यह ब्लॉग खोजें

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास का अपराध

             ’संहिता’ की धारा-307  हत्या के प्रयास का अपराध


1.        ’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास का अपराध गठित करने के लिये यह देखना आवश्यक है कि चोट की प्रकृति क्या थी, चोट कारित करने के लिये किस स्वरूप के हथियार का प्रयोग, कितने बल के साथ किया गया। घटना के समय प्र्रहारकर्ता ने अपना मनोउद्देश्य किस रूप से तथा किन शब्दों को प्रकट किया ? उसका वास्तविक उद्देश्य क्या था ? आघात के लिये आहत व्यक्ति के शरीर के किन अंगों को चुना गया ? आघात कितना प्रभावशाली था ? उक्त परिस्थितियों के आधार पर ही यह अभिनिर्धारित किया जा सकता है कि वास्तव में अभियुक्त का उद्देश्य हत्या कारित करना था अथवा नहीं
, संदर्भ:- म.प्र.राज्य बनाम रामदीन एवं पाच अन्य-1990, करेन्ट क्रिमिनल जजमेंट्स 228.
------------------------------------------------------


2.        धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे। यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है।

 संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437


3.        महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध बलराम बामा पाटिल, ए.आई.आर 1983 सु.को. 305 में ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि एवं विस्तार पर विचार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा-307 के अंतर्गत दोष-सिद्धि को उचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि वास्तविक रूप से कारित उपहति की प्रकृति अभियुक्त के मंतव्य के बारे में विनिश्चय करने में पर्याप्त सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा मंतव्य अन्य परिस्थितियों के आधार पर भी तथा कतिपय मामलों में वास्तविक उपहति के संदर्भ के बिना भी विनिश्चय किया जा सकता है।

4  धारा-307 अभियुक्त के कृत्य तथा उसके परिणाम के बीच विभेद करती है तथा जहा तक आहत व्यक्ति का संबंध है, यद्यपि कृत्य से वैसा परिणाम नहीं निकला हो लेकिन फिर भी अभियुक्त इस धारा के अधीन दोषी हो सकता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि पहुचायी गयी उपहति परिस्थितियों के सामान्य क्रम में आहत की मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। न्यायालय को वस्तुतः यह देखना है कि अभियुक्त का कृत्य उसके परिणाम से भिन्न क्या ’संहिता’ की धारा 300 में प्रावधित आशय अथवा ज्ञान की परिस्थितियों के साथ किया गया।

5.            ’प्रयत्न’ का विधि एवं तथ्यों से गठन होता है। जो प्रकरण में विद्यमान परिस्थितियों पर निर्भर रहते हैं। धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे। यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है,

 संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437.




7.        म.प्र.राज्य विरूद्ध सलीम उर्फ चमरू एवं एक अन्य (2005) 5 एस.सी.सी. 554 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के अंतर्गत दोषसिद्धि को न्यायोचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो, जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि चोट की प्रकृति, अभियुक्त के आशय का पता लगाने में सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा आशय मामले की अन्य परिस्थितियों तथा कतिपय मामलों में कारित चोट के संदर्भ के बिना भी पता लगाया जा सकता है। इस मामले में स्पष्ट रूप से यह ठहराया गया है कि मामले को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के अंतर्गत लाने के लिये यह कतई आवश्यक नहीं है कि आहत को पहुचायी गयी चोट, प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो, अपितु यह देखा जाना चाहिये कि क्या कृत्य ऐसे आशय अथवा ज्ञान के साथ किया गया है जैसा धारा में उल्लिखित है। इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक न्याय दृष्टांतों का संदर्भ देते हुये यह स्पष्ट किया है कि केवल यह तथ्य कि आहत के मार्मिक शारीरिक अवयव क्षतिग्रस्त नहीं हुये हैं, अपने आप में उसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के बाहर नहीं ले जा सकता है।
 , संदर्भ:- हरिजन नारायण विरूद्ध स्टेट आफ आन्ध्रप्रदेष ए.आई.आर.-2003 एस.सी. -2851


-
8.        ’संहिता’ की धारा 307 के अपराध के संबंध में न्याय दृष्टांत सरजू प्रसाद विरूद्ध बिहार राज्य, ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 843 में यह प्रतिपादित किया गया है कि मामले को ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि में रखने के लिये यह प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि ’संहिता’ की धारा 300 में वर्णित तीन प्रकार के आषयों में से कोई आषय अथवा ज्ञान की स्थिति उस समय विद्यामन थी, जबकि प्रहार किया गया तथा अभियुक्त की मनःस्थिति घटना के समय विद्यमान साम्पाष्र्विक परिस्थितियों के आधार पर तय की जानी चाहिये।


9.        उक्त क्रम में विधिक स्थिति की तह तक जाने के लिये कतिपय न्याय दृष्टांतों का संदर्भ भी समीचीन होगा। न्याय दृष्टांत महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध बलराम बामा पाटिल, ए.आई.आर 1983 सु.को. 305 में ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि एवं विस्तार पर विचार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा-307 के अंतर्गत दोष-सिद्धि को उचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि वास्तविक रूप से कारित उपहति की प्रकृति अभियुक्त के मंतव्य के बारे में विनिश्चय करने में पर्याप्त सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा मंतव्य अन्य परिस्थितियों के आधार पर भी तथा कतिपय मामलों में वास्तविक उपहति के संदर्भ के बिना भी विनिश्चय किया जा सकता है। धारा-307 अभियुक्त के कृत्य तथा उसके परिणाम के बीच विभेद करती है तथा जहा तक आहत व्यक्ति का संबंध है, यद्यपि कृत्य से वैसा परिणाम नहीं निकला हो लेकिन फिर भी अभियुक्त इस धारा के अधीन दोषी हो सकता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि पहुॅचायी गयी उपहति परिस्थितियों के सामान्य क्रम में आहत की मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। न्यायालय को वस्तुतः यह देखना है कि अभियुक्त का कृत्य उसके परिणाम से भिन्न क्या ’संहिता’ की धारा 300 में प्रावधित आशय अथवा ज्ञान की परिस्थितियों के साथ किया गया।


10.        ’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास का अपराध गठित करने के लिये यह देखना आवश्यक है कि चोट की प्रकृति क्या थी, चोट कारित करने के लिये किस स्वरूप के हथियार का प्रयोग, कितने बल के साथ किया गया। घटना के समय प्र्रहारकर्ता ने अपना मनोउद्देश्य किस रूप से तथा किन शब्दों को प्रकट किया ? उसका वास्तविक उद्देश्य क्या था ? आघात के लिये आहत व्यक्ति के शरीर के किन अंगों को चुना गया ? आघात कितना प्रभावशाली था ? उक्त परिस्थितियों के आधार पर ही यह अभिनिर्धारित किया जा सकता है कि वास्तव में अभियुक्त का उद्देश्य हत्या कारित करना था अथवा नहीं,

 संदर्भ: म.प्र.राज्य बनाम रामदीन एवं पाॅच अन्य-1990, करेन्ट क्रिमिनल जजमेंट्स 228.
11.        धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुॅचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे। यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है। संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437.
12.        उपरोक्त विधिक स्थिति से यह सुप्रकट है कि अभियुक्तगण के आषय के निर्धारण में उसके द्वारा कार्य की निरंतरता, चोटें कारित करने हेतु अवसर और समय की पर्याप्तता, हथियार का स्वरूप तथा चोटों का स्थान जैसे तत्व सहायक हो सकते हैं, लेकिन सदैव ही चोट की प्रकृति मात्र के आधार पर ऐसा निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि आषय हत्या करने का नहीं था।













एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य



 1-----      यद्यपि एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य के आधार पर दोष-सिद्धि का निष्कर्ष निकाला जा सकता है, लेकिन ऐसी स्थिति में ऐसी साक्षी की अभिसाक्ष्य पूर्णतः विष्वसनीय होनी चाहिये। यहा इस विधिक स्थिति का उल्लेख करना असंगत नहीं होगा कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर यांत्रिक तरीके से अविष्वसनीय ठहराकर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसकी साक्ष्य की संपुष्टि नहीं है, क्योंकि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत संपुष्टि का नियम सावधानी एवं प्रज्ञा का नियम है, विधि का नियम नहीं है। जहा किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य विष्लेषण एवं परीक्षण के पष्चात् विष्वसनीय है, वहा उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित करने में कोई अवैधानिकता नहीं हो सकती है।

 इस क्रम में न्याय दृष्टांत लालू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य, (2003) 2 एस.सी.सी.-401, उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 1998 तथा वेदी वेलू थिवार  विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में किये गये विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है।



2.        इसी क्रम में     उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, 1989 क्रि.लाॅ.जर्नल पेज 88 = ए.आई.आर.-1988 एस.सी. पेज 1998 दिशा निर्धारक मामले में शीर्षस्थ न्यायालय ने दांडिक मामलों में साक्ष्य विश्लेषण संबंधी सिद्धांत की गहन एवं विस्तृत समीक्षा करते हुये यह प्रतिपादित किया है कि यदि प्रस्तुत किया गया मामला अन्यथा सत्य एवं स्वीकार है तो उसे केवल इस आधार पर अस्वीकार करना उचित नहीं है कि घटना के सभी साक्षीगण तथा स्वतंत्र साक्षीगण को संपुष्टि के लिये प्रस्तुत नहीं किया गया है। साक्ष्यगत अतिरंजना के विषय में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने यह इंगित किया है कि हमारे देश के साक्षियों में यह प्रवृत्ति होती है कि किसी भी अच्छे मामले का अतिश्योक्तिपूर्ण कथन द्वारा समर्थन किया जाये तथा साक्षीगण इस भय के कारण भी अभियोजन पक्ष के वृतांत  में नमक मिर्च मिला देते हैं कि उस पर विश्वास किया जायेगा, किन्तु यदि मुख्य मामले में सच्चाई का अंश है तो उक्त कारणवश उनकी साक्ष्य को अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिये क्योंकि न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह साक्ष्य में से वास्तविक सच्चाई का पता लगाये तथा इस क्रम में यह स्मरण रखना आवश्यक है कि कोई न्यायाधीश दांडिक विचारण में मात्र यह सुनिश्चित करने के लिये पीठासीन नहीं होता कि कोई निर्दोष व्यक्ति दण्डित न किया जाये अपितु न्यायाधीश यह सुनिश्चित करने के लिये भी कर्तव्यबद्ध है कि अपराधी व्यक्ति बच न निकले।
---------------------------------------------------


1 सूचना रिपोर्ट अपने आप में घटना का विस्तृत ज्ञानकोष नहीं है तथा ऐसी रिपोर्ट में मामले की एक सामान्य तस्वीर होना ही आवष्यक है तथा यह जरूरी नहीं है कि उसमें घटना से संबंधित विषिष्टिया उल्लिखित की जाये, संदर्भ:- बल्देव सिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1996 (एस.सी.) 372.
-----------------------------------------------------

 विधिक स्थिति सुस्थापित है कि मात्र पक्ष विरोधी घोषित किये जाने से किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य पूरी तरह धुल नहीं जाती है तथा यदि उसका कोई अंष विष्वास योग्य है तो उस पर निर्भर करने में कोई अवैधानिकता नहीं है। (संदर्भ:- खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, ए.आई.आर.-1991 (एस.सी.)-1853)

-----------------------------------------------------
े यांत्रिक तरीके से इस आधार पर रदद् नहीं किया जा सकता कि वे पुलिस अधिकारी हैं, संदर्भ:- न्याय दृष्टांत करमजीतसिंह विरूद्ध राज्य (2003) 5 एस.सी.सी. 291 एवं बाबूलाल विरूद्ध म.प्र.राज्य 2004 (2) जेेे.एल.जे. 425 ।
------------------------------------------------------

न्याय दृष्टांत वादी वेलूथिवार विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 के मामले में यह ठहराया गया है कि यदि एकल साक्षी पूर्णतः विष्वास योग्य है तो स्वतंत्र स्त्रोत से सम्पुष्टि के अभाव में भी उसकी अभिसाक्ष्य पर निर्भर किया जा सकता है। 

 न्याय दृष्टांत लालू मांझी व एक अन्य विरूद्ध झारखण्ड राज्य (2003) 2 एस.सी.सी.-401  जहाॅं तक स्वतंत्र स्त्रोत से सम्पुष्टि का प्रष्न है यह आवष्यक नहीं है कि प्रत्येक मामले में स्वतंत्र साक्षी उपलब्ध हों। 

न्याय दृष्टांत उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह ए.आई.आर.-1988 एस.सी. पेज-1998 में यह इंगित किया गया है कि यह देखने में आया है कि स्वतंत्र साक्षी प्रायः अभियोजन घटनाक्रम का समर्थन करने के लिये बहुत अधिक इच्छुक नहीं रहते हैं, ऐसी दषा में उपलब्ध साक्ष्य को मात्र यह कहकर अस्वीकृत कर देना कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसका समर्थन नहीं होता है, उचित नहीं है।

----------------------------------------------------

’संहिता’ की धारा 125 के अंतर्गत भरण-पोषण


                                                      ’संहिता’ की धारा 125

1   जागीर कौर विरूद्ध जसवंत सिंह, 1963 ए.आई.आर. (एस.सी.)-521 मंे अभिनिर्धारित किया गया है कि ’संहिता’ की धारा 125 के अंतर्गत सम्पादित की जाने वाली कार्यवाहिया व्यवहार प्रकृति की संक्षिप्त स्वरूप की होती है, जिनका उद्देष्य असहाय व्यक्तियों को तात्कालिक सहायता पहुचाने का है, ताकि उन्हें जीवन यापन के लिये सड़क पर न भटकना पड़े। ऐसे मामलों में प्रमाण भार उतना कठोर नहीं होता है, जितना कि दाण्डिक मामलों में होता है, अपितु साक्ष्य बाहुल्यता एवं अधि-संभावनाओं की प्रबलताओं के आधार पर निष्कर्ष अभिलिखित किये जाने चाहिये। 


2  .        ’संहिता’ की धारा 125 के प्रावधानों के प्रकाष में यह स्थिति भी सुस्पष्ट है कि जहा वैध विवाह प्रमाणित न होने पर महिला को भरण-पोषण का अधिकार नहीं है, वहीं अधर्मज संतान ’संहिता’ की धारा 125 के अंतर्गत भरण-पोषण राषि प्राप्त करने की अधिकारी हैं। संदर्भ:- बकुल भाई व एक अन्य विरूद्ध गंगाराम व एक अन्य, एस.सी.सी.-1988 (1) पेज-537. 

3.        जहा तक पति/पिता के साधन सम्पन होने का संबंध है, न्याय दृष्टांत चंद्रप्रकाष विरूद्ध शीलारानी, ए.आई.आर. 1961 (दिल्ली)-174, जिसका संदर्भ न्याय दृष्टांत दुर्गासिंह लोधी विरूद्ध प्रेमबाई, 1990 एम.पी.एल.जे.-332 में माननीय मध्यप्रदेष उच्च न्यायालय की खण्डपीठ द्वारा किया गया है, में यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि एक स्वस्थ व्यक्ति के बारे में, जो अन्यथा शारीरिक रूप से अक्षम नहीं है, यह माना जायेगा कि वह अपनी पत्नी तथा बच्चों के भरण-पोषण के लिये सक्षम है तथा ऐसे व्यक्ति पर भरण-पोषण हेतु उत्तरदायित्व अधिरोपित किया जाना विधि सम्मत है, भले ही प्रमाणित न हुआ हो कि उसकी वास्तविक आमदनी क्या है। .

4.        ’संहिता’ की धारा 125 के प्रावधानों के प्रकाष में यह स्थिति भी सुस्पष्ट है कि जहा वैध विवाह प्रमाणित न होने पर महिला को भरण-पोषण का अधिकार नहीं है, वहीं अधर्मज संतान ’संहिता’ की धारा 125 के अंतर्गत भरण-पोषण राषि प्राप्त करने की अधिकारी हैं। संदर्भ:- बकुल भाई व एक अन्य विरूद्ध गंगाराम व एक अन्य, एस.सी.सी.-1988 (1) पेज-537.


5.        जहा तक पति/पिता के साधन सम्पन होने का संबंध है, न्याय दृष्टांत चंद्रप्रकाष विरूद्ध शीलारानी, ए.आई.आर. 1961 (दिल्ली)-174, जिसका संदर्भ न्याय दृष्टांत दुर्गासिंह लोधी विरूद्ध प्रेमबाई, 1990 एम.पी.एल.जे.-332 में माननीय मध्यप्रदेष उच्च न्यायालय की खण्डपीठ द्वारा किया गया है, में यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि एक स्वस्थ व्यक्ति के बारे में, जो अन्यथा शारीरिक रूप से अक्षम नहीं है, यह माना जायेगा कि वह अपनी पत्नी तथा बच्चों के भरण-पोषण के लिये सक्षम है तथा ऐसे व्यक्ति पर भरण-पोषण हेतु उत्तरदायित्व अधिरोपित किया जाना विधि सम्मत है, भले ही प्रमाणित न हुआ हो कि उसकी वास्तविक आमदनी क्या है।




बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

मुस्लिम विधि के अंतर्गत दाम्पत्य संबंधों की पुनसर््थापना


              मुस्लिम विधि के अंतर्गत दाम्पत्य संबंधों की पुनसर्थापना


1           अनीष बेगम विरूद्ध मो. इष्तफा वली खा, ए.आई.आर.-1933 (इलाहाबाद)-634 के मामले में यह ठहराया गया है कि मुस्लिम विधि के अंतर्गत दाम्पत्य संबंधों की पुनसर्थापना का वाद विनिर्दिष्टतः अनुपालन के वाद की प्रकृति का है तथा ऐसे अधिकार को प्रवृत्त किये जाने के लिये लाये गये वाद में मुस्लिम विधि के सिद्धांतों को ध्यान में रखा जाना आवष्यक है। दाम्पत्य संबंधों के पुनसर््थापन के अधिकार के विषय में ऐसा कोई परम अधिकार नहीं है कि पति बिना शर्त पत्नी को अपने साथ रखने के लिये बाध्य कर सके तथा न्यायालय को इस बारे में मामले की परिस्थितियों को देखते हुये विवेकाधिकार का प्रयोग करना चाहिये। 


2    .        न्याय दृष्टांत इतवारी विरूद्ध श्रीमती अगरी आदि, ए.आई.आर. 1960 (इलाहाबाद)-684 के मामले में, जहा भरण-पोषण हेतु याचिका प्रस्तुत किये जाने के बाद पति ने दाम्पत्य संबंधों के पुनसर्थापन के लिये वाद संस्थित किया था तथा पत्नी द्वारा वाद का विरोध इस आधार पर किया गया था कि पति उसके साथ दुव्र्यवहार करता है एवं वाद केवल इसलिये लाया गया है ताकि वह भरण-पोषण के दायित्व से अपने आपको बचा सके,

 न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि दाम्पत्य संबंधों की पुनसर्थापना का अनुतोष संविदा के विनिर्दिष्ट पालन की प्रकृति का होकर साम्य प्रकृति का अनुतोष है एवं साम्यिक सिद्धांतों के अंतर्गत ही उसे स्वीकृत या अस्वीकृत किया जाना चाहिये। उक्त मामले में दाम्पत्य संबंधों की पुनसर्थापना का अनुतोष प्रदान न किया जाना मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में उचित ठहराया गया।


3.        न्याय दृष्टांत शकीला बानू विरूद्ध गुलाम मुष्तफा, ए.आई.आर. 1971 (मुंबई)-166 की कंडिका 6 एवं 8 में किया गया प्रतिपादन भी इस क्रम में सुसंगत एवं अवलोकनीय है, जिसमें यह ठहराया गया है कि यदि पत्नी, पति के विरूद्ध क्रूरता का आक्षेप लगा रही है तो सामान्यतः इस संबंध में उसकी अभिसाक्ष्य के लिये संपुष्टिकारक साक्ष्य की मांग किया जाना अपेक्षित नहीं है।

न्याय दृष्टांतसहदायक

सहदायक की मृत्यु की दषा में, उस स्थिति में जबकि उसने अधिनियम की अनुसूची के वर्ग-1 की किसी महिला उत्तराधिकारी को अपने पीछे छोड़ा है, सम्पत्ति का न्यगमन हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 8 के अंतर्गत उत्तराधिकार के द्वारा होगा न कि उत्तरजीविता के आधार पर।

 इस क्रम में न्याय दृष्टांत गुरूपद खाण्डप्पा विरूद्ध हीराबाई खाण्डप्पा, ए.आई.आर. 1978 एस.सी.1239 में प्रतिपादित यह विधिक स्थिति दृष्ट्व्य है कि मृतक के जिस हिस्से का न्यगमन होना है, उसे निर्धारित करने के लिये माने गये काल्पनिक बंटवारे के परिणाम वास्तविक बंटवारे जैसे ही होगंे।
 सहदायिक सम्पत्ति में काल्पनिक बंटवारे से निर्धारित उसके हिस्से का न्यगमन उत्तराधिकार के आधार पर हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 8 के अंतर्गत होगा न कि धारा 6 के अंतर्गत उत्तरजीविता के आधार पर।

----------------------------------------------
न्याय दृष्टांत के.कनकरत्नम विरूद्ध ए.पेरूमल व अन्य, ए.आई.आर. 119 मद्रास-247, अप्पा बाबाजी मिसल पाटिल व अन्य विरूद्ध दागडू चंद्रू मिसल, ए.आई.आर. 1995 बाम्बे-333, गणेष प्रसाद विरूद्ध श्रीनाथ, 1986 एम.पी.डब्ल्यू.एन.-नोट- 193 तथा रघुनाथ सिंह विरूद्ध अर्जुन सिंह, 1993, एम.पी.डब्ल्यू.एन.-नोट- 208
 किसी भी पक्षकार के द्वारा प्रस्तुत की गयी ऐसी साक्ष्य का कोई महत्व नहीं है, जो अभिवचनों से परे जाकर नये मामले का गठन करती है, अपितु वही साक्ष्य महत्वपूर्ण है, जो अभिवचनों के अनुरूप है।
---------------------------------------------------
’हिबानामा’ का स्मरण लेख। इस क्रम में आलोच्य निर्णय में संदर्भित न्याय दृष्टांत छोटा उदान्दु साहिब विरूद्ध मस्तान बी, ए.आई.आर.-1975, आंध्रप्रदेष-271 का वह अंष विषेष रूप से संदर्भ योग्य है, जिसमें यह कहा गया है कि मुस्लिम विधि के अंतर्गत यह आवष्यक नहीं है कि वैध उपहार के लिये ’हिबानामा’ निष्पादित किया गया होे, लेकिन यदि ’हिबानामा’ निष्पादित किया गया है तो सम्पत्ति अंतरण अधिनियम तथा पंजीयन अधिनियम के प्रावधानों के प्रकाष में उसका पंजीकृत होना आवष्यक है, केवल उन मामलों को छोड़कर जहा ऐसा प्रलेख पूर्व से सम्पादित ’हिबा’ का स्मरण लेख मात्र है।
--------------------------------------------------
1..फेकन बाई विरूद्ध रामसिंह व अन्य, 1968 जे.एल.जे.-षार्टनोट-23,
 अक्षय कुमार बोस विरूद्ध सुकुमार दत्ता, ए.आई.आर. 1951 कलकत्ता-320,
 युसुफ हसन विरूद्ध रौनक अली, ए.आई.आर. 1993, अवध-54
मनबोध विरूद्ध हीरा साय, ए.आई.आर. 1926 नागपुर-339
के मामलों में यह सुस्पष्ट विधिक प्रतिपादन किया गया है कि वाद-पत्र या प्रतिवाद-पत्र लोक प्रलेख की परिधि में नहीं आते हैं। ऐसी स्थिति में न तो उन्हें भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 74 के अंतर्गत लोक प्रलेख माना जा सकता है और न ही धारा 77 के अंतर्गत ऐसे प्रलेखों की प्रमाणित प्रतिलिपि लोक प्रलेख की प्रमाणित प्रतिलिपि के रूप में ग्राह्य है।


---------------------------------------------------
आर.के. मोहम्मद ओबेदुल्ला विरूद्ध हाजी सी. अब्दुल बहात, ए.आई.आर. 2001 एस.सी. 1658 पैरा 15 मंसम्पत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 3 के स्पष्टीकरण क्र.2 के प्रकाष में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि वास्तविक आधिपत्य आधिपत्यधारी के स्वत्व के विषय में विविक्षित सूचना के समरूप है।

अभिवचनों के अभाव में साक्ष्य--  यह विधिक स्थिति सुसंगत एवं दृष्ट्व्य है कि अभिवचनों के अभाव में साक्ष्य, चाहे उसकी मात्रा कितनी ही क्यों न हो, को नहीं देखा जा सकता है। इस विधिक स्थिति के संबंध में न्याय दृष्टांत
 सिद्दीक मोहम्मद शाह विरूद्ध मुसम्मात सरन, ए.आई.आर. 1930 पी.सी. 57
 प्रेमचंद पाण्डे विरूद्ध सावित्री पाण्डे, ए.आई.आर. 1999 (इलाहाबाद)-43, कुलसुमन्निसां विरूद्ध अहमदी बेगम, ए.आई.आर. 1972 (इलाहाबाद)-219,
 पष्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध मीर फकीर मोहम्मद, ए.आई.आर. 1977 (कलकत्ता)-29  इंदरमल विरूद्ध रामप्रसाद, ए.आई.आर. 1962 एम.पी.एल.जे. 781



 राजस्व प्रलेखों में किये गये नामांतरण अथवा राजस्व प्रलेखों में की गयी प्रविष्टिया अपने आप में न तो स्वत्व प्रदान करती है और न ही स्वत्व का हरण करती हैं, क्योंकि किसी भी अचल सम्पत्ति में स्वत्व अर्जन या स्वत्व की समाप्ति विधिक प्रक्रिया के अंतर्गत ही हो सकता है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत दुर्गादास विरूद्ध कलेक्टर, (1996) 5 एस.सी.सी.-618 तथा शांतिबाई आदि विरूद्ध फूलीबाई आदि, 2007(2) एम.पी.एल.जे.-121  सुसंगत एवं अवलोकनीय है।


----------------------------------------------------
 गंगाधर राव विरूद्ध गोलापल्ली गंगाराव, ए.आई.आर. 1968 (आंध्रप्रदेष) 291 तथा ओमप्रकाष ओमप्रभा जैन विरूद्ध अबनाषचंद्र, ए.आई.आर. 1968 (एस.सी.) 1083 इस विधिक स्थिति के संबंध में सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि एक पक्षकार अपने मामले को अभिवचनों के अनुरूप ही प्रमाणित करने का अधिकार रखता है तथा वह ऐसे किसी आधार पर सफलता का दावा नहीं कर सकता है, जिसके बारे में उसके द्वारा अभिवचन ही नहीं किया गया है। भिन्न शब्दों में पक्षकार उस मामले से, जो उसके द्वारा अभिवचनित किया गया है, भिन्न मामला साक्ष्य के द्वारा अभिवचनों में संषोधन किये बिना न्यायालय के समक्ष नहीं ला सकता है। ने यह अभिवचन किया था कि किरायेदारी नैवासिक उद्देष्य के लिये है, उसे साक्ष्य के द्वारा यह स्थापित करने की अनुमति नहीं दी गयी कि किरायेदारी गैर-नैवासिक उद्देष्य के लिये थी।

.        अभिवचन में संषोधन समाविष्ट किये जाने बाबत् यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि ऐसे अभिवचन जिनसे वाद का स्वरूप नहीं बदलता है अथवा जो वाद के संस्थित किये जाने के बाद पष्चात्वर्ती परिस्थितियों के क्रम में जोड़ना आवष्यक हुये हैं, उनहें युक्तियुक्त शर्तों के साथ अनुज्ञात किया जाना चाहिये।र्
- किशोरीलाल विरूद्ध बालकिशन एवं एक अन्य, 2006(2)एम.पी.जे.आर.
.-----------------------------------------------
न्याय दृष्टांत चैनसिंह विरूद्ध रामचंद्र, 1992 राजस्व निर्णय-277 में माननीय उच्च न्यायालय के द्वारा यह स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि रजिस्ट्रीकृत विक्रय विलेख में कब्जा सौंपने तथा प्रतिफल का संदाय किये जाने विषयक बिन्दु निष्पादक और उसके कुटुम्ब के सदस्यों पर भी आबद्धकर है, जब तक कि उसके विपरीत किये गये अभिकथनों को समाधानप्रद स्पष्टीकृत न कर दिया जाये।

 न्याय दृष्टांत नौनितराम विरूद्ध हीरा 1980(1) एम.पी.डब्ल्यू.एन. नोट-148 में भी यह अभिनिर्धारित किया गया है कि विक्रय पत्र में आधिपत्य सौंपे जाने के विषय में किये गये उल्लेख को अन्यथा प्रमाणित न किये जाने की दषा में विलेख को सही अवधारित किया जाना चाहिये जब तक कि अन्यथा प्रमाणित न कर दिया जाये।
------------------------------------------------------
 बूलचंद विरूद्ध अटलराम सिंधी धर्मषाला ट्रस्ट व अन्य 1997 एम.पी.ए.सी.जे. 255  ’अधिनियम’ की धारा 3(2) का लाभ तभी मिल सकता है जबकि न्यास की सम्पूर्ण आय का उपयोग धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक उद्देष्यों के लिये किया जा रहा हो। विनोद कुमार विरूद्ध सूरज कुमार, ए.आई.आर. 1987 (एस.सी.) 179 
------------------------








बुधवार, 27 नवंबर 2013

धारा 315 दण्ड प्रक्रिया संहिता अभियुक्त सक्षम साक्षी

अभियुक्त के सक्षम साक्षी होने के विषय में धारा 315 दण्ड प्रक्रिया संहिता ?    

        भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20  (3) में यह उपबंधित किया गया है, कि किसी भी व्यक्ति को जिस पर कोई अपराध लगाया गया है, स्वयं अपने विस्द्ध साक्ष्य देने के लिये बाध्य नहीं किया जायेगा। यह मूल अधिकार इस सिद्धांत पर आधारित है, कि प्रत्येक व्यक्ति तब तक निर्दाेष माना जाएगा, जब तक उसे अपराधी सिद्ध न कर दिया जाए। अपराधी के अपराध सिद्ध करने का भार अभियोजक पर होता है। अभियुक्त को अपनी इच्छा के विरूद्ध कोई स्वीकृति या बयान देने की आवश्यकता नहीं होती है। 

        इसी सिद्धांत को आधार मानते हुए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा- 315 (1) में उपबंधित किया गया है, कि कोई व्यक्ति, जो किसी अपराध के लिए किसी दण्ड न्यायालय के समक्ष अभियुक्त है, प्रतिरक्षा के लिए सक्षम साक्षी होगा और अपने विरूद्ध या उसी विचारण में उसके साथ आरोपित किसी व्यक्ति के विरूद्ध लगाए गए आरोपों को नासाबित करने के लिए शपथ पर साक्ष्य दे सकता है:-
    परन्तु -
(क) वह स्वयं अपनी लिखित प्रार्थना के बिना साक्षी के रूप में न बुलाया जाएगा,
(ख) उसका स्वयं साक्ष्य न देना पक्षकारों में से किसी के द्वारा या न्यायालय
    द्वारा किसी टीका-टिप्पणी का विषय न बनाया जाएगा और न उसे उसके, या उसी विचारण में उसके साथ आरोपित किसी व्यक्ति के विरूद्ध कोई उपधारणा ही की जाएगी।
    (2) कोई व्यक्ति जिसके विरूद्ध किसी दंड न्यायालय में धारा 98, या धारा        107, या धारा 108, या धारा 109, या धारा 110 के अधीन या अध्याय 9        के अधीन या अध्याय 10 के भाग ख, भाग ग या भाग घ के अधीन       कार्यवाही संस्थित की जाती, ऐसी कार्यवाही में अपने आपको साक्षी         के रूप में पेश कर सकता है:
    परन्तु धारा 108, धारा 109 या धारा 110 के अधीन कार्यवाही में ऐसे व्यक्ति
द्वारा साक्ष्य न देना पक्षकारों में से किसी के द्वारा या न्यायालय के द्वारा किसी टीका-टिप्पणी का विषय नहीं बनाया जाएगा और न उसे उसके या किसी अन्य व्यक्ति के विरूद्ध जिसके विरूद्ध उसी जाॅंच में ऐसे व्यक्ति के साथ कार्यवाही की गई है, कोई  उपधारणा ही की जाएगी।
        भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20-3- में दिये गये मूल अधिकार के समकक्ष धारा-315 दं0प्र0सं0 है। इसका संरक्षण तब मिलेगा जब निम्नलिखितें शर्तें पूरी होगी:-

    1-    व्यक्ति पर अपराध करने का आरोप लगाया गया हो।
    2-    उसे अपने विरूद्ध गवाही देने के लिये बाध्य किया गया हो।
    3-    उसे अपने विरूद्ध गवाही देने के लिये बाध्य किया जाये।

        यह संरक्षण केवल आपराधिक मामले में अपराध के अभियुक्त को प्राप्त है,  सिविल कार्यवाही में लागू नहीं होता है।

        एम.पी. शर्मा बनाम सतीशचंद्र ए.आई.आर. 1954 सुप्रीम कोर्ट 300 एवं वीरा इब्राहिम महाराष्ट््र राज्य ए.आई.आर. 1976 एस.सी. 1167 में अभिनिर्धारित किया गया है, कि यदि किसी व्यक्ति के विरूद्ध एफ.आई.आर. दर्ज की गई है, तो भी उसे अपने विरूद्ध साक्ष्य देने के लिये बाध्य नहीं किया जायेगा। गवाह बनने के लिये वाक्यांश की व्याख्या करते हुए माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है, कि ऐसी साक्ष्य प्रस्तुत करना या न्यायालय में किसी विलेख को प्रस्तुत करना जो विवादास्पद विषय पर प्रकाश डालता हो। इसमें अभियुक्त के ऐसे बयान शामिल नहीं है जो उसके व्यक्तिगत ज्ञान पर आधारित है। 

        माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा स्टेट आफ बाम्बे बनाम काथूकाली ए.आई.आर.-1961 सुप्रीम कोर्ट 1808 और परसादी बनाम उत्तरप्रदेश ए.आई.आर. 1973 सुप्रीम कोर्ट 210 में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-27 को वैध घोषित किया है। 

        माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है, कि यदि कोई अभियुक्त से स्वेच्छया से साक्ष्य देता है तो वह वर्जित नहीं है किन्तु उस पर यदि शारीरिक, मानसिक दबाव डाला जाता है तो इस प्रकार का साक्ष्य दबावपूर्ण साक्ष्य माना जाएगा इसलिए नंदनी सतपती बनाम पी.एल. धनी ए.आई.आर. 1978 सुप्रीम कोर्ट 1025 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि दं0प्र0सं0 की धारा-161 (2) में अभियुक्त से पूछताछ के दौरान ही उसे अपने लिये साक्ष्य देने बाध्य नहीं किया जा सकता। 

        दं0प्र0सं0 संहिता की धारा-315 यह नियम प्रतिपादित करती है, कि अभियुक्त व्यक्ति प्रतिरक्षा (कममिदबम) के लिए सक्षम साक्षी होता है और किसी अन्य साक्षी तरह वह अभियोजन द्वारा अपने विरूद्ध लगाए गए आरोपों को नासाबित करने के लिए शपथ पर साक्ष्य देने का हकदार होता है। 

        यह धारा यह भी उपबन्ध करती है कि साक्षी के रूप में उसकी परीक्षा न किए जाने से न्यायालय इससे कोई प्रतिकूल निष्कर्ष नहीं निकाल सकता। परन्तु यदि अभियुक्त अपनी परीक्षा प्रतिरक्षा के साक्षी के रूप में स्वेच्छा से करता है तो अभियोजन उसकी आगे की परीक्षा करने का हकदार होगा और ऐसा साक्ष्य सह-अभियुक्त के विरूद्ध उपयोग किया जा सकता है। 

        धारा-315 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत आरोपी से सक्षम साक्षी के रूप में प्रस्तुत होने संबंधी प्रक्रिया:-

        1-     यह कि आरोपी न्यायालय के समक्ष लिखित आवेदन प्रस्तुत              करेगा।
        2-    यह कि आरोपी को न्यायालय द्वारा साक्ष्य लेने के पूर्व शपथ                दिलाई जाएगी।
        3-     यह कि अभियोजन उसकी प्रतिपरीक्षा करेगा और प्रतिपरीक्षण             में  उसके विरूद्ध आए तथ्यों को प्रस्तुत कर सकेगा।
        4-    यह कि आरोपी इस सम्पूर्ण साक्ष्य के बाद उसके विरूद्ध                 साबित तथ्य साक्ष्य में ग्राह्य होगे। 

        अभियुक्त को शपथ दिलाने या प्रतिज्ञान कराने के विरूद्ध सृजित शपथ अधिनियम, 1969 की धारा 4(2) के अधीन वर्जन केवल दांडिक विचारण पर ही लागू होता है। शब्द ‘‘दांडिक कार्यवाही’’ की परिधि का विस्तार पुनरीक्षणों या अपीलों में दिए गए अन्तरिम आवेदन-पत्रों के समर्थन में शपथ-पत्रों के दाखिल किए जाने पर विस्तारित नहीं किया जा सकता। 

        माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा मोहम्मद शरीफ बनामा स्टेट  आफ झारखण्ड 2006 क्रिमनल लाॅ जनरल 4498 झारखण्ड, काशीराम बनाम स्टेट आफ एम.पी. ए.आई.आर. 2001 सुप्रीम कोर्ट 2902 में  अभिनिर्धारित किया गया है, कि यदि अभियुक्त व्यक्ति साक्षी कक्ष में नहीं आता है तो इससे विपरीत आशय का निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए। यह प्राथमिक आपराधिक विधिशास्त्र है कि किसी अभियुक्त को साक्षी बनने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। इसी प्रकार यह प्रतिरक्षा हेतु समुचित अवसर प्रदान किया गया परन्तु प्रतिरक्षा प्रस्तुत नहीं की जाती है तो प्रतिरक्षा का अधिकार आरोपी का समाप्त किया जा सकता है इसे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के विपरित नहीं माना जा सकता है।

        यदि अभियुक्त साक्षी बन कर पेश हुआ और उसे उस दस्तावेज को पेश करने से नहीं रोका जाना चाहिए जिसपर वह भरोसा करके आया है। उसे इस आधार पर ऐसा करने से नहीं रोका जाना चाहिए कि उसने ऐसा साक्ष्य अभिलेखन के पूर्व नहीं किया था।  ऐसी  स्थिति में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा- गजेन्द्रसिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ राजस्थान 1998 भाग-8 एस.एस.सी.-612 में अभिनिर्धारित किया है, कि उसे साक्ष्य-सम्बंधी दस्तावेज़ पेश करने की अनुमति दे देनी चाहिए।  

        विधि का यह सर्वमान्य सिद्धांत है, कि अभियोजन को अपना मामला साबित करना चाहिए और आपराधिक मामलों में सबूत का भार अभियोजन पर आरोपित किया गया है।

             भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-103 में विशिष्ट तथ्य के सबूत का भार उस व्यक्ति पर होता है जो न्यायालय से यह चाहता है, कि उसके अस्तित्व में विश्वास करें। जब तक कि किसी विधि द्वारा यह उपबंधित न हो कि उस तथ्य के सबूत का भार किसी विशिष्ट व्यक्ति पर होगा। ऐसे मामलों में आरोपी अभियोजन साक्षियों को प्रतिपरीक्षण में सुझाव देकर बचाव में दस्तावेज पेश कर और स्वयं उपस्थित होकर विशिष्ट तथ्य को साबित कर सकता है किन्तु उसे बाध्य नहीं किया जा सकता।


        भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-105 में अभिनिर्धारित है, कि यह साबित करने का भार कि अभियुक्त का मामला अपवादों के अंतर्गत आता है, उस व्यक्ति पर है और न्यायालय ऐसी परिस्थितियों के अभाव की उपधारणा करेगा। ऐसे मामलों में आरोपी स्वयं को प्रस्तुत कर तथ्य साबित कर सकता है, परन्तु उसे इसके लिये बाध्य नहीं किया जा सकता। 


        भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-106 इस बात का अपवाद है, कि अभियोजन को अपना मामला संदेह के परे साबित करना चाहिए। 

                       धारा-106 भा0सा0अधि0 के अनुसार जबकि कोई तथ्य विशेषतः किसी व्यक्ति के ज्ञान में है, तब उस तथ्य को साबित करने का भार उस पर है। जबकि कोई व्यक्ति किसी कार्य को उस आशय से भिन्न किसी आशय से करता है जिसे उस कार्य का स्वरूप और परिस्थितियाॅ इंगित करती है तब उस आशय को साबित करने का भार उस व्यक्ति पर है।

        इस प्रकार यह धारा-101 भा.सा.अधि. का अपवाद है। आरोपी को जब कोई विशेष ज्ञान किसी वस्तु अथवा तथ्य के संबंध में है तो उसे साबित करने का भार उस पर है।


        इसी प्रकार जब अभियुक्त के कब्जे में कोई वस्तु प्रतिबंधित पाई जाती है तो विशेष ज्ञान के द्वारा यह स्पष्ट कर सकता है, कि वह वस्तु उसके पास किस प्रकार आई। उसके नहीं बताने पर उसे अवैध रूप से प्राप्त मानकर उसे संदेह का लाभ नहीं दिया जा सकता। जहा पर आरोपी को विशेष ज्ञान और जानकारी साबित करना है वहा पर वह खुद को प्रस्तुत करके उसे स्पष्ट कर सकता है। यदि उसके द्वारा अभियोजन साक्षियों को बचाव में सुझाव अथवा दस्तावेज और स्पष्टीकरण नहीं दिया जाता है, तो उसके विरूद्ध उपधारणा की जा सकती है।

        इस प्रकार धारा-315 दं0प्र0सं0 इस मूल अधिकार पर आधारित है, कि किसी भी व्यक्ति को अपने विरूद्ध साक्ष्य देने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता और अभियोजन को अपना मामला संदेह के परे खुद साबित करना चाहिए। इसके लिये आरोपी को अपने विरूद्ध साक्ष्य देने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता है।

        अपने विरूद्ध हस्तलिपि के मिलान हेतु नमूना देने, रक्त सेम्पल देना, नार्का टेस्ट देना, मेमोरेण्डम कथन देना, तलाशी पंचनामा देना, हस्ताक्षर करना आदि भौतिक एवं रासायनिक परीक्षण अपने विरूद्ध साक्ष्य देने की श्रेणी में नहीं आते हैं क्योंकि ये वस्तुए केवल तुलना के उद्देश्य से ली जाती है।
               
                           
       

बुधवार, 20 नवंबर 2013

मृत्यु के मामले में मुआवजा निर्धारण

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha
श्रीमती सरला वर्मा एवं अन्य बनाम दिल्ली परिवहन निगम एवं अन्य, 2009 (2) दुर्घटना और मुआवजा प्रकाशिका 161 (सु.को.) में प्रतिपादित मुख्य सिद्धांत

1.        मृत्यु के मामले में मुआवजा निर्धारण के लिये-जहां मृतक विवाहित , है मृतक के व्यक्तिगत एवं जीवन यापन व्ययों के प्रति कटौती का निम्न सिद्धांत परिवार में आश्रितों की संख्या के आधार पर निर्धारित किया गया है:-

क्रमंाक     परिवार में आश्रितों की संख्या    व्यक्तिगत एवं जीवन
                            यापन व्ययों के प्रति कटौती

1        2 से 3                    1/3 (एक तिहाई)
2.        4 से 6                    1/4 (एक चैथाई)
3.        6 से अधिक                1/5 (एक पांचवा)

2.        यदि मृतक अविवाहित है तो व्यक्तिगत एवं जीवन यापन की कटौती 50 प्रतिशत की जाएगी, अविवाहित मृतक की केवल माता ही आश्रित मानी जाएगी, पिता-भाई‘-बहिन नहीं अपवादिक परिस्थितियों में माने जाएंगे।

3.        मृत्यु के मामले में प्रयोज्य गुणांक के संबध्ंा में मृतक की आयु के आधार पर निम्नलिखित गुणांक  अभिनिर्धारित किया गया है:-

क्रमांक        मृतक की आयु                 प्रयुक्त गुणांक
1.        15 वर्ष तक                        20
2.         15 से 20 वर्ष                        19
3.        21 से 25 वर्ष                        18
4.        26 से 30 वर्ष                        17
5.        31 से 30 वर्ष                        16
6.        36 से 40 वर्ष                        15
7.        41 से 45 वर्ष                        14
8.        46 से 50 वर्ष                        12
9.        51 से 55 वर्ष                        10
10.        56 से 60 वर्ष                        8
11.        61 से 65 वर्ष                        6
12.        65 से अधिक                         5

4.        मृत्यु के मामले में संपदा क्षति हेतु 5,000/-रूपये, अंत्येष्टि व्ययों हेतु 5,000/-रूपये और सहजीवन की क्षति हेतु 10,000/-रूपये दिये जायेंगे जो केवल मृतक की उत्तरजीवी विधवा को दिये जाएंगे। मृतक के विधिक उत्तराधिकारीगण को कारित पीड़ा, व्यथा, कठिनाई के लिये कोई राशि नहीं दी जाएगी।  (सहजीवन की क्षति केवल विधवा को ही दिलाई जाएगी) ।
5.        मृत्यु के पश्चात् हुए वेतन संसोधन को विचारण में ग्रहण नहीं किया जा सकेगा।
6.        मृत्यु के मामले में अंत्येष्ठि व्यय, मृत शरीर के परिवहन के व्यय, मृत्यु के पूर्व मृतक के चिकित्सीय उपचार को भी प्रदान किया जाएगा।
7मोटर व्हीकल एक्ट की धारा 163 (क) के अधीन किए गए दावों तथा धारा 166 के अधीन किए गए दावों के लिए दायित्व तथा मुआवजे की मात्रा के निर्धारण के सिद्धांत भिन्न-भिन्न (अलग-अलग) हैं ।
8.        मृत्यु के मामले में मृतक की आयु मृतक की आय, आश्रितों की संख्या तीन बातें प्रमाणित की जानी चाहिए।
9.        आश्रितता की क्षति के निर्धारण हेतु आय क निर्धारण होना चाहिए फिर उसमें मृतक के व्यक्तिगत जीवन यापन की कटौती की जानी चाहिए उसके बाद मृतक की आयु के संबंध में गुणांक कर उचित मुआवजा राशि निकाला जाना चाहिए।