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बुधवार, 7 अगस्त 2013

इलेक्ट्राॅनिक साक्ष्य की प्रकृति


                                             इलेक्ट्रानिक साक्ष्य की प्रकृति

                                                        संयुक्त राष्ट् महा सभा के द्वारा 30 जनवरी 1997 को यह संकल्प लिया गया है कि अंतर्राष्ट्य व्यापार विधि से संबंधित संयुक्त राष्ट् आयोग द्वारा इलेक्ट्निक वाणिज्य आदर्ष विधि को स्वीकार किया जायेगा और यह संकल्प लिया गया है कि कागज विहीन तरीको को बढावा दिया जायेगा और उक्त संकल्प को प्रभावी करने के लिए सरकारी सेवाओ में इलेक्ट्ानिक अभिलेखों को मान्यता प्रदान की गई है । और इस संबंध में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 को 9 जून 2000 को स्वीकृति प्रदान हुई है तथा 17 अक्टूबर 2000 से यह अधिनियम प्रभावषील हुआ है ।

                                 सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 की धारा-2 टी के अनुसार इलेक्ट्ानिक अभिलेख से अभिप्राय है कि किसी इलेक्ट्ानिक प्रारूप या माइक्रोफिल्म या कम्प्यूटर उत्पादित माइक्रोफिष में डाटा अभिलेख व उत्पादित डाटा भंडारित प्राप्त या प्रेषित ध्वनि अभिप्रेत है । 

 
                                                इलेक्ट्ानिक अभिलेख को मान्यता प्रदान करने के लिए सरकारी अभिकरणों में दस्तावेजो की इलेक्ट्ानिक फाइल बनाने को सुकर बनाने और भारतीय दण्ड संहिता, भारतीय साक्ष्य अधिनियम ,1872, बैंककार बही साक्ष्य अधिनियम, 1891 और भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, 1934 का और संषोधन करनेतथा उससे संबंधित या उसके आनुषंगिक विषयों का उपबन्ध करने के लिए अधिनियम में प्रभावी संषोधन किये गये हैं ।

                                                            भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 जिसे आगे अधिनियम से संबोधित किया गया है की धारा- 65 ख के अनुसार इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड की अन्तर्वस्तुओं का सबूत धारा 65 बी के अनुसार सिद्ध किया जा सकता है । 
 
                                     यह नया प्रावधान है जिसमें ऐसे रिकार्ड को सिद्ध करने का तरीका बताया गया है । इसका प्राथमिक उददेष्य द्वितीयक साक्ष्य द्वारा सबूत को पक्का करना है । द्वितीयक साक्ष्य की यह सुविधा कम्प्यूटर आउटपुट के बारे में लागू होती है और ऐसे आउटपुट को सबूत के प्रयोजनो के लिए दस्तावेज माना जायेगा ।

                                                          इस धारा में यह भी कहा गया है कि उपधारा (1) के अनुसार कोई सूचना जो इलेक्ट्राॅनिक रिकार्डमें अन्तर्निहित है और जिसका मुद्रण करके या कापी करके रिकार्ड किया जाता है उसे भी दस्तावेज माना जायेगा । इस धारा में कुछ ष्षर्ते दी गई हैं जिनका अनुपालन करना जरूरी माना गया है । जहां षर्ते पूरी हो जाती है इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड साक्ष्य में ग्राहय कर लिया जाता है और किसी भी कार्यवाही में मूल दस्तावेज पेष करना जरूरी नहीं रह जाता है ।
                         कम्प्यूटर आउटपुट की सुसंगतता के संबंध में षर्ते- कम्प्यूटर आउटपुट को साक्ष्य बनने के लिए निम्नलिखित षर्ते पूरी करनी चाहिएं जैसा कि उपधारा (2) में दिया है:

() कम्प्यूटर आउटपुट में जो सूचना है वह कम्प्यूटा में उस समय भरी गई थी जब कि कम्प्यूटर लगातार चल रहा था और उस समय ये संबंधित सारी सूचनाएं एकत्र कर रहा था और कम्प्यूटर उस व्यक्ति द्वारा संचालित किया जा
रहा था, जिसका इसके इस्तेमाल पर नियंत्रण था ।
() इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड में भरी गयी सूचना इस प्रकार की थी, जो कि नियमित रूप से सामान्य गतिविधियों द्वारा भरी गयी थी ।
() डाटा फीडिंग के दौरान कम्प्यूटर का नियमितसंचालन किया जाता था और यदि कोई अंतराल था तो इससे कम्प्यूटर की सही सूचना पर कोई असर नहीं पड रहा था
() इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड की सूचना सामान्य गतिविधियों के दौरान प्राप्त की गई थी ।
                                              जहां सूचना एक दूसरे से सम्बद्ध कम्प्यूटरो से प्राप्त की गई थी या एक के बाद एक कम्प्यूटर से प्राप्त की गई थी, वहां सभी कम्प्यूटर्स जो इस्तेमाल किए जाते हैं, उन्हें एक इकाई माना जायेगा । इस संबंध में धारा- 65बी (3) के संदर्भ में कम्प्यूटर का अर्थ लगाया जाना चाहिए ।

                                                               जब इस धारा के अंतर्गत कोई कथन निकालना है तो उसके साथ यह प्रमाण पत्र देना जरूरी है कि कथन की प्रकृति क्या है और इसे कैसे हासिल किया गया है । पूरा विवरण तरीका तथा धारा की षर्ते आदि देना जरूरी है । इस प्रमाण पत्र पर संबंधित गतिविधियों से जुडे हुये अधिकारी का हस्ताक्षर होना चाहिए जो कथन की सत्यता को प्रमाणित कर रहा हो । इस प्रयोजन के लिए यह पर्याप्त है कि कथन हस्ताक्षर करने वाले की पूरी जानकारी औरविष्वास के अनुसार सही है धारा- 65बी (4) 

 
                                                         इस धारा के प्रयोजन के लिए कोई सूचना कम्प्यूटर में सही तरीके से मानव द्वारा या मषीनरी द्वारा भरी जानी जरूरी है । यदि कम्प्यूटर संबंधित गतिविधियों से बाहर कार्य कर रहा है तो भी कार्य के दौरान संबंधित अधिकारी द्वारा दी गई सूचना भी इसी श्रेणी में आएगी ।

                                  इस धारा का स्पष्टीकरण घोषित करता है कि धारा 65बी की प्रयोजनार्थ अन्य सूचना से निकाली गई सूचना का अर्थ होगा कि इसे गणना करके, तुलना करके या अन्य तरीके से निकाला गया है ।

                                           इस प्रकार धारा-65, एवं 65बी साक्ष्य अधिनियम की प्रकृति एंव विचारण के दौरान उसके अभिलेखन की प्रणाली को समझाया गया है ।

                                                                        साक्ष्य की अधिनियम धारा-65-ख के अनुसार कोई भी सूचना जो इसमें निहित है जो इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड के रूप में है जो दृष्यमान अथवा चुम्बकीय मीडिया द्वारा मुद्रित एकत्रित अथवा किसी पेपर पर अभिलिखित हो; कम्प्यूटर द्वारा प्रस्तुत की गई है (कम्प्यूटर आउटपुट के रूप में एक दस्तावेज माना जायेगा) और निम्नलिखित ष्षर्ते पूरी होने पर उसकी अंतरवस्तु के संबंध में प्रत्यक्ष साक्ष्य के रूप में वह ग्राहय मानी जायेगी ।
 
                                           धारा 67-. डिजिटल हस्ताक्षर के संदर्भ में प्रमाण- डिजिटल हस्ताक्षर के प्राप्ति के मामले के अपवाद के अलावा यदि किसी सब्सक्राइबर की डिजिटल हस्ताक्षर किसी इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड पर लिया गया कथित किया जाता है ता यह तथ्य कि उक्त डिजिटल हस्ताक्षर जो कि सब्सक्राइबर का डिजिटल हस्ताक्षर है प्रमाणित होना चाहिए ।
                              धारा 73-. डिजिटल हस्ताक्षर के सत्यापन का प्रमाणः- इस को अभिनिष्चित करने के क्रम में कि डिजिटल हस्तक्षर उसी व्यक्ति का है जिसके लिए तात्पर्यित है न्यायालय निर्देष दे सकता है -

() वह व्यक्ति या नियंत्रक या प्रमाणीकृत प्राधिकारी डिजिटल हस्ताक्षर प्रमाण पत्र प्रस्तुत करें;
() कोई अन्य व्यक्ति जो डिजिटल हस्ताक्षर के संदर्भ में डिजिटल हस्ताक्षर प्रमाण पत्र सूची बद्ध ‘पब्लिक की’
डिजिटल हस्ताक्षर के संदर्भ में उक्त व्यक्ति द्वारा तात्पर्यित माना जाएगा ।
स्पष्टीकरणः- इस धारा के उददेष्यों के लिए ‘नियत्रंक’ का तात्पर्य तकनीकी अधिनियम 1999 की धारा 17 की उपधारा (1) के अधीन नियुक्त नियंत्रक से है
                                        धारा 85-. इलेक्ट्राॅनिक करारों के बारे में उपधारणा- दी गई है कि न्यायालय यह उपधारित करेगा कि प्रत्येक इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड जो किसी करार से तात्पर्यित है जिसमें पक्षकारो के डिजिटल हस्ताक्षर भी है के विषय में यह सुनिष्चित किया जाएगा कि वे पक्षकारो के ही हस्ताक्षर है ।
                                                   धारा 85-. इलेक्ट्राॅनिक रिकार्डस् एंव डिजिटल हस्ताक्षर विषयक उपधारणा- (1) किसी कार्यवाही में जिसमें इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड की प्राप्ति षामिल हे, न्यायालय यह उपधारणा करेगी कि जब तक कि तत्प्रतिकूलता में साबित न कर दिया जाय उक्त इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड परिवर्तित नहीं कर दिया जाता है यह उस समय से जो कि समय के विनिर्दिष्ट बिन्दु से संबंधित हो तो उसे प्राप्त करने की प्रास्थिति से संबंधित है ।

(2) प्रत्येक कार्यवाही में जिसमें डिजिटल हस्ताक्षर अभिप्राप्त किया गया है जब तक कि इसके विपरीत साबित न कर दिया जाय न्यायालय यह उपधारित करेगा -
() प्राप्त किया गया डिजिटल हस्ताक्षर सब्सक्राइबर द्वारा लिया गया माना जाएगा इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड के अनुमोदन एंव हस्ताक्षर के आषय से संबद्ध माना जाएगा;
() अभिप्राप्त इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड के अलावा एक ‘सेक्योर डिजिटल हस्ताक्षर’ इस धारा में किसी बात के न होते हुये कोई उपधारणा इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड की परिषुद्धता का किसी डिजिटल हस्ताक्षर की षुद्धता एंव समेकता के सृजन की उपधारणा कर सकेगा ।
                                                 धारा 85-. डिजिटल हस्ताक्षर प्रमाण पत्र के संबंध में उपधारणा- दी गई है कि जब तक कि तत्प्रतिकूल रूप में साबित न किया जाय न्यायालय यह उपधारणा कर सकेगा कि डिजिटल हस्ताक्षर प्रमाण पत्र में सूची बद्ध सूचना सत्य है । सिवाय सब्सक्राइबर सूचना में विनिर्दिष्ट सूचना के जो सत्यापित नहीं है; यदि प्रमाण पत्र सब्सक्राइबर द्वारा स्वीकृत होता है ।

                                                       इसी प्रकार धारा 88-. इलेक्ट्राॅनिक सूचना के संदर्भ में उपधारणा- दी गई है कि न्यायालय यह उपधारित कर सकता है कि कोई इलेक्ट्राॅनिक सूचना जो ओर्जिनेटर द्वारा इलेक्ट्राॅनिक मेल से पाने वाले को भेजी गई हो एंव जिसके लिए समाचार तात्पर्यित हो जैसा कि यह कम्प्यूटर में सुस्थित किया गया हो एंव जो उसके कम्प्यूअर ट्ांषमिषन के लिए हो; किन्तु न्यायालय उस व्यक्ति के बारे में कोई उपधारणा नहीं करेगी जिसके द्वारा सूचना प्रेषित की गई है ।

                                             90-.    पांचवर्ष पुराने इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड के संबंध में उपधारणा- दी गई है कि जहां केाई इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड जो कि पांच वर्ष पुराना प्रमाणित हैं अथवा प्रमाणित होने के लिए तात्पर्यित है, किसी अभिरक्षा द्वारा प्रस्तुत किया जाता है जिसे न्यायालय विषेष मामलों में उचित समझता है; न्यायालय यह उपधारित कर सकेगा कि डिजिटल हस्ताक्षर जो कि किसी खास व्यक्ति के डिजिटल हस्ताक्षर के लिए तात्पर्यित है वह उसके द्वारा इस प्रकार सुनिष्चित है अथवा उसकी ओर से प्राधिकृत व्यक्ति द्वारा सुनिष्चित है ।

                                                                    स्पष्टीकरणः- इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड उचित अभिरक्षा में तब कहे जाते हैं यदि वे उस स्थान में जिसमें है किसी व्यक्ति के देखभाल के अधीन होते है; वे प्राकृतिक रूप में हो सकते हैं; किन्तु कोई अभिरक्षा उस समय अनुचित नहीं होगा यदि यह साबित कर दिया जाता है कि इसका विधिक मूल है अथवा विषिष्ट मामले की परिस्थिति इस प्रकार हो कि ऐसे मूल के अधिसम्भाव्य बनावें ।

                                                               131-उन दस्तावेजों या इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड का पेष किया जाना जिन्हें कोई दूसरा व्यक्ति, जिसका उन पर कब्जा है, पेष करने से इंकार कर सकता थाः- कोई भी व्यक्ति अपने कब्जे में की ऐसे दस्तावेजो अथवा इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड को पेष करने के लिए जिनको पेष करने से कोई अन्य व्यक्ति, यदि वे उसके कब्जे में होतीं, इन्कार करने का हकदार होता, विवष नहीं किय जाएगा जब तक कि ऐसा अंतिम वर्णित व्यक्ति उनक पेषकरण क लिये सम्मति नहीं देता ।


                                                                         इस प्रकार भारतीय साक्ष्य अधिनियम में संषोधन के स ेइलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड की प्रकृति और उसके अभिलेखन की सामग्री तथा उसके संबंध में की जाने वाली उपधारणा में सीमित प्रावधान दिये गये हैं ।

                                             भा..सं. में जहां पर दस्तावेज का उल्लेख है उसके स्थान पर इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड भी षामिल किया गया है

                           और इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड का अर्थ सूचना प्रोद्योगिकी अधिनियम की धारा-2 की उपधारा 1 के खण्ड टी में दिया गया है जिसके अनुसार इलेक्ट्राॅनिक रिकार्ड से किसी इलेक्ट्राॅनिक प्ररूप या माइक्रोफिल्म या कम्प्यूटर उत्पादित माइक्रोफिष में डाटा अभिलेख या उत्पादित डाटा, भंडारित, प्राप्त या प्रेषित ध्वनि अभिप्रेत हैं;





मोटर यान अधिनियम 1988

स्कूली बस के संचालन के संबध में मान्नीय उच्च न्यायालय के दिशा निर्देश-
मोटरयान अधिनियम 1988 की धारा-2-47 के अनुसार एक शैक्षिक संस्थान बस एक परिवहन वाहन है और इसलिए सडक पर इसके परिवहन के लिए एक परमिट की आवश्यकता है । यह परमिट बिना फिटनेस टेस्ट के हर साल इसका नवीनी करण नहीं होना चाहिए।
इसके लिए स्कूल बसों के चालको को यातायात अनुशासन बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि वह विधि अनुसार कार्यवाही करें । इसलिए मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा बच्चो को ले जाने संबंधी स्कूल बसो की सुरक्षा के संबंध में कुछ दिशा निर्देश निर्धारित किये गये है जो निम्नलिखित है-
1- स्कूल बसों में पीले रंग चित्रित किया जाना चाहिए।
2- स्कूल बस वापस और बस के मोर्चे पर लिखा होना चाहिए। यह बस काम पर रखा
जाता है तो स्कूल ड्यूटी पर स्पष्ट रूप से संकेत दिया जाना चाहिए।
3- बस एक प्राथमिक चिकित्सा बाॅक्स होना चाहिए।
4- बस निर्धारित मानक की गति राज्यपाल केसाथ सुसज्जित किया जाना चाहिए।
5- बस की खिडकियां क्षैतिज ग्रिल्स के साथ सुजज्ति किया जाना चाहिए।
6- बस में एक आग बुझाने की कल होना चाहिए।
7- स्कूल का नाम और टेलीफोन नंबर बस पर लिखा होना चाहिए।
8- बस के दरवाजे विश्वसनीय ताले के साथ सुसज्जित किया जाना चाहिए।
9- सुरक्षित रूप से स्कूल बेग रखने के लिए सीटों के नीचे फिट स्थान नहीं होना चाहिए
10- बच्चो को भाग लेने के लिए बस में एक योग्य परिचर होना चाहिए।
11- बस या एक शिक्षक में बैंठे किसी भी माता पिता या अभिभावक भी इन सुरक्षा नियमों
को सुनिश्चित करने के लिए यात्रा कर सकते हैं ।
12- चालक भारी वाहनों ड्ायविंग के अनुभव के कम से कम 5 साल होनी चाहिए।
13- लाल बत्ती कूद लेन अनुशासन का उल्लंघन या अनधिकृत व्यक्ति को ड्ायवर के लिए अनुमति देता है । जैसे अपराधो के लिए एक वर्ष में दो बार से अधिक चालान किया गया है जो एक ड्रायवर नियोजित नहीं किया जा सकता ।
14- अधिक तेजी, शराबी ड्राइविंग और खतरनाक ड्राइविंग आदि के अपराध के लिए एक बार भी चालान किया गया है जो एक ड्राइवर नियोजित नहीं किया जा सकता।









            

न्याय तक पहुंच-कितने दूर कितने पास

              न्याय तक पहुंच-कितने दूर कितने पास
                                                                       उमेश कुमार गुप्ता
                                                        भारत दुनिया का सबसे बडा लोकतंात्रिक राज्य है । जहां पर जनता में से जनता द्वारा, जनता के लिए प्रतिनिधि चुनकर आते हैं । देश में प्रत्येक व्यक्ति सरकार चुनने में भागीदार होता है और वह लोकतंत्र का आधार पर स्तभ होता है उसके ही बोट से चुनकर लोक प्रतिनिध्ंिा आते हैं। जो सरकार चलाते हैं ,लेकिन हमारे देश में सरकार चुनने वाला व्यक्ति ही सबसे ज्यादा उपेक्षित समाज में रहता है । उसे अपने कल्याण के लिये प्रचलित समाजिक आर्थिक कानून की जानकारी नहीं होती है । वह कानूनी अज्ञानता के कारण उसके हित के लिए चल रही सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक विकास की योजनाओं की जानकारी प्राप्त नहीं कर पाता हैे । इसलिए न्याय की पहुच से दूर रहता हैं ।   


                                                                              प्रत्येक व्यक्ति की न्याय तक पहुंच हो। इसके लिये आवश्यक है कि दैनिक जीवन मंे उपयोग हो रहे कानून की जानकारी सर्व साधारण को होना चाहिए। लेकिन हमारे देश में अशिक्षा,अज्ञानता और विधिक साक्षरता की कमी के कारणलोगो को अपने अधिकार,कर्तव्य, की जानकारी नहीं होती है । इसलिए वह न्याय तक पहंुच से दूर रहते हैं । 
 
                                                                 न्याय तक पहुंचने का अधिकार संबिधान के अनुच्छेद- 21 में प्रदत्त प्राण एंव दैेहिक स्वतंत्रता के अधिकार में शामिल है। जिसे मान्नीय सर्वोच्य न्यायालय द्वारा हुसैन आरा खातून ,डी0 के0बोस, मैनका गांधी आदि सेकड़ो मामलों प्रतिपादित किया गया है । इसके बाद भी समाज का कमजोर वर्ग उपेक्षित है । न्याय तक पहुंच का अधिकार उससे सैकडो मील दूर है । 
 
                                                             हमारे संबिधान में निशुल्क विधिक सहायता का प्रावधान रखा गया है । जिसके लिये केन्द्र, राज्य, तालुका स्तर पर केन्द्र, राज्य, और जिला विधिक सेवा प्राधिकरण स्थापित है। जो पक्षकारो को निःशुल्क विधिक सेवा,सहायता हर स्तर पर उपलब्ध कराते है। लेकिन यह संस्थाऐं केवल उन व्यक्तियों को सहायता प्रदान करती हैं जो इन संस्थाओ तक पहंुच रखते हैं जो व्यक्ति न्यायालय आते हैं उन्ही तक यह संस्थाएं सीमित है ।
लेकिन जो व्यक्ति घर पर गरीबी, अज्ञानता, के कारण बैठा हुआ है। जिसे कानून की सहायता की जरूरत है । उसे निःशुल्क कानूनी मदद चाहिये। वह अपने घर से न्यायालय तक आने में सहायता असमर्थ है । उसे घर से न्यायालय तक न्याय पहंुचाने के लिए कोई संस्था ,समिति ,प्राधिकरण कार्यरत नहीं है। इसी कारण लोगो की न्याय तक पहंुच में दूरी बनी हुई है ।
                                                     हमारे देश में 50 प्रतिशत से अधिक आबादी अनपढ़ है ,करोड़ो रूपये खर्च करने के बाद भी साक्षरता के नाम पर केबल कुछ प्रतिशत लोग नाम लिखने वाले है । कुछ प्रतिशत लोग गावं में साक्षर हैं । देश में युवा पीढी को छोड दे तो जो प्रोढ पीढी,पूरी तरह से निरक्षर है । जिनका अंगूठा लगाना शैक्षणिक मजबूरी है । ऐसी स्थिति में देश में विधिक साक्षरता जरूरी हैं । इसके लिए आवश्यक है कि देश की प्रौढ़ पीढ़ी को विधिक साक्षरता प्रदान की जाये । 
 
                                                                     हमारे देश में विभिन्न विषयो पर अलग अलग कानून, अधिनियम, नियम प्रचलित है । ब्रिटिश काल का कानून अभी भी प्रचलित है । अधिकांश कानून और उसके संबंध मे ंप्रतिपादित दिशा निर्देश अंग्रेजी में विद्यमान है । इसके कारण देश की अधिकाशं जनता को इनका ज्ञान नहीं हो पाता है । इसलिए महिला, बच्चे, प्रौढ़, बुजुर्गो से संबंिधत कानून को एक ही जगह एकत्रित कर उन्हें लोगों के समक्ष रखा जावे तो कानून की जानकारी उन्हें शीघ्र और सरलता से प्राप्त हो सकती है ।
                                                                        हमारे संविधान में हमे मूल अधिकार प्रदान किये गये है । जो प्रत्येक व्यक्ति को मानवता का बोध कराते हैं । प्रत्येक ्रव्यक्ति का मूल अधिकार है कि वह उत्कृष्ट जीवन जिये ।उसे शिक्षा, स्वास्थ, आवास, रोजगार, प्राप्त है । उसके साथ राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अन्याय न हो । मानवीय स्वतंत्रता एंव गरिमा के अनुरूप उसे मानव अधिकार प्राप्त हो । जिसके लिए आवश्यक है कि उसकी न्याय तक पहंुच हो । उसे अपने अधिकारो की जानकारी हो ।
                                                        भारत का सबिधान देश के सभी नागरिकों के लिए अवसर,और पद की समानता प्रदान करता है । उसे विचार अभिव्यक्तिकी स्वतंत्रता प्रदान करता है। लेकिन इसके बाद भी लोगो को अपने कानूनी अधिकारो की जानकारी नहीं हो पाती । आज प्रत्येक व्यक्ति उपभोक्ता है । वह प्रतिफल के बदले में सेवा प्राप्त करता है।लेकिन कदम-कदम पर जानकारी न होने के कारण ठगा जाता है। इसके लिये जरूरी है कि उपभेक्ता प्रचलित कानून और अपने अधिकारों को जाने ।
 
                                                 इन संबैधानिक अधिकारों के अतिरिक्त सरकार ने उपेक्षित लोगों के लिए सरकार समर्थित अनुदानो को सुनिश्चित करने के लिये विशेष योजनाएं बनाई है और उनके क्रियान्वयन के लिए कानून बनाकर उन्हें अधिकार के रूप में प्रदान किया है। जिनकी जानकारी आम जनता को नहीं है। यदि उन कानून की जानकारी उन्हें दी जावे तो उनके जीवन की रक्षा होगी, उन्हें उचित संरक्षण प्राप्त होगा । उन्हें सामाजिक ,आर्थिक और राजनैतिक लाभ प्राप्त होगा 
 
                                                                     शिक्षा, रोजगार, आहार, आवास, सूचना को मूल अधिकार मानते हुए सूचना अधिकार अधिनियम, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गांरटी योजन, अनिवार्य शिक्षा का अधिकार, खाद्य सुरक्षा बिल, आदि ये सभी कानून समाज के सबसे कमजोर, उपेक्षित वर्ग के, विकास के लिए बनाये गये हैं । जो उन्हें सामाजिक न्याय, आर्थिक सुरक्षा , राजनैतिक संरक्षण प्रदान करते हैं । 

 
                                                          इतने प्रगतिशील कानूनो के बावजूद और प्रतिवर्ष लाखो कऱोड़ रूपये साक्षरता की रोश्नी जगाने, गरीबी दूर करने बेकारी मिटाने में खर्च किये जाते हैं । इसके बावजूद भी अति उपेक्षित लोग, विशेषकर महिलाऐं, बच्चे, अनुसूचित जाति-जन जाति, पिछडा वर्ग के सदस्य, अपने जायज हकों को प्राप्त नहीं कर पाते हैं ।

                                           एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत के लगभग सत्तर प्रतिशत लोग संविधान मंे दिये गये अधिकार,कर्तव्य, के प्रति जागरूक नहीं है, या उनके पास औपचारिक संस्थाओं के माध्यम से न्याय प्राप्त करने के संसाधन ही नहीं है। शिक्षा के अभाव, अथवा कानून की जानकारी न होने के कारण वे लोग मुख्य धारा से कटे रहते है । 
 
                                                                      इसके लिए आवश्यक है कि उन्हें कानून की सही जानकारी दे कर उनके अधिकार और कर्तव्यों के प्रति सचेत किया जाये । कानूनी साक्षरता का प्रचार-प्रसार किया जाये। एक न्याय तक पहंुच वाले सुदृढ़ एंव विकसित समाज की संरचना की जावें ।





निर्णयों की सुसंगता

                       निर्णयों की सुसंगता

                                                                    निर्णय सत्यनिष्ठ संव्यवहार है जो न्यायालय द्वारा सार्वजनिक रूप से अभिलिखित किया जाता है और वह इस तथ्य का निश्चयात्मक सबूत है कि अमुख समय पर कुछ पक्षकार के बीच मुकदमें बाजी हुई थी और वह अमुख रूप से समाप्त हुई है भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 40 के अंतर्गत द्वितीय वाद या विचारण के रोक के लिये पूर्व निर्णय सुसंगत माने गये हैं । भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 40, 41, 42, 43,और 44, निर्णय, डिक्री, आदेश की सुसंगतता के संबंध में है

                                           भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 40 के अनुसार किसी भी ऐसे निर्णय, आदेश या डिक्री का अस्तित्व जो किसी न्यायालय को वाद के संज्ञान या कार्य विचारण करने से विधि द्वारा निवारित करते हैं सुसंगत तथ्य है जबकि प्रश्न यह है कि क्या ऐसे न्यायालय को ऐसे वाद का संज्ञान या विचारण करना चाहिये

                                       भारतीय साक्ष्य अधिनियम की तीन धारा 41,42,43 न्यायालय को निर्णयों या उसकी विशेष बातों को साबित करने के लिये सुसंगत बनाती है ।

                                              यदि किसी न्यायालय मंे सिविल या आपराधिक मामले में किसी विषय पर निर्णय देने का अधिकार है और वाद का एक पक्षकार यह कहता है इस संबंध में पहले निर्णय हो चुका है और न्यायालय अब उस पर निर्णय नहीं दे सकता है तो धारा 40 लागू होगी और सक्षम न्यायालय द्वारा पहले किये गये निर्णय में उस तथ्य को बताने के लिये पहले दिया गया निर्णय एक विशेष प्रकार का सुसंगत तथ्य है ।

                                             दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 298 के अंतर्गत पूर्व दोषसिद्धि या दोषमुक्ति साबित किये जाने के लिये दंडादेश की प्रतिलिपि प्रस्तुत की जावेगी और 
                                  धारा 300 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत एक बार दोषसिद्धि या दोषमुक्ति किये गये व्यक्ति का पुनः उसी अपराध के लिये विचारण नहीं किया जावेगा । यह बात पूर्व के निर्णय से साबित की जावेगी

                                                   सी.पी.सी की धारा 11 के अंर्तगत पूर्व न्याय के सिद्धांत के अनुसार सिविल वाद वर्जित होने पर और आदेश -2 नियम-2 सी.पी.सी के अंतर्गत दावे के भाग का त्याग किये जाने पर पुनः वाद नहीं लाया जावेगा तथा धारा 10 पूर्व मे विचारण हो जाने पर बाद का वाद रोक दिया जावेगा और धारा 12 सी.पी.सी के अंतर्गत किसी विशिष्ट वाद हेतुक, के संबंध में अतिरिक्त वाद वर्जित होगा आदि तथ्य साबित किये जाने के लिये पूर्व का निर्णय सुसंगत भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 40 में माना गया है ।

                                                          भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 41 प्रोबेट, विवाह, नावधिकरण, दिवाला, विषयक अधिकारिता के प्रयोग में सक्षम न्यायालय द्वारा किये गये अंतिम निर्णय की सुसंगति के संबंध में
                                 →जिसके अनुसार कोई भी निर्णय, आदेश या डिक्री जो किसी व्यक्ति को या से कोई विधिक हेसियत प्रदान करती है या ले लेती है या जो सर्वतः न किसी विनिदिष्ट व्यक्ति के विरूद्ध किसी व्यक्ति को ऐसी किसी हेसियत का हकदार या किसी विनिदिष्ट चीज का हकदार या किसी ऐसी चीज पर किसी ऐसे व्यक्ति का हक का अस्तित्व सुसंगत है ।

                                                           ऐसा निर्णय आदेश या डिक्री इस बात का निश्चायक सबूत है कि कोई विधिक हेसियत जो वह प्रदत्त करती है उस समय प्रोदभूत हुई जब ऐसा निर्णय आदेश या डिक्री प्रवर्तन में आई या कि कोई विधिक हेसियत जिसे वह ऐसे किसी व्यक्ति से ले लेती है उस समय खत्म हुई जो उस समय ऐसे निर्णय आदेश या डिक्रीद्वारा घोषित है कि उस समय से वह हेसियत खत्म हो गई थी या खत्म होना चाहिये ओर कि कोई चीज जिसके लिये वह किसी व्यक्ति को ऐसा हकदार घोशित करती है उस व्यक्ति की उस समय संपत्ति थी जो समय ऐसे निर्णय आदेश या डिक्री घोशित है कि उस समय से वह चीज उसकी सम्पत्ति थी या होनी चाहिये ।

                                                   विधि का यह सुस्थापित सिद्धांत है कि किसी भी व्यक्ति को बिना सुने उसके विरूद्ध निर्णय नहीं दिया जावेगा । इसके लिये आवश्यक है कि पक्षकार को दावे प्रस्तुति की सूचना हो और वह अपना पक्ष प्रस्तुत कर सके परंतु न्यायालय द्वारा कुछ निर्णय ऐसे पारित किये जाते है जो पक्षकार नहीं होते हुए भी लोगो पर बंधनकारी होते है । यह निर्णय दो प्रकार के होते हैं

1. सर्वसंबंधी निर्णय

2. व्यक्तिसंबंधी निर्णय

                                      सर्वसंबंधी निर्णय:- सर्व संबंधी निर्णय ऐसा निर्णय है जो किसी विशिष्ट बातों की स्थिति पर, इस प्रयोजन के लिये सक्षम प्राधिकार रखने वाले किसी अधिकरण द्वारा, सब व्यक्तियों पर, चाहे वे मामले में पक्षकार हो या न हो, आबद्धकर होता है । अर्थात अपरिचित व्यक्ति भी ऐसे निर्णय के लिये बाध्यकारी होते हैं । यह संपूर्ण विश्व के विरूद्ध निश्चायक होता है । अर्थात केवल पक्षकारों के बीच ही नहीं अपितु पूरे संसार पर बाध्यकारी होते हैं ।

                                     व्यक्ति बंधी निर्णय:- व्यक्ति बंधी निर्णय सक्षम न्यायालय द्वारा दिया गया ऐसा निर्णय है जो पश्चातवर्ती कार्यवाहियों में उन्हीं पक्षकारों के अथवा उनके बीच विनिश्चय मामलों के संबंध में और साथ ही साथ विनिश्चय के आधारों के संबंध में निश्चयात्मक साक्ष्य होती है ऐसे निर्णय लोक प्रकृति के मामलों में ग्राहय है और कपट होने की दशा में उनका प्रयोग अपरिचित व्यक्तियों के लिये नहीं हो सकता है । नातेदारी, के मामलों में नातेदारी, की सीमा तक किया जा सकता है ।

                           सर्वबंधी निर्णय - सर्वबंधी निर्णय धारा 41 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के प्रथम भाग क अंतर्गत उस दशा में सुसंगत होते हैं जबकि अंतिम निर्णय का आशय है कि:-

//क// किसी सक्षम न्यायालय के प्रोबेट, विषयक, विवाह विषयक नावधिकरण विषयक या दिवाला विषयक अधिकारिता के प्रयोग में दिया गया है

//ख// किसी व्यक्ति को कोई विधिक हेसियत प्रदान करता है अथवा उसको ऐसे स्वरूप से वंचित करता है ।

//ग// यह घोषित करता है कि कोई व्यक्ति इस प्रकार की प्रास्थिति का अधिकारी है यह घ ोषित करता है कि कोई व्यक्ति किसी वस्तु विशेष का पूर्ण अधिकारी है और

//ड// इस प्रकार की विधिक हेसियत हो कि व्यक्ति विशेष का पूर्ण अधिकार अवश्य विवाद्यक या सुसंगत हो ।

इस धारा का दूसरा भाग नीचे लिखी बातों को दर्शित करने के लिये सर्वबंधी निर्णय को निश्चायक सबूत घोेषित करता है:-

//1// ऐसे निर्णय से किसी व्यक्ति को कोई विधिकहेसियत उस समय से प्राप्त हुई जबकि निर्णय प्रवर्तन में आया ।

//2// ऐसे निर्णय से किसी व्यक्ति की कोई विधिक हेसियत उस समय से जो कि निर्णय में उल्लेखित है घोषित हुई ।

//3// ऐसे निर्णय से किसी व्यक्ति को उसकी विधिक हेसियत से वंचित उस समय से किया गया है जो कि निर्णय में घोषित हो ।

//4// किसी व्यक्ति को जिस वस्तु का हकदार घोषित किया जाता है वह वस्तु निर्णय में उल्लेखित तारीख से उस व्यक्ति की सम्पत्ति है या रहेगी

                                       धारा-41 की महत्वपूर्ण षर्त सक्षम न्यायालय द्वारा किया गया निर्ण है । सक्षम न्यायालय ऐसा न्यायालय है जिसे पक्षकारो और विषयवस्तु पर निर्णय की अधिकारीता प्राप्त है ।

                                  विदेषी निर्णय भी सक्षम न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय होने की दषा निष्चायक है बषर्त कि वह न्यायालय अंतर्राष्ट्रीय अर्थ में सक्षम न्यायालय हो { कृप्या देखे ए.आई.आर. 1963 एस.सी.1 आर. विष्वनाथ बनाम रूख-उल-मुल्क सैयद अब्दुल वजीद}


                                           साक्ष्य अधिनियम की धारा 42 के अनुसार वह निर्णय या आदेश या डिक्री जो धारा 41 में वर्णित से भिन्न है यदि वे जांच में सुसंगत, लोकप्रकृति की बातों से संबंधित है तो वह सुसंगत है किन्तु ऐसे निर्णय या आदेश या डिक्रीया उन बातों का निश्चायक स्वरूप नहीं है जिनका वे कथन करती है । वे रूढि, चिरभोग, न्यास अदि मामलो से संबंधित पूर्ववर्ती निर्णय चाहे पक्षकारों के बीच हो, या अन्य पक्षकारों के बीच हो लोक अधिकारों के साधारण हित मामलों में साक्ष्य के रूप में ग्राहय है ।

                                         साक्ष्य अधिनियम की धारा 43 के अनुसार धारा 40, 41 और 42 में वर्णित से अलग निर्णय आदेश या डिक्रीयां विसंगत है, जब तभी ऐसे निर्णय, आदेश या डिक्री का अस्तित्व विवाद्यक न हो या वह इस अधिनियम के निर्णय अन्य उपबंध के अंतर्गत सुसंगत न हो । इस प्रकार के निर्णय हेतु, रूढि़ पूर्व दोशसिद्धि को सिद्ध करने के लिये संसुगत है ।

                                                   साक्ष्य अधिनियम की धारा 44 के अनुसार वादी या अन्य कार्यवाही का कोई भी पक्षकार यह दर्शित कर सकेगा कि कोई निर्णय, आदेश या डिक्री जो धारा 40, 41, या 42 के अधीन सुसंगत है और जो प्रतिपक्षी द्वारा साबित की जा चुकी है, ऐसे न्यायालय द्वारा दी गई थी जो उसे देने के लिये अक्षम था या कपट या दुरभिसंधि द्वारा अभिप्राप्त की गई थी ।

                                                               जब कोई वाद में धारा 40, 41, 42, के अंतर्गत निर्णायक आदेश या डिक्री साक्ष्य में पेश करता है तो विपक्षी उसके प्रमाण से इस आधार पर बच सकता है कि:-

/1/ निर्णय देने वाले न्यायालय में अधिकारिता का अभाव था ।

/2/ निर्णय कपट से प्राप्त किया गया क्योंकि कपट और न्याय साथ-साथ नहीं रह सकते ।

/3/ पक्षकारों के मध्य दुरभीसंधि है ।

                       इस प्रकार भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 40, 41, 42, 43, 44 निर्णय के सुसंगति के संबंध में है ।

मुस्लिम अपराध कानून


               मुस्लिम अपराध कानून की विशेषताऐं 


                                        
                                        भारत में भा0द0स0 के पूर्व सन 1600 से लेकर 1860 तक मुस्लिम अपराध कानून लागू रहा ।    मुस्लिम अपराध कानून का जन्म अरब की तत्कालीन कठोर परिस्थितियों में हुआ था । अतः इस कानून में स्वाभाविक कठोरता थी । विभिन्न प्रकार के दंडारोपण के अनुसार यह कानून निम्नलिखित चार भागों में विभक्त किया जा सकता है
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1. किसा
2. दिया
3. हद
4. ताजिर 

1. किसा
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                                               किसा का शाब्दिक अर्थ  प्रतिशोध  है । अपराध कानून में इसका अर्थ जैसे को तैसा है । इस प्रकार मुस्लिम कानून व्यवस्था में बहुत से अपराध ऐसे थे जिनमें अपराधी को वही दंड मिलता था जो वह अपराध करता था । इस प्रकार की दंड व्यवस्था उन अपराधो के लिये थी जैसे जानबूझकर हत्या करना । किसी व्यक्ति को अंग भंग करना । इस दंड व्यवस्था के अनुसार उस व्यक्ति के संबंधी जिसके विरूद्व अपराध होता था। अपराधी के विरूद्व वही कार्य करते थे । यदि अपराधी किसी की हत्या कर देता था तो मृतक व्यक्ति के रिश्तेदार या संबंधी अपराधी की मृत्यु कर सकते थे । यदि अभियुक्त किसी की टांग तोड़ देता था तो दंड केे स्वरूप उसकी भी टांग तोड़ दी जाती थी । इस प्रकार का दंड अमानवीय था । 


2. दिया

                                                          इस दंड व्यवस्था के अनुसार अपराधी को कुछ धन क्षतिग्रस्त पक्ष को देना पड़ता था । सही दंड था । इसे ष्ष्रूधिर धनष्ष् भी कहा जा सकता है । यदि अनजाने में किसी व्यक्ति द्वारा अन्य को चोंट पहुंच जाती थी तो इस प्रकार की दंड व्यवस्था थी । इसका अर्थ है धन देकर अपराध मुक्त हो सकता था ।
                                                      कुछ अपराध इस प्रकार के भी थे जिनमें किसी को दिया में बदला जा सकता था । जैसे यदि किसी व्यक्ति की हत्या की है और मृतक व्यक्ति के संबंधी चाहे तो धन लेकर अभियुक्त को मुक्त कर सकते थे ।

3. हद
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                                          हद का शाब्दिक अर्थ ष्ष् सीमाष्ष् है । मुस्लिम अपराध शास्त्र में इसके अर्थ .अपराध के लिये दंड की सीमा है । इस नियम के पीछे अन्तर्निहित धारणा यह है कि विशेष प्रकार के अपराधों के लिये निश्चित दंड दिया जावेगा या निश्चित दंड की व्यवस्था होगी । खुदा के विरूद्व अपराध एसमाज के विरूद्व अपराधएऐसे ही अपराध थे जिनमें दंड की सीमा निश्चित थी ।
                                              न्यायाधीश को ही अभियुक्त के विरूद्व निश्चित दंड देना पड़ता था । यदि पत्थरों से मारते मारते किसी की हत्या करदी जाये तो उसके लिये दंड व्यवस्था नहीं हो सकती थी । कुछ ऐसे भी अपराध थे जिनमें बदले की दंड व्यवस्था नहीं हो सकती थी जैसे जिना । इस अपराध में भी दंड की सीमा निश्चित थी और अपराधी को 80 कोड़े लगते थे । इसी प्रकार की निश्चित दंड व्यवस्था उस व्यक्ति के लिये भी थी जो दूसरे की पत्नि के विरूद्व झूंठा जिना का आरोप लगाता था । हद की दंड व्यवस्था अत्यन्त कठोर थी । 


4. ताजिर


                                                            मुस्लिम अपराध शास्त्र में कुछ अपराध ऐसे भी थे जिनमें न्यायाधीश को अपने विवेक के अनुसार दंड देने की स्वतंत्रता थी। इस प्रकार के अपराध के अंतर्गत बन्दीगृह की सजा दी जाती थी । यदि कोई व्यक्ति किसी को अपमानित करता था तो उसके लिये भी ताजिर की व्यवस्था थी । ताजिर बहुत ही कम अपराधों के लिये व्यवस्थित किया गया था ।
                                                             इस प्रकार यद्यपि न्यायाधीश अभियुक्त को अपने विवेक से दंडित कर सकता था परन्तु विवेक लागू करने की सीमा थी । यदि आवश्यक्ता पड़ती थी तो दिया किसा इत्यादि को भी ताजिर में बदला जा सकता था । ताजिर के अंतर्गत ऐसे अपराध आते थे जिनकी प्रवृति समाज को दूषित करने की होती थी इसलिये कभी कभी अत्यन्त कठोर दंड भी दिया जाता था जिसे रियासत कहते थे। 

                                                    

भारत में कार्यरत विधि व्यवस्था

1ण् भारत में प्रारंभिक न्याय व्यवस्था
1ण् सन 1600 के पूर्व की न्याय व्यवस्था
2ण् सन्् 1600 के बाद 1947 तक न्याय व्यवस्था।
3ण् आदिकालीन वेदों पर आधारित न्याय व्यवस्था ।

2 भारत में स्थापित न्यायालय
1ण् चाउल्ट्री न्यायालय
2ण् मेयर न्यायालय
3ण् सुप्रीम कोर्ट
4ण् उच्च न्यायालय
5ण् संघ न्यायालय
6ण् प्रिवीकौंसिल

3 भारत में कार्यरत विधि व्यवस्था
1ण् अपराधिक कानून 1ण् मुस्लिम न्यायिक व्यवस्था
2ण् व्यक्तिगत कानून
 1ण् हिन्दूओ पर हिन्दू विधि
2 मुस्लिमो पर मुस्लिम विधि

4ण् भारत में विधि का संहिताकरण
1ण् विधि आयोग की अनुसंशा
2ण् लार्ट मैकाले की अनुसंशा

5ण् भारत में विधि पुस्तको का उद्गम
1ण् हिन्दू विधि
2ण् मुस्लिम विधि
3ण् आॅल इण्डिया रिपोर्टर
6 स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय न्याय प्रणाली
1ण् सुप्रीम कोर्ट
2ण् संविधान के अनुसार स्थापित न्यायालय