मध्यस्थ को मामला सुपुर्द करेगा ।
पक्षकारों को मध्यस्थ केन्द्र में उपस्थित होने की तारीख संबंधित न्यायाधीश द्वारा दी जायेगी । मध्यस्थ द्वारा 60 के अंदर मामले को निराकृत करने का प्रयास किया जायेगा। पक्षकारो के विशेष अनुरोध पर 30 दिन ओर समयावधि बढाई जा सकती है । 90 दिन से ज्यादा समय मध्यस्थ कार्यवाही हेतु नहीं दिया जायेगा ।
समझौता होने पर ज्ञापन मध्यस्थ कार्यालय में अभिलिखित किया जायेगा जिस पर केस नंबर, मध्यस्थ केन्द्र का केस नंबर, पक्षकारो के नाम, शर्तो का उल्लेख होगा और उस पर मध्यस्थ सहित सभी पक्षकार अधिवक्ताओ के हस्ताक्षर होगें । एक-एक प्रतिलिपि दोनो पक्षकारो को दी जायेगी । जो न्यायालय में प्रस्तुत करेंगे । तथा मध्यस्थ भी समझौते की एक प्रति न्यायालय को सीधे भेजेगी । न्यायालय विधि अनुसार समझौते के अनुसरण में समझौता डिक्री पारित करेगा । जिसकी अपील नही होगी ।

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किशोर न्याय









बच्चों से संबंधित विशेष विधि एवं माननीय उच्चतम न्यायालय के दिशा निर्देश-
किशोर न्याय
विधि के साथ संघर्षरत किशोरो को शीघ्र न्याया प्रदान करने हेतु किशोर न्याय ( बालकों की देख-रेख तथा संरक्षण) अधिनियम 2000 की रचना की गई है । जिसमें 18 साल से कम आयु के वे बच्चे जिन्होने कानून का उल्लंघन किया हो । उनका किशोर न्याय बोर्ड के द्वारा निराकरण किया जाता है । ऐसे किशोर को गिरफतारी के 24 घंटे के अंदर किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष पेश किया जाता है । बोर्ड को मामले की जांच अधिकतम चार माह मे पूर करनी चाहिए । बोर्ड 14 वर्ष की आयु से बडे कामकाजी बच्चे को जुर्माना लगाने का आदेश देता है । विवाहित किशोर को अधिकतम तीन वर्ष की अवधि के लिए विशेष गृह/सुधार गृह भेजने का आदेश दिया जाता है । कानून विवादित किशोर को सामूहिक गतिविधियों तथा सामुदायिक सेवा कार्यो में भाग लेने का आदेश दिया जाता है । बोर्ड को मुफ्त कानूनी सेवाएं उपलब्ध कराना राज्य विधिक सेवाए प्राधिकरण और जिला बाल संरक्षण इकाई के कानूनी अधिकारी की जिम्मेदारी है ।

अधिनियम में बाल कल्याण हेतु बालगृह बनाने की व्यवस्था है । इसके अंतर्गत बच्चो को अस्थाई रूप से रखने के लिए निरीक्षण गृह, विशेष गृह आफटर केयर गृह की स्थापना की जायेगी जिसमें किशोरो को ईमानदारी, मेहनत और आत्मसम्मान के साथ जीवन जीने की शिक्षा और प्रशिक्षण दिया जाएगा । अनाथ शोषित, उपेक्षित, परित्यक्त बच्चो के पुनर्वास की व्यवस्था की गई है । ऐसे बाल गृहोे में बच्चो के स्वास्थ, शिक्षा, पोषण, सुरक्षा का विशेष ध्यान रखा जाएगा । इसके लिए बाल कल्याण समिति चाइल्ड हेल्प लाइन 1098 की स्थापना की गई है ।

लैगिक अपराधो से बालको का संरक्षण अधिनियम 2012
हमारे देश में छोटे बच्चो का यौन शोषण आम बात है । विशेषकर बच्चे के परिचित, रिश्तेदार, जानपहचान वाले, आस-पास रहने वाले पडौसी, शिक्षक आदि बच्चो पर प्रभाव डालकर यौन शोषण करते हैं। इन लोगो में ऐसे व्यक्तियों की संख्या ज्यादा जो अपना प्रभाव इन बच्चो पर रखते हैं और इस प्रभाव के अनुसरण में बच्चो के साथ अपनी यौन इच्छा, यौन पिपासा को शंात करते हैं ।
यौन शोषण के अंतर्गत न सिर्फ इनके साथ अप्राकृतिक मैथुन बलात्कार किया जाता है बल्कि इन्हें अश्लील फिल्में देखने बाध्य किया जाता है । इनके साथ अश्लील व्यवहार कर उसका फिल्मान्कन किया जाता है । यौन शोषण से बच्चो में निराशा, पीडा, आत्म सम्मान में कमी, की वृद्धि होती है । जिससे बच्चे के मानसिक स्तर पर कूप्रभाव पडता है और वह अपराध की ओर अग्रसर होते है या इसका बुरी तरह से शिकार होते हैं ।

इसी बात को ध्यान में रखते हुए भारत लैगिक अपराधो से बालको का संरक्षण अधिनियम 2012 की रचना की गई है । जिसमें बालक से आशय ऐसा कोई भी व्यक्ति जिसकी आयु 18 वर्ष से कम अभिप्रेत है। इस अधिनियम में इन अपराधो को यौन उत्पीडन, यौन शोषण, के रूप में परिभाषित कर दण्डित किया गया है ।
इसके साथ ही साथ दण्ड विधि संशोधन अधिनियम 2013 दिनांक 3.2.13 से प्रभावशील किया गया है जिसमें यौन शोषण,और यौन उत्पीडन को बलात्कार की परिभाषा में शामिल कर कठोर दण्ड से दण्डित किया गया है । बार-बार अपराध करने वालो को मृत्यु दण्ड और उनके जीवन के रहते आजीवन कारावास से दंडित किया गया है।
बाल विवाह
हमारे देश में बच्चो की कम उम्र में शादी की परम्परा है । जिसके कारण बच्चें कम उम्र में मां बाप बन जाते हैं । गर्भवती महिलाओ को मृत्यु और गर्भपात में वृद्धि होती है । शिशु मृत्यु दर बढती है । बच्चो को बाल मजदूरी अवैध व्यापार या वैश्या वृत्ति में लगा दिया जाता है भारत में बाल विवाह को दण्डित किया गया है जिसके संबंध में बाल विवाह निषेध अधियिम 2006 की रचना की गई है ।

अधिनियम के अनुसार एक ऐसी लडकी का विवाह जो 18 साल से कम की है या ऐेसे लडके का विवाह जो 21 साल से कम का है । बाल विवाह कहलाता है ।जिसके लिए 18 साल से अधिक लेकिन 21 साल से कम उम्र का बालक जो विवाह करता है । उसे और उसके मिाता पिता संरक्षक अथवा वे व्यक्ति जिनके देखरेख बाल विवाह सम्पन्न होता है । बाल विवाह में शामिल होने वाले व्यक्तियों को भी दण्डित किया जाता है । े

बाल विवाह के आरोपियों को दण्डित किया गया है । उन्हें दो साल तक का कठोर कारावास या एक लाख रूपये तक का जुर्माना अथवा दोनो से दण्डित किया जा सकता है । इसके अलावा बाल विवाह कराने वाले माता पिता, रिश्तेदार, विवाह कराने वाला पंडित, काजी को भी तीन महीने तक की कैद और जुर्माना हो सकता है । किन्तु बाल विवाह कानून के अंतर्गत किसी महिला को न ही माता पालक अथवा बालक या बालिका जिसका विवाह हुआ है उसे कारावास की सजा नहीं दी जाएगी।

बाल विवाह की शिकायत कोई भी व्यक्ति निकटतम थाने में कर सकता है । इसके लिए सरकार के द्वारा प्रत्येक जिले में जिला कलेक्टर बाल विवाह निषेध अधिकारी की शक्तियां दी गई है । जिसका काम उचित कार्यवाही से बाल विवाह रोकना है । उनकी अभिरक्षा भरण पोषण की जिम्मेदारी उसकी है । उसका काम समुदाय के लोगो में जागरूकता पैदा करना है । वह बाल विवाह से संबंधित मामलो में जिला न्यायालय में याचिका प्रस्तुत करवायेगा ।

बाल विवाह को विवाह बंधन में आने के बाद किसी भी बालक या बालिका की आनिच्छा होने पर उसे न्यायालय द्वारा वयस्क होने के दो साल के अंदर अवैध घोषित करवाया जा सकता है । जिला न्यायालय भरण पोषण दोनो पक्षों को विवाह में दिए गए गहने कीमती वस्तुएंे और धन लौटाने के आदेश पुनर्विवाह होने तक उसके निवास का आदेश कर सकेगा।

माननीय उच्चतम न्यायालय बच्चों के शोषण से निपटने के लिए एक दीर्घकालिक और व्यवस्थित योजना बनाये जाने हेतु दिशा निर्देश जारी किये गये।
अपर्याप्त बजट आवंटन पर चिंता व्यक्त की गई है। आॅकड़ो के अनुसार भारत में दुनियाॅ की 19 प्रतिशत बच्चों की आबादी 1/3 से नीचे लगभग 44 लाख बच्चे की आबादी 18 वर्ष से कम है। इसके बाद भी वर्ष 2005-06 में कुल बजट का 3.86 प्रतिशत और 2006-07 में 4.91 प्रतिशत खर्च किया गया। जब कि देश के बच्चे देश का भविष्य हैं वे क्षमता विकास के अग्रदूत हैं। उनमें गतिशीलता नवाचार, रचनात्मकता परिवर्तन लाने के लिए आवश्यक है। हम स्वस्थ्य और शिक्षित बच्चों की आबादी का विकास करे ताकि आगे चलकर वे अच्छे नागरिकों के रूप में देश की सेवा कर सके। इन्हीं बातों का ध्यान रखते हुये बाल कल्याण के लिये बजट बढ़ाने का कहा गया है।
यौन शोषण
हमारे देश में छोटे बच्चो का यौन शोषण आम बात है । विशेषकर बच्चे के परिचित, रिश्तेदार, जानपहचान वाले, आस-पास रहने वाले पडौसी, शिक्षक आदि बच्चो पर प्रभाव डालकर यौन शोषण करते हैं। इन लोगो में ऐसे व्यक्तियों की संख्या ज्यादा जो अपना प्रभाव इन बच्चो पर रखते हैं और इस प्रभाव के अनुसरण में बच्चो के साथ अपनी यौन इच्छा, यौन पिपासा को शंात करते हैं ।
यौन शोषण के अंतर्गत न सिर्फ इनके साथ अप्राकृतिक मैथुन बलात्कार किया जाता है बल्कि इन्हें अश्लील फिल्में देखने बाध्य किया जाता है । इनके साथ अश्लील व्यवहार कर उसका फिल्मान्कन किया जाता है । यौन शोषण से बच्चो में निराशा, पीडा, आत्म सम्मान में कमी, की वृद्धि होती है । जिससे बच्चे के मानसिक स्तर पर कूप्रभाव पडता है और वह अपराध की ओर अग्रसर होते है या इसका बुरी तरह से शिकार होते हैं ।
इसी बात को ध्यान में रखते हुए भारत लैगिक अपराधो से बालको का संरक्षण अधिनियम 2012 की रचना की गई है । जिसमें बालक से आशय ऐसा कोई भी व्यक्ति जिसकी आयु 18 वर्ष से कम अभिप्रेत है। इस अधिनियम में इन अपराधो को यौन उत्पीडन, यौन शोषण, के रूप में परिभाषित कर दण्डित किया गया है ।
इसके साथ ही साथ दण्ड विधि संशोधन अधिनियम 2013 दिनांक 3.2.13 से प्रभावशील किया गया है जिसमें यौन शोषण,और यौन उत्पीडन को बलात्कार की परिभाषा में शामिल कर कठोर दण्ड से दण्डित किया गया है । बार-बार अपराध करने वालो को मृत्यु दण्ड और उनके जीवन के रहते आजीवन कारावास से दंडित किया गया है।




































































































बाल मजदूरी बालक श्रम प्रतिषेध और विनियमन अधिनियम 1986

                                                              बाल मजदूरी
   बालक श्रम प्रतिषेध और विनियमन अधिनियम 1986 
 
                                          हमरे देश में बाल मजदूरी आम बात है । देश में करोडो बच्चे पढने की उम्र में बोझा ढोते हैं । कारखाना, फैक्ट्री, में खतरनाक काम करते हैं । जबकि बाल मजदूरी को बालक श्रम प्रतिषेध और विनियमन अधिनियम 1986 की धारा-14 में अपराध घोषित कर उसे दण्डित किया गया है । 
 
                                      इस अधिनियम के अंतर्गत बच्चो को 15वां साल लगने से पहले किसी भी फेक्ट्री में काम पर नहीं रखा जा सकता ।

                                       उनसे रेलवे स्टेशन, बंदरगाह, कारखाने, उद्योग धंधे जहां पर खतरनाक रसायन और कीटनाशक निकलते हैं । 

                                     वहा पर उन्हें काम पर नहीं लगाया जा सकता है ैकेवल 14 से 18 साल की उम्र के बच्चे को ही फैक्ट्रियो मंे 6 घंटे काम पर लगाया जा सकता है ।

 जिसमें उनसे एक बार में चार घंटे से ज्यादा काम नहीं लिया जा सकता है ।

 रात के 10 बजे से लेकर सुबह 8 बजे के बीच में उनसे कोई भी काम नहीं करवाया जायेगा ।

 उन्हें सप्ताह में एक दिन छुटटी अवश्य दी जायेगी ।

 उनकी सुरक्षा के विशेष इंतजाम कारखाना अधिनियम 1948 के अनुसार किये जाएगें ।

जब से बच्चो को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार दिया गया है तब से 18 साल से कम उम्र के किसी भी बच्चे को काम करने की इजाजत नही ंदी जानी चाहिए।

 
माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा भारत में सर्कस में बाल कलाकार का उपयोग प्रतिबंधित किया गया है। हमारे देश में सर्कस लोकप्रिय है और सर्कस में बच्चे काम करते थे इस संबंध में मान0 उच्चतम न्यायालय के द्वारा 14 वर्ष से कम उम्र के बाल कलाकारों को उपयोग करने से सर्कस मालिकों पर प्रतिबंध लगा दिया। यह देखा गया कि सर्कस में अव्यस्क बच्चों को उनकी मर्जी के खिलाफ दिन में 5 बार प्रदर्शन के लिये मजबूर किया जाता था और सर्कस के लिये बच्चो की तस्करी की जाती थी। सर्कस में उनके साथ बुरा बर्ताव किया जाता था। इसे बालश्रम माना गया। 
 
इस संबंध में बचपन बचाओं आंदोलन विरूद्ध भारत संघ सिविल याचिका क्रमांक-51/2006 में निम्नलिखि दिशा-निर्देश जारी किये गयेः-
1. 14 वर्ष से कम उम्र के बाल कलाकार सर्कस में काम नहीं करेंगे। 
 
2. सर्कस में काम कर रहे अव्यस्क बच्चों को दिन में पांच बार प्रदर्शन के लिये मजबूर नहीं किया जायेगा। 
 
3. प्रत्येक राज्य सरकार किशोर घरों की अर्द्ध वर्षिक रिपोर्ट प्राप्त करेगी जिसमें बच्चों की संख्या, स्थिति, पुर्नवास और वर्तमान स्थिति का उल्लेख होगा। इसके लिये राज्य सरकार प्रत्येक जिले में किशोर न्याय सेल खोलेगी। 
 
4. 24 घण्टे घरों में चलने वाले सभी गैर सरकारी संगठनों का जिला कलेक्टर में पंजीकरण होगा उनके नाम पते सहित पूर्व विवरण, पदाधिकारियों के नाम, मोबाइल नम्बर सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किये जाएॅगे इसका एक डेटाबेट तैयार किया जायेगा। 
 
5. सड़क किनारे ढाबे (भोजनालय) और मैकेनिक की दुकानों में काम करने वाले बच्चों को बचाने और उनका पुनर्वास करने में एक मजिस्ट्र्ेट की नियुक्ति, जिला मजिस्ट्र्ेट द्वारा की जायेगी। जिसके द्वारा ऐसे बच्चों की बचाव और निगरानी करने के निर्देश दिये जायेंगे।
6. केन्द्रीय दत्तक ग्रहण रिसोर्स एजेन्सी द्वारा अपनी वार्षिक रिपोर्ट परिवारसमाज कल्याण को दी जायेगी।
7. समेकित बाल संरक्षण योजना के अंतर्गत केन्द्र और राज्य सरकार अर्द्धवार्षिक रणनीति योजना तैयार करेगी।
8. प्रत्येक राज्य सरकार को बच्चों के संबंध में योजनाओं के कार्यान्वयन के लिये जिम्मेदार बताया गया बाल कल्याण समितियों को जिला जज की देखरेख में रखने की सिफारिश की गयी है। 
 
9. घरों में बच्चों की अच्छी देख भाल हो इसके लिये पालक ध्यान-योजना की सिफारिश की गयी है। 
 
10. केन्द्र सरकार बच्चों के लाभ और कल्याण के लिये एक स्वतंत्र प्राधिकरण बनायेगी, जिससे आवंटित धन का वास्तव में बच्चों के कल्याण के लिये उपयोग होगा। 

 
माननीय उच्चतम न्यायालय बच्चों के शोषण से निपटने के लिए एक दीर्घकालिक और व्यवस्थित योजना बनाये जाने हेतु दिशा निर्देश जारी किये गये। 
 
अपर्याप्त बजट आवंटन पर चिंता व्यक्त की गई है। आॅकड़ो के अनुसार भारत में दुनियाॅ की 19 प्रतिशत बच्चों की आबादी 1/3 से नीचे लगभग 44 लाख बच्चे की आबादी 18 वर्ष से कम है। इसके बाद भी वर्ष 2005-06 में कुल बजट का 3.86 प्रतिशत और 2006-07 में 4.91 प्रतिशत खर्च किया गया। जब कि देश के बच्चे देश का भविष्य हैं वे क्षमता विकास के अग्रदूत हैं। उनमें गतिशीलता नवाचार, रचनात्मकता परिवर्तन लाने के लिए आवश्यक है। हम स्वस्थ्य और शिक्षित बच्चों की आबादी का विकास करे ताकि आगे चलकर वे अच्छे नागरिकों के रूप में देश की सेवा कर सके। इन्हीं बातों का ध्यान रखते हुये बाल कल्याण के लिये बजट बढ़ाने का कहा गया है।

माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा एम.सी. मेहता बनाम तमिलनाडू सिविल रिट याचिका क्रमांक-465/86 में बाल श्रम उन्मूलन के संबंध में दिशा-निर्देश जारी किये गये थे जो निम्नलिखित हैंः-

1. काम करने वाले बच्चों की पहचान के लिये सर्वेक्षण किया जाए।
2. खतरनाक उद्योग में काम कर रहे बच्चों की वापसी हो उन्हें उचित शिक्षा संस्थान में शिक्षित किया जाये। 
 
3. बाल कल्याण बवदजतपइनजपवद / त्ण् 20000 की स्थापना की गयी है जिसमें प्रति बच्चे के हिसाब से नियोक्ता द्वारा भुगतान किया जाये। 
 
4. बच्चों के परिवार के व्यस्क सदस्य को रोजगार किया जायेगा। 
 
5. राज्य सरकार कल्याण कोष में येगदान देगी। 
 
6. बच्चों के परिवार को वित्तीय सहायता दी जायेगी। 
 
7. गैर खतरनाक व्यवसाय मे बच्चों को काम पर नहीं लिया जायेगा। 
 
मान0 उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देश के अनुरूप वर्ष 2006 में बाल श्रम निषेध कानून की स्थापना की गयी जिसमें 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को किसी भी काम धंधों में नहीं लगाया जायेगा।
 
उमेश कुमार गुप्ता