साक्ष्य के मूल्यांकन
1 विधिक
स्थिति सुस्थापित है कि पुलिस अधिकारी की साक्ष्य का मूल्यंकन भी उसी
प्रकार तथा उन्हीं मानदण्डों के आधार पर किया जाना चाहिये, जिस प्रकार अन्य
साक्षियों की अभिसाक्ष्य का मूल्यांकन किया जाता है तथा किसी साक्षी की
अभिसाक्ष्य को यांत्रिक तरीके से मात्र इस आधार पर रद्द कर देना कि वह एक
पुलिस अधिकारी है, अथवा मात्र संपुष्टि के अभाव में पुलिस अधिकारी की
अभिसाक्ष्य को अस्वीकृत करना न्यायिक दृष्टिकोण नहीं है,
संदर्भ:-
करमजीतसिंह विरूद्ध राज्य (2003) 5 एस.सी.सी. 291 एवं बाबूलाल विरूद्ध
म.प्र.राज्य 2004 (2) जेेे.एल.जे. 425
2. पुलिस अधिकारी की
अभिसाक्ष्य के मूल्यांकन एवं विष्लेषण के संबंध में यह विधिक स्थिति
सुस्थापित है कि यदि विष्लेषण एवं परीक्षण के बाद ऐसी साक्ष्य विष्वास
योग्य है तो उसके आधार पर दोषिता का निष्कर्ष निकालने में कोई अवैधानिकता
नहीं है,
संदर्भ:- करमजीतसिंह विरूद्ध दिल्ली राज्य (2003)5 एस.सी.सी. 291
एवं नाथूसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य ए.आई.आर. 1973 एस.सी. 2783.
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3 किसी
साक्षी को पक्ष-विरोधी घोषित कर दिये जाने मात्र से उसकी अभिसाक्ष्य पूरी
तरह नहीं धुल जाती है, अपितु न्यायालय ऐसी अभिसाक्ष्य का सावधानीपूर्वक
विष्लेषण कर उसमें से ऐसे अंष को, जो विष्वसनीय एवं स्वीकार किये जाने
योग्य है, निष्कर्ष निकालने का आधार बना सकती है।
इस संबंध में न्याय
दृष्टांत खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य,
ए.आई.आर.-1991 (एस.सी.)-1853 में किया गया प्रतिपादन तथा दाण्डिक विधि
संषोधन अधिनियम, 2005 के द्वारा भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 154 में
किया गया संषोधन भी दृष्ट्व्य है, जिसकी उपधारा-1 यह प्रावधित करती है कि
किसी साक्षी से धारा 154 के अंतर्गत मुख्य परीक्षण में ऐसे प्रष्न पूछने की
अनुमति दिया जाना, जो प्रतिपरीक्षण में पूछे जा सकते हैं, उस साक्षी की
अभिसाक्ष्य के किसी अंष पर निर्भर किये जाने में बाधक नहीं होगी।
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4 वस्तुतः
ऐसी कोई विधि नहीं है कि ऐसे साक्षियों, जो नातेदार है, के कथनों पर केवल
नातेदार होने के कारण विष्वास न किया जाये। प्रायः यह देखा जाता है कि
अधिकतर अपराध आहतों के आवास पर और ऐसे असामान्य समय में कारित किये जाते
हैं जिनके दौरान नातेदारों के अलावा किसी अन्य की उपस्थिति की आषा नहीं की
जा सकती। अतः यदि नातेदारों के कथनों पर केवल उनके नातेदार होने के आधार पर
अविष्वास किया जाता है तो ऐसी परिस्थितियों में अपराध साबित करना लगभग
असंभव हो जायेगा। तथापि, सावधानी के नियम की, जिसके द्वारा न्यायालय
मार्गदर्षित है, यह अपेक्षा है कि ऐसे साक्षियों के कथनों की समीक्षा
(जाॅच) किसी स्वतंत्र साक्षी की तुलना में अधिक सावधानी के साथ की जानी
चाहिये।
उपरोक्त दृष्टिकोण उच्चतम न्यायालय द्वारा दरियासिंह बनाम पंजाब
राज्य, ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 328 वाले मामले में अभिव्यक्त मत से समर्थित
है, जिसमें प्रकट किया गया है कि ’’इस बात पर कोई संदहे नहीं किया जा सकता
कि हत्या के मामले में जब साक्ष्य, आहत के निकट नातेदार द्वारा दी जाती है
और हत्या कुटुम्ब (परिवार) के शत्रु द्वारा की जानी अभिकथित की गयी हो तो
दांडिक न्यायालयों को आहत के निकट नातेदारों की परीक्षा अत्यधिक सावधानी से
करनी चाहिये। किन्तु कोई व्यक्ति नातेदार या अन्यथा होने के कारण आहत में
हितबद्ध हो सकता है और आवष्यक रूप से अभियुक्त का विरोधी नहीं हो सकता। ऐसी
दषा में में इस तथ्य से, कि साक्षी आहत व्यक्ति का नातेदार था या उसका
मित्र था, अपनी साक्ष्य में आवष्यक रूप से कोई कमी नहीं छोड़ेगा। किन्तु
जहा साक्षी आहत का निकट नातेदार है और यह उपदर्षित होता है कि वह आहत के
हमलावर के विरूद्ध आहत व्यक्ति का साथ देगा तो दांडिक न्यायालयों के लिये
स्वाभाविक रूप से यह अनिवार्य हो जाता है कि वे ऐसे साक्षियां की परीक्षा
अत्यधिक सावधानी से करे और उस पर कार्यवाही करने से पूर्व ऐसी साक्ष्य की
कमियों की समीक्षा कर ले।’’
5. उच्चतम न्यायालय ने कार्तिक
मल्हार बनाम बिहार राज्य, जे.टी. 1995(8) एस.सी. 425 वाले मामले में भी ऐसी
ही मताभिव्यक्ति की:-
’’ ............... हम यह भी मत व्यक्त
करते हैं कि इस आधार में कि चॅकि साक्षी निकट का नातेदार है और
परिणामस्वरूप यह एक पक्षपाती साक्षी है, इसलिये उसके साक्ष्य का अवलंब नहीं
लिया जाना चाहिये, कोई बल नहीं है।’’
6 इस दलील को कि
हितबद्ध साक्षी विष्वास योग्य नहीं होता है माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने
पहले भी दिलीप सिंह (ए.आई.आर. 1953 एस.सी. 364) वाले मामले में खारिज कर
दिया था। इस मामले में न्यायालय ने बार के सदस्यों के मस्तिष्क में यह
धारणा होने पर अपना आष्चर्य प्रकट किया था कि नातेदार स्वतंत्र साक्षी नहीं
माने जा सकते हैं। न्यायालय की ओर से न्यायमूर्ति विवियन बोस ने यह मत
व्यक्त किया: -
’’हम उच्च न्यायालय के न्यायाधीषों से इस बात
पर सहमत होने में असमर्थ हैं कि दो प्रत्यक्षदर्षी साक्षियां के
परिसाक्ष्य के लिये पुष्टि अपेक्षित है। यदि ऐसी मताभिव्यक्ति की बुनियाद
ऐसे तथ्य पर आधारित है कि साक्षी महिलायें हंऔर सात पुरूषों का भाग्य
उनकी परिसाक्ष्य पर निर्भर है, तो हमें ऐसे नियम की जानकारी नहीं है। यदि
यह इस तथ्य पर आधारित है कि वे मृतक के निकट नातेदार है तो हम इससे सहमत
होने में असमर्थ हैं। यह भ्रम अनेक दांडिक मामलों में सामान्य रूप से
व्याप्त है और इस न्यायालय की एक अन्य खण्डपीठ ने भी आहत रामेष्वर बनाम
राजस्थान राज्य (1952 एस.सी.आर.377 = ए.आई.आर. 1950 एस.सी. 54) वाले मामले
में इस भ्रम को दूर करने का प्रयास किया है। तथापि दुर्भाग्यवष यह अभी भी,
यदि न्यायालयों के निर्णयों में नहीं तो कुछ सीमा तक काउन्सेलों की दलीलों
में उपदर्षित होता है।’’
-यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि किसी
साक्षी की अभिसाक्ष्य को, यदि वह अन्यथा विष्वास योग्य है, इस आधार पर
अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि ऐसी साक्ष्य हितबद्ध अथवा रिष्तेदार
साक्षी है।
लेकिन उच्चतम न्यायालय ने कार्तिक मल्हार बनाम बिहार
राज्य, जे.टी. 1995(8) एस.सी. में यह मताभिव्यक्ति की है कि इस दलील में
कोई बल नहीं है कि एक साक्षी निकट रिश्तेदार है और परिणामस्वरूप वह एक
पक्षपाती साक्षी है इसलिये उसकी साक्ष्य का अवलंब नहीं लिया जाना चाहिये।
दिलीप सिंह आदि विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1953 एस.सी. 364 के मामले का
संदर्भ लेते हुये उक्त मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी प्रकट
किया है कि दिलीप सिंह के मामले में न्यायालय द्वारा बार के सदस्यों के
मस्तिष्क में व्याप्त इस धारणा पर आश्चर्य प्रकट किया गया था कि नातेदार
स्वतंत्र साक्षी नहीं होेते हैं। दिलीप सिंह (पूर्वोक्त) के मामले में
माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह मताभिव्यक्ति की गयी है कि अनेक
दाण्डिक मामलों में यह भ्रम सामान्य रूप से व्याप्त है कि मृतक के निकट
रिश्तेदारों की साक्ष्य पर निर्भर नहीं किया जा सकता है, लेकिन रामेश्वर
बनाम राजस्थान राज्य, ए.आई.आर. 1950 एस.सी. 54 वाले मामले में इस भ्रम को
दूर करने का प्रयास किया गया है। तथापि दुर्भाग्यवश यह अभी भी, यदि
न्यायालयों के निर्णयों में नहीं तो कुछ सीमा तक अधिवक्ताओं की दलीलों में
उपदर्शित होता है। न्याय दृष्टांत उ.प्र.राज्य विरूद्ध वल्लभदास आदि,
ए.आई.आर., 1985 एस.सी. 1384 में यह विधिक प्रतिपादन भी किया गया है कि
वर्गों में विभाजित ग्रामीण अंचलों में निष्पक्ष साक्षियों का उपलब्ध होना
लगभग असम्भव है।
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7 न्याय
दृष्टांत भरवादा भोगिन भाई हिरजी भाई विरूद्ध गुजरात राज्य ए.आई.आर. 1983
एस.सी. 753 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया जाना
कि तुच्छ विसंगतियों को विशेष महत्व नहीं दिया जाना चाहिये क्योंकि
सामान्यतः न तो किसी साक्षी से चलचित्रमय स्मृति अपेक्षित है और न ही यह
अपेक्षित है कि वह घटना का पुर्नप्रस्तुतीकरण वीडियो टेपवत् करे। सामान्यतः
घटना की आकस्मिकता, घटनाओं के विश्लेषण, विवेचना एवं अंगीकार की मानसिक
क्षमताओं को प्रतिकूलतः प्रभावित करती है तथा यह स्वाभाविक रूप से संभव
नहीं है कि किसी बड़ी घटना के सम्पूर्ण विवरण को यथावत् मस्तिष्क में समाया
जा सके। इसके साथ-साथ लोगों के आंकलन, संग्रहण एवं पुनप्र्रस्तुति की
मानसिक क्षमताओं में भी भिन्नता होती है तथा एक ही घटनाक्रम को यदि विभिन्न
व्यक्ति अलग-अलग वर्णित करें तो उसमें अनेक भिन्नतायें होना कतई
अस्वाभाविक नहीं है तथा एसी भिन्नतायें अलग-अलग व्यक्तियों की अलग-अलग
ग्रहण क्षमता पर निर्भर करती है। इस सबके साथ-साथ परीक्षण के समय न्यायालय
का माहौल तथा भेदक प्रति-परीक्षण भी कभी-कभी साक्षियों को कल्पनाओं के आधार
पर तात्कालिक प्रश्नों की रिक्तियों को पूरित करने की और इस संभावना के
कारण आकर्षित करता है कि कहीं उत्तर न दिये जाने की दशा में उन्हें मूर्ख न
समझ लिया जाये। जो भी हो, मामले के मूल तक न जाने वाले तुच्छ स्वरूप की
प्रकीर्ण विसंगतिया साक्षियों की विश्वसनीयता को प्रभावित नहीं कर सकती
है। इस विषय में न्याय दृष्टांत उत्तर प्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह,
ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 1998 भी अवलोकनीय है।
6 प्रथम सूचना रिपोर्ट मामले की वृहद ज्ञानकोष नहीं है कि
उसमें घटना से संबंधित प्रत्येक विषिष्टि का उल्लेख हो। प्राथमिकी मूलतः
आपराधिक विधि को गतिषील बनाने के लिये होती है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत
बलदेव सिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 372 सुसंगत एवं
अवलोकनीय है। न्याय दृष्टांत उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध वल्लभदास, ए.आई.आर.
1985 (एस.सी.) 1384 के मामले से संबंधित प्रथम सूचना रिपोर्ट में इस बात
का उल्लेख नहीं था कि मृतक पर लाठी से प्रहार किया गया, इस व्यतिक्रम/लोप
को मामले के लिये घातक नहीं माना गया।
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7
यदि किसी तथ्य की जानकारी पुलिस को पूर्व से रही है तो ऐसे तथ्य के बारे
में अभियुक्त द्वारा दी गयी सूचना भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27
के अंतर्गत ’तथ्य के उद्घाटन’ ; की परिधि में नहीं
आती है।
संदर्भ:- अहीर राजा खेमा विरूद्ध सौराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 1956
एस.सी. 217 ।
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8
एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य अगर अंतर्निहित गुणवत्तापूर्ण है तथा उसमें कोई
तात्विक लोप या विसंगति नहीं है तो उसे मात्र इस आधार पर रद्द नहीं किया जा
सकता है कि वह एकल साक्षी है अथवा संबंधी साक्षी है अथवा हितबद्ध साक्षी
है। संदर्भ:- सीमन उर्फ वीरामन विरूद्ध राज्य, 2005(2) एस.सी.सी. 142।
न्याय दृष्टांत लालू मांझी व एक अन्य विरूद्ध झारखण्ड राज्य, 2003(2)
एस.सी.सी. 401 में यह स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि ऐसे मामले हो सकते
हैं, जहा किसी घटना विषेष के संबंध में केवल एक ही साक्षी की अभिसाक्ष्य
उपलब्ध हो, ऐसी स्थिति में न्यायालय को ऐसी साक्ष्य का सावधानीपूर्वक
परीक्षण कर यह देखना चाहिये कि क्या ऐसी साक्ष्य दुर्बलताओं से मुक्त या
विसंगति विहीन है।
9 . न्याय दृष्टांत
वादी वेलूथुआर विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में किया
गया यह विधिक प्रतिपादन भी इस क्रम में सुसंगत एवं दृष्ट्व्य है कि किसी
साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर यांत्रिक तरीके से अविष्वसनीय
ठहराकर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसकी साक्ष्य
की संपुष्टि नहीं होती है, क्योंकि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत संपुष्टि
का नियम सावधानी एवं प्रज्ञा का नियम है, विधि का नियम नहीं है। जहा किसी
साक्षी की अभिसाक्ष्य विष्लेषण एवं परीक्षण के पष्चात् विष्वसनीय है,
वहा उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित करने में कोई अवैधानिकता नहीं हो
सकती है।
10 एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य के आधार पर दोष-सिद्धि निष्कर्षित
किये जाने के विषय में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा न्याय दृष्टांत
वादीवेलु थेवार विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में यह
अभिनिर्धारित किया गया है कि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत किसी तथ्य को
प्रमाणित करने के लिये किसी विषिष्ट संख्या में साक्षियों की आवष्यकता नहीं
होती है, लेकिन यदि न्यायालय के समक्ष यदि एक मात्र साक्षी की अभिसाक्ष्य
है तो ऐसी साक्ष्य को उसकी गुणवत्ता के आधार पर 3 श्रेणी में रखा जा सकता
है:-
प्रथम - पूर्णतः विष्वसनीय,
द्वितीय - पूर्णतः अविष्वसनीय, एवं
तृतीय - न तो पूर्णतः विष्वसनीय और न ही पूर्णतः अविष्वसनीय।
11.
उक्त मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह प्रतिपादित
किया गया कि प्रथम दो स्थितियों में साक्ष्य को अस्वीकार या रद्द करने में
कोई कठिनाई नहीं हो सकती है, लेकिन तृतीय श्रेणी के मामलों में कठिनाई
स्वाभाविक है तथा ऐसी स्थिति में न्यायालय को न केवल सजग रहना चाहिये,
अपितु निर्भरता योग्य पारिस्थतिक या प्रत्यक्ष साक्ष्य से सम्पुष्टि की
मांग भी की जानी चाहिये। बचाव पक्ष के विद्वान अधिवक्ता द्वारा अवलंबित
न्याय दृष्टांत लल्लू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य, ए.आई.आर. 2003 एस.सी.
854 में उक्त विधिक प्रतिपादन को पुनः दोहराया गया है।
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