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शुक्रवार, 2 मई 2014

/विधि का शासन और न्याय प्रदान करने में आने वाली कठिनाईयां//

//विधि का शासन और न्याय प्रदान करने में आने वाली कठिनाईयां//
        विधि द्वारा स्थापित न्यायालयों को विधिक प्रक्रिया के अनुसार न्यायालय में विधि का शासन लागू किए जाने में अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है, जिसके कारण न्याय प्रशासन प्रभावित होता हैं । उपरोक्त कठिनायां निम्नलिखित हैंः-
        1. न्यायालय में कार्य की अधिकता ।
        2. न्यायालय में सभी गवाहों को खर्च नहीं दिया जाता है             क्योंकि वह कम होने के कारण जल्दी समाप्त हो जाता है ।
        3. निःशुल्क विधिक सहायता अयोग्य, अप्रशिक्षित, पैनल लायर             के माध्यम से दी जाती है ।
        4. सरकारी अधिवक्ता राजनैतिक प्रभाव से बनाए जाते हैं             इसलिए एक ही दिन में 15-20 प्रकरणों में कार्यवाही किए             जाने हेतु सक्षम नहीं होते हैं ।
        5. न्यायालय के पास प्रतिकर अदायगी हेतु खुद का कोई             फण्ड नहीं है, इसलिए प्रार्थी को इलाज हेतु पर्याप्त राशि             प्रदान नहीं की जा सकती है ।
        6. न्यायालय में फाईलों की संख्या अत्यधिक है, जिसके                 कारण न्यायाधीश निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार कार्यवाही नहंी             कर पाते हैं ।
        7. न्यायालय और न्यायाधीश राजनीति, मीडिया, प्रमोशन के             लालच में डर दबाव के कारण काम करते हैं ।
        8. बाल न्यायालय भी औपचारिकतापूर्ण एक दिन लगाया                 जाता     है, उसमें विशेषज्ञ की नियुक्ति नहीं होती है ।
        9. ग्राम न्यायालय भी केवल एक दिन लगाए जाते हैं और             ग्राम न्यायालय के अनुरूप ग्रामों में जाकर न्यायाधीश                 सुविधाओं के अभाव के कारण न्याय प्रदान नहीं करते हैं ।
        10. शासकीय गवाहों को सुरक्षा प्रदान नहंी की जाती है,             जिसके कारण वे डर दबाव के कारण अभियोजन का पक्ष             समर्थन नहीं करते हैं, जिसके कारण दोषी व्यक्ति न्यायालय             में छूट जाते हैं ।
        11.न्यायालय और न्यायाधीश पर डर दबाव बनाए जाने के             लिए झंूठे आरोप और शिकायतें की जाती हैं, जिसके कारण             न्यायाधीश स्वतंत्रतापूर्वक कार्य नहीं कर पाते हैं ।








भारत में विधि का शासन

 भारत में विधि का शासन

        एडवर्ड काॅक के द्वारा प्रतिपादित विधि के शासन को प्रोफेसर डायसी ने विस्तृत व्याख्या कर अर्थ स्पष्ट किया और प्रायः दुनिया के सभी देशों मंे उनके अभिमत को स्वीकार कर अपने संविधान का अभिन्न अंग बनाया है।

        विधि के शासन में सभी व्यक्ति विधि के समक्ष समान है और सभी का संरक्षण विधि बिना किसी भेदभाव के करती है लेकिन इसमें  वर्ग विभेद को विधि के विपरीत नहीं माना गया है और एक वर्ग विशेष और व्यक्ति के लिए भिन्न कानून और व्यवस्था की जा सकती है, जिसे युक्तियुक्त वर्गीकरण कहा जाता है । 

        विधि के शासन के अंतर्गत राज्य का प्रत्येक अधिकारी अपने आप को विधि के अधीन समझेगा और कानून का पालन करेगा । इसमें राज्य के तीनों अंग कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका तीनों कानून के अनुसार कार्यवाही किए जाने के लिए बाध्य है ।


        विधि के शासन के अंतर्गत व्यक्ति संबंधी सभी स्वतंत्रताऐं इसमें शामिल मानी गई है और इसे संविधान का महत्वपूर्ण अंग माना गया है । विधि के शासन के अंतर्गत राज्य कर्मचारियों के द्वारा संवैधानिक सीमाओं के अंदर अपनी कार्यपालक शक्तियों का प्रयोग किया जाएगा । यदि उनकेे द्वारा अपनी शक्तियों का प्रयोग नहीं किया जाता है या सीमा से अधिक किया जाता है तो जनता उनके आचरण को चुनौती दे सकती है और न्यायालय उनके आचरण में सुधार करेगें ।


        विधि के शासन के अंतर्गत सरकारी अधिकारियों को मनमाना विवेकाधिकार प्राप्त नहीं होंता है, किसी भी व्यक्ति के पास विवेकाधिकार की असीमित शक्तियां नहीं होती हैं। सभी व्यक्तियों को विवेकाधिकार का प्रयोग विधि के अनुसार दी गई शक्तियों के अंतर्गत करना होता है । 


        विधि के शासन के अंतर्गत सभी विधि के उल्लंघन करने वाले को दण्डित किया जाता है । सभी व्यक्तियों पर देश का संपूर्ण कानून लागू बराबरी से लागू होता है, कोई भी व्यक्ति विधि के उपर नहीं माना जाता है, किसी भी सरकारी अधिकारी-कर्मचारी, नेता को विशेष छूट नहीं होती है  ।    

     इस संबंध में 1959 में दिल्ली में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कमीशन आॅफ ज्यूरिस में भारत के संबंध में विधि के शासन को लागू किए जाने के लिए कमेटीयां बनाई गई थीं, जो निम्नलिखित हैं:-


        (1) व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा विधि का शासन
        (2) राज्य के संबंध में विधि का शासन
        (3) आपराधिक प्रशासन के संबंध में विधि का शासन
        (4) सुनवाई तथा परीक्षण  के संबध्ंा में विधि का शासन        
       
(1) व्यक्तिगत स्वतंत्रता और विधि का शासन लागू करने के संबंध में निम्नलिखित घोषणाऐं की गई हैंः-


1. राज्य पक्षपातपूर्ण विधि नहीं बनाएगा,
2.राज्य धार्मिक विश्वास पर हस्तक्षेप नहीं करेंगे,
3. राज्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर प्रतिबंध नहीं लगाऐंगे ।


(2) राज्य के संबंध में विधि का शासन लागू करने के संबध्ंा में निम्नलिखित घोषणाऐं की गई हैंः- 

1.राज्य द्वारा प्रभावशाली सरकार दी जाएगी,
2.राज्य सरकार विधि के अनुसार चलेगी,
3. राज्य सरकार व्यक्ति की सुरक्ष देगी,
4. राज्य द्वारा बुराईयों का अंत किया जाएगा ।


(3) आपराधिक प्रशासन के संबंध में विधि का शासन लागू किए जाने के संबंध में निम्नलिखित घोषणाऐं की गई हैंः-

1.बिना विधिक प्रावधानों के गिरफतार नहीं किया जाएगा,
2. आरोप साबित होने पर जांच एजेन्सी व्यक्ति को निर्दोष मानेगी
3. युक्ति को अपने विरूद्ध आरोप में सुनवाई  का पूरा अवसर दिया जाएगा
4. व्यक्ति का परीक्षण विधि अनुसार होगा ।

(4) सुनवाई तथा परीक्षण करने के संबध्ंा में विधि का शासन लागू किए जाने के संबंध में  निम्नलिखित घोषणाऐं की गई हैंः-ः-


1. न्यायालय स्वतंत्र रूप से कार्य करेंगी ।
2. न्यायालय और न्यायाधीश निष्पक्ष और निर्भिक होकर न्याय प्रदान करेंगे ।
3. .विधि का व्यवसाय स्वतंत्र रूप से किया जाएगा ।

        इस प्रकार विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार न्यायालय प्रशासन द्वारा न्याय प्रदान करना ही विधि का शासन है, जिसमें बिना डर, दबाव, पक्षपात के न्याय प्रदान किया जाएगा । इसके अंतर्गत कानून किसी के साथ विभेद नहीं करेगा, सभी पर समान रूप से लागू होंगा और सभी को समान और संपूर्ण संरक्षण प्रदान किया जाएगा ।
       


























 

पूर्व निर्णीत प्रकरणों के संबंध में

  पूर्व निर्णीत प्रकरणों के  संबंध में

    माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय की विशेष खंडपीठ में पाॅच जजो ने 2003 भाग-1 जे0एल0जे0 105 में पूर्व निर्णय के संबंध में सिद्धांत अभिनिर्धारित किये है, जिसमें मान्नीय मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा बलवीर सिंह (पूर्वोक्त) के मामले में पूर्ण न्यायपीठ के विनिश्चय में, जिसमें अभिनिर्धारित किया गया हैं कि यदि उच्चतम न्यायालय की दो समान अधिकारयुक्त न्यायपीठो के दृष्टिकोण में विरोध हो तब उच्च न्यायालय द्वारा उस निणर््ाय का अनुसरण किया जाना होगा जिसमें से प्रतीत हो कि विधि अधिक विस्तृत रूप और अधिक सही और अधिनियम की योजना के अनुरूप अभिकथित हैं, जिसे सही विधि न मानते हुए उसे इस बिंदु पर उलटा गया है । अतः  2001 रा नि 343त्र 2001  (2) एम पी एल जे 644  (पूर्ण न्यायपीठ) द्वारा उलटा गया ।
        इसके बाद ए.आई.आर. 2005 सुप्रीम कोर्ट 752 सेन्ट्र्ल बोर्ड आॅफ द्विवेदी बोरा कमेटी विरूद्ध महाराष्ट्र् राज्य के मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय के पाॅच न्यायाधीशगण के द्वारा पूर्व निर्णय के संबंध में दिशा निर्देश प्रतिपादित किये गये हैं जिसमें निम्नलिखित सिद्धांत अभिनिर्धारित किए हैं।
1-        उच्च न्यायालय के बारे में, एकल न्यायपीठ अन्य एकल न्यायपीठ के विनिश्चय से आबद्ध हैं।
2-         यदि एकल न्यायाधीश अन्य एकल न्यायपीठ के दृष्टिकोण से सहमत नहीं हो तब उन्हें उस मामले को बृहत्तर न्यायपीठ को निर्देशित करना चाहिए।
3-         इसी प्रकार खंड न्यायपीठ, पूर्वतर खंड न्यायपीठ के विनिश्चय से आबद्ध हैं ।
4-         यदि वह पूर्वतर खंड न्यायपीठ के विनिश्चय से सहमत नहीं हो तब उसके द्वारा मामला बृहत्तर न्यायपीठ को निर्देशित किया जाना चाहिए।
5-        समान सामथ्र्य की दो खंड न्यायपीठो के विनिश्चयों में विरोध की दशा में पूर्वतर खंड न्यायपीठ के विनिश्चय का अनुसार किया जाएगा, सिवाय तब जब उसे पश्चात्वर्ती खंड न्यायपीठ द्वारा स्पष्ट किया गया हो , जिस दिशा में पश्चात्वर्ती खंड न्यायपीठ का विनिश्चय बाध्यकर होगा ।
6-        बृहत्तर न्यायपीठ का विनिश्चय, लघुतर न्यायपीठों के लिए बाध्यकर हैं।
7-        उच्चतम न्यायालय के दो विनिश्चयों में विरोध की दशा में, जब न्यायपीठों में न्यायाधीशों की संख्या समान हो तब पूर्वतर न्यायपीठ का विनिश्चय बाध्यकर होता हैं, सिवाय तब जब समान संख्या की पश्चात्वर्ती न्यायपीठ द्वारा स्पष्टीकृत हो, जिस दशा में पश्चात्वर्ती विनिश्चय बाध्यकर होता हैं।
8-         बृहत्तर न्यायपीठ का विनिश्चय लघुतर न्यायपीठों के लिये बाध्यकर होता हैं। अतः पूर्वतर खंड न्यायपीठ का विनिश्चय, जब तब पश्चत्वर्ती खंड न्यायपीठ द्वारा प्रभेदित नहीं हो, उच्च न्यायालयों तथा अधीनस्थ न्यायालयों के लिए बाध्यकर है।
9-         इसी प्रकार, जब खंड न्यायपीठ के विनिश्चय तथा बृहत्तर न्यायपीठ के विनिश्चय विद्यमान हो तब उच्च न्यायालयों तथा अधीनस्थ न्यायालयों पर बृहत्तर न्यायपीठ के विनिश्चय बाध्यकर हैं।
10-        उच्चतम न्यायालय के विभिन्न विनिश्चयों में जो सामान्य सूत्र हैं वह यह हैं कि उस पूर्व निर्णय को अत्यधिक मूल्य दिया जाना होता हैं जो न्यायालय के विनिश्चयों में सामंजस्य तथा सुनिश्चितता के प्रयोजनार्थ न्यायालय द्वारा अनुसरित विनिर्णय के रूप में प्रवर्तित हो गया हैं । जब तक पूर्व निर्णय के रूप में प्रस्तुत किए गए विनिश्चय को न्यायालय द्वारा स्पष्टतः प्रभेदित नहीं किया जा सका हो अथवा वह कुछ ऐसे पूर्व निर्णयों को विचार में लिय बिना,अनवधानता के कारण दिया गया हो जिनसे न्यायालय सहमत हो।
   





       

विधि का शासन और न्यायपालिका की भूमिका


विधि का शासन और न्यायपालिका की भूमिका
           
        विधि के शासन का अर्थ विधि के द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार निष्पक्ष, निडर होकर पक्षपातरहित ढंग से न्याय प्रदान करना विधि का शासन कहलाता है,  न्यायालय को संहिताबद्ध विधि भारतीय दण्ड संहिता सिविल प्रक्रिया संहिता, दण्ड प्रक्रिया संहिता आदि के पालन में कोई बाधा नहीं है ।  जिसमें न्यायालय लिखित विधि के अनुसार कार्य कर विधि का शासन प्रदान करते हंै।
         लेकिन हमारे देश में अनेक जाति, धर्म भाषा के लोग हैं, जिनमें अनेक रूढी प्रथा और रीति-रिवाज विद्धमान है, जो विधि का रूप रखते ंहै, जैसे मुस्लिम विधि संहिताबद नहीं है, लेकिन मुस्लिम धर्म ग्रन्थ शरियत और कुरान के आधार पर कानून पर आधारित है । इसी प्रकार गौड़-भील, आदिवासी आदी जनजातियांें में भी सामाजिक रूढी प्रथा रीतिरिवाज प्रचलित हैं, जिसके अनुसार उनके यहां विवाह, तलाक, दत्तक, उत्तराधिकार की कार्यवाही होती है, जो न्यायालय में प्रमाणित होने पर विधि का रूप रखते हैं ।
        इसलिए जब न्यायालय द्वारा असंहिताबद्ध रूढीगत विधि को लागू किया जाता है तब न्यायालय को यह ध्यान रखना चाहिए कि वह संविधान के द्वारा प्रदत्त मूल और कानूनी अधिकारों का ध्यान रखते हुए विधि के समक्ष समता-समानता-संरक्षण, वर्ग विभेद, लिंगभेद, जातिभेद धर्मभेद को ध्यान में रखते हुए व्यक्तिगत स्वतंत्रता और प्राकृतिक न्याय तथा मानव अधिकार के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए न्याय प्रदान करे, यही विधि का शासन है ।
        व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संबध्ंा में मूल अधिकारों का उल्लंघन होने पर व्यक्ति को मूल अधिकारों के संबध्ंा में संविधान के द्वारा गारंटी प्रदान की गई है और भारत के उच्च और उच्चतम न्यायालय रिट जारी कर उनके अधिकारों को संरक्षण प्रदान करते हैं ।
        न्याय प्रशासन में विधि का शासन लागू करने में वरिष्ठ न्यायालय की महत्वपूर्ण भूमिका है और वे समय-समय पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता, गिरफतारी, संरक्षण आदि के संबंध में दिशा-निर्देश जारी कर न्यायालय, पुलिस प्रशासन आदि से संबंधित संस्थाओं को सचेत करते  रहते है, उनके द्वारा प्रतिपादित दिशा निर्देशों को लागू करना अधीनस्थ न्यायालय और राज्य का कर्तव्य है ।
        न्यायालयों में विधि का शासन प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका राज्य के प्रमुख अंग जिला कलेक्टर, न्यायिक मजिस्ट्रेट, कार्यपालिक मजिस्ट्रेट, पुलिस आदि की रहती है और सर्वप्रथम संज्ञेय अपराध घटित होने पर पुलिस द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करना अनिवार्य है और उसके पश्चात् उसकी जांच कर अभियोग पत्र पेश करना सुरक्षा एजेन्सीयों का काम है और प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकरण के साथ उसकी प्रतिलिपि धारा 157 द.प्र.सं. के अंतर्गत संबंधित न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजने के साथ ही  विधि का शासन और संरक्षण प्रभावशील हो जाता है ।
        आरोपी के गिरफतार होने पर उसे मान्नीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा डी.के.बसु के मामले में दी गई गाईडलाईन के अनुसार पुलिस के द्वारा गिरफतार किया जाता है, उसे गिरफतारी के कारणों की सूचना दी जाती है । उसके सगे-संबंधियों को गिरफतारी की सूचना से अवगत कराया जाता है और उसे पसंद के अधिवक्ता से सलाह लेने की छूट दी जाती है, इसके बाद उसे 24 घण्टे के अंदर न्यायालय के समक्ष पेश किया जाता है । उसके साथ गिरफतारी के दौरान अमानवीय व्यवहार नहीं किया जाता है, हथकड़ी-बेड़ी नहीं लगाई जाती है । उसे मारपीट कर प्रताडि़त नहीं किया जाता है ।
        आरोपी के गिरफतार होने के बाद व्व्यक्ति को जब सर्वप्रथम मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है तो मजिस्ट्रेट की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । वह आरोपी से पूछतांछ करता है, यदि उसके शरीर पर कोई चोट है, तो उसका मेडीकल करवाता है या वह अपना चिकित्सीय परीक्षण कराना चाहता है तो उसका चिकित्सीय परीक्षण कराया जाता है । इसके बाद उसे और अभियेाजन को सुनकर न्यायिक अभिरक्षा अथवा पुलिस अभिरक्षा में विधिक प्रावधानों के अनुसार भेजा जाता है ।
        मजिस्ट्रेट के द्वारा यदि गिरफतारी के दौरान मानव अधिकारों का उल्लंघन पाया जाता है तो उसका परिवाद मानव अधिकार न्यायालय के समक्ष मानवअधिकार अधिनियम की धारा 13 के अंतर्गत प्रस्तुत कर सकता है । निर्धारित समय अवधि  के लिए न्यायिक रिमांड और पुलिस रिमांड दिए जाने के साथ ही साथ जमानत के सबंध में आरोपी को सुना जाता है और उसे विधिक प्रावधानों के अनुसार जमानत प्रदान की जाती है अथवा निरस्त की जाती है  ।
        उसके बाद न्यायालय में चालान पेश होने पर आरोपी को चालान की नकल दी जाती है । यदि प्रार्थी इलाज के लिए सहायता चाहता है तो उसे सरकारी खर्च पर न्यायालय द्वारा इलाज कराने की सुविधा दी जाती है । आरोपी और प्रार्थी दोनों को निःशुल्क विधिक सहायता प्रदान किए जाने का प्रावधान है, ताकि कोई भी व्यक्ति बिना अभिरक्षा के विचारण का सामना न कर सके ।
        उसके बाद आरोप लगाए जाने के साथ ही विचारण प्रारंभ होता है और विचारण भी शीघ्र किए जाने पर ही विधि का शासन प्रभावशील होता है । विधि के शासन के अनुसार शीघ्र विचारण होना चाहिए, विचारण प्रारंभ होने के दौरान साक्ष्य अभिलेखन न्यायालय द्वारा किया जाता है और यह एक महत्वपूर्ण कार्य है, जिसमें न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने वाले साक्षियों की साक्ष्य घटना के संबध्ंा में अभिलिखित की जाती है ।
        न्यायालय में उपस्थित साक्षियांे को आने- जाने का खर्च दिया जाता है । अभियोजन साक्षी बिना डर दबाव के अपनी साक्ष्य प्रस्तुत करें इसलिए उन्हें सुरक्षा प्रदान की जाती है । इसके बाद आरोपी को आरोपी को बचाव का पर्याप्त अवसर दिया जाता है और उसे भी अपनी तरफ से बचाव साक्ष्य पेश करने का अवसर प्राप्त होता है । विचारण के दौरान उसके निर्दोष होने की उपधारणा की जाती है, जब तक कि वह दोषी नहीं ठहराया जाए, उसके निर्दोष होने की उपधारणा की जाती है । दस दोषी छूट जाऐं, परंतु एक निर्दोष को दोषी नहीं ठहराया जाए, इस बात को ध्यान में रखते हुए न्यायिक विचारण किया जाता है ।
        आरोपी के निर्दोष होने की उपधारणा के बाद विचारण प्रारंभ होने के बाद उसे बचाव और प्रतिरक्षा का पर्याप्त अवसर देकर उसके विरूद्ध आई साक्ष्य से अभियुक्त परीक्षण में अवगत कराकर उससे बचाव में साक्ष्य देने का अवसर प्रदान किया जाता है । यदि उसे लिखित में अंतिम तर्क प्रस्तुत किए जाने और उसे खुद की बाध्यता के साथ बचाव में साक्ष्य प्रस्तुत करने के प्रावधानों के साथ साक्ष्य का विश्लेषण कर निणर््ाय पारित किया जाता है ।
         निणर््ाय पारित होने के बाद आरोपी और प्रार्थी दोनों के हितों को ध्यान  में रखते हुए दण्डादेश पारित किया जाता है, जिसमें प्रार्थी को हुए नुकसान के लिए प्रतिकर और खर्च दिलाया जाता हैे । आरोपी को दण्ड इस उददेश्य के साथ दिया जाता है कि अपराध की पुनर्रावृत्ति न हो और उसे देखकर समाज में सुधार हो और अन्य कोई व्यक्ति पुनः इस प्रकार का अपराध करने की न सोचे ।
        विचारण के समय महिला संबंधी अपराधों में मान्नीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा साक्षी के मामले में प्रतिपादित गाईडलाईन का ध्यान रखा जाता है । प्रार्थी का नाम उजागर न हो, इस बात का ध्यान रखते हुए कैमरा ट्रायल की जाती है । विचारण के दौरान सुलह, समझौता, राजीनामा का प्रयास किया जाता है ताकि पक्षकारों में आपसी सामन्जस्य स्थापित हो और उनमें व्याप्त दुश्मनी, वैमनस्यता समाप्त हो ।
        इस प्रकार विधि द्वारा स्थापित न्यायालय विधिक प्रावधानों के अंतर्गत कार्य करते हुए विधि का शासन स्थापित करते हैं ।



















गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

पारिस्थितिक साक्ष्य

                         पारिस्थितिक साक्ष्य

.        न्याय दृष्टांत पडाला वीरा रेड्डी विरूद्ध आंध्र प्रदेश राज्य और अन्य, ए.आई.आर. 1990 एस.सी.79 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहा मामला पारिस्थितिक साक्ष्य पर आधारित होता है वहा ऐसे साक्ष्य को निम्नलिखित कसौटियों को संतुष्ट करना चाहिए:-

(1)    वे परिस्थितिया जिनसे दोषिता का निष्कर्ष निकाले जाने की ईप्सा की गई है, तर्कपूर्ण और दृढ़ता से साबित की जानी चाहिए,

(2)    वे परिस्थितियां निश्चित प्रवृत्ति की होनी चाहिए जिनसे अभियुक्त की दोषिता बिना किसी त्रुटि के इंगित होती हो,

(3)    परिस्थितियों को संचयी रूप से लिए जाने पर उनसे एक श्रृंखला इतनी पूर्ण होनी चाहिए कि इस निष्कर्ष से न बचा जा सके कि समस्त मानवीय संभाव्यता में अपराध अभियुक्त द्वारा कारित किया गया था और किसी अन्य व्यक्ति द्वारा नहीं, और

(4)    दोषसिद्धि को मान्य ठहराने के लिए पारिस्थितिक साक्ष्य पूर्ण होनी चाहिए और अभियुक्त की दोषिसिद्धि से भिन्न कोई अन्य संकल्पना के स्पष्टीकरण के अयोग्य होनी चाहिए और ऐसा साक्ष्य न केवल अभियुक्त की दोषसिद्धि के संगत होनी चाहिए अपितु यह उसकी निर्दोषिता से भी असंगत होनी चाहिए।’’


2.        न्याय दृष्टांत उत्तर प्रदेश राज्य बनाम अशोक कुमार, 1992 क्रि.ला.ज. 1104 के मामले में यह उल्लेख किया गया था कि पारिस्थितिक साक्ष्य का मूल्यांकन करने में गहन सतर्कता बरती जानी चाहिए और यदि अवलंब लिए गए साक्ष्य के आधार पर युक्तियुक्त रूप से दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हों तब अभियुक्त के पक्ष वाला निष्कर्ष स्वीकार किया जाना चाहिए।

 यह भी उल्लेख किया गया था कि अवलंब ली गई परिस्थितिया पूर्णतया साबित हुई पाई जानी चाहिए और इस प्रकार साबित किए गए सभी तथ्यों का संचयी प्रभाव केवल दोषिता की संकल्पना से संगत होना चाहिए।

3.        माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने देवनंदन मिश्र विरूद्ध बिहार राज्य, 1955 ए.आई.आर. 801 के मामले में यह विधिक प्रतिपादन किया है कि जहा अभियुक्त के विरूद्ध अभियोजन द्वारा विभिन्न सूत्र समाधानप्रद रूप से सिद्ध कर दिये गये हैं एवं परिस्थतिथिया अभियुक्त को संभाव्य हमलावर, युक्तियुक्त निष्चितता और समय तथा स्थिति के बाबत् मृतक के सानिध्य में बताती है, अभियुक्त के स्पष्टीकरण की ऐसी अनुपस्थिति या मिथ्या स्पष्टीकरण अतिरिक्त सूत्र के रूप में श्रृंखला को अपने आप पूरा कर देगा। स्पष्टीकरण के अभाव अथवा मिथ्या स्पष्टीकरण को श्रृंखला पूरा करने वाली अतिरिक्त कड़ी के रूप में उस दषा में प्रयुक्त किया जा सकता है, जबकि:-

(1)    अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य से श्रृंखला की विभिन्न कडिया समाधानप्रद रूप से साबित कर दी गयी हों।

(2)    ये परिस्थितिया युक्तियुक्त निष्चितता के साथ अभियुक्त की दोषिता का संकेत देती हों, और

(3)    यह परिस्थितिया समय की स्थिति की दृष्टि से नैकट्य में हो।

4.        इस क्रम में न्याय दृष्टांत शंकरलाल ग्यारसीलाल दीक्षित विरूद्ध महाराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 1981 सु.को. 765 भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है।

 न्याय दृष्टांत महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध सुरेश (2000)1 एस.सी.सी. 471 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि दोषिता-कारक परिस्थिति के विषय में पूछे जाने पर अभियुक्त द्वारा उसका असत्य उत्तर एक ऐसी परिस्थिति को निर्मित करेगा जो परिस्थिति-जन्य श्रृंखला की गुमशुदा कडी के रुप में प्रयुक्त की जा सकेगी।




1  पारिस्थितिक साक्ष्य के मूल्यांकन के संबंध में इस विधिक स्थिति को ध्यान में रखना आवश्यक है कि जहा साक्ष्य पारिस्थितिक स्वरूप की होती है, वहा ऐसी परिस्थितिया, जिनसे दोष संबंधी निष्कर्ष निकाला जाना है, प्रथमतः पूरी तरह से साबित की जानी चाहिये और इस प्रकार से साबित किये गये सभी तथ्यों को केवल अभियुक्त के दोष की उपकल्पना से संगत होना चाहिये। पुनः परिस्थितियों को निश्चयात्मक प्रकृति और प्रवृत्ति का होना चाहिये और उन्हें ऐसा होना चाहिये, जिससे कि दोषिता साबित किये जाने के लिये प्रस्थापित उपकल्पना के सिवाय अन्य प्रत्येक उपकल्पना अपवर्जित हो जाये। अन्य शब्दों में साक्ष्य की ऐसी श्रंखला होनी चाहिये, जो इस सीमा तक पूर्ण हो, कि जिससे अभियुक्त की निर्दोषिता से संगत निष्कर्ष के लिये कोई भी युक्तियुक्त आधार न रह जाये और उसे ऐसा होना चाहिये, जिससे यह दर्शित हो जाये कि सभी मानवीय अधिसंभाव्यनाओं के भीतर अभियुक्त ने वह कार्य अवश्य ही किया होगा,

 संदर्भ:- हनुमंत गोविन्द नारंगढ़कर बनाम म.प्र.राज्य, ए.आई.आर. 1952 एस.सी. 3431,

 चरणसिंह बनाम उत्तरप्रदेश राज्य, ए.आई.आर. 1967(सु.को.) 5201 एवं आशीष बाथम विरूद्ध म.प्र.राज्य 2002(2) जे.एल.जे. 373 (एस.सी.)।







’हेतुक’

                                ’हेतुक’


                                          ’हेतुक’  एक गुह्य मानसिक स्थिति है, जो मनुष्य की उपचेतना  में निवास करती है। इसके द्वारा ही मन कार्य की ओर अग्रसर होता है।

 विधि शास्त्री सामण्ड ने इसे अंतरस्थ आषय की संज्ञा दी है। ’हेतुक’ वह भीतरी प्रेरणा है, जो किसी कार्य के लिये गुप्त रूप से मन को उकसाती है। अंतःपरक होने के कारण ’हेतुक’ को प्रमाणित करना कठिन होता है, क्योंकि उसकी जानकारी केवल अपराधकर्ता को ही होती है।

 विधि का यह सुनिष्चित सिद्धांत है कि जहा हत्या के संबंध में अभियुक्त के विरूद्ध निष्चित, संगत, स्पष्ट एवं विष्वसनीय साक्ष्य उपलब्ध हो, ऐसी परिस्थितियों में हत्या के ’हेतुक’ को प्रमाणित करना महत्वपूर्ण नहीं रह जाता है
, संदर्भ:- अमरजीतसिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, 1995 क्रि.ला.रि.(सु.को.) 495 ।

 जब हत्या का अपराध साक्ष्य से भली-भाति प्रमाणित हो तब ’हेतुक’ प्रमाणित करना अभियोजन के लिये आवष्यक नहीं है, 
संदर्भ:- सुरेन्द्र नारायण उर्फ मुन्ना विरूद्ध उत्तर प्रदेष राज्य, 1197 ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू. 4156 ।


 न्याय दृष्टांत दिल्ली प्रषासन विरूद्ध सुरेन्द्र पाल जैन, उच्चतम न्यायालय निर्णय पत्रिका 1985 दिल्ली-333 में इस क्रम में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि मानव प्रकृति एक अत्यधिक जटिल चीज है। कोई व्यक्ति क्या करता है, यह अनेक बातों पर निर्भर होता है।

 ऐसे मामले भी हो सकते हैं, जहा ’हेतुक’ पता चल जाये किन्तु ऐसे मामले भी हो सकते हैं, जिनमें ’हेतुक’ का कतई पता न चले। ’हेतुक’ के सबूत का अभाव अपने आप में उन निष्कर्षों को अस्वीकार करने के लिये विकल्प प्रदान नहीं करता है, जो अन्यथा तथ्यों और साक्ष्य के समूह से युक्तियुक्त एवं न्यायोचित रूप से निकाले जा सकते हों।






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1.        अभिग्रहित वस्तुओं पर रक्त की मौजूदगी तथा उसकी प्रजाति एवं प्रवर्ग संबंधी साक्ष्य के मूल्य के विषय में विधिक स्थिति की तह तक पहुचने के लिये कतिपय न्याय दृष्टांतों का संदर्भ आवष्यक है।

 जह कंसा बेहरा विरूद्ध उड़ीसा राज्य, ए.आई.आर. 1987 सु.को. 1507 के मामले में अभिग्रहीत वस्तुओं पर पाये गये रक्त समूह का मृतक के रक्त समूह से समरूप पाया जाना एक निर्णायक व निष्चयात्मक दोषिताकारक परिस्थिति माना गया है,


  पूरनसिंह विरूद्ध पंजाब राज्य, 1989 क्रिमिनल ला रिपोर्टर एस.सी. 12 के मामले में अभियुक्त से अभिग्रहीत वस्तु पर सीरम विज्ञानी द्वारा प्रतिवेदित मानव रक्त की मौजूदगी को, जिसके रक्त समूह का पता नहीं लग सका था, पर्याप्त संपुष्टिकारक साक्ष्य माना गया।



 न्याय दृष्टांत रामस्नेही विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1984 एम.पी.डब्ल्यू.एन. 342 के मामले में अभिग्रहीत वस्तुओं पर केवल रक्त की उपस्थिति, जिसके स्त्रोत का पता नहीं लग सका था, को भी संपुष्टिकारक साक्ष्य माना गया है।


 माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने राजस्थान राज्य विरूद्ध तेजाराम, 1999 (भाग-3) सु.को.केसेस 507 के मामले में यह सुस्पष्ट विधिक प्रतिपादन किया गया है कि यह नहीं कहा जा सकता है कि उन सभी मामलों में जहा रक्त के स्त्रोत का पता नहीं चल सका है, अभिग्रहीत वस्तु पर रक्त की उपस्थ्तिसे प्रकट परिस्थिति को अनुपयोगी मानकर रद्द कर दिया जायेगा।